
समकालीन हिंदी कविता परिसर में पिछले कुछ वर्षों में प्रिया वर्मा ने अपनी सशक्त कविताओं के माध्यम से अलग पहचान बनाई है। जीवन को समग्रता में देखने का यह तरीका ही उन्हें किसी फ्रेम में आबद्ध नहीं करता। विराट का यह सौन्दर्य उनकी कविताओं में मौजूद है। उनके यहां द्वंद्व है तो दृढ़ता भी है। विराग है तो राग भी है। उदासीनता कहीं झलकती भी है तो थकान नहीं है। कई बार तो मोहभंग की स्थिति उपजती है फिर भी सारे दुःखों को झाड़कर कविता निर्दिष्ट पथ पर चल देती है।
प्रस्तुत कविताएं तो कुछ बानगी भर हैं। अनहद कोलकाता इन कविताओं का स्वागत करता है।
कुछ शीर्षक हीन कविताएँ
1
एक दिन सपने देखना छोड़ दूंगी।
और सोऊंगी
और कुछ चलेगा भी अगर
मुंदी पलक अंदर
साइकिल के पहिए जैसा
उसे याद नहीं रखूंगी
ध्यान में नहीं लाऊंगी।
जो कभी कुछ याद आया
तो सबसे पहले याद कोई बच्चा ही आएगा
अपने अंदर का
पर उस बच्चे की आवाज़
याद नहीं आएगी ।
शिकायत छूट जाएंगी
क्योंकि जिस थैले में उसे भर दिया करती थी
एक दिन बोझ के बढ़ने से
मैं जान जाऊंगी कि
थैला दरअसल मेरा भ्रम था।
कहीं कोई मजबूती नहीं पाकर
मैं थकना तक छोड़ दूंगी।
चलती जाऊंगी। चलती ही।
जब पिंडलियां हार जाएंगी
मैं रुक जाऊंगी
नींद लगेगी और सो जाऊंगी।
आँख की मछलियां
जैसे ही समय के पानी में से
उछल कर बाहर आ जाएंगी
मैं जाग जाऊंगी। और जागी रह जाऊंगी।
आधी हो या पूरी
कपड़े के परदे की तरह रात को
मैं फिल्म देखने का सामान नहीं मान पाऊंगी।
जान जाऊंगी कि
वे लोग जिन्हें कोई प्रेम नहीं करता
उनके अंदर से
वह ईंधन,
एक दिन चुक जाता है,
जो उन्हें चलाता है।
2
बूंदों की तरह बरस रहा है आदमी
इतना धारासार चारों ओर
कि दिशाओं में नहीं समा रहे दृश्य
दृश्य में दृश्य आदमी में आदमी बूंदों में आदमी
कभी प्यार के खो जाने पर रोता हुआ आदमी बारिश की बूंदों के बीच खुद को रखता है
और यह कितनी आम बात है
इतनी कि दिखती नहीं
जैसे नहीं दिखती बूंद
नहीं दिखते आदमी
बढ़ती जाती हैं बूंदें
पानी की
वीर्य की
रक्त की
पैसे की
नमक की
पसीने की
आंसू की
लगातार बरसती रोशनी की
निगलते शोर की
बूंदें
आदमी नहीं बूंदें हैं चेहरों के समुद्र में परिचय की शार्क मछली
उछाल मारती है
बूंद है कि आदमी
3
उम्र गुजारना
किसी के दूर चले जाने के बाद
जैसे एक तपते हुए साल और
अदल-बदल करते चार मौसमों में
किसी उजली किरन की
फिज़ूल नापी हुई लंबी दूरी —
जो मंज़िल तक
कभी पहुंचेगी या नहीं
किसी को — पता नहीं
क्या होती है दूरी
एक प्रकाश-वर्ष की
मेरे जैसे बंधक के लिए
जबकि पार नहीं होता
एक दिल से दूसरे दिल के बीच
चुप्पी का फासला भी
तो एक ग्रह से दूसरे का फासला कोई क्यों नापता है ?
बचपन के दायरे से बाहर
यह समझने के लिए
तोड़ी
रेजगारी भरी गुल्लक
खोया एक भोला भ्रम
दूर गई प्रेमी की टटकी कल्पना से
सहनीय दुख का अंजन भरकर रखा आँखों में
जैसे पेड़ के तने
दिन भर
दिनों भर
थामे रखते हैं भूमि
दूर जाते हुए समय को देखते
सीखा
पहचानना और जानना
कि क्या होता है
पहले एक दिन दूर होना
फिर छह महीने, साल दो साल
और धीरे- धीरे वहाँ पहुँचना
जहाँ से वापसी नहीं।
जहाँ सारे चेहरे बेआवाज़ हैं
और आवाज़ें बेचेहरा
4
कहीं नहीं रहती
जो मुझसे पूछते हैं कहाँ रहती हूँ?
उनके सामने मैं चुप में रहती हूँ
पर चुप भी कहां रहती हूँ!
देखे हुए को उधेड़ती हूँ और बुनती रहती हूँ
मेरी आँखें धूप में मिंचने को होती हैं
पर ततैयों के डर से एकटक खुली आँख रहती हूँ
जब वह कहता है मैं अच्छी कविता करती हूँ
तब चीखना चाहती हूँ।
चीखती हूं लेकिन चाहना छोड़ देती हूँ
और चीख रुकते ही अगले क्षण में फिर चाहने लगती हूँ
मैं नहीं कह पाती कुछ
फिर भी, कुछ – कुछ कहती रहती हूँ
पत्तियों की खड़कन की तरह मेरे सीने में भी कुछ बजता रहता है
यह धड़कन है
जिसे कोई नहीं सुनता
एक मृत्यु के बाद मैं जानती हूँ
कि जब बंद हो जाती है धड़कन
तब कोई कोशिश करता है
कि सुनने के लिए छाती पर सटने के लिए कई जोड़े कान आगे बढ़ आते हैं
और धड़कन है कि कह नहीं पाती
कि मैं यहीं थी
कुछ देर हुई
चली गई हूँ।
औसत होना!
ज़िंदगी के इतना क़रीब है औसत होना।
कि है
तमाम खाँचे हैं
अच्छे बुरे के, खट्टे मीठे के
सही गलत और खूबसूरत के
बड़प्पन की माया के बाहर संसार
कोई मोड़ जहाँ
मुड़ती है नज़र
पिछला सब दिखता है
खाने में नमक जैसा
होता हुआ भी नहीं
इसलिए महज़ आदत बन गया
ऐसे देखना
जैसे प्यास के क्वथनांक तक पहुंचने से पहले
हो जाना मयस्सर
गिलास भर पानी
जो चपरासी ने सामने लाकर रख दिया
ऐसे बैठना
जैसे तुम खिड़की हो दुमंजिले में
और परदे लगाए हों तुम पर
छनी धूप छनी हवा और पुराने ज़माने के छज्जे
अब कौन देख पाता है
ऐसे कि हस्पताल के किसी कमरे में चार और लोगों के साथ
मरीज़ को देखने का नाटक
ढांढस बंधाना झूठ- मूठ
इतना औसत
जैसे घड़ी में रात का नौ बजना और मेज पर खाना परोस दिया जाना
जूते के तस्मे
कसे और ढीले के बीच ऐसे बंधे होना
कि दिन भर पांव का ध्यान ही न आना
कि जूते फीते वाले पहने थे आज तुमने
ऐसे जैसे नदी, जंगल, पहाड़ और पड़ोस का कोई बाशिंदा
जिसने खोली है चाय की नई रेहड़ी
सैलानियों के लिए
और जैसे मैं खुद भी
औसत
तुम्हारे घर पर या
कि कहीं ज़िंदगी में
हूं भी कि नहीं हूं
या तो याद नहीं। या दिखती नहीं।
या मुझे देखो
या मेरे अतीत को देखो
दो नहीं चार आँखें हैं तुम्हारी
एक बार में एक ही जगह पर रहो
और देखो, और देखो
मुझे देखो चाहे उसे देखो
या मेरे या उसके अतीत को देखते हुए
या मुझे या उसे मत देखो
अतीत का जीव कितनी बार मरा
कितनी बार जन्मा
जानने जाओ डूब जाओ संख्या की लुगदी के समुद्र में
मिट्टी के गीलेपन में केंचुए की गति पाने से अच्छा
है जो सामने दृश्यमान, उस के हो जाओ
है दृश्य में हावभाव जो, उस के पार जाओ, जासूसी मत करो
इसी से छिपती हैं तुमसे तुम्हारी दो और आँखे, आँखें नहीं मिलातीं
इसी से तुम्हें होता नहीं भान, तुम्हारे सिवा
ग्रह नक्षत्रों के भंवर अन्तर,
अन्य है नहीं
मेरे भीतर जितने तुम हो उसे देखो
छुओ उस से मोह करो उसका नाम धरो
जो मेरे भीतर किसी पहले/तीसरे/ चौथे की तलाशी करो-
तो भटक जाओ.
उन्हें कौन याद रखेगा!
सूखे पत्तों से गछा हुआ है रास्ता
पेड़ की टहनियों पर पल्लव मुस्कुरा रहा है
पतझड़ के साथ यह बसन्त है
वयस्क की पीठ पर जैसे लदा हुआ है शैशव
कपट से भरा मेरा मन कह रहा है –
अब चला जाए
यहाँ रहा न जाए
किसी को याद आया जाए
किसी एकान्त को सताया जाए
कह रहा है
जो रहस्य है
पतझड़ के सौंदर्य का
जान गया है
न होना, होने से अच्छा है.
किन्तु वयस्क की पीठ की छिलन का कोई गवाह नहीं
न ही उन पत्तों की टूटन में आवाज़ की पुनरावृत्ति है
जो इस पतझड़ में हैं
अगले पतझड़ तक नहीं रहेंगे
उन्हें कौन याद रखेगा!
* मुझसे नहीं होगा
हर बार कोई जादू अब मुझसे नहीं होगा
यह भी नहीं कि नमक के स्वाद के लिए समुद्र के खेत की कल्पना में प्रेम का प्राण फूंक दूँ –
नहीं होगा।
साँस कहाँ से लाऊं अतिरिक्त
इतनी शक्तियों की?
जितना जन्मा था जादू, सब इन खाली जगहों में भर गया है
एकांत साझा बचत खाते- सा हो गया है ।
स्मृति होकर चला आता है क्या – क्या
सिर उठाए धड़धड़ाता बिन खटखटाए
अच्छा है कि स्पर्श अभी सभ्य नहीं हुआ है
जन्म, मृत्यु और भय की तरह
प्रेम हो गया है।
दीवार की जैसे अपनी नब्ज़ है
सपना है
और खोया हुआ पल बिछ जाता है तलवों की नदी के नीचे बनकर बिस्तर
मगर एक छुट्टी नहीं
ऐसा कोई दिन नहीं कि जिसमें सो सकूं
आठ घण्टे बेखटक
खो सकूं
अकेले में
किसी घाट मेले में
जाऊं भटक
तुम्हारी देह में
कि तुम्हारे कपार के सिवा
अब मैं कहीं और नहीं रहती
तुम्हारा मस्तक है
जिसमें मुझे मेरा पता मिल गया है
जबकि अपने अदद घर का पता नहीं है पता
एक कस्बाई शहर में भागते- देह में घूमते
पांच लीटर खून भी अब गाढ़ा हो चला है
दिल इतना भर गया है कि भारी हो चला है
भाषा में कहूं तो थकने लगी हूं।
शब्द राह भूले अगर लौट आए हों घर के भीतर
खुद को कोसने से भी क्या होगा
कि मुझसे नहीं उठाया जाता अब
ख़ुद-मुख़्तारी का जोख़िम
डर है कि कहीं किसी एक धर्म की होकर न रह जाऊं
हो जाऊं धूल धूसर
जैसे चंद्रमा किसी पूर्णिमा का
पूरा खिला फूल धीरे धीरे भूलता हुआ
किसी गलती का रंग
लाल – गुलाबी – सफ़ेद – मटियाला पड़ता हुआ
मिट जाता है होना इस जादू का भी एक दिन
फ़ोन की घंटी पर साथी की ख़ैरियत पूछने का जादू
तारों की छांह में पुरखों को सोचने का जादू
बादलों के भार में अपनी रुलाई ढूंढने का जादू
आँखों में झाँकने का जादू
खुद को आँकने का जादू
अब मुझसे नहीं होगा।
* यह शीर्षक श्रीकांत वर्मा की प्रसिद्ध कविता “समाधि-लेख” की पंक्ति के अंश से अनायास ही मेल खा गया है, इसलिए अपने प्रिय कवि से पाठोत्तरी क्षमा चाहती हूं।
प्रिया वर्मा समकालीन कविता की एक सशक्त आवाज हैं। हाल ही में उनका कविता संग्रह स्वप्न के बाहर पाँव नाम से प्रकाशित होकर आया है।
कवि परिचय
जन्मतिथि:- 23 नवंबर
जन्म:- बीसलपुर पीलीभीत
शिक्षा:- परास्नातक (अंग्रेज़ी साहि.)
संप्रति :- अध्यापन
वर्तमान निवास:- सीतापुर (उत्तर प्रदेश)
कविता, कहानी, अनुवाद व आलेख विधा में कार्यरत
कविता संग्रह स्वप्न के बाहर पाँव रज़ा पुस्तकमाला की प्रकाशवृत्ति द्वारा बोधि प्रकाशन से 2023 में प्रकाशित।
वर्ष 2023 का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त कवि।