दिव्या श्री हिन्दी की युवतर कवि हैं और पिछले सालों में अपनी संवेदनात्मक एवं प्रेम विषयक कविताओं से हिन्दी जगत का ध्यान अपनी ओर खींचा है। इनकी कविताएँ बहुत पहले पढ़ने की बात थी लेकिन अनहद कोलकाता की वेबसाइट में आई तकनीकी खराबी के कारण हम इनकी कविताएँ न पढ़ पाए थे। लेकिन यह खुशी की बात है कि अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस से शुरू हुई एक विशेष श्रृंखला के तहत आज हम उनकी कविताएँ प्रस्तुत कर रहे हैं। उनकी कविताओं एक ओर लड़कियाँ हैं जो समय के साथ चलने हेतु संघर्ष रत हैं तो दूसरी ओर बसंत और ख्वाहिशें भी हैं। वे यह भी कहने का जोखिम उठाती हैं कि नदियों को पानी ने ही मारा है। अस्तु।
रोज कैम्पस में प्रवेश से पहले अपना चेहरा देखती हैं
चारों एक से बढ़कर एक खूबसूरत है
जैसे चार फूलों के पौधे एक ही कतार में हो
मेरी नजरें रोज उससे टकराती हैं
और उसकी हँसी की सलामती में
दो पंक्ति मन ही मन बुदबुदा जाती हूँ
वह दुनिया की सबसे सुंदर लड़कियों की क़तार में हैं
यह कहते हुए खारिज नहीं कि मैं भी एक लड़की हूँ
मुझे मोह है उसकी सुंदरता से अधिक
उसके बिंदास जीवन से
वह जानती है चुटकियों में जवाब देना
और हवा में एक हाथ हिलाते हुए
दूसरे हाथ की मुट्ठी बांधे आगे बढ़ जाना
मैं जानती हूँ कीमत एक हाथ के मुट्टी खुल जाने का
दुआ करती नेपथ्य में उसकी ज़ंजीर सलामती की
अतीत झटके से सिरहन पैदा करता है
और वे सारे चेहरे आँसुओं की झड़ी बनकर
बहने को हो जाते हैं आतुर
मैं एकपल को खामोश
पास अमलतास के नीचे बैठती हूँ
अतीत उसकी गर्माहट में और पकते जाता
मैं खुद को समेटते हुए कहती– उसका वसंत शेष रहे
खिला रहे गुलमोहर यूँ ही अपनी लाली के साथ।
वसंत
हो चुका है वसंत का आगमन
प्रेमियों के बीच है गहमा-गहमी
उत्सवों का उत्साह दिख रहा दृश्यों में
हवाएं हो गई हैं महकती गुलाब-सी
युवा जोड़ों की भीड़ से सजी है महफिलें
प्रेम संगीत बज रहा जोर-शोर से
भौरें गुनगुना रहे हैं
तितलियां फूलों संग लीन है प्रेम में
इसी बीच वे सुना रहे हैं अपनी प्रेम कविता
प्रेयसी की जुल्फों में हाथ घुमाते हुए
जिसकी भाषा है चुप्पी
चुप्प होना शब्दों का न होना
या संदेहास्पद नहीं होता
प्रेमियों की परिचित भाषा होती है यह
जिसके होने से होते हैं कई अंतरंग संवाद
जैसे-
फूलों की भाषा समझती है तितलियां
माएँ समझती हैं बच्चों की भाषा
नदी की भाषा जानता है केवल पानी
सीप की भाषा उसकी मोती
इसी तरह प्रेमियों की भाषा का राज़दार है केवल प्रेमी
कवि की दृश्यों से बाहर है वह लिपि
प्रेम में कवि होने की संभावना है बहुत हद तक
पर ज़रूरी नहीं कवि प्रेमी हो।
देह ही केवल
गहन अंधकार में भी रहे ओजपूर्ण
क्योंकि मध्य था हमारे प्रेम
हम सिसकियों में रहे रोते
जबकि चलता रहा अंदर समुंदर-सा तूफ़ान
हमारे मध्य प्रेम था कि प्रेम मध्य हम
सो डरते रहे लोक से
जबकि हमारे होने से लेकर बनने तक में है लोक
राग-द्वेष का मोह पाले बिन
हम प्रेम पथिक चलते रहे किनारे
उस जगह की खोज में
जहाँ न हो प्रेम अतिरिक्त कुछ और!
अबके गर बिछड़े तो देह ही केवल
हृदय के स्पंदन में कोई भेद नहीं
काँटे से घिरे फूलों में सुंगध बताती है
छाती नासूर हो फिर भी खिलता है प्रेम
सो बिछड़कर भी रहेंगे इसी लोक में
साँसे टकराएगी, याद करेंगे
भरेंगे खाली पन्नों पे कुछ रंग
लिखने को तो लिखेंगे कई खत
मगर दूभर यह कि खत में क्या-क्या लिखेंगे
भरी दोपहर करेंगे संवाद
उसी कदम के पेड़ के नीचे
हम जियेंगे जगह-जगह
मगर मुक्त वहीं होंगे
हम प्रेम में रात होने की कामना से पहले
दिन में खेलेंगे छुपन-छुपाई
जो ढूँढ लिया तो रात हमारी
गर बिछड़ गए तो हम रात की।
ख़्वाहिशें
इतनी सारी किताबें पढ़ने के बाद
बाद इतने सारे लोगों से मिलने
शहर-शहर घूमा
कभी दिल्ली की सड़कों पर घंटों पैदल चली
पटना का हर एक गलियारा छान मारा
मलाल है सबसे कम जाना तो अपना गाँव
जहाँ एक पूरा जीवन बीता है
एक कवि का घर देखा, लेखकों से मिली
कोर्ट कचहरी का चक्कर लगाकर देख ही लिया
स्कूल-कॉलेज तो एक घर रहा
जहाँ आधा जीवन बीता, पूरे की उम्मीद में
बड़े से बड़े रेस्टोरेंट में सहेलियों संग मार ली गप्पियाँ
खा लिये मनपसंद व्यंजन
और गैलरियों को कर लिया थोड़ा और समृद्ध
बड़े शाॅप से ब्रांडेड खरीदने की ख्वाहिशें भी हो गई पूरी
पर अबके ख़्वाहिश है मिलने की
उन सभी पात्रों से, जिनसे सीखा है जीवन जीना
और जबसे पढ़ी हूँ जेम्स जॉयस की कहानी ‘डबलिनर्स’
उसे जानने की इच्छा भी हुई है बलवती
मेरी इच्छाओं में अब केवल यात्राएँ शामिल हैं
जिन्हें मैंने देखा है अपनी प्रिय किताबों में
मेरी आँखें बंद होने से पहले देखना चाहती है
अपने प्रिय लेखकों का शहर, उनका देश
उनसे मिलना चाहती है उनके ही शहर में।
वसंत विहीन जीवन
मर क्यों नहीं जाती
जो इतने दुःख मिरे ही हिस्से लिखे हैं
जबकि मैं मर-मर कर जीने के लिये ही शापित थी
अपने पूर्व जन्म से ही
यह क्या सोच रही हूँ मैं वक्त-बेवक्त
कि खुद को कितना खत्म किया
जबकि सोचना था कब तक का बाकी बचा सफर है यह
यह जानने के बाद कि साथ आगे का रास्ता नहीं है
भटकने का सौंदर्य कोई पूछे मुझसे
अकेले चलने का भी सुख कम नहीं होता
मैंने सीखा है योगियों से
वह ईश्वर के प्रेम में था
प्रेमी भला कब तक देते हैं साथ
साथ तो प्रेम देता है
जिसकी कल्पना में ही बीत जाते हैं साल दर साल
कितने दिनों से यह प्रश्न कौंध रहा है बार- बार
कि प्रेम का अवशिष्ट क्या ही है अतिरिक्त दुःख के
जबकि सुख भी होना था
हमने सुख को अपने ही हाथों मिटाया बारंबार
दुःख की नई परिभाषा गढ़ने हेतु
अब दुःख है कि साथ छोड़ता ही नहीं
जबकि वसंत जीवन का साथ कब का छोड़ चुका है
अब जाकर सोचती हूँ मैं
ठूंठ पेड़ पे चिड़ियां तो आती नहीं
वसंत विहीन जीवन में प्रेम क्या खाक आयेगा।
नदियों से पूछना उसे पानी ने ही मारा है!
सरल होना उतना ही कठिन है
जितना कठिन है कठिन शब्द
मृत्यु जीवन में कई दफ़ा आती है
पर अपनी उम्र का ख्याल रखते हुए
यूँ भी मौत कब किसे मारती है
मारता तो जीवन है
नदियों से पूछना उसे पानी ने ही मारा है!
मंदिर में देवता नहीं
पुजारी बसता है
कितना हास्यास्पद है—
फूलों का गला घोंटकर
ईश्वर को आभूषित करना
और खुश होना!
कभी उन फूलों से पूछना
जिन्हें उनकी सुंदरता ने मारा है
पेड़ कभी नहीं कह पाएगा
उसे मनुष्यों ने काटा है
आरी पे उसकी जाति का जो निशां है
पक्षी अपने टूटे घोंसले का इल्ज़ाम
हमेशा आंधी पर लगाएगा
फटी हुई किताबें
खुद को ही वजह बताएंगी
और अपने होने का साल
छाती पर संभालती रहेंगी
और अधूरी कविताएँ अपने अधूरेपन से प्रेम करेंगी
जबकि कवि अपने प्रेम को याद कर रोज अधूरा ही जीता है
ये सारी चीजें मनुष्यों को सभ्य कहती हैं
जबकि मनुष्य अपनी सभ्यता का भार हमेशा ही औरों पर डालता है!
दुःख अब हरे नहीं रहे
दुःख अब हरे नहीं रहे
पकते- पकते पीले पड़ते जा रहे हैं
मृत्यु क्या हुई
बेघर ही हो जाएगा
देह घर है मृत्यु का
दुःख जिसका पड़ोसी है
दोनों के बीच की खिड़की है ‘आत्मा’
गर प्रेम दुःख है तो
फिर सुख क्या है?
सुख एक पक्की सड़क है
जिसपर चलते हैं दुःख के हजारों पहिए
मैं और तुम नहीं हो सकते ‘हम’
फिर भी हमारे मध्य है प्रेम
हमारे रास्ते में हैं दुःख के सैंकड़ों पहिए
जिस पर चलते हुए रौंदा जाएगा हमारा प्रेम
अपने बीच प्रेम को बचाए रखने की कवायद में
मैंने ‘मैं’ होना चुना और तुमने ‘तुम’
हमने ‘हम’ न होकर भी
प्रेम को बचाए रखा अपने बीच
हमारे बीच प्रेम है यह एक सुख है
जिसके सामने फीके पड़ जाते हैं सारे दुःख
मैं दुःख की लड़ी हूँ
सुख के मोती हो तुम।
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परिचय
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मैं दिव्या श्री, कला संकाय में परास्नातक कर रही हूँ। कविताएं लिखती हूँ। अंग्रेजी साहित्य मेरा विषय है तो अनुवाद में भी रुचि रखती हूँ। पटना, बिहार में रहती हूँ। पहला काव्य संग्रह “आँखों में मानचित्र” वेरा प्रकाशन से प्रकाशित।
प्रकाशन: हंस, वागर्थ, वर्तमान साहित्य, पाखी, कृति बहुमत, समकालीन जनमत, नया पथ, परिंदे, समावर्तन, ककसाड़, कविकुम्भ, उदिता, हिन्दवी, इंद्रधनुष, अमर उजाला, शब्दांकन, जानकीपुल, अनुनाद, समकालीन जनमत, स्त्री दर्पण, पुरवाई, उम्मीदें, पोषम पा, कारवां, साहित्यिक, हिंदी है दिल हमारा, तीखर, हिन्दीनामा, अविसद, सुबह सवेरे ई-पेपर आदि।
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जयमाला जयमाला की कविताएं स्तरीय पत्र - पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होती रहीं हैं। प्रस्तुत कविताओं में स्त्री मन के अन्तर्द्वन्द्व के साथ - साथ गहरी...