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Home कविता

सरिता सैल की कविताएँ

by Anhadkolkata
May 21, 2023
in कविता
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हर वह व्यक्ति जो अपने मन की बात अपनी भाषा में लिखकर लयबद्ध अभिव्यक्त करता है वह कवि होता है। यहाँ ठीक उसी तरह भांति-भांति के लोग हो सकते हैं जिस तरह संगीत से जुड़े लोग होते हैं, हारमोनियम बजाना तो सबको आता है लेकिन हर हाथ अपने तरीके और हुनर से बजाता है, जाहिर है कि इसमें उसका अभ्यास, उसकी प्रतिभा और ठीक-ठीक एक विचार जरूर काम करता है। जिस तरह संगीत के तरह-तरह के सुर, ध्वनि और राग होते हैं उसी तरह कविता का परिवेश भी बहुत व्यापक है।
मुझे खुशी है कि कविता की व्यापक दुनिया में एक और कवि की उपस्थिति दर्ज हो रही है। सरिता सैल अपनी कविताओं में जिसे सबसे सहजता से बचाकर रखती हैं वह उनकी सहजता ही है। उनके पास एक साफ भाषा और साफ मन है जो उनकी कविताओं को ईमानदार और विश्वसनीय  बनाता है, और आगे बढ़कर आपसे हाथ भी मिलाता है, कुछ दूर चलता है और चले जाने के बहुत देर तक उसकी आवाज आपके जेहन में गूँजती है।
कलम से बहती स्याही/हरबार लिखाई भर नहीं होती /कभी कभी लहू भी होती है औरत की पीठ की – लिखने वाली कवि अपने लेखन की दृष्टि से बखूबी रू-ब-रू हैं और उन्हीं तमाम कवियों की परम्परा में आती हैं जिनके लिए स्त्री मुक्ति सामाज के विकास के लिए एक जरूरी मसला है। लेकिन यह इसलिए नहीं कि यही इनका मुख्य स्वर है – वे अपने शब्दों के सहारे प्रकृति, प्रेम, समाज, राजनीति आदि मुद्दों की ओर भी जाती हैं। उनकी कविताओं में एक ओर युद्ध की तबाही है, श्मशान है, राजनीति और फरेब है वहीं दूसरी ओर जगह-जगह बिखरे रोशनी के कतरे भी हैं।
सरिता की मातृभाषा हिन्दी नहीं है लेकिन वे हिन्दी कविता में अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर यह भी सिद्ध कर रही हैं कि हिन्दी कविता में पूरे देश का स्वर शामिल है। उनकी कविताएँ समय के साथ और परिपक्व होंगी और हिन्दी कविता में अपनी अलग पहचान बनाएंगी, इन्ही शुभकामनाओं के साथ कवि को उसके दूसरे संग्रह के लिए बहुत बधाई और अशेष शुभकामनाएँ।

 

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 सरिता सैल 

 

 

1.
मैं बीज हूँ

मै बीज हूँ असीम सहनशक्ति से भरा
मैं गलूँगा मिट्टी में और फिर पनपूँगा इसी मिट्टी में
जब-जब सूरज धरा को रूई सम जलायेगा
मैं अपनी कवच पर असीम पीड़ा झेलूँगा
मैं भूख कि आँखो मे चमकता चाँद हूंँ
मैं खलिहानों के खुशहाली का गीत हूंँ
मै बैलों के गले की घंटियों के घुँघरू की आवाज हूँ
मै कड़कती बिजली में खडा़ सिपाही हूँ
मै पाषणी ह्रदय में पनपती नमी हूँ
मै धरा की उर्वरता का नाजुक-सा अंग हूँ
मै चूल्हे की लपटों का स्मित-सा हास्य हूँ
मै तश्तरी में बैठी वंसुधरा का अंश हूँ
मै बोरियों से घिरे मजदूर के पसीने की बूंद हूँ
मै संसद के  गलियारों में उमडती भीड़ हूँ
मै कच्ची पगडंडियों से निकली न्याय की  पुकार हूँ
मै किसान की आँखों का सवाल हूँ
मै सियासती दावपेंच का नीरस सा जवाब हूँ..

2.
पिता का चले जाना

पिता के जाने के बाद
ठीक वैसा ही लगा था जैसे
एक गांव लुप्त होकर
मेरी स्मृतियों में बस गया हो

उस दिन एक गूल्लक
असमय टूट गई थी
घर फिर एक बार
धीरे-धीरे मकान में
तबदील हुआ था

आइने के सामने रखीं
श्रृंगार की हर चीज़
मौन होकर संदूक में चली गई थी
धूल की परत में
मां की मुस्कुराहट दब गई थी

जो पहाड़ बौना नजर
आता था दरवाजे से
पिता के चले जाने पर
उसकी कंटिली झाड़ियां
दहलीज को छूने लगी थी

अलगनी पर निस्तेज पड़े
पिता के गमछें ने
उनके चाहे अनचाहे
पलों के दस्तावेजों को
मुझ से भी अधिक सहेजा था

मेरे कान्धें पर अचानक एक
मज़बूत हड्डी उग आयी थी
मेरे आवाज पर उचककर
मां सहम जाती थी
मेरी ध्वनि  में पिता की ध्वनि
इन दिनों घुलने लगी थी

3.
राजनीति

(1)
सिहासनों पर नहीं पड़ती हैं
कभी कोई सिलवटें
जबकि झोपड़ियों के भीतर
जन्म लेती हैं बेहिसाब
चिंता की रेखाएं
सड़कों पर चलते
माथे की लकीरों ने
क्या कभी की होगी कोशिश
सिलवटों के न उभरने के गणित को
बिगाड़ने की।

(2.)
राजनीति में विरोधी
वह मदारी हैं
जो कांच के दरवाजे
के अंदर बैठकर
उस पार का दृश्य देखता है
और जब जनता
सूखे पत्तों की तरह
धूप में कड़क(तिलमिला) हो जाती है
तब उनकी हड्डियों को
चूल्हे में सरकाकर
उस पर बिना बर्तन रखे
तमाशा देखता है

(3.)
जनता ने नेताओं को
रेशम का कीड़ा समझा है
जो सिंहासन के
हरियाली पर बैठकर
उनके लिए उम्मीदों का
वस्त्र बुनेगा
पर राजनीति में
जनता तो केवल
वह मखमली धागा है
जिसे पकड़ कर
सत्ता के सिंहासन तक
पहुँच  जाता है

4.
युद्ध

युद्ध के ऐलान पर
किया जा रहा था
शहरों को खाली
लादा  जा रहा था बारूद

तब एक औरत
दाल चावल और आटे को
नमक के बिना
बोरियों में बाँध रही थी

उसे मालूम था
आने वाले दिनों में
बहता हुआ आएगा नमक
और गिर जाएगा
खाली तश्तरी में

वह नहीं भूली
अपने बेटे के पीठ पर
सभ्यता की राह दिखाने वाले
बक्से को लादना
पर उसने इतिहास की
किताब निकाल रख दी
अपने घर के खिड़की पर
एक बोतल पानी के साथ
क्योंकि,
यह वक्त पानी के सूख जाने का है..!

5.
इन्तजार

मै कर रही हूँ तुम्हारा इंतजार
चाँद के गलने से लेकर
सूरज के ढलने तक

बंसत कि हर नयी पत्तियों पर
लिख देती हूंँ तुम्हें  चिट्ठियाँ
पत्ते झड़े अनगिनत मौसम बीते
अब मेरे शहर के हर वृक्ष तले
उग रही हैं तुम्हारे  नाम की दूब
पहुँचा रही हैं हवा संग
तुम्हें आने का संदेश

काली नदी के तट बैठकर
मैंने बहाया हैं आँखों का काजल
अब तो नदी का भी सीना
भर गया है काले रंग से

मछलियाँ बैठती है मेरे पास आकर
और मूँद लेती हैं आँखें
मानो कर रही हैं प्रार्थना
उस ईश से तुम्हारे लौटने की

मैंने तो भरे थे इस रिश्ते मे रंग
प्रेम और सर्मपण के
बेखबर सी थी मैं
तुम्हारे मुट्ठी में बंद रंगो से

तरसती है मेरे मकान की दहलीज
तुम्हारे तलवे के स्पर्श को
फिर घर बन इठ़लाने को
मंदिर के दिये तले है जमीं
मिन्नतों की ढेर सारी मन्नतें

तुम्हारा आना कुछ इस तरह से होगा
जैसे घने बीहड़ में शहनाई का बजना
किसी चंचल-सी लड़की के माथे
सिदूंर का सजना

6.
कुर्सी

कुछ लोग कुर्सी के ऊपर  बैठे हैं
कुछ लोग कुर्सी के नीचे बैठे हैं
कुछ लोगों ने कुर्सी को घेर रखा है
कुछ लोग उचककर बस कुर्सी को ताक रहे हैं
और एक भीड़ ऐसी भी है
जिसने कभी कुर्सी देखी ही नहीं है
पर कुर्सी के ढांचे में जो कील ठोकी गई है
वो इसी भीड़ के पसीने का लोहा है

 

 

 

सरिता सैल
जन्म : 10 जुलाई ,
शिक्षा : एम ए (हिंदी साहित्य)
मोबाइल नंबर-8431237476 , 9113544670
ई मेल आईडी – saritasail12062@gmail.com
सम्प्रति : कारवार कर्नाटक के एक प्रतिष्ठित कालेज में अध्यापन
प्रकाशन : सृजन सारोकार , इरावत ,सरस्वती सुमन,मशाल, बहुमत, मृदगं , वीणा, संपर्क भाषा भारती,नया साहित्य निबंध और, दैनिक भास्कर , हिमप्रस्त आदि पत्र पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित।

कविता संग्रह
1 कावेरी एवं अन्य कवितायें
2. दर्ज होतें जख्म़
3. कोंकणी भाषा से हिन्दी में चाक नाम से उपन्यास का अनुवाद प्रकाशाधिन
साझा संग्रह – कारवाँ, हिमतरू, प्रभाती , शत दल में कविताएँ शामिल
पुरस्कार- परिवर्तन साहित्यिक सम्मान २०२१

 

Tags: Sarita Sail/सरिता सैल :kvita
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Comments 2

  1. के पी अनमोल says:
    2 years ago

    अपने समय की धधकती हुई अभिव्यक्ति बनकर आती बहुत सुंदर कविताएँ। संपादकीय टिप्पणी भी प्रभावी है।

    Reply
    • Anhadkolkata says:
      2 years ago

      धन्यवाद

      Reply

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

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