आबल-ताबल – ललन चतुर्वेदी
परसाई जी की बात चलती है तो व्यंग्य विधा की बहुत याद आती है। वे व्यंग्य के शिखर हैं – उन्होंने इस विधा को स्थापित किया, लेकिन यह विधा इधर के दिनों में उस तरह चिन्हित नहीं हुई – उसके बहुत सारे कारण हैं। बहरहाल कहना यह है कि अनहद कोलकाता पर हम आबल-ताबल नाम से व्यंग्य का एक स्थायी स्तंभ शुरू कर रहे हैं जिसे सुकवि एवं युवा व्यंग्यकार ललन चतुर्वेदी ने लिखने की सहमति दी है। यह स्तंभ महीने के पहले और आखिरी शनिवार को प्रकाशित होगा। आशा है कि यह स्तंभ न केवल आपकी साहित्यिक पसंदगी में शामिल होगा वरंच जीवन और जगत को समझने की एक नई दृष्टि और ऊर्जा भी देगा।
प्रस्तुत है स्तंभ की सातवीं कड़ी। आपकी राय का इंतजार तो रहेगा ही।
बुद्धिजीवी और गधे
ललन चतुर्वेदी
बुद्धिजीवी कभी घोड़े की सवारी नहीं करते। यह आज की बात नहीं है।किसी देश में और किसी भी काल में बुद्धिजीवियों ने घोड़े को अपना वाहन नहीं बनाया। गणेश जी बुद्धि विधाता हैं और उन्होंने अपना वाहन चूहे को बनाया। संभवतः बुद्धिजीवियों ने उनसे प्रेरणा लेकर और थोड़ी सी अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए गधे को अपना स्थायी वाहन बना लिया। चालू चौथा युग जो अपनी तेज रफ्तार के लिए विख्यात है में भी बुद्धिजीवियों ने अपना वाहन नहीं बदला। आज भी गधे उनके पसंदीदा वाहन हैं। यह बुद्धिजीवियों का सौभाग्य है कि हर जगह उन्हें बहुतायत में किसिम-किसिम के गधे मिल जाते हैं। वे मनमर्जी से उनकी सवारी करते रहते हैं।गधे को भी उनसे कोई शिकायत नहीं है। जब बुद्धिजीवी उनकी सवारी करते हैं तो उन्हें आनंद आता है।जितना बोझ वे लादते हैं गधे का आनंद उतना ही बढ़ता जाता है। गधे की पीठ जब खाली हो जाती है तब उसका मन भारी हो जाता है। वह उदास हो जाता है कि उसका मालिक उसे सेवा करने का अवसर क्यों नहीं प्रदान कर रहा है। एक गधे को दूसरे गधे से बहुत ईर्ष्या होती है। यह इसलिए होती है कि दूसरे को मालिक ने निरंतर सेवा करने का अवसर दे रखा है। पहला उसे मुँह चिढ़ाता है कि तुम मेरे जैसे काबिल नहीं हो।वह कहता है -“अगर तुममें काबिलियत होती तो मालिक तुम्हें नहीं पूछता?” दूसरा भी अवसर की ताक में रहता है। मालिक से पहले की चुगली करता रहता है,खोट निकालने की कोशिश करता रहता है। अपनी गोटी लगाने की जुगत सोचता रहता है। बुद्धिजीवी सभी गधों पर नजर रखता है। वह बारी-बारी से सब की सवारी करता है। उसका एक ही मकसद है सवारी करना। उसके लिए हर समय वाहन प्रस्तुत रहना चाहिए। गधे की बढ़ती हुई संख्या देखकर वह प्रसन्न होता रहता है। सच पूछिए तो उसे एक प्रकार से निःशुल्क सेवा प्राप्त हो जाती है। गधों को आपसी प्रतिस्पर्धा का वह भरपूर लाभ उठाता है। बुद्धिजीवी एक समय में विभिन्न गधों से संपर्क बनाए रखता है। इसलिए उसे सबकी खबर रहती है।जो गधे सेवा से सर्वाधिक दूर होते हैं उनकी सेवा वह पहले लेता है। तब तक दूसरे की आकुलता बढ़ती रहती है।पहले की पीठ जब छील जाती है तब भी वह मालिक को छोड़ना नहीं चाहता।परंतु बुद्धिजीवी को उसके लहू एवं जख्म की बू बर्दाश्त नहीं होती इसलिए वह उसे सेवा से बर्खास्त कर देता है लेकिन मरहम लगाते हुए,उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए। कहता है-जाओ कुछ काल तक विश्राम करो। तुम्हारी याद मुझे आती रहेगी। जल्द ही तुम्हें सेवा करने का अवसर मिलेगा।गधा गदगद होकर विदा लेता है। दूसरा गधा तो इसी अवसर की तलाश में बैठा रहता है। सवारी के लिए उसकी पीठ खुजलाती रहती है। उसके मन की मुराद मिल जाती है। वह पुलकित होकर फ़र्शी सलाम बजाते हुए सेवा में हाजिर हो जाता है।यह क्रम चलता रहता है। पीढ़ी दर पीढ़ी यह सिलसिला चल रहा है और आगे भी चलता रहेगा। यह जितना बुद्धिजीवियों के हित में है उतना ही गधे एवं उनके वंशजों के हित में है। बुद्धिजीवी सोचता है- गधा मैदान में चरता है और नदी का जल पीता है। इसके रखरखाव पर उसे कोई भुगतान नहीं करना पड़ता। वह प्रदूषणमुक्त है, वाचाल नहीं है। बुद्धिजीवी की अपेक्षानुसार वह सदैव मूक है। उससे गोपनीयता भंग होने का कोई खतरा नहीं है। उससे वैचारिक प्रदूषण का भी कोई भय नहीं है। सोने में सुहागा यह कि जासूसी में तो इसका कोई सानी नहीं है। यह मुफ्त में दुर्लभ सूचनाओं को एकत्र करता रहता है।इसकी एक और उल्लेखनीय खासियत यह है कि अगर उसकी बिरादरी के सदस्यों का गला भी घोंट दिया जाए तो भी वह मुँह नहीं खोलता। यह कभी संगठित होने का प्रयास नहीं करता और हो भी नहीं सकता।अतः इसकी सवारी करते हुए सदैव खतरे से मुक्त रहा जा सकता है और सफर का भरपूर आनंद लिया जा सकता है।गधा सोचता है कि जब तक बुद्धिजीवी उस पर सवार है उसे मैदान में चरने से कोई रोक नहीं सकता। नदी का जल पीने पर कोई टोक नहीं सकता। बुद्धिजीवी के संग-साथ रहने से थोड़ी सी बुद्धि उसमें भी आ जाती है। वह सोचता है कि मैदान और नदी पर बुद्धिजीवी का भले ही मालिकाना हक नहीं है लेकिन बुद्धिजीवी उसका अधिकृत रखवाला तो जरूर है।अतः उसकी सेवा किए बगैर न मैदान में चरा जा सकता है न प्यास बुझाई जा सकती है।उसे पीठ छिलने का दुख नहीं है। उसे दर्द में भी आनंद है।यदि बुद्धिजीवी उस पर सवार है तो उसे बोध होता है कि उसकी पीठ पर कोई मुस्तैद है। पीठ खाली होने पर वह खुद को असुरक्षित महसूस करता है। वह पीठ खाली होते ही भयभीत हो जाता है कि कहीं बुद्धिजीवी उसे सेवा से बर्खास्त न कर दे। इससे न केवल उसका अपना अपितु उसकी भावी पीढ़ी का भविष्य भी खतरे में पड़ जाएगा। इसीलिए वह बुद्धिजीवी की सेवा प्राणपन से करता है। बुद्धिजीवी और गधा,दोनों के अपने-अपने दांव-पेंच हैं। इस जटिल पहेली को सुलझाने का न कोई कायदा है,न कोई फायदा। हमें गधे पर सवार बुद्धिजीवियों के अंतहीन काफिले को देखते रहने का लुत्फ उठाते रहना चाहिए।
*****
ललन चतुर्वेदी
(मूल नाम ललन कुमार चौबे)
वास्तविक जन्म तिथि : 10 मई 1966
मुजफ्फरपुर(बिहार) के पश्चिमी इलाके में
नारायणी नदी के तट पर स्थित बैजलपुर ग्राम में
शिक्षा: एम.ए.(हिन्दी), बी एड.यूजीसी की नेट जेआरएफ परीक्षा उत्तीर्ण
प्रश्नकाल का दौर नाम से एक व्यंग्य संकलन प्रकाशित
साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं में सौ से अधिक कविताएं प्रकाशित
रोशनी ढोती औरतें शीर्षक से अपना पहला कविता संकलन प्रकाशित करने की योजना है
संप्रति : भारत सरकार के एक कार्यालय में अनुवाद कार्य से संबद्ध एवं स्वतंत्र लेखन
लंबे समय तक रांची में रहने के बाद पिछले तीन वर्षों से बेंगलूर में रहते हैं।
संपर्क: lalancsb@gmail.com और 9431582801 भी।