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नेहा नरूका |
समकालीन हिन्दी कविता को लेकर मेरे
मन में कभी निराशा का भाव नहीं आय़ा। यह इसलिए है कि तमाम जुमलेबाज और पहेलीबाज
कविताओं के बीच मुझे लागातार ऐसी कविताएँ पढ़ने-देखने को मिलती रहीं जिन्हें सचमुच
की भारतीय कविता कहा जा सकता है। इन कविताओं में छोटे-छोटे अनुभव हैं जो आपके
चेहरे के नकाब को झट नोच देते हैं- वे कड़वी सच्चाइयाँ हैं जिनसे आपका हर लम्हा
साबका पड़ता है लेकिन आप उन्हें ‘इग्नोर’ कर के आगे बढ़ जाते हैं।
इन कविताओं में प्रेम और आदमीयत के साथ वह स्वप्न भी है जिसे समय की चकाचौंध में
कहीं हम भूलते जा रहे हैं – वे सच्ची अनुभूतियाँ हैं जो हमारे मानुष बने रहने के
लिए औषधि का काम करती हैं। नेहा की कविताएँ पढ़ते हुए मैं और अधिक आश्वस्त हो जाता
हूँ कि हिन्दी कविता में आज भी भारत की आत्मा बसी है और वह आत्मा छद्म विकास के
चकाचौंध में नहीं बरंच रिश्तों की गरमाहट और हमारी मानवीयता तथा सौहार्दता में
निवास करती है कि हमारी अपनी माटी में निवास करती है।
नेहा अपने इस तेवर को बनाये रहें – सितारों से आगे जहां और भी हैं। नेहा नरूका हमारे समय की मानुष कवि हैं। आमीन।।
◆चावल
ज़िंदगी के सबसे स्वादिष्ट चावल जो उसने खाए, वो
उसके यार की रसोई में पके थे
कितनी बार उसके सामने दोहराई गई स्वादिष्ट चावल बनाने की
संसार की सबसे शानदार विधि
उन दोनों ने एक प्लेट में एक ही चम्मच से खाए भरपेट चावल
बातें की उन किसानों के बारे में जिन्होंने उन चावलों को बड़ी
शिद्दत से उगाया था अपने खेत में
उन दोनों ने अपनी-अपनी जीभ से चावल की प्लेट चाटते हुए कोसा उन उदारवादी बहुराष्ट्रीय
कम्पनियों को जिनकी साजिशें चावलों का स्वाद बर्बाद करने पर तुली थीं
चावलों से मोह से वह कभी नहीं निकल पाई
पर आज जब उसने अपनी रसोई में पके चावलों का हिसाब करने को कहा
तो जैसे उसके अंदर बजने वाले हजारों सितारों के तार टूट कर बिखर गए
ऐसा लगा जैसे वह दूध से जल गई है*
और अब मठ्ठे को फूंक फूंक कर पी रही है
खरीद, उधार, कर्ज, सूद …इन शब्दों के क्या मानी होते हैं, आज
उसने जाना
आज उसने जो जाना उसके बाद चावल का स्वाद गायब हो गया उसके
मुँह से
उनकी जगह सिक्के खनकने लगे उसके मुँह में
अब जब उसका यार धान के नन्हे पौधे खेत में रोपेगा तो उसे याद
नहीं करेगा
अब जब वो केले के पत्ते पर भात खाएगी तो अपने यार को भी याद
नहीं करेगी
वो दोनों अलग-अलग जगहों पर किसानों और कम्पनियों पर हुई बहसों
में शामिल होंगे
पर भूल चुके होंगे चावल उगाने-पकाने-खाने पर बजने वाला
धीमा-धीमा संगीत
वे दोनों अब अगली बार मिलने पर स्वाद का आठवां सुर भूल चुके
होंगे…।
◆आलू पराठा
एक ही पराठे को आधा-आधा खाते हुए
एक दूसरे के माथे को चूमते हुए
एक दूसरे की कविताओं से प्रेम करते हुए
नहीं बता पाई मैं तुम्हें वो घटना जो मुझे तुम्हें सालों से
बतानी थी
मेरा मन बना रहा जैसे काठ की कटोरी
मेरी देह जैसे काठ की कटोरी में परोसी गई धनिए की हरी-हरी
चटनी
उसके साथ तुम्हारे हाथ का बना आलू पराठा खाने के लिए मैं आई
पिता-भाई-चाचा की पगड़ियों को हवा में उछाल कर..और तुम्हें लगा मैं बड़ी क्रांतिकारी
हूँ
क्योंकि तुम नहीं जानते थे वो जो मैं तुम्हें सालों से बताना
चाहती थी
कि जब मैं पाँच में थी
तो मेरी एक सहेली हुआ करती थी
उसका नाम याद नहीं।
चलो मैं उसका नाम ‘क‘ रख
देती हूँ
‘क‘ के साथ मैं कन्याशाला में खेला करती थी सर्दियों की धूप में गुट्टे
कन्याशाला की मेडम सर्दियों की धूप में स्वेटर बुना करती थीं
कन्याशाला के सामने सरस्वती शिशु मंदिर था, मेडम
की दोनों बेटियाँ उसी में पढ़ा करती थीं
‘क‘ से बातें हुआ करती थीं: धरती-जहान की, नगर-गाँव की, सुबह-शाम
की
एक दिन मैंने उससे कहा-आलू पराठा खाने का बड़ा मन है
‘क‘ बोली मैं अपनी मम्मी से कल बनवा के लाती हूँ
फिर मेरी बात ‘ख‘ से
हुई
उसने कहा: तुम उस तेलिन के घर का पराठा खाओगी?
उसने कहा: वह नीच जात और हम ऊँची जाति वाले!
मैंने कहा: जात किसने बनाई ?
उसने कहा: भगवान ने…
मेरी दादी ने बताया है, मेरी मम्मी ने बताया है, मेरे
पुरखों ने बताया है…
दूसरे दिन ‘क‘ आई, उसके टिफ़िन में नरम-नरम आलू पराठे थे
मैंने कहा: मुझे भूख नहीं…
फिर धीरे से ‘ख‘ बोली:
इतने प्यार से लाई है खा लेते हैं अब
और वह फटाफट खाने लगी
पर मुझसे वो पराठा खाया नहीं जा रहा था
उस दिन से मुझे उल्टियों का रोग लग गया
इतने बेस्वाद आलू पराठे मैंने उस दिन से पहले और उस दिन के
बाद कभी नहीं खाए
उस दिन के बाद ‘क‘ मेरी
सहेली नहीं रही
मैं सालों से तुम्हें ‘क‘ की
कहानी सुनाना चाहती हूँ…
कि मैंने कैसे ‘क‘ को
खो दिया!
पर मैं तुम्हें नहीं खोना चाहती उस तरह जिस तरह मैंने ‘क‘ को
खो दिया
इस काठ की कटोरी में तुम अपना दंड डाल दो
मैं डाल रही हूँ अपना अपराधबोध
मुझे हमेशा तुम्हारे हाथ का आलू पराठा खाना है, मुझे
हमेशा चूमना है रसोई में आलू पराठा सेंकता तुम्हारा गर्म हाथ।
◆तिलिस्म
मैं आज तक ऐसे बाप से नहीँ मिली जो अपने बेटे को किसान बनाना
चाहता हो
न मिली हूँ ऐसी माँ से जो बेटे को भारत माता का सिपाही बनाकर
जंग पर भेजने की ख़्वाहिश रखती हो
मुझे ताज़्जुब होता है
जब कोई प्रसिद्ध मंचीय कवि वीर रस की कविता सुनाने के बाद
चिल्लाकर कहता है
‘जय जवान,
जय किसान‘
और वहां बैठे श्रोताओं की आँखें ताली बजाते-बजाते गर्व से भर
जाती हैं
मैंने कभी उन गर्व से भरी आँखों में
ख़ून के आँसू नहीँ देखे
मैंने कभी उन गर्व से भरी आँखों में
पसीने के आँसू भी नहीँ देखे
मैं ऐसी बहुत-सी माँओं, बीवियों और बहनों से मिली
हूँ
जिनके बेटे सियाचीन की ठंड में सिकुड़ कर मर गए
जिनके शौहर राजस्थान के रेत में झुलसकर जवानी में ही जर्जर, पुराने
और मैले हो गए
जिनके भाई बस्तर के जंगलों में भटकते-भटकते अफ़सरों के हाथों
की कठपुतली होते गए
ये सब के सब किसी ‘विजय‘ के
लिए नहीँ
‘रोज़गार‘
के लिए भर्ती हुए थे फ़ौज में
जैसे बाक़ी बचे हुए डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापक, चपरासी, सफ़ाईकर्मी
इत्यादि बन गए वैसे ही ये फ़ौजी बन गए थे
जो ये भी नहीँ बन पाए और जिनके पास खेत थे
वे किसान बन गए
जिनके पास खेत भी नहीँ थे
वे दूसरोँ के खेतों में काम करने वाले दिहाड़ी मज़दूर बन गए
जब पानी की कमी से फसलें सूखीं तो ये रोये
जब बारिश और ओले इनकी फसलों पर गिरे
तो ये फिर रोये
ये बार-बार रोये और कुछ तो ख़ुदकुशी करके मर भी गए
जब ये नए-नए जवान हुए थे तो शाहरूख खान और सचिन तेंदुलकर बनने
के ख़्वाब देखते थे
मगर इनके ख़्वाब अठारह में ही टूट गए तब
जब इन्हें दुश्मन से लड़ने का अभ्यास कराने के दौरान पिट्ठू
बांधकर मेढ़क की तरह दौड़ाया गया
जब इन्हें सूरज के सामने बिठाकर फसल काटने का आदेश दिया गया
इन सैनिकों को नहीँ मालुम कि कितने वीर रस के कवि इनको विषय
बनाकर पड़ोसी मुल्क की जीभ खींचने का अरमान पाल रहे हैं
इन किसानों को नहीँ मालूम कि यथार्थवादी कविताओं को इनकी
कितनी ज़रूरत है
ये अपनी किस्मत को कोसते हैं
इन्हें लगता है इनकी ज़िन्दगी में कुछ भी दिलचस्प नहीँ
अपने छोटे-छोटे हाकिमों के लिए गन्दी-गन्दी गालियां बुदबुदाते
हुए
आधी रात को उठकर लाल चौक पर ड्यूटी करने जाने वाले ये जवान
सबेरे-सबेरे जल्दी उठकर सिघाड़े के लिए दलदल में उतरने वाले ये
किसान
उस सबसे बड़े ‘हाकिम के तिलिस्म‘ के
बारे में जरा-सा भी नहीँ जानते
जिसने इन्हें ‘जिन‘ में
बदलकर अपनी ज़िंदगी खासी दिलचस्प और रंगीन बनाकर रखी है।
◆रेपिस्ट्स
लिस्ट
मैंने अधेड़ देहों में वे आँखे देखीं
जो वासना में तैर रही होती थीं
इन देहों के मालिकों ने इन्हीं आँखों से माताओं को देखा
बहनों को देखा
प्रेमिकाओं को देखा
देखा नन्हीं बच्चियों को भी…
वे बच्चियां जो माँ के दूध का स्वाद तक न भूली थीं
उन बच्चियों को ये एकांत में ले गए
और अपना ‘उत्तेजित लिंग‘ सहलाने को कहा
इन्होंने उनकी निष्क्रीय छातियों को भी छुआ
वे बस इतना ही समझीं यह कोई डरावना खेल है
इंजेक्शन और कड़वी दवाई से भी ज्यादा पीड़ा पहुँचाने वाला खेल!
इनके चेहरे, कपड़े और परफ़्यूम की महक से लगता
ये बड़े सज्जन, सीधे और दयालु हैं
पर ये थे शातिर, बेरहम और घिनौने
इनकी छुअन ऐसी थी कि जिन जगहों को इन्होंने एक बार छू लिया
वे आज तक ‘बास‘ मार रही हैं
इनकी पत्नियां रोज़ उसी बास में साँस लेती हैं, रोटी
खाती हैं और नींद भी पूरी करती हैं
इन्होंने अपने घर की औरतों के हिस्से का भोजन ख़ुद डकार लिया
फिर भी रहे उम्र भर भूखे
उम्रभर धुले, चमकदार और प्रेस किए कपड़े पहने
पर रहे उनमें नंगे
ये बचपन खा गए न जाने कितने
फिर भी इनका नाम दर्ज़ रहा मनुष्यों की सूची में।
◆गिलहरी
घास पर फुदकती गिलहरी तुम्हारे पास आई
तुम्हारी नर्म अंगुलियों से चिप्स खाकर पेड़ के पास चली गई
मैं देखते हुए यह दृश्य सोच रही थी
जैसे मैं भी गिलहरी हूँ
तुम्हारे नर्म हाथों का भरोसा मुझे बहुत पास खींच लाया
मैं घास पर लेटी रही
मैं पेड़ के नीचे नहीं, मैं घर में छिप गई
जैसे मैं भी ढूँढ़ रही थी कोई सुरक्षित स्थान उस गिलहरी की तरह
उसे तुम्हारे हाथ से खाना भी था और तुम से डर के भागना भी था
मैं भी तो गिलहरी हूँ इन दिनों
मुझे तुम्हारे हाथ को सूंघना भी है और तुमसे डर के भागना
भी है
मगर ये डर किससे है तुम्हारी अंगुलियों से
या बहुत सारी अंगुलियों से जो मेरी तरफ़ इशारा कर रही हैं
मैं गिलहरी की तरह अपने पेड़ पर सुरक्षित क्यों नहीं फुदक सकती
मेरा ध्यान उन अंगुलियों की तरफ़ क्यों हैं
मैं तुम्हारी गोद में सिर रखकर घास पर क्यों नहीं लेट सकती
क्यों नहीं चूम सकती तुम्हारे होंठ बहुत देर तक
मैं डर कर भाग रही हूँ
या मैं ख़ुद से भाग रही हूँ
मुझे तुमसे प्रेम हो गया है
मैं ये कहते हुए क्यों छिप जाना चाहती हूँ अपने घर में
वे कौन से सख़्त हाथ हैं जो प्रेम शब्द सुनते ही कर देंगे मुझे
टुकड़े-टुकड़े
मैं काँच तो नहीं हूँ न , मैं देह हूँ, पर
मुझमें तो दिखोगे तुम ही तब भी
मेरे ख़ून में बह रहे हो तुम , तुम्हारे ख़ून में मैं
तो वे कौन हैं जो कह रहे हैं: तुम्हारा ख़ून ख़ून है, मेरा
ख़ून पानी है
तुम्हारे हाथ में भोजन है, मेरे पेट में भूख हैं
तो वे भूख को छोटी और भोजन को बड़ा क्यों कहते हैं
मुझे क्यों फ़र्क़ पड़ता है किसी के कहने से
मैं तो गिलहरी हूँ न
मुझे तो फ़र्क़ पड़ना चाहिए तुम्हारी नरम अंगुलियों की छुअन से
मैं तुम्हारी देह पर भी तो फुदक सकती हूँ !
◆◆◆
नेहा नरूका समकालीन हिन्दी कविता की युवतर कवि हैं।
जन्म :ग्वालियर, मध्य प्रदेश
जिवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर से पी.एचडी।
मध्य प्रदेश के उच्च शिक्षा विभाग में सहायक प्रोफेसर।
संपर्कः
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
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अद्भुत्त! कमाल की कविताएँ हैं।
भाव पक्ष तो अद्भुत है लेकिन कविता में जिस शाब्दिक लयात्मकता की अपेक्षा मुझे थी उससे मन भरा नहीं.. पर समकालीन सन्दर्भॉ पर गहरी दृष्टि डाली है.. शुभकामनायें


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