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Home समीक्षा

‘एक जीवन अलग से’ पर पल्लवी विनोद की समीक्षा

by Anhadkolkata
July 19, 2023
in समीक्षा
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पल्लवी विनोद  एक लंबे समय से विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं के माध्यम से अपने सुचिन्तन के द्वारा अलग -अलग रचनाकारों के लेखन पर अपनी कलम चलाती  रहीं हैं । उनकी खुद की लिखी कविता , कहानियाँ, लेख भी विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं मे प्रकाशित हुए हैं । प्रस्तुत है रूपम मिश्र की हाल ही  में प्रकाशित पुस्तक  ‘ एक जीवन अलग से ‘ कविता संग्रह पर पल्लवी विनोद की समीक्षा । पढ़िये और अपनी राय दीजिए ।

 

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ज्ञानप्रकाश पाण्डेय का लेख

पल्लवी विनोद

 

एक  जीवन  अलग  से 

पल्लवी विनोद

 

तक़रीबन तीन सालों से लगातार रूपम को पढ़ रही हूँ तो भी उनकी किताब के आने की प्रतीक्षा में थी। लड़कियों और शोषितों के संसार पर बादल बन कर छाने वाली यह किताब हर उस मन को भिगोयेगी जिसके अंदर की संवेदना आज भी जीवित है। रुपम की कविताओं की सबसे बड़ी ख़ासियत उसका भदेसपन है जो इन्हें समकालीन रचनाकारों से अलग खड़ा करता है। आपकी कविताओं में एक गहरी उदासी है जैसे वो किसी पुरानी रुग्णता से छुटकारा पाने के लिए तड़प रही हो।

पहली कविता में रुपम ने एक बुजुर्ग मुस्कुराती औरत को गाँव की पहचान बताते हुए लिखा है
“ शहर से ज़्यादा उझुक कर चली संस्कृति यहाँ आकर समथिल बैठती है”
आपकी कविताओं में विद्रोह के दबे हुए स्वर हैं जो कभी अपनी आवाज़ तेज करने की कोशिश करते हैं तो कभी ह्रदय की कोमलता से निकले मद्धम सुरों से बड़ी सरलतापूर्वक पाठक के मन में अपनी पैठ बना लेते हैं।

रूपम की बातें उन हमज़ातों के लिए हैं जिन्हें समाज ने हमेशा हाशिये पर रखा। औरत, किन्नर तथा दलित वर्ग की बात करती रुपम शोषित तबके को एक ही बिरादरी का बताती हैं। उन्होंने अपनी कविताओं में समाज से बहुत से सवाल किए हैं और इस समाज की उन परतों को उघाड़ा है जिसे सफल दाम्पत्य अथवा सुसंस्कृत परिवार रूपी उपमाओं का मुलम्मा चढ़ा कर सुंदर किया जाता है।

“ इस तरह वो एक देह की ज़रूरत में
एक ज़रूरी मन की सारी सतहों को ज़ह बिजह करता है
और भारतीय वाङ्मय उसे पवित्र दाम्पत्य कहता है।”

उनकी कविताओं में एक अलग क़िस्म की तड़प है, बेचारगी है। एक ईरानी कविता जिसका सफ़दर हाशमी ने अपने नुक्कड़ नाटक “औरत” में प्रयोग किया था। उसमें औरत की स्थिति को जब तत्कालीन समाज के समय लाया गया तब ख़ुद औरतों को समाज में अपनी स्थिति का अहसास हुआ था। रुपम की कविताएँ इक्कीसवीं शताब्दी की औरतों की स्थिति बताती हैं जहाँ समाज उनके लिए ख़ुद को बहुत उदार बताता है। अगर आपका मन उन कविताओं को पढ़ कर सोचे कि अब ऐसा कहाँ होता है? तो इन पंक्तियों को बार-बार दोहराइयेगा…..

“ शिक्षा इतनी ही प्रोग्रेसिव हुई है कि
पढ़ाई को एजुकेशन और डहकने को डिप्रेशन कहने लगी है”

“पिता के घर में” रुपम की कालजयी कविता है जिसमें उन्होंने ससुराल से मायके आई लड़की की मनःस्थिति का बेहद संवेदनशील खाँका खींचा है। हर बार आख़िरी पंक्तियों पर पहुँच कर रोयी हूँ। इस बार ये किताब हवाई रास्ते में मेरे हाथ में थी लेकिन फिर से वही हुआ। रुपम की कुछ कविताओं से क्रांति की मशाल की गंध आती है। आप चाहें तो इसे जला कर एक शोषित पीढ़ी को आगे बढ़ने का रास्ता दिखा सकते हैं।

“नहीं हुआ इतना पोढ़ कलेजा इक़बाल
कि हम कहते कि जिस खेत से दहकाँ को मयस्सर नहीं रोटी
उस खेत के हर खोशा-ए-गंदुम को जला दो
क्रांति की किताबें बहुत देर से पढ़ी हमने इक़बाल
जलाना तो दूर उन पर खंरोच आए तो आत्मा कलझ उठती है।”

ये पंक्तियाँ बताती हैं कि कवियित्री इस समाज की विद्रूपताओं को बस देखने, समझने की आँख ही नहीं रखती बल्कि उसे ख़त्म करने का हौसला भी रखती हैं। व्यक्ति को समाज की इकाई का पाठ पढ़ाने वाली हमारी पाठ्य पुस्तकों में एक पंक्ति ये भी जोड़नी चाहिए कि ये समाज औरत को व्यक्ति नहीं मानता। बेटी के रूप में उसे अपने पिता और भाई के अनुरूप जीवन जीना होता है और विवाहोपरांत पूरी पुरुषसत्ता के अनुसार ……… उसका हँसना, बोलना नाचना भी उसकी क़िस्मत में मिले परमेश्वर पर निर्भर है। क्योंकि…

“एक अभुआता समाज कायनात की सारी बुलबुलों की गर्दन मरोड़ रहा है”

रुपम की कविताओं में अलग क़िस्म की बेचैनी है। हर कविता में एक कहानी घटित होती है जो आख़िरी पंक्तियों तक पाठक को झिंझोड़ कर पूछती है, “तुमने मुझे देखा है?”
पाठक आँख बंद किए अपने आस-पास के जीवन में वो कहानी घटते हुए देखता है। गालियाँ जो लड़की के मायके वालों को इसलिए दी जाती हैं कि लड़की सहम जाए। उन गालियों में पुरुष माँ समान सास को साथ सुलाने तक की बात कर सकता है। उन गलियों में वो अपनी पत्नी को उसके भाई के साथ भी सुला सकता है……. हाय रे आदर्श समाज देखो! अपना वैभव….जो इन कविताओं के प्रहार से भरभरा कर गिर रहा है। आओ देखो! तुम्हारा ये मलबा जो इधर-उधर बिखरा पड़ा है कहीं उसके भीतर ज़िंदगी की ज्योति तो नहीं जल रही। कम से कम उसे ही बचा लो।

रुपम अपनी कविताओं में पुरुषसत्ता, मनुवादियों से तो प्रश्न करती ही हैं उसके साथ – साथ वो अपनी अग्रजाओं से भी प्रश्न करती हैं।
“ शहज़ोर ओढ़नी” रुपम की सशक्त कविता है जिसका कथ्य और भाषा दोनों ही अचंभित करते हैं।
स्त्री की व्यथा कहते हुए रुपम घर, परिवार से निकल कर बाहर चली आती हैं। वहाँ भी उन्हें अपने बच्चे की भूख मिटाने के लिए बार-बार छली जाती औरतें दिख जाती हैं। उनके दर्द को पाठक के मन तक पहुँचाने के लिए जिन रूपकों और उपमाओं का सहारा लिया है वो पाठक की संवेदनशीलता को उद्दीप्त करते हैं।

“मुझे याद आई खूँटे से बंधी गाय जिसके बच्चे को जितनी बार उसके थन के पास ले ज़ाया गया हर बार दूध उतर आता था थन में और दुहने वाले बच्चे को हटा कर दूध निकाल लेते थे………………………………वो याचना भरी आँखों से मेरी ओर देख रही थी जैसे कह रही हो भूख से बड़ा कोई धर्म नहीं होता।”

एक पंक्ति में वो कहती हैं, “हम स्त्रियों का क्या एकांत में रोते हुए पैर पकड़ कर माफ़ी माँग लो स्त्री सात खूब माफ़ कर देगी।”

रुपम अपनी कविताओं में इस पुरुषसत्ता का मोहरा बनी औरत के विकृत चेहरे को भी दिखाती हैं। वो इस बात से भी इनकार नहीं करतीं कि समाज की इस व्यवस्था ने औरत के हाथों ही औरत की रोटी से लेकर नींद छिनवाई हैं। ये बेघर औरतें वही थीं जिन्होंने अपने हृदय की कोमलता को खुरदुरे हाथों से बचाए रखा।
“लड़कियाँ माँ की बीमारी पर दौड़ी आईं थीं
और भाभी ने बेरंग लौटा दिया कि सेवा करने नहीं
कलह और हिस्से के लिए आई हैं
मुँहचोर भाई नज़र झुकाकर बहन से कहता है
तुम यहाँ आकर ज़्यादा मालिकाना मत दिखाओ”

आगे की कविताओं में रुपम ने पत्नियों और प्रेमिकाओं पर बातें की हैं। प्रेम के दर्शन पर पंक्तियाँ लिखते हुए रुपम अपनी चिर परिचित शैली से अलग हटकर लिखती हैं…,

“ किसी अभिमंत्रित यंत्र की तरह
मुझे तुम्हारा नाम रटने की लत लग गई है…………
मुझे अफ़सोस है मेरी जान
मैं इस मनुष्यहंता युग की आँखों में झाँककर करुणा ना भर सकी”

पाठक “एक जीवन अलग से” में ना जाने कितने जीवन को अपनी आँखों के सामने देखेगा। इन कविताओं में गल्प, काल्पनिकता और अतिशयोक्ति का आलंब नहीं लिया गया है। ये हमारे परिवार, समाज और संपूर्ण शोषित तबके की आवाज़ों से पैदा हुए तीर हैं जो आपके हृदय पर ठक से लगेंगे। आप चोटिल होते हैं या नहीं ये आपकी संवेदनशीलता पर निर्भर करता है। रुपम ने अपनी आख़िरी कविता की आख़िरी पंक्ति में लिख दिया है …

“कविता यहीं ख़त्म करती हूँ कविता बहुत ज़िम्मेदारी का काम है।”

वाक़ई कविता बहुत ज़िम्मेदारी का काम है और रुपम आपने अपनी इस ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाया है। इन कविताओं की समीक्षा या आलोचना करने के लिए इसकी सूक्ष्मता और वृहदता का परस्पर संघर्ष देखने की दृष्टि विकसित करने पड़ेगी। पर पाठक की तरह पढ़ें तो ये आपको अपने ही आस-पास घटित हो रहे दृश्यों को देखने और समझने की मेधा प्रदान करेगी। हृदय की संवेदना को थाह देती यह किताब देशज, उर्दू और तत्सम शब्दों से सजी हुई है। कथेतर शैली में लिखी गई कविताओं को पढ़कर पाठक इस समाज की विद्रूपताओं से जूँझता है।
पर मुझे लगता है देशज शब्दों के अत्यधिक प्रयोग से शहरों में रह रही अथवा अन्य मातृभाषाओं को बोलने वाली पीढ़ी को इसे समझने में थोड़ी मुश्किल होगी तो उन शब्दों का अर्थ भी लिख देना चाहिए था। जिससे कविताओं से सहजता और बढ़ जाती।

रुपम आप एक मिसाल की तरह साहित्य में आईं हैं और अपने पाठकों के हृदय का हिस्सा बन गई हैं। इसी तरह सत्य की मशाल थामे रहिए। आपकी पहली किताब की लिए आपको प्रेमसिक्त शुभकामनाएँ……

 

 

लेखक परिचय :

पल्लवी विनोद
शिक्षिका
पत्र -पत्रिका –  हिंदुस्तानी ज़ुबान, अभिनव मीमांसा, परिंदे, रूपायन, सरिता, पाखी, प्रभात ख़बर, वाणी युवा, हिंदुस्तान आदि में कविताएँ, कहानियाँ तथा लेख प्रकाशित ।
जनसत्ता के सम्पादकीय कॉलम में लगातार लेख प्रकाशित ।

 

Tags: pllvee vinod/पल्लवी विनोद : समीक्षा
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