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Home कविता

उज़्मा सरवत बीनिश की कविताएँ

by Anhadkolkata
June 24, 2022
in कविता, साहित्य
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1
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ज्ञान प्रकाश पाण्डे की ग़ज़लें

उज़्मा सरवत बीनिश
उज़्मा सरवत बीनिश ने अभी-अभी कविताओं की दुनिया में प्रवेश किया है लेकिन
कितनी बोलती
–चुप
और सधे कदमों से। उनकी कविताओं के
बहुत से रंग हम भविष्य में देख पाएँगे लेकिन यह जो शुरूआती
रंगत है और कलम पकड़ने की उनकी जो शाइस्तगी है वह काबिल-ए-गौर है। दूसरी बात कि
हिन्दी कविता की दुनिया में एक बड़ी आबादी की कोई भी एक स्त्री महत्त कवि दूर-दूर
तक नहीं दिखती जिसके पास बात कहने की एक नितांत उजली तमीज हो और पृथ्वी जितना साहस
और आकाश जैसा मन हो। 
हिन्दुस्तान के माथे पर कुछ ऐसे कलंक रहे हैं जो शायद ही
धुलें लेकिन एक बहुत बड़ी आबादी के लिए आज भी यह देश उतना ही मानीखेज है जितना
किसी और के लिए, वरंच ज्यादा ही। यह गूँज उज़्मा की कविताओं में है और वह भी जिसे
एक और बड़ी आबादी के बहुसंख्य लोग पिछले सालों में भूलते-से दिख रहे। 
कविता जो
करती है कि समय के जहर को धीमे-धीमे हमारे लहू से गायब करती जाती है बशर्ते कि हम
कविता को अपने जीवन और संसार में जगह दें। उज़्मा की यहाँ प्रस्तुत कुछ कविताएँ यह
कर रही हैं तो मुझे और कुछ भी कहने की जरूरत नहीं। आप भी कुछ कहें। इंतजार रहेगा।

ऑक्वर्ड
       
●●
 
( एक)
 
ऑक्वर्ड –
सुनने में
अटपटा
या यूँ कहें
कि क्रीपी
मगर दरअसल
बेहद शर्मीला
और संकोची
लफ़्ज़ है बेचारा
 
यक़ीन जानिए
आजकल का मेरा
वाहिद वफ़ादार
साथी
मालूम होता है
ये
अब आपको क्या
बताऊँ
कि लगभग हर
दोस्ती को लगे
पहले धक्के के
वक़्त
और ज़्यादातर
के टूट जाने पर
इसके साथ होने
मदद करने
दिलासा देने
को
क़त्तई नकारा
नहीं जा सकता।
 
 
( दो)
 
बचपन की सहेली
से
अरसे बाद बात
हुई
मेरी ख़ुशी का
ठिकाना न था
मौसम, सेहत और कुछ और
औपचारिक बातों
के बाद
स्मृतियों के
कुछ फूल चुनने शुरू हुए
हम एक दूसरे
की ज़िन्दगियों में घटी
दिलचस्प
घटनाओं की फ़ेहरिस्त बनाने लगे
बातों से
बातें निकलने लगीं
हँसी मज़ाक हुआ
एक बार को लगा
कि क्यों ही बिछड़े
फिर जब संजीदा
हुए तो मालूम हुआ
कि कितना अलग
जीवन जिया है हमने
और कितनी
विपरीत दिशा में
इसका एहसास
होने लगा मुझे
साथ होना या
राब्ता होना
कितना ज़रूरी
था
इसका भी
 
हम जो एक
दूसरे को
जानने का दावा
किया करते थे
अब सरासर
अजनबी थे
या शायद हो
जाना चाहते थे
विचारधारा में
इतने गहरे मतभेद को
किसी और सूरत
जारी भी तो
नहीं रखा जा सकता था
 
बातों बातों
में अचानक उसने कहा –
“तुम बहुत बदल गयी हो”
मैंने हैरान
होकर वजह पूछी
उसने तपाक से
कहा –
“पहले तो इतनी मुसलमान न थी”
.
.
.
जवाब होते हुए
भी
संवाद वहीं
ख़त्म हो गया
ऐसे मेसेज बस ‘सीन‘
हो जाया करते
हैं।
 
 
 
( तीन)
 
फरवरी 2020 की एक शाम
गुजरात को
जाती ट्रेन में हम सवार थे
इम्तेहान की
घबराहट
और सफ़र की
बेचैनी के बीच
मैंने ट्रेन
में आसपास नज़र दौड़ाई
मन ही मन कोई
दुआ बुदबुदायी
 
आमिर अज़ीज़ की
एक कविता
सुबह से चक्कर
काट रही थी मन में
‘सब याद रक्खा जाएगा…‘
वहीं गंतव्य
पर
एक विदेशी आक़ा
के
स्वागत की
तैयारियों की कोई थाह न थी
कितना कुछ एक
साथ हो रहा था
सामने की सीट
पर
मौजूदा सियासत, कविताएँ, कटाक्ष
और न जाने
कितनी चीज़ों के बारे में
बातें हो रही
थीं
मेरे सफ़र के
साथी –
बड़े भाई को इस
लंबे सफ़र में
एक भले हमसफ़र
की नेमत जो मिल गयी थी
 
बग़ल में बैठे
सज्जन
हर कुछ मिनट
पर कसमसाते
मुद्राएँ
बदलते
कुछ कहने को
होते
शायद हँसी
उड़ाने को
फिर कुछ फ़ोन
में देखकर बहल जाते
उनकी
मुस्कुराहट चुभने लगी जब
तो मैंने
ख़बरें देखने को फ़ोन उठाया
“उत्तर पूर्वी दिल्ली में दंगे –
आगज़नी, विस्फोट, क़त्ल
50 से ज़्यादा हलाक
सैकड़ों घायल
और पुलिस नदारद”
 
सहसा सज्जन
खिड़की के बाहर से घूमकर
हमसे मुख़ातिब
हो जैसे उगल पड़े –
“सब याद रक्खा जाएगा…”
मैंने और भाई
ने
बिजली की तेज़ी
से सर उठाया
कितना कुछ
मुँह में आया
मगर अल्फ़ाज़ के
बजाय
गले में कांटे
उग आये दोनों के
जिससे गुज़र कर
सारी बात
वापस हमारे
भीतर यूँ गिरी
कि रेलगाड़ी से
भी तेज़
हमारी धड़कन के
बीच
कुछ भी सुनाई
न दिया।
 
 
 
अंगुलिमाल
ठहरेगा
                       ●●
 
कितना भी
दूरदर्शी बनें
हम सबकी नज़रों
का एक कृत्रिम क्षितिज होता है
जिसके पार
देखने के लिए हमें अपनी जगह से
आगे चलना पड़ता
है
मगर अक्सर ये
भूलकर
हम एक जगह रूक
जाते हैं
और इस तरह
बनाते हैं
अपने चारों ओर
एक समतल कुआँ
भीतर ही भीतर
ख़ुश होते रहते हैं
नज़रियों के
अलग-अलग कोण बनाकर
हमारी इस
दूरदर्शिता के भ्रम को
कोई नहीं भेद
पाता
स्वयं हम भी
नहीं
निष्कर्ष वही
– कूप मंडूक!
 
हम ये भूल
जाते हैं कि हमने पिछली नस्लों से
चलते चले जाने
का वादा किया था
आगे राह
बिछाते जाने का भी
सबसे पहले तो
हमने सदियों से बंधी अपनी आँखों की पट्टियाँ
और बेवजह
पहनाई हुई बेड़ियाँ तोड़ दीं
और निकालकर
दूर फेंक दीं
ये हमारे
आंदोलन के शुरुआती दिन थे
उस समय हमारे
कुछ शुभचिंतक उभर कर आए
हालांकि वे भी
व्यवस्था के सिपाहियों की नस्ल के थे
वही व्यवस्था
जिसने हमारे अधिकारों पर डाका डाला था
उन्होंने हमें
‘भाग‘ जाने की सलाह दी
उस समय की ये
सबसे व्यावहारिक सलाह थी
 
हमें भी अब नए
तरीक़े ढूँढने थे
क्योंकि तमाम
व्यवस्था के एक-एक पुर्ज़े को
हमारे विरोध
के ज़हर से चलाया जाता रहा था
ये ज़हर हर जगह
फैला हुआ था
ख़ुद हमारे
भीतर भी
हमारा वहाँ
रूककर संघर्ष करना आत्महत्या थी
हमारा कुछ भी
करना रुस्वाई थी
सो हमने
रुस्वाई के साथ मौत के बजाय ज़िन्दगी चुनी
अपनी ज़िन्दगी
से जुड़े फ़ैसलों के
चुनाव में
हिस्सा ले सकना
और तमाम
विकल्पों का उपलब्ध होना –
अभी दो अलग
बातें थीं
मगर अब हम चुन
सकते थे!
 
व्यवस्था को
सींचता हमारे विरोध का ज़हर
अपने भीतर से
भी हमें काटना था
और उसके
लगातार हो रहे संचार को भी रोकना था
हमें अभी लंबा
रस्ता तय करना था
तय करने को नए
रास्ते बनाने भी थे
नुकीले पत्थर
घिसकर इस्तेमाल में लेने थे
समस्या की जड़
तक जा पहुँचना था
सो इस तरह
आख़िरकार हम
‘भाग‘ गए
हमारे इस ‘भाग‘
जाने को
अलग अलग
चश्मों से देखा गया
फिर न जाने
क्या हुआ
कि जैसे भागकर
हमने एक नया समतल कुआँ बना दिया
एक और भ्रम का
जाल!
 
इस पार भी तन
गया एक कृत्रिम क्षितिज
बनने लगे
नज़रियों के अलग-अलग कोण
हमारा ‘भाग‘
जाना सदी की
सबसे लोकप्रिय घटना मानी गयी
इससे एक नए
विमर्श की शुरुआत हुई
सबने अपने मत
प्रस्तुत किए
क़सीदों की झड़ी
लग गयी
शुभचिंतकों ने
ख़ूब तारीफ़ें बटोरीं
देखते देखते
इससे निकलकर
समतल कुओं का
एक पूरा परिवार खड़ा हो गया
और तमाम
विमर्श को मोतियाबिंद हो गया!
 
हम एलान करते
हैं
कि हमारी
कोशिश अब भी जारी है
हमने इस नए
भ्रम के जाल को चीर दिया है
कम से कम
हमारे भीतर का ज़हर तो कम हो चला है
पिछली नस्लों
से किए चलते जाने के अपने वादे से ही
हमने अपने
संघर्ष का संविधान बनाया है
हमारे विरोध
के ज़हर से
व्यवस्था के
ज़ंग लगे पुर्ज़ों को
शक्ति
पहुँचाने के रास्ते बंद कर दिए हैं हमने
‘भाग‘ जाने के प्राचीन अस्त्र को हम नकार चुके हैं
हम जानते हैं
कि इसने हमारी शुरुआती लड़ाई में भरपूर साथ दिया है
हम ये भी
जानते हैं कि अब ये हमारे किसी काम का नहीं
 
हम बुद्ध की
परंपरा की लड़कियाँ हैं
हम ख़ुद भी ‘ठहर‘
गयी हैं
और अब
अंगुलिमाल भी ठहरेगा!
 
 
 
मिल रही है
हयात फूलों की
                                   ●●
 
मेरी फूल-सी
बहन यतीम हो गयी
 
एक फूल-सा
बच्चा देखा था सड़क पे बिलखते हुए
एक बाप की गोद
में देखी थी फूल-सी बेटी की लाश
सारे बच्चे
मेरी दुनिया के फूल ही तो थे
 
मेरे वतन के
फूलों पे कफ़न लपेटे गए
कितनी माओं के
फूल फूलों के संग दफ़्न हुए
फ़िलिस्तीन के
फूलों को तो खिलने न दिया
कश्मीर के
फूलों की बीनाई छीनी
यमन के फूलों
से मुँह फेर लिया ज़माने ने
रोहिंग्या के
फूल पानी में धकेले गए
अफ़ग़ानिस्तान
के फूलों को बेदर्दी से कुचल दिया
मेरे आँगन के
फूल तूफ़ान के हत्थे चढ़ गए
फ़रामोश हुए
 
मगर एक फूल-सा
बच्चा है
जो बमबारी के
दौरान
अपनी नन्ही
मछली की जान बचा लेने की ख़ुशी में
इस क़दर
मुस्कुरा रहा है
, हाय
उसकी मुस्कान
मेरी आँखों से नहीं हटती
स्याह रातों
को मेरे दिल में उतर जाती है
दर्द के
लम्हों में थपकी देती है
फ़ोन पर दूर से
आती मेरी माँ की
भर्राती आवाज़
को थाम लेती है
मेरे आँसू रोक
लेती है
कलेजा चीर के
रख देती है
;
ये दुनिया अगर
क़ायम है
तो इसी
मुस्कान के दम पर
 
याद रक्खो!
एक दिन ये
सारे फूल ज़ालिमों पर चढ़ जायेंगे
ज़ुल्म टूटेगा
महज़ ख़ुश-बू से
और उस रोज़ ख़ूब
बारिश होगी
असलहे सब के
सब पिघल जायेंगे
चल पड़ेगा जो
ये लश्कर हो के हवाओं पे सवार
फूल ही फूल
खिलेंगे ज़माने में तमाम।
 
 
 
अलैंगिक
                ●●
 
ज़माना उनके
होने से बिल्कुल अनभिज्ञ था
वे जहाँ भी थे
प्रेत की तरह अदृश्य
उनका ज़िक्र
न तो
एलजीबीटी+ समाज के लोग करते
ना ही उन्हें
बेझिझक अपने समाज का हिस्सा मानते
उन्हें
बार-बार अपना वजूद साबित करना पड़ा
यहाँ तक कि
प्राइड के परेड में भी
आँकड़े उन्हें ‘एक प्रतिशत‘ के
डब्बे में
बंद कर भूल गए
पता ही नहीं
चला कि कब
डब्बे का आकार
कम पड़ गया था
और वे अब हर
जगह थे
अपने-अपने
घरों में ही अजनबी
अपने अज़ीज़ों
में अबूझ
 
जीवन भर प्रेम
के
प्रचलित
आरोपित परिभाषाओं के बोझ तले
वे दबते चले
गए
जिये भी या
बिना जिये
स्वांग के कफ़न
में लिपटते चले गए
किस ने पड़ताल
की जो मालूम हो
?
 
अपनी पड़ताल उन्होंने
ख़ुद ही शुरू की
ज़माने को उनकी
भनक भी
ग़लती से किसी
और शोध के दौरान लगी
उनका प्रेम
ज़माने की अपेक्षाओं पर मुँह के बल गिरता
उनका प्रेम
इतना आसान था कि समझ से परे
उनका प्रेम
इतना अथाह था कि एक दुनिया क़ायम की गयी उससे
उनकी दुनिया
में अकेलेपन के दिलफ़रेब ख़्वाब थे
जीवनसाथियों
की बाँहों में सुकून था
सवाल के क़िले
नहीं
, स्वीकृति की थपकियाँ
एक भरेपूरे
परिवार में अपनी शर्तों पर जीने को एक उम्र थी
ऐसे कितने
असंभव से ख़्वाब देखते रहने को
कितने जीवन
समर्पित किये गए
अब कौन हिसाब
करे
?
 
जब समय आगे
बढ़ा
नई तकनीकों की
संभावना की ओर
और दुनियाभर
में संवाद के नए साधन आये
वे एक दूसरे
से जुड़ने को आतुर हुए
बातचीत करने
के रोमांच में घुले
अंततः किसी और
से अपनी कहानी बता
आत्मा का बोझ
उतार बड़ी देर तक रोये
बरसों से जो
किसी से ना कहा हो वो बता पाना
दुनिया के सभी
सुखों में सर्वोपरि है
उन्होंने
धीरे-धीरे अपने लिए धरती पर एक जगह बनाई
धीरे-धीरे
उन्होंने आईने से डरना छोड़ दिया
धीरे-धीरे ही
उन्होंने उजाले से दोस्ती की
 
हालाँकि
उन्हें समझ पाने के लिए
ज़माने को
चाहिए था
एक और जन्म, कई कई और जन्म
मगर उन्होंने
एक दूसरे को समझकर
एक दूसरे के
लिए अपने कंधे बढ़ाकर
ऐसा सुख जाना
जैसे यही उनके
ख़ुशी की अंतिम सीमा थी
 
ये कितना
नाकाफ़ी था
मगर कितना
सुकूनबख़्श
अपने भीतर की
दुनिया में किसी को
दाख़िल करने या
आवाजाही की इजाज़त देने से ज़्यादा सहल
उन्हें सारी
ज़िन्दगी अभिनय करते हुए गुज़ार देना लगा
ये कितना ठीक
था
किसने सोचा?
 
उनमें आपस की
भौगोलिक दूरियाँ
इतनी अधिक थीं
कि वे शायद ही कभी मिले
यही तो उनके
संबंध की ख़ासियत थी
शारीरिक
उपस्थित या अनुपस्थिति जैसी परेशानियाँ
उनके पिरामिड
में लगभग गौण थीं
यानी ग़ायब
 
यक़ीनन उनका
प्रेम इतना आसान था कि समझ के परे…
 
 
 
रात और ख़्वाब
                   ●●
 
रात मेरे कमरे
से अब नहीं जाती है
उजालों में भी
होती है मेरी हमक़दम
सिरहाने बैठे
बैठे
न जाने कब से
मुझमें दाख़िल हो गई है
आँखें बोझिल
होती हैं हरदम मेरी
पर नींद ओझल
है
 
मरघट से उठता
सन्नाटे का शोर
मेरे ख़यालों
को भेदता हुआ
यूँ करता है
हवासों पर वार
कि हर बार फूट
पड़ते हैं आँसू
, अनायास
 
बम कहीं भी
गिरा हो
चीथड़े मेरी
उम्मीदों के उड़ते हैं
जान किसी की
जाती है
मौत मेरे सर
रक़्स करती है
ख़ून कहीं भी
बहा हो
दाग़ मेरी
दीवार पर होते हैं
चीख़ कहीं से
निकलती है
गूँज मेरे
कमरे में होती है
दिल कहीं भी
टूटा हो
किरिचें मेरे
हाथों में चुभती हैं
 
मगर इन तमाम
त्रासदियों के बीच
मैंने देखें
हैं सुब्ह के ख़ूबसूरत नज़ारों के ख़्वाब
आफ़ताब की
सुर्ख़ रौशनी से छनती मुस्कुराहटों के ख़्वाब
नन्हें बच्चों
के हाथों में फूलों के ख़्वाब
झर-झराते
पत्तों से उठते आज़ाद ख़यालों के ख़्वाब
तारीकियों को
चीरते उजालों के ख़्वाब
 
रात अब भी
मेरे साथ है
चाँदनी लौ में
मेरी राहें रौशन करती हुई।
 
 
हम प्रेम में
थे
                 ●●
 
हम प्रेम में
थे
तब जब चंद्रमा
ग्रहण में था
रात सिरहाने
ठहरी हुई थी
ख़्वाब अँधेरों
में गुम थे
इच्छायें
नेपथ्य में गुंजायमान
और मौसम
प्रतिकूल
;
 
हम प्रेम में
थे
तब जब
तुम्हारी सदा नहीं पाई गई
तुम्हारी कोई
छवि नहीं थी मन में
तुम हमें नहीं
जानते थे
हम तुम्हें
नहीं जानते थे
तुम कहीं और
थे
या कहीं भी
नहीं थे
;
 
हम प्रेम में
थे
तब जब हमारा
होना एक स्वप्न था
या कि समयचक्र
में अटका कोई अज्ञात आयाम
 
हम तब प्रेम
में थे
, जब नहीं थे
हम प्रेम में
ही रहे
उसकी हर
संभावना से पहले।
 
                                     ●●
 
 
कवि परिचय:
नाम: उज़्मा
सरवत बीनिश
जन्म: 2 सितंबर 1998
जन्म स्थान:
ग्राम- गड़वार
, ज़िला- बलिया, उत्तर प्रदेश.
शिक्षा: मनोविज्ञान
से परास्नातक
, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़.
स्थायी पता: D/O डॉ. एहतशाम ज़फ़र जावेद
           ग्राम/पोस्ट – गड़वार, ज़िला – बलिया,
उत्तर प्रदेश
           पिन: 277121.
ई-मेल: uzma.s@iitgn.ac.in
सम्प्रति:
कॉग्निटिव साइंस से परास्नातक
, आईआईटी (गाँधीनगर), गुजरात।
 

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 1

  1. נערות ליווי israel-lady.co.il says:
    8 months ago

    I wanted to thank you for this excellent read!! I definitely loved every little bit of it. I have got you book-marked to look at new stuff you postÖ

    Reply

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2009-2022 अनहद कोलकाता by मेराज.

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