समकालीन जीवन के साथ नए डिस्कोर्स से पैदा हुई कविताएँ
Ø संजय राय
एक श्रेष्ठ रचना उन तत्त्वों को पकड़ती है जो सर्वाधिक नये और इसलिए अनूठे हैं। जो रचना जितनी तीव्रता और जितने विस्तार से इस नयेपन को व्यक्त करती है, वह उतनी ही श्रेष्ठ होती है और उतनी ही अधिक समकालीन।[1]
– अरुण कमल
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मंगलेश डबराल |
हमारे समय की जटिलताएँ, समस्याएँ, चुनौतियाँ और संभावनाएँ जिस परिमाण में बदली हैं, जिस नए रूप में हमारे सामने आई हैं; समकालीन हिंदी कविता भले ही उसको उसकी संपूर्ण जटिलता और बदलाओं में न पकड़ पाई हो, पर उसे पकड़ने की पूरी छटपटाहट और बेचैनी हमारे दौर की कविता में मौजूद है। मंगलेश डबराल हमारे दौर के उन थोड़े-से समर्थ कवियों में हैं, जिन्होंने अपने समय को उसकी संपूर्ण जटिलता में देखने की कोशिश की है। उनका नया कविता संग्रह ‘नये युग में शत्रु’(2013) इस बात का ताज़ा प्रमाण है। ‘पहाड़ पर लालटेन’(1981) से अपनी ओर ध्यान खींचनेवाले मंगलेश का ‘घर का रास्ता’(1988), ‘हम जो देखते हैं’(1995),‘आवाज़ भी एक जगह है’(2000) के बाद यह पाँचवां संग्रह है।
ध्यानाकर्षण का पहला केंद्र है संग्रह का नाम। पहली नज़र में यह नाम किसी लेख के नाम-सा प्रतीत होता है। यह मानने में थोड़ा वक़्त लगता है कि यह कविता की किताब है। और जब आप इस संग्रह की कविताओं से रू-ब-रू होते हैं तो सहसा ठिठक जाना पड़ता है। बिल्कुल नए तेवर की ताज़गी से भरी हुई कविताएँ आपका इंतज़ार कर रही होती हैं। इंतज़ार कर रहा होता है एक भारीपन भी जो समय की विकरालता के सहसा सामने आ जाने हमारे भीतर पैदा होता है। हमारी जानी-पहचानी, समझी और अनुभव की हुई चीज़ों को कोई अचानक हमारा शत्रु बताए और हमारे पास उस पर विश्वास करने के अलावा कोई चारा न हो, तो जैसा भारीपन और आतंक हमें घेर लेगा – कुछ-कुछ वैसा ही अनुभव होता है इस संग्रह की कविताओं से गुज़रते हुए।
सोवियत संघ के विघटन के बाद जो एक नई एकध्रुवीय दुनिया हमारे चारों ओर बनी, उसका व्यापक असर तीसरी दुनिया के देशों पर पड़ा। चंद देश मिलकर पूरी दुनिया पर अधिकार करने की मुहिम में जुट गए। अबकी बार ज़्यादा शातिर तरीके से इस काम को अंजाम दिया जाने लगा। एक नई साम्राज्यवादी नीति के तहत दुनिया के तमाम संसाधनों पर अधिकार करने की होड़-सी मच गई। एक वैश्विक रणनीति बनी और उसकी चपेट में पूरी दुनिया आ गई। एक नई तरह की ग़ुलामी एक नए आश्वासन के साथ शुरु हुई –
इन दिनों दिमाग़ पर पहले क़ब्ज़ा कर लिया जाता है
ज़मीनों पर क़ब्ज़ा करने के लिए लोग बाद में उतरते हैं
इस तरह नयी ग़ुलामियां शुरू होती हैं
तरह-तरह की सस्ती महंगी चमकदार रंग-बिरंगी
कई बार वे खाने-पीने की चीज़ों से ही शुरू हो जाती हैं
और हम सिर्फ़ एक स्वाद के बारे में बात करते रह जाते हैं
कोई चलते-चलते हाथ में एक आश्वासन थमा जाता है
जिस पर लिखा होता है ‘मेड इन अमेरिका’[2]
अमेरिका को आश्वासन का पर्याय बनाया गया और उस आश्वासन तले एक नए तरह का षड्यंत्र अपने केंचुल से निकलते साँप की तरह रेंगते हुए हमें घेरता रहा। हम सामने बेजान केंचुल देखते रहे पीछे फ़न काढ़े साँप से बेख़बर। कई तरह की आकर्षक चीज़ें इस षड्यंत्र का साधन बनीं। खाने-पीने की चीज़ों को भी नहीं बख़्शा गया। हालही में हुआ मैगी प्रकरण इसका ताज़ा उदाहरण है। इस तरह के तमाम उदाहरण हमारे सामने हैं। चाहे गेहूँ के साथ पार्थेनियम का आना हो, चाहे डी.एन.ए. मैनेज्मेंट के तहत विभिन्न खाद्य पदार्थों के बीजों से उनकी प्रजनन क्षमता को नष्ट कर बाज़ार पर कब्ज़ा करने की रणनीति ताकि बीज के लिए देश के देश अमेरिका पर निर्भर हो सकें। इस तरह एक नए चरित्र वाली ग़ुलामी शुरू हुई। इसके तहत पहले दिमाग पर क़ब्ज़ा किया गया, फिर ज़मीन पर क़ब्जा जमाने का सिलसिला शुरू हुआ।
सोवियत संघ के विघटन के बाद के इन 20-25 वर्षों में वैश्विक राजनीति और उसके प्रभावों का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो गया कि इस दौरान एक नई साम्राज्यवादी नीति को अमली जामा पहनाया गया। इस रणनीति के तहत तीसरी दुनिया के देशों की आत्मनिर्भरता ख़त्म कर दी गई, उन्हें पंगु बनाकर चंद मुल्कों पर निर्भर कर दिया गया। युद्ध को भी एक कारगर हथियार के रूप में इस काम में लगाया गया। एक कुशल प्रबंधन के तहत इस काम को अंजाम दिया गया –
एक कुशल प्रबंधन के तहत
होटलों दूकानों अस्पतालों में तब्दील हो रहा है संसार
x x x
युद्ध भी कुशल प्रबंधन का एक प्रिय विषय है
x x x
कई बार हमारे खाद्य पदार्थ ही प्रक्षेपास्त्र बन जाते हैं
जिनकी मार बाहर से नज़र नहीं आती
शिकारी और शिकार कितनी ही दूर और छिपकर बैठे हों
एक परफ़ेक्ट मैनेजमेंट के हाथ
उन्हें खींचकर एक दूसरे के पास ले आते हैं
x x x
अन्याय का पता न चलने देना अन्याय का कुशल प्रबंधन है
लूट का न दिखना लूट की कला है
दुनिया में कुछ भी अच्छा या बुरा नहीं
बल्कि सबकुछ अत्यंत प्रबंधनीय है[3]
संसार का होटल, दुकान और अस्पताल में तब्दील किया जाना; खाद्य पदार्थ का प्रक्षेपास्त्र के रूप में इस्तेमाल किया जाना अन्याय के कुशल प्रबंधन के तहत ही संभव हुआ। यह सब दरअसल प्रबंधन के नाम पर चलाए जा रहे षड्यंत्र और अन्याय का हिस्सा है।
ताज़ा मैगी प्रकरण में एक दिलचस्प घटना हुई। तमाम विवाद चले। कहीं मैगी का सैंपल जांच के लिए भेजा गया। कहीं इस पर पाबंदी लगा दी गई। बिहार में इसका विज्ञापन करनेवालों – माधुरी दीक्षित, अमिताभ बच्चन और प्रीती जिंटा के ख़िलाफ़ एक मामला भी दर्ज किया गया। लेकिन अभी तक कहीं भी इसके मालिक के ख़िलाफ़ न कोई मामला दर्ज हुआ न ही गिरफ़्तारी हुई। इस घटना से जोड़कर ‘नये युग में शत्रु’ कविता की इन पंक्तियों को देखना दिलचस्प होगा –
जो लोग ऊंची जगहों में भव्य कुर्सियों पर बैठे हुए दिखते हैं
वे शत्रु नहीं सिर्फ़ उनके कारिंदे हैं
जिन्हें वह भर्ती करता रहता है
ताकि हम उन्हें खोजने की कोशिश न करें[4]
ऐसा लगता है कि इसी घटना को ध्यान में रखकर ये पंक्तियाँ लिखी गई हैं। पर ऐसा है नहीं। इस घटना के काफ़ी पहले ये पंक्तियाँ लिखी जा चुकी थीं। हमारा सारा ध्यान माधुरी दीक्षित, अमिताभ बच्चन और प्रीती जिंटा पर है और असल मुजरिम की कोई बात ही नहीं करता।
समजवाद का संघर्ष अपने परिणाम का विपर्यय रच चुका है और उसी मोड़ पर फिर खड़ा है जहाँ से शुरू हुआ था। हमारे समय की सत्ता प्रतिरोध की परंपरा को नष्ट करने के लिए प्रतिबद्ध है। प्रतिरोध को दबाने, उसे भटकाने और वास्तविकता को छिपाने की एक विशेष प्रवृत्ति उसका चरित्र है। कवि को इसीलिए लगता है, ‘इस बार लड़ना ज़्यादा कठिन है / क्योंकि ज़्यादातर लोग अपने को जीता हुआ मानते हैं और हंसते हैं’[5]। कवि इस विडंबना की ओर इशारा करना नहीं भूलता कि हमारा समय कृत्रिम खुशियों का समय है।
इस नई शत्रुता का अपना एक चरित्र है। मंगलेश डबराल इसे इस प्रकार देखते हैं –
हमारा शत्रु कभी हमसे नहीं मिलता सामने नहीं आता
हमें ललकारता नहीं
हालांकि उसके आने-जाने की आहट हमेशा बनी हुई रहती है
कभी-कभी उसका संदेश आता है कि अब कहीं शत्रु नहीं हैं
हम सब एक दूसरे के मित्र हैं
आपसी मतभेद भुलाकर आइए हम एक ही प्याले से पियें
वसुधैव कुटुंबकम् हमारा विश्वास है[6]
भूमंडलीकरण के इस विकराल रूप का पर्दाफ़ाश करते हैं मंगलेश। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के तहत वसुधैव कुटुंबकम् की आड़ में पूरी वसुधा को लूटने की एक अंतहीन प्रक्रिया चलाई जा रही है। मंगलेश समकालीन हिंदी कविता को इस तह तक ले जाते हैं और उसकी भाषिक क्षमता का इतना विस्तार करते हैं कि वह अपने समय के सच को उसकी संपूर्ण जटिलता में आत्मसात और अभिव्यक्त कर सके सीधे-सीधे।
कवि की शिकायत है समकालीन हिंदी कविता से। उसके लगातार बेजान होते जाने की चिंता है उसे –
देखो एक रोगशोकजरामरणविहीन कविता की दशा
वह यहां त्वचा की तरह सूखती हुई पड़ी है[7]
उपर्युक्त पंक्तियाँ समकालीन हिंदी कविता की शुष्क होती दुनिया और उसकी संवेदनहीनता की ओर संकेत करती हैं। कवि की लड़ाई इस मोर्चे पर भी है। वह इस मोर्चे पर भी अपनी सार्थकता सिद्ध करता है। पाँचवे संग्रह में पहले संग्रह की-सी ताज़गी इस बात का प्रमाण है।
हमारे समय का चरित्र पिछले 20-25 सालों में काफी बदला है। उदारीकरण की प्रक्रिया तमाम तीसरी दुनिया के देशों पर थोपी गई है। तमाम देश उदार अर्थनीति अपनाने को बाध्य हुए हैं। पैसे और ताक़त का महत्व बढ़ा है। पैसा और सत्ता के बीच नए ढंग का गठजोड़ हुआ है। पैसा बनाने की प्रक्रिया भी बदली है। पैसे के प्रति हमारा दृष्टिकोण भी बदला है। वह ज़माना चला गया, जब लोग पैसे के पीछे भागते थे या लोग पैसे के दीवाने थे या लोग पैसे के पीछे पागल थे। वह कोई और युग रहा होगा। अब वह युग नहीं रहा। इस तरह के जुमलों से हमारे युग का चरित्र स्पष्ट नहीं होता। शायद इसीलिए मंगलेश नए तरह से हमारे युग का चरित्र पढ़ते हैं – ‘इन दिनों लोग पैसे का शिकार करते दिखते हैं’[8]। इसे हमारे युग का प्रमुख व्यवसाय भी मानते हैं वे। ‘पैसे के लिए पागलपन’ अब ‘पैसे के शिकार’ का रूप अख़्तियार कर चुका है। हिंसात्मक प्रवृत्ति की गुणात्मक वृद्धि का संकेत भी मिलता है इससे। धन के प्रति हमारे समय के चरित्र में हुए बदलाव को मुक्कमल ढंग से रेखांकित करती है यह पंक्ति।
दूसरी तरफ मंगलेश ‘पैसा ही सबखुछ है’ के युग में ‘पैसा नहीं है’ की झेंप के बजाय पैसा न होने का गर्व और स्वाभिमान देखते हैं एक बूढ़े के व्यवहार में और एक कवि उस बूढ़े के गर्व और स्वाभिमान के सामने नतमस्तक होता है। होता कुछ यूँ है कि कवि बस से सफर कर रहा होता है। उसकी बगल वाली सीट पर एक बूढ़ा है। जब कंडक्टर उस बूढ़े से पैसे मांगता है तो वह कहता है, मेरे पास नहीं है पैसा। उसकी आवाज़ में कवि एक ऐसा गर्व और स्वाभिमान देखता है, जो बड़े-बड़े पैसे वालों के पास भी दुर्लभ है। कवि थोड़ी देर के लिए सोचता है कि वह ख़ुद पैसे दे दे, पर चुप रह जाता है। बाद में उसे लगता है कि ऐसा करना उस बूढ़े के स्वभिमान और मनुष्यता का अपमान होता। बस से उतरने के बाद उस बूढ़े के सामने मन ही मन नतमस्तक होता है। इस प्रकार कवि हताशा के इस महाद्वीप पर उम्मीद के नए पौधे उगाता है।
कवि हमारे समय के चरित्र को उसके नएपन, विकरालता और बदलावों की संपूर्णता में पकड़ने की कोशिश करता है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं –
क) दूरियां कम हो रही हैं लेकिन उनके बीच निर्वात बढ़ते जा रहे हैं[9]
ख) इन दिनों लोग अपने ही सुख से लदे हुए मिलते हैं[10]
ग) शरीर के उपभोक्ता हम जान नहीं पाये कैसे करें उससे प्रेम[11]
घ) लोग अत्याचार को धूल की तरह झाड़ देते हैं[12]
ङ) दोनों तरफ़ गिलासों के जमघट उनमें शराब कांपती है
लोग उसमें अपनी तकलीफ़ को रोटी की तरह डुबोकर खाते हैं[13]
च) पुरुष डॉलर पाउंड येन यूरो के कोट पहने हुए थे
स्त्रियां जैसे सिर्फ़ त्वचा पहने हुए हों[14]
इन पंक्तियों से यह स्पष्ट है कि कवि अभी चुका नहीं है और अपने समय से सर्वाधिक जूझनेवाला कवि है। कवि में नई चुनौतियों का सामना करने की ताक़त भी है और उसे अभिव्यक्त करने की भाषिक और काव्यात्मक क्षमता भी। कवि अपनी बातों को दृढ़ता से कहने का भरपूर जोख़िम भी लेता है।
यहाँ हमें मंगलेश की कविता की बनावट समझने की कोशिश करनी चाहिए। उनकी कविता की समकालीनता को समझने के लिए यह ज़रूरी है। ‘छुओ’ कविता इस दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। पंक्तियाँ हैं –
दराज़ खोलकर उसकी पुरानी उदासी को छुओ
शब्दों की अंगुलियों से एक ख़ाली काग़ज़ को छुओ
वॅन गॉग की पेंटिंग के स्थिर जल को एक कंकड़ की तरह छुओ
जो उसमें जीवन की हलचल शुरू कर देता है
अपने माथे को छुओ
और देर तक उसे थामे रहने में शर्म महसूस मत करो
छूने के लिए ज़रूरी नहीं कोई बिलकुल पास में बैठा हो
बहुत दूर से भी छूना संभव है[15]
कविता यहाँ तक तो एक सामान्य कविता-सी लगती है संवेदनात्मकता से लैस। लेकिन कविता जैसे ही आगे बढ़ती है, एक विशिष्ट कालबोध, समय संबद्धता और अपने समय के चरित्र को व्यक्त करनेवाली एक महत्वपूर्ण कविता का शक्ल अख़्तियार कर लेती है –
कृपया छुएं नहीं या छूना मना है जैसे वाक्यों पर विश्वास मत करो
यह लंबे समय से चला आ रहा एक षड्यंत्र है
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अपने भीतर जाओ और एक नमी को छुओ
देखो वह बची है या नहीं इस निर्मम समय में[16]
मंगलेश की कविता की एक विशिष्ट बनावट यह भी है कि वह एक सामान्य संवेदनशील कविता की तरह शुरू होती है, कभी-कभी बिल्कुल व्यक्तिगत चीज़ों से शुरू होती है और हमारी उंगली पकड़कर हमें समय के सच तक ले जाती है बिना कोई भूमिका बाँधे।
एक तनाव है जो कवि को संचालित करता रहता है। संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए जगह-जगह इस तनाव को महसूसा जा सकता है। कवि एक तरफ ये कहता है कि ‘प्रेम एक उजड़े घोंसले की तरह दिखाई देता है’[17] तो दूसरी तरफ उसे यह भी विश्वास है कि ‘तब भी प्रेम की तलाश ख़त्म नहीं होती इस दुनिया में / जहां हर चीज़ पर डॉलर में लिखी हुई है उसकी क़ीमत’[18]। यह इसी तनाव का असर है कि कविता में कहीं भी विराम चिह्न का प्रयोग नहीं किया गया है। मंगलेश की कविता की एक ख़ास बनावट यह भी है कि वह कविता के वैचारिक प्रवाह को बिना किसी रुकावट के पाठकों तक पहुँचाती है। आम तौर पर जहाँ ज़रुरी लगता है – ऐसी जगहों से भी विराम चिह्न नदारद हैं।
कवि चिंतित है कि समाज में एक तरफ दिखावा बढ़ रहा है, तो दूसरी तरफ सामाजिक विकृतियाँ भी अपने पैर पसार रही हैं। घृणा, दमन, प्रतिशोध और चालू किस्म की ख़ुशियों में इज़ाफ़ा भी हो रहा है। ‘आदिवासी’ कविता में विस्थापन के दर्द की अभिव्यक्ति के बजाय विस्थापन के पीछे काम कर रहे षड्यंत्र का पर्दाफ़ाश है। ‘गुजरात के मृतक का बयान’ कविता अपनी संरचना में सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ एक दृढ़ प्रतिरोध रचती है। कवि किसी हिंदू, किसी मुसलमान या अपनी तरफ से नहीं बल्कि एक कारीगर, एक मज़दूर की तरफ से दुनिया और सांप्रदायिक हिंसा के रेशे देखने की कोशिश करता है। यह सही कोण है सांप्रदायिकता की पड़ताल का। कवि की एक मासूम इच्छा है –
तलवारों बूंदक़ों और पिस्तौलों पर पाबंदी लगा देनी चाहिए
खिलौना निर्माताओं से कह दिया जाना चाहिए
कि वे खिलौने को पिस्तौल में न बदलें
प्रतिशोध हिंसा हत्या और ऐसे ही समानार्थी शब्द
शब्दकोशों से हमेशा के लिए बाहर कर दिये जाने चाहिए[19]
इस हिंसक समय में जबकि प्रेम एक उजड़े घोंसले-सा दिखता है, कवि पानी और स्वप्न की ओर उम्मीद से देखता है और उनके बचे रहने की याचना करता है। कवि को न चिड़िया का शिकारी पसंद है न उसका पालनहार, बल्कि चिड़िया को उसके संपूर्ण अस्तित्व के साथ स्वीकार करनेवाला रूप ज्यादा भाता है। मनुष्य की कोई भी हरकत जो चिड़िया की नींद में खलल पैदा करती है, उससे कवि परेशान हो उठता है।
सांप्रदायिक हिंसा, विस्थापन, पलायन, विस्मृति – यह सब हमारे समय का कटु सत्य है। भूमंडलीकरण, उदारीकरण, बाज़ारवाद समकालीन समय की चुनौतियाँ हैं। हमारे समय की विडंबना है कि यहाँ उजाला तो है पर आग नहीं है। हमारे समय की इन्हीं विडंबनाओं और कटु सत्यों के बीच आक्रोश, असंतोष और विद्रोह मंगलेश की कविताओं में अंदर ही अंदर पलता रहता है। वह कविता की अभिव्यक्ति प्रक्रिया में एकदम सतह पर नहीं उतराता। बल्कि कहीं गहरे सघन वैचारिकता लिए हुए होता है। और चुपके से पाठक के भीतर कहीं पैठ बना लेता है। कविता पढ़ने के बाद किसी मुक्ति की अनुभूति नहीं होती बल्कि पाठक गहरे कहीं आक्रोश, असंतोष और विद्रोह के बीज पाता है और इनको संचालित करनेवाली एक समझदारी भी।
मंगलेश की कविताएँ अपने समय की समस्याओं से सीधे टकराती हैं, उनसे संवाद करती हैं। काफी जोखिम भरा काम है यह। मंगलेश यह जोखिम लेते हैं। इसलिए कविता कई जगह वक्तव्य-सी लगती है। मंगलेश इसको कविता की कमी नहीं बनने देते, बल्कि सायास इसे कविता के फॉर्म में शामिल कर किसी सामयिक विडंबना की अभिव्यक्ति का सफल माध्यम बनाते हैं। कह सकते हैं इस संग्रह की कविताएँ समकालीन जीवन के साथ नए डिस्कोर्स से पैदा हुई हैं। इन कविताओं का दस्तावेज़ी महत्व है। पिछले 20-25 सालों के बदलाव का काव्यात्मक दस्तावेज़ हैं ये कविताएँ।
संदर्भ
[1] कमल, अरुण, गोलमेज, प्रथम संस्करण : 2009, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. सं. : 134
[2] डबराल, मंगलेश, नये युग में शत्रु, पहला संस्करण : 2013, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली, पृ. सं. : 26
[16] वही, पृ. सं. : 39-40
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संजय राय |
संजय राय
रेलवे क्वा. नं. – 1075/ए., 5वां रास्ता, फोरमैन कॉलोनी,
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हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad