उपन्यास अंश
लाल क्षितिज का पक्षी
भरत प्रसाद
‘सेंटर ऑफ इंडियन लैंग्वजेस’ के हिन्दी विभाग में धवल का दाखिला उबड़–खाबड़ रास्तों वाले मैराथन दौड़ की तरह था। धवल ने बचपन से लेकर मौजूदा उम्र तक न जाने कितने उतार–चढ़ाव के मोर्चे जीते थे, इसीलिए भव्य न्यायालय जैसी चेतावनी देते स्कूल–‘सी0आई0एल0 की तीन सीढ़ियां को फतह करने की क्षमता आ ही गयी। यहाँ प्रेम के नव साधकों के बीच इन्हें स्वर्ग की सीढ़ियाँ कहा जाता है। जिस पर बैठे बगैर, चढ़े–उतरे बग़ैर छात्र जीवन की आयु से मुक्ति नहीं मिलती। धवल को कावेरी छात्रावास में कमरा भी सिद्ध हुआ, चारों तरफ से परम चुप, केवल ऊपर–नीचे जमे हुए कमरों की बालकनी से खुद के बारे में बोलता हुआ।
धवल के लिए सबसे प्यारी, जादुई, मोहक और मादक जगह थी, कावेरी छात्रावास की मेस, जो कि हॉस्टल के हृदय में खड़ी थी, जहाँ पहुँचकर दोनों विंगस (खण्ड) के रास्ते खुलते थे, जहाँ के रोशनदान, खिड़कियों और नशेड़ी के मुंह की तरह परमानेंट खुले दरवाजों से पकते हुए भोजन की महक प्रेमिका की याद को पीछे छोड़ देती थी। धवल के रूममेट थे प्रशांत मणि जो सिर से पांव तक अशांतमणि थे। जब तक कमरे में उपस्थित, तब तक सद्यः पठित पुस्तकों के ज्ञान का रौब झाड़कर धवल का माथा चाटते ही थे, न रहने पर उनसे जुड़ी हुई दैनिक घटनाओं की बौछार धवल को अशांत किए रहती। फिर तो अक्सर होता यह कि ‘जब तू है–तब मैं नहीं, जब मैं हूँ तू नाहीं’ की अघोषित नीति सक्रिय थी–धवल के चित्त में। दशा इस हद तक पहुँच गयी कि प्रशांत बबुआ के कमरे में दाखिल होते ही, धवल कुर्सी–मेज को नमस्कार बोलते हुए बिस्तर में चू जाता, मानो कि कई हफ्तों से नींद का स्वाद न पाया हो, जबरन खुद को सुला लेने का यह रहस्य प्रशांतमणि को मालूम था, परन्तु कुछ कहे कैसे; खुद की अशांत आदतों के आगे लाचार जो थे मर्दवा।
अपने गांव से जे0एन0यू0 की दूरी धवल को सात समुन्दर न सही, सात नदियों पार की कसक उठाती ही थी। जुलाई माह में जब परिसर के आसमान ने बारिश का रंग–ढंग दिखाया तो धवल के गंवई चित्त में बन्नीपुर की क्षितिज की बारिश छा गयी। धवल ने महसूस किया बारिश की दौलत में डूबी प्रकृति स्त्री की तरह झुक जाती है, उसने यह भी पाया कि उस क्षण दरख्त प्रार्थना की मुद्रा में खड़े आकाश को धन्यवाद देते हैं और दिशाएं मानो सतरंगी चूनर ओढ़कर अलौकिक नृत्य को तैयारी कर रखी हों। ऐन बारिश की बेला जे0एन0यू0 कैम्पस धवल का मन मोह लेता था, यहाँ तक कि धुली–चिकनी चट्टानों में जैसे कोई जुबान आ गयी हो और वे स्पर्श पाने के लिए, हमें बैठने के लिए आमंत्रित कर रही हों। परिसर का आकाश कुछ इस कदर पास आ गया था, मानो पैंतरा बदलते बादलों के आन्दोलन ने अपने जलभार से उसे झुका मारा हो।
धवल की पहली क्लास का दिन, तैयार कुछ ऐसे हुआ, मानो मोर्चे पर कोई सिपाही जा रहा हो। घुमाव खाई हुई पक्की सड़क पर धवल के पांव सध नहीं रहे थे। हास्टल के गेट के बाहर निगाहों को हर वृक्ष से टकराता, गदबदाई झाड़ियों में उलझाता और उत्सुकता से लबरेज करता हुआ बढ़ रहा था। यह आया प्रशासनिक भवन, यह दृष्टिगोचर हुआ पुस्तकालय यह साकार दिखा–भारतीय भाषा अध्ययन संस्थान और उसकी सीढ़ियाँ, जिसके बारे में सर्वव्यापी मुहावरे को उसने पहले ही सुन रखा था। सुबह के साढ़े नौ बजे किसका दीदार होगा? हाँ! भगत सिंह, पाश, चेग्वेरा, नागार्जुन, ब्रेख्त, नेरूदा, अपनी बुद्धिप्रेरक पंक्तियों के साथ दीवालों पर विराजमान थे। कुछ पोस्टरों की पेंटिंग ऐसी चुम्बकीय पहेली जैसी थी, जिसका मतलब बूझ लेना दुनिया की कठिन परीक्षा उत्तीर्ण करने जैसा था।
तकरीबन एक घंटे की क्लास डेढ़ घण्टे में खत्म। श्री गणेश के दिन ही किलो–किलो भर के ज्ञान की झमाझम बारिश। अधिकांश नव ज्ञानाकुंरों के लिए सन्न–सन्न उड़ती पहेली की तरह थी। धवल ने कार्लमार्क्स और उनके मस्तिष्क से फूटी विश्व–ध्वनि को सुन रखा था, उड़ती हुई जिज्ञासा की प्रेरणा में मुट्ठी भर अध्ययन भी किया था, परन्तु आज जो मैनेजर पांडे के मुख से ध्वनि हुआ, वह मनोमस्तिष्क की तहों को आन्दोलित करने जैसा था। कक्षा के पूर्ण विराम पर धवल के चित्त में एक नन्हें प्रश्न ने पक्षी के घोंसलाजीवी बच्चे की तरह सिर उठाया, परन्तु डर मन में नाच रहा था कि पूछते ही डपट कर कहीं बैठा न दिया जाऊँ, परन्तु परमाश्चर्य। गुरुवर खुद ही सवाल किए दबे हुए दबंग स्वर में….‘‘हाँ तो मैं कह रहा था कि तुममें से किसी को सवाल करना है?’’ धवल कुर्सी पर बैठे मेढ़क की भांति उछल खड़ा हुआ–‘सर। मेरा एक सवाल है।’
‘‘हाँ पूछो, मैं खाली मुँह देखने के लिए थोड़ी कह रहा हूँ।’’
‘सर! कार्लमार्क्स यदि धर्म को अफीम मानते थे, तो गले में ईसा मसीह के क्रास का चिह्न क्यों पहनते थे?’ गुरु को कल्पना न थी, पहले ही दिन, पहली ही कक्षा में, पहेली जैसी आँखों वाला छात्र इतना पक्का सवाल पूछ लेगा, मगर गुरुवर संभल गये, उत्तर का ठंडा शर्बत भी पिलाया–‘‘अच्छा किया पूछकर–तुम्हारा नाम क्या है? कार्लमार्क्स ईसाई परिवार में पैदा हुए थे। बचपन से लेकर नौजवानी तक कभी चर्च, कभी बाईबिल अक्सर नेत्रबंद प्रार्थनाएं करना–मतलब समझो कि उनका आरम्भिक जीवन ईसाई धर्म के प्रभाव देख–रेख और शासन के बीच निर्मित हुआ। वे धर्म के अवैज्ञानिक तौर–तरीकों के कठोर आलोचक थे, परन्तु एक असाधारण करूणा के धनी ईसा के प्रति उनके भीतर प्रेम था इसीलिए क्रास पहने हुए हैं। धर्म के मनुष्यता विरोधी स्वरूप की आलोचना कीजिए, वह भी आँखें खोलकर। आँखें मूंदकर निन्दा गाने वाले सूरदास कहलाते हैं।’’
कक्षाएँ समाप्त करके धवल ने बाहर आकर आकाश को निगाहें समर्पित की। लह–लह चमकती हरी पत्तियों की ठाट के बीच में झलकता सूरज अजनबीपन का खिंचाव भर रहा था। जैसे–जैसे ऊपर चढ़ता है–सूर्य छोटा हो जाता है, किन्तु रोशनी धारदार और परिपक्व। चारों ओर लहराती प्रकृति के कोरे सौन्दर्य में बहता हुए धवल भूल ही गया कि मार्क्सवाद का ककहरा सीखकर आया है, उसे तो गुरुदेव के तर्कमय विचार आकर्षक होते हुए भी इस जादुई अबाध सौन्दर्य के आगे फीके लग रहे थे। धवल का युवकोचित हृदय रह–रहकर अनोखी अनुभूतियों में आन्दोलित हो चला। मनुष्य के पास बुद्धि है, तो वह सोचने का हकदार हो गया। मुँह है तो बोलने का अधिकारी मौलिकता है तो सृजन करने का कौशल और शक्ति है–तो शासन जमाने की योग्यता। मगर एक मिनट धवल। यह बुद्धि, यह वाणी, यह स्वभावगत मौलिकता या शारीरिक शक्ति आयी कहाँ से? जिसे मनुष्य अपना कहता है–वह अपना है कहाँ? आदमी तो स्वयं को भी अपना नहीं कह सकता। सांसे सौंपती हैं–हवाएँ, दृष्टि देता है–सूर्य की कृपा पर निर्भर दिन, ईश्वर से बढ़कर कीमती अन्न हासिल होता है–धूसर, बेरंग, अनाकर्षक धरती से। और इस साढ़े तीन फुटिया हाड़–मांस के ढांचे में पानी, लोहा, जिंक, कैल्शियम जैसे अदृश्य, गुमनाम तत्वों के सिवाय और है क्या? धवल अप्रत्याशित एहसासों की झड़ी में सिहर उठा कि सभी दृश्य–अदृश्य में मौजूद हैं, सब कुछ का होना, कुछ भी न होने में संभव हुआ है। सौन्दर्य का कारण असौंदर्य है। यहाँ तक कि सारे नये और मौलिक विचार, विचारों की गुलामी से मुक्तिपाने के बाद जन्म लेते हैं।
आज क्लास का दूसरा दिन, एक–दूसरे शिक्षक का टेंस माहौल विषय है ‘चिट्ठी–पत्रों में प्रेमचन्द का व्यक्तित्व।’ अर्थात् दर्जनों उपन्यास और तीन सौ से अधिक कहानियों का पहाड़ खड़ा करने के बावजूद प्रेमचंद और कहाँ–कहाँ बाकी रह जाते हैं। तनिक तिरक्षी निगाहों से पड़ताल की जाय कि मुंशी जी महामना कद के थे या और लेखकों की तरह पैसाचूस व्यक्ति थे। अपने शिक्षक से विद्यार्थियों को ज्ञान मिला कि प्रेमचन्द अपनी कहानियां छपने के एवज में नकद नरायन न मिलने पर सम्पादकों से कभी छाता, कभी कुछ, कभी कुछ ले लिया करते थे। पत्नी शिवरानी देवी दबाव बनाकर कहानियाँ इसलिए लिखवातीं, ताकि लक्ष्मी का दर्शन मिले। ‘सरस्वती’ प्रेस खोलना, महंगा शौक साबित हुआ प्रेमचन्द के लिए। नायाब रचनाएँ रचने वाला कलम पुरुष सरस्वती प्रेस के चक्कर में अपना माथा पीट रहा था। ऊपर हंस, मर्यादा, माधुरी और जागरण निकालने की खून सुखाऊ जिद। शुरू तो सब कर दिया, परन्तु लंबे वक्त तक कायम रहना एक का भी संभव न हुआ। प्रेस में पसीना बहाने वाले मजदूरों के साथ प्रेमचन्द का व्यवहार मसीहाई था, परन्तु सही वक्त पर कई बार मेहनताना नहीं दे पाते थे, जिसके कारण प्रेस में ताला लगाने का दौरा प्रेमचन्द की चित्त में बार–बार पड़ता था। गुरुवर ने अधिक इत्मीनान से, चुटकी भर मुस्कान बिखेरते हुए, अंगूठे के ठीक बाद वाली अंगुली दिखाते हुए एक–एक छात्र की आँखों में झांक–झांककर बताया, प्रेमचन्दी रहस्य से चद्दर हटायी कि पहले विवाह के तुरन्त बाद पहली पत्नी को नमस्कार कह लिया, कालांतर में शिवरानी देवी से सात फेरे लिये। आगे जो आश्चर्य से सन्ना देने वाली बात गुरुवर्य ने कही, वो यह कि शिवरानी देवी के रहते हुए प्रेमचन्द एक और स्त्री के साथ प्रेम में थे। इतना ही नहीं, पहली पत्नी के जीवित होने का रहस्य तब खोला जब वह मर गयीं, वो भी लंबी उम्र अकेले ही काटकर। रिकार्ड के बाहर पता तो यह भी चलता है–प्रेमचन्द की इस पुरुषोचित चालाकी पर शिवरानी देवी ने पत्नियोचित झापड़ यथास्थान रसीद किया था।
धवल का कच्चा विवेक उलझ उठा हकीकतों के खुले–छिपे जंगल में। वह तय नहीं कर पा रहा था–किस प्रेमचन्द को आंखों में बसाए? उस कद को जिसे हजारी प्रसाद द्विवेदी, राम विलास शर्मा और शरतचन्द जैसे कलम–प्रतीकों ने स्थापित किया या फिर उस कद को, जिसकी परतें यहाँ क्लास में गुरुजी तार–तार कर रहे हैं। प्रेमचन्द का एक अदृश्य कद वह भी तो झांकता रहता है, जो उन्होंने अपनी नायाब कहानियों और छतनार बरगद जैसे उपन्यासों के भीतर खड़ा किया। जो केवल अपने दीवानों के सिर चढ़कर बोलता है। लगातार कुछ दिनों तक मानसिक उठा–पटक और मथनामथानी के बाद धवल एक धारणा तक पहुँचा कि किसी के भी बारे में अंतिम धारणा मत बनाओ, क्यांकि किसी के बाहरी और आन्तरिक यथार्थ को पूर्णतः जान ही नहीं सकते। जब व्यक्ति खुद को प्रकट कर रहा, तो बदनामी, शर्म, मर्यादा, सामाजिक प्रतिष्ठा या जहरीले विवाद के भय से खुदको छिपा भी रहा। खुद को जितना छिपा रहा, उसी में उसका एक और चेहरा मौजूद है, जो निजी इच्छाओं, वासनाओं, स्वार्थों और स्वच्छंद रुचियों से संचालित है। सामाजिक तौर–तरीकों का लौह तानाबाना इस चेहरे को जाहिर करने का न अवसर देता है, न इजाजत। इसीलिए जब, जहाँ, जैसे जिस हद तक इस स्वादप्रेमी चेहरे को मौका मिलता है, लुके–छिपे अपनी भूख शांत करता रहता है। चूंकि यह अप्रकट है–इसलिए रहस्यमय और व्याख्या से परे। यह अवश्य है कि मनुष्य के व्यक्तित्व की कसौटी उसका प्रकट यथार्थ नहीं, अप्रकट यथार्थ है। धवल रोमांचित हो उठा, इस अनोखे सत्य का एहसास करते ही कि प्रत्येक मनुष्य के यथार्थ के तीन आयाम हैं–एक वह जो वह कर्म, व्यवहार, वाणी के द्वारा प्रकट करता है, दूसरा वह जो वह चाहता है, सोचता है, आकांक्षा रखता है–परन्तु प्रकट नहीं करता और तीसरा वह जिसके बारे में उसे खुद भी पता नहीं। व्यक्तित्व का यह जो तीसरा आयाम है–वह इन दो आयामों की बादशाही दबदबे के कारण इतना दबा हुआ कि खुद की संभावनाओं की अथक खुदाई करने के बाद ही सामने आता है। यह अद्वितीय तीसरा आयाम ही व्यक्ति का सर्वोच्च यथार्थ है। किसी शरीर से फूटती प्रतिभा की जादूगरी इसी तीसरे, निहायत अप्रकट आयाम की तरंग है, प्रतिध्वनि है, क्षणिक प्रवाह मात्र है।
धवल की कल्पना में आदमी की एक और छवि पानी पर उभरी परछाईं की भांति नाचने लगी यह कि मनुष्य एक समय में कई मुद्दों, सवालों, सपनों, चाहतों और यादों में बंटा होता है। इतना भर से बात नहीं पूरी होती–वह जो कह रहा है ठीक वही नहीं सोच रहा, जो सोच रहा, ठीक वही नहीं लिख रहा, जो लिख रहा है, मन में पहले चबाकर, फिर नफा–नुकसान की छननी से छानकर लिख रहा है। अपनी प्रत्येक हँसी के साथ शत–प्रतिशत नहीं, अपनी प्रत्येक स्वीकृति के साथ पूरा–पूरा नहीं। आज वह जो भी है, भविष्य के किसी भी काल में न होगा। वह कभी वह नहीं होता, जो होना चाहता है, बल्कि हमेशा वह हो जाता है, जो उसकी चालाकी, गूढ़ स्वार्थ, मौका परस्ती और मजबूरियों ने गढ़ दिया। एकाश्मक व्यक्तित्व का पुरुष मोमबत्ती लेकर ढूंढे न मिलेगा। हर व्यक्ति का ढांचा न केवल खंडित है–बल्कि परस्पर विपरीत, विरोधी आदतों, रुचियों, स्वभाव और व्यवहार का मामूली दास है।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में क्लास लेना गांव की कुश्ती लड़ने जाना है, परन्तु जे0एन0यू0 के हिन्दी विभाग में कक्षाएँ अटेंड करना मनमाने शरीर, बुद्धि और आदतों के विचारों की छेनी से गढ़ना, छांटना, तराशना है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय अघोषित आजादी देता है–जी चाहे तो क्लास लेने आ विराजो, मन कहीं और रमा हुआ है तो क्लास में जाने की जरूरत नहीं। परन्तु जे0एन0यू0 में एक भी क्लास छूटा कि गुरुओं की चेतावनी वर्षा में चुपचाप भीगने को तैयार रहिए। क्लास बंक मारने पर यदि बिजूका की तरह पांच मिनट खड़ा करते तो गनीमत थी। यहाँ तो ऐसा डंडा मारते हैं, कि अपने सिवा और कोई नहीं देख सकता, मजाकिया व्यंग्य का डंडा। मसलन–आज भी आने की क्या मजबूरी आ गयी। 10 या 12 बजे तक सोते कान में तेल डालकर फिर उठते और गंगा (हॉस्टल) के आसपास एक चक्कर मार आते फिर दंड–बैठक वगैरह कर लेते। अरे भाई, दुकेले बनने के लिए ट्रेनिंग तो लेनी पड़ती है न। ऐं?’’ धवल को रह–रहकर यह अन्तर्ज्ञान मथता रहता कि जे0एन0यू0 में ट्रांसफारमेशन या कहिए कि व्यक्तित्व के रूपान्तरण का अदृश्य चुम्बकत्व सक्रिय है। धवल एक और दिन एक और आलोचना–पुरुष सेएक सवाल कर बैठा, बेंच पर बैठे–बैठे–‘‘सर यदि ‘द हिन्दू’ अखबार मार्क्सवादी विचारधारा का है–तो सौ से अधिक वर्ष बीत जाने के बावजूद–एक धार्मिक शीर्षक से क्यों बंधा है?’’ फिर क्या था, आलोचना–गुरु वाणी, हावभाव और तमतमाते आवेश के साथ बरस पड़े–‘‘तुम भी कैसे–कैसे सवाल पूछते हो यार! अब कहो कि बी0एच0यू0, जामिया का नाम बदल दिया जाय, क्योंकि उनके नाम धार्मिक रंग लिए हुए हैं। धर्म से इतनी चिढ़ क्यों? धर्म कोई बहुरूपिया है क्या? कुतूहल से देखो भी और दस कदम दूर भी भागते रहो। मेरे कहने का मतलब समझो यार! तुम भी न…. अरे, केवल धार्मिक नाम रखने के कारण ग़ैर प्रगतिशील नहीं साबित हो जाता।’’
धवल की दशा उस तैराक की तरह थी, जो किनारे से चला तो नाव साथ थी, ऐन मजधार में पहुंचते ही नाव डूब गयी, मजा यह कि तैराकवीर भी न था वह, परन्तु जीवन बचाने के लिए हर जतन करना ही था।
धवल ने पाया कि शिक्षकों के व्यक्तित्व के भी कई स्तर हैं। एक तो वह जब पढ़ाते समय सुकरात का अवतार होता है, दूसरा वह जब कॉफी की सिप बजाने के दौरान अपनी साहित्यिक उपलब्धियों के कसीदे पढ़ रहा होता है और तीसरा वह जब किसी यारबाज शिक्षक के साथ अपनी फुसफुसाहट भरी मुस्कुराहटों से खेल रहा होता है। अभी तक धवल ने यही विचार प्रज्ज्वलित कर रखा था कि कर्म, विचार, वाणी, व्यवहार और स्वभाव से मनुष्य की हकीकत का पता चलता है, परन्तु ठहरिए, कुछ बड़ी चूक हो रही है–जब हम बलपूर्वक खुद की श्रेष्ठता का प्रकाशन करते हैं–तो श्रेष्ठता की पेंदी कमजोर है, उसमें कहीं चोर छिद्र आ चुका है। जब हम अपनी विद्वता का वजन गांठ रहे होते हैं तो विद्वता की चमक पर धुँआ छा गया मानिए, जब अपनी बात मनवाने के लिए उत्तेजना की हद तक ताकत झोंकनी पड़े, फिर तो बूझ लीजिए, बात में वह योग्यता नहीं, जिसे स्वीकार कर लिया जाय। एक साथ विरोधी किस्म के विचारों से पराजित नौसिखुआ की तरह जूझता हुआ धवल चल पड़ा कावेरी की ओर। चिंतन की मस्ती में शरीर अनायास सड़क पर लुढक रहा था, आसपास की झाड़ियों, वृक्षों यहाँ तक कि सुगंधमय चमक बिखेरती छात्राओं के बादशाही जादू का असर भी उसके बबुआ–चित्त पर नहीं पड़ रहा था। धवल की चलती–फिरती बेहोशी की हद तो तब हो गयी जब रूममेट प्रशांत मणि ब्रेकेट में अशांत शिरोमणि निगाहों–निगाहों में धवल से टकरा गये और धवल ने थमकर देखा भी नहीं कि क्या ये मेरे ही कमरामित्र हैं?
विश्वविद्यालय की फिजाओं में सांसें लेते हुए बीत चले आधा वर्ष। अंगुलियों पर गिने जाने लायक इन महीनों में धवल ने जाना जो नैसर्गिक तौर पर नग्न है, उनमें कम से कम नंगई है और जिसने कई खूबसूरत पर्दों के आवरण में खुद को ढँक लिया है, उनकी नंगई बेमिसाल, लाजवाब हैं। पेड़ नंगे, मगर सज्जनता की मूर्ति जैसे! जीव, जानवर, जन्तु सब परमनग्न परन्तु आदमी की नंगई के आगे लाचार। समुद्र, नदी, धरती सब नग्न, मगर इनसे बढ़कर सज्जनता की मिसाल कहाँ मिलेगी?
जे0एन0यू0 छात्र संघ का चुनाव अपने आप में एक सांस्कृतिक घटना या कहें–बौद्धिक युद्ध की प्रयोगशाला है। आइसा, एस0एफ0आई0, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद नेशनल स्टूडेन्ट्स ऑफ यूथ कांग्रेस–ये चार स्थायी स्तम्भ हैं जे0एन0यू0 छात्र संघ के। मगर इन्हीं के बीच, इन्हीं के समानान्तर, इन्हीं से होड़ लेता हुआ–एक और छात्र–संगठन बूझ लीजिए। वह है ‘फ्री थिंकर्स’ का। अर्थात् जो स्वतन्त्र युवा बौद्धिक हैं किसी एक विचारक या किसी एक विचार से आबद्ध रहने में विश्वास नहीं करते। जो मार्क्स को मानते हैं, परन्तु मार्क्सवाद से बंधे नहीं हैं, जो विवेकानन्द से अन्तःप्रेरित हैं, परन्तु भगवा रंग से संकल्पमय एलर्जी है, जो गांधी की अद्भुत शख्सियत को पसंद करते हैं, किन्तु उनकी हिन्दू धर्म परस्ती की निर्मम निन्दा भी उगलते हैं। जे0एन0यू0 का यह छात्र संगठन सबसे अल्पसंख्यक दल है, जिसमें आजाद ख्याल छात्राओं का दबदबा है। इसमें से एक–एक को आत्मज्ञान है कि वे छात्र संघ का चुनाव कभी नहीं जीतेंगे, परन्तु इतनी तन्हा जिद्द जरूर है कि एबीवीपी का वोट जरूर घटाएंगे और विरोधी का वोट घटा देना अपने समर्थक को जीत दिलाने में अहम योगदान है। ‘फ्रीथिंकर्स’ की परम आकांक्षा है–अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् हो, हम जीतें या नहीं? और कमोवेश प्रतिवर्ष उनकी यह आकांक्षा फलीभूत होती है। प्रेसीडेंट और वाइस प्रेसीडेंट का पद सारा भजन, कीर्तन, तप, साधना और भाषण जोतने के बाजवूद एबीवीपी को नसीब नहीं होता।
जे0एन0यू0 का छात्र संघ चुनाव इ0वि0वि0 से अलहदा है। यहाँ कहीं भी, किसी भी वक्त बेमौसम बारिश की तरह भाषण शुरू हो सकता है। आपको सुनना है रूक जाइए, नहीं सुनना है कट लीजिए। वोट बैंक मजबूत करने के लिए कोई गुप्त होशियारी नहीं, कोई भाईयाना नौटंकी नहीं, जाति, क्षेत्र, धर्म का कोई झांसा नहीं। सारी जंग विचारधारा की लड़ी जाती है। यदि आप भारतीय सभ्यता, धर्म, परम्परा, संस्कृति, सनातन मूल्यों और आध्यात्मिकता के प्रति आकंठ भक्तिवान हैं, तो एबीवीपी के अव्वल सिपाही हैं और यदि इन सभी के प्रति बुद्धि के मैदान में मार्क्सवादी आलोचना की हवाएं बहती हों तो आइसा या एस0एफ0आई0 के क्रांतिबीज सिद्ध हुए। हाँ यदि आप शीतल चित्तधारी हैं, न बाएँ से लेना है, न दाँए से। न हिन्दू परम्परा की ढोल पीटनी है, न ही मार्क्सवाद का जाप करना है–तो ‘फ्री थिंकर्स’ कहलाने से कौन रोक सकता है? इन तीनों के बीच ‘एन0एस0यू0आई0’, जो कि कांग्रेस दल की युवा शाखा है चुनाव लड़ती है, मगर जीतने के लिए कतई नहीं, लड़ने का धर्म निभाने के लिए। वरना चुनाव के अंतिम दिन तक कैम्पस की दिशाएं तरस जाती हैं किसी कांग्रेसी युवा का झन्नाटेदार भाषण सुनने के लिए। जब अध्यक्ष पद के लिए धक्का मारकर मोर्चे पर खड़ा किया गया छात्रनेता मतों के प्रचंड अंतर से हार जाता है, तब पता है कि ये फलां संगठन के, फलां पद के लिए प्रत्याशी थे। एबीवीपी संयम, संतुलन, धैर्य और आत्म समीक्षा में यकीन जरा कम करती है। उसका फार्मूला है–फ्रन्टफुट पर बैटिंग करने का। बात साफ है मुद्दा कोई भी हो, सबको खींचकर सनातन धर्म, मूल्य, मर्यादा और अध्यात्म से जोड़ दो। हर समस्या का समाधान अतीत में तैयार है। मसलन विश्व में जो आविष्कार आज हो रहे हैं, भारतवर्ष, नहीं–मित्र, महान भारत देश में वह खोज वैदिक ऋषि, मुनियों ने हजारों साल पहले कर ली थी। बताइए श्री रामचन्द्र जी का पुष्पक विमान क्या था, आज के जमाने का एरोप्लेन ही तो।
गोदावरी छात्रावास शत–प्रतिशत छात्राओं के नाम अर्पित रहने के कारण छात्र नेताओं के लिए विशेष खिंचाव का केन्द्र रहता है। नैसर्गिक संयोग देखिए कि वहाँ बहस करने लायक, भाषण का सिक्का जमाने लायक, गुटरूगूं करने योग्य और देर रात ओसमय आकाश तले भापमय चाय की प्यास बुझाने लायक चट्टानें भी कछुओं की भांति असंख्य पड़ी हैं। चुनाव हफ्ता भर शेष है–फिजाओं में चुनाव–चुनाव की राजनीतिक गंध उड़ रही है। दो विपरीत संगठन के मित्र–नेता चप्पलें चटकाकर बगल से गुजरते हुए ‘क्या मित्र?’ से आगे बोलना भूल गये हैं। आइसा जहाँ वामपंथ को व्यावहारिक जमीन पर उतारती है–जरा माहौल, मिजाज पढ़–समझकर मोर्चा लेती है, वही एस0एफ0आई0 लेफ्ट के सिद्धान्त का झण्डा उठाए रहती है–सुर्ख लाल कपड़े की पृष्ठभूमि पर हंसिया और हथौड़ा। देखते ही तबियत सिहर उठती है कि क्रांति अब हुई कि तब हुई, सूरज अब समाजवादी हुआ कि तब हुआ। यकीन न आए तो एक आपदामस्तक माक्र्सवादी मेधा का भाषण सुन लीजिए–‘‘मैं यहाँ सामने खड़े एक–एक भाई से पूछना चाहता हूँ–तुम्हारे शरीर में जो लहू दौड़ रहा है–किसके दम पर? तुम जो सुंदर वस्त्र पहनते हो, आखिर किसके बूते? ये जो जूते गांठकर रास्तों पर उड़ते हो, किसके परिश्रम से? मत भूलो कि भोर होने से पहले जो मिट्टी में अन्न उगाता है–वह तुम्हारा ही एक भाई या पिता है। मत भूलना कि तुम्हारा उत्थान लाखों की पीठ को सीढ़ियां बनाने से तय हुआ है।याद रखना साथी जब किसान का पसीना मिट्टी में गिरता है–तो फसलें नहीं, सभ्यताएं लहलहाती हैं। जब एक श्रमिक जन्म लेता है, तो पृथ्वी की हिफाजत का एक सैनिक खड़ा होता है, जब मरता है तो यकीनन पृथ्वी अपने तन से नाभिनालबद्ध एक वृक्ष खोती है।’’ संयोग से दूर पत्थरवत् खड़ा धवल देख रहा था– पत्थर पर जीवित प्रतिमा के समान खड़े श्यामबिहारी बनर्जी लेनिन बने भाषण दे रहे थे। धवल जी उठा मंत्रबद्ध, ऐसा बहा उनके भाषण के जादू में, मानो उसके भी शरीर में कार्लमार्क्स उतर रहे हों, कुछ देर के लिए अपना धवलपन भूल गया और श्यामबिहारी का एक–एक वाक्य पूरे शरीर में बिजली की तरह झन–झन गूंजता रहा।
कैम्पस के चुनावी मौसम में जिधर देखो, उधर निब्र्याज भाव से भाषण बरस रहे थे। सुनने वाले भक्तगण ऐसे निर्विकार सुनते, जैसे पकड़कर लाए गये हों, जिन्हें चुनाव शब्द से एलर्जी थी, वे छात्रनेताओं को परम ज्ञानी की तिरछी निगाहों से देखते और एक चुभनवाली कंटीली मुस्कान मारकर अंतध्र्यान होते। धवल की दशा गांव के छुटहर बछड़े की तरह थी। बीच खेत में घुसकर चार गाल निपटाता और मुंह उठाकर देखता, यहाँ के बाद किस फसल को निपटाना है। ‘फ्री थिंकर्स’ संगठन की देवयानी प्रधान अपनी फेमिनिस्ट आडियोलॉजी पेश कर रही थी–‘‘साथियों। सदियों से भारतवर्ष में स्त्री कभी, मां, कभी पत्नी, कभी बहन और कभी प्रेमिका रही–परन्तु मैं पूछना चाहती हूँ–वह स्त्री कब रही? मेरा मतलब है–स्त्री को उसके मन से, उसकी आंखों से, उसकी इच्छाओं, सपनों और जरूरतों के अनुसार कब देखा गया? अधीनता स्त्री की नियति है या पुरुषनिर्मित गुलामी? प्रकृति ने सब कुछ स्त्री को दिया, जो पुरुष के पास है, सिवाय कुछ अंगों की भिन्नता के, फिर महत्व का यह लाइलाज भेद क्यों? माँ की गरिमा पाकर भी वह गुलाम है, पत्नी का दायित्व अघोषित सेविका का दूसरा नाम है। स्त्री के लिए सारी फिलासफी देह से शुरू होती है और देह पर पूर्ण विराम ले लेती है। यह सौंदर्य कोमलता, कमनीयता, मादकता जो पुरुष को लुभाकर भी उसकी सत्ता के आगे स्त्री के व्यक्तित्व को झुका दे, किस महत्व की? अब वक्त है अपनी आजादी के अधिकार को हासिल करने का, वक्त है कि हम निर्भय होकर कहें कि स्त्री–पुरुष के साथ कंधा मिलाकर चलने वाली मित्र है, पीछे–पीछे अनुसरण करने वाली गूंगी गुड़िया नहीं।’’ देवयानी नशीली फुहार चित्त पर छिड़क ही रही थीं, कि ऐन मुँह पर खड़ा धवल पूछ बैठा–‘‘जिस पुरुष को जन्म देती है, औरत, वही उस पर इतना शासन कैसे जमा सकता है?’’
देवयानी थम सी गयी, पूछा–‘‘तुम्हारा नाम क्या है साथी?’’ धवल को एक मीठा–सा घटका लगा, ‘साथी’ किसी छात्रा ने पहली बार कहा था, वो भी इतना धड़ल्ले से। धवल ने एक और सवाल भेंट किया–‘‘जब यह सच है कि स्त्री के बगैर पुरुष नहीं और पुरुष के बग़ैर स्त्री तो दोनों के बीच प्रेम, सहयोग विश्वास और सम्मान का अकाल क्यों? और देवयानी जी! अपने महत्व का हक आप बलपूर्वक छीनकर या लड़कर कैसे हासिल करेंगी? वह तो हृदय से फूट पड़ा झरना है, जो किसी के प्रति अकारण ही जन्म लेता है।’’ देवयानी प्रधान ने अपना लच्छेदार भाषण बंद कर दिया और चट्टान से अदापूर्वक नीचे उतर कर धवल के निकट आ गयीं, बेतरह रोमांचित हो उठा धवल, मानो रोम–रोम के नीचे मादक आनंद के बुलबुले फूट चले हों। ‘‘साथी, परसों–प्रेसीडेंटियल डिबेट है–गंगा के लॉन में। तुम जरूर जाना, तुम्हारे सवाल मौन कर देते हैं। आओगे न?’’ असमंजस में हिचकोले खाता हुआ धवल ढंग से न हाँ कह पा रहा था, न ही ना। देवयानी न जाने कौन–सी पहेलीमय बांकी मुस्कान हृदय पर अंकित करती हुई जाने लगी, जो धवल की हाँ सुने बग़ैर दावा करती थी कि तुम डिबेट में आने से खुद को रोक नहीं पाओगे मित्र! धवल वापस कमरे पर आया, देवयानी की मुखर वाणी से जितना खिंचाव नहीं हुआ था, उससे चैगुना खिंचाव देवयानी के महकते मौन से हो गया।
जे0एन0यू0 की दिशाओं में मार्क्सवादी चिनगारियों की धूम है तो क्या हुआ, ‘फ्री थिंकर्स’ की रागिनी रह–रहकर जाग उठती है – तो क्या, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद भी कोई चीज हुआ करती है जिसके इन दिनों पतवार हैं–वंशीधर महंत। ‘महंत’ टाइटल तो इन्होंने हिन्दुओं की साधु–परम्परा पर लट्टू होकर जड़ लिया, वरना इनका मातृपक्ष से नाम है–वंशीधर त्रिपाठी। इनकी एक आँख से वैदिक भारत की हिन्दू सभ्यता बहती है तो दूसरी आँख से भारत के शेष धर्मावलंबियों को डरा–धमका–फुसलाकर हिन्दू बना लेने की काल्पनिक नेतागिरी। धवल ने देखा कि श्री वंशीधर महंत आधा कृष्ण, आधानेता के मिले–जुले अवतार हैं। गले में गेरूवाधारी वाला तौलिया, बीच मस्तक पर, हनुमान चालीसा जपने के बाद स्वतः अंकित किया हुआ गेरूआ टीका। महीन खादी का श्वेताभ पैंट और इसी तर्ज की शर्ट बूझ लीजिए। मजा तो यह कि वंशीधर अपने माथे पर शिखा पाल रखे हैं, जे0एन0यू0 के माहौल की शर्म कहिए या पोंगापंथी घोषित होने का अखंड भय, वंशीधर ने शिखा बौनी ही रखी है, जिसे तेल से चमकाकर बांधते तभी हैं, जब गले का तौलिया बार–बार पीछे फंेककर भाषण कूटना होता है। कुतूहल; उत्सुकता और अनिश्चय की आदतवश धवल उनका शंखध्वनि नुमा भाषण सुनने ठहर गया। वंशीधर घंटा भर पहले पान निबटा कर आए थे। पीने वाला पान नहीं, खाने वाला पान। लीजिए, पान खाने से लाल हुए होठों का कौशल सुनिए–‘‘मैं पूछना चाहता हूँ भाइयों कि सिक्ख, ईसाई, मुस्लिम और बौद्ध होने से पहले हम लोग कौन थे? गीता में भगान कृष्ण का महान उपदेश किसी मार्क्सवाद से कमतर है क्या? और फिर हमें किसी विदेशी विचारधारा का अनुयायी क्यों बनना? युगों–युगों पहले यही आर्यावर्त विश्वगुरु हुआ करता था। हम फिर वही गौरव लौटाएंगे। भारतवर्ष सोने की चिड़िया बनकर रहेगा, ये हमारा वादा है आपसे।’’
दो सप्ताह के भीतर पूरे कैम्पस में प्यासे पंक्षी की तरह भाषणों की बारिश पी–पीकर धवल बूझने लगा कि व्यक्ति सबसे अधिक वह बोलता है, जो चाहकर भी कर नहीं पाता, जो हरसत प्यारी होने बावजूद अधूरी रह जाती है। अर्थात् वादा–कुछ न कर पाने की प्रायः क्षतिपूर्ति है, क्योंकि जो कर गुजरने की सनक पालते हैं, वे वादा करते ही नहीं। धवल ने एक तथ्य का और अन्तर्ज्ञान प्राप्त किया–वह यह कि वादा–कर्म के प्रति आपकी निष्ठा, समर्पण और प्रतिबद्धता को दुर्बल कर डालता है। यह ऐसे पोस्ट डेटेड चेक की भांति है, जिसमें बैंक बैलेंस है ही नहीं। धवल तब और माथा पिट लिया, जब देखा कि भाषणों में वादों का फल बांटने वाले आड़ में सिगरेट साधते हुए निब्र्याज अंदाज में फुसफुंसाते थे–यार बस जीत पक्की हो जाय, फिर वादों–फादों को कौन पूरा करता है?’’ इसीलिए धवल ने मौन को, वादा न करने को वाणी की कठिन उपलब्धि माना, जो बड़ी समझदारी, मैं मुक्त विवेक और बोलने की निर्थकता जान लेने के बाद हासिल होती है। मुंह की कीमत बोलने में नहीं, बल्कि अपने विचार, कर्म और इंकार की प्रतिध्वनि पैदा करने में है। व्यक्ति जब बोलता है, तब खाली अधिक होता है, भरा होता है बहुत कम। किन्तु जब मौन रहता है, तब चिंतन के आकाश में अनछुए सत्यों की बारिश होती है और हमारे भीतर भराव आ जाता है। धवल ने जाना कि जीवन की अधिकांश दूरियाँ युद्ध, संघर्ष, शत्रुता, अप्रेम, कुंठा, ईर्ष्या और भेदभाव केवल वाणी की अराजकता और अहंकारमयता से पैदा होते हैं। मनुष्य जीवन में केवल इतना सीख जाय कि क्या नहीं बोलना, कब चुप को साधना है, किस हद तक और कितने ताप के साथ बोलना है तो दुनिया के बीच बेमिसाल मित्रता खिल उठेगी।
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भरत प्रसाद |
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad