डॉ. ऋषि भूषण चौबे
डॉ. ऋषि भूषण चौबे |
‘
एक बिहारी सौ पर भारी‘ अक्सर हंसी -मजाक के क्षणों में, यह जुमला देश के कई इलाकों में खूब चलता है। इसीतरह एक जुमला इसके उलट भी है – ‘ एक बिहारी सौ बीमारी ‘। ये दोनों जुमले एक मिश्रित सामाजिक बुनावट की खटास – मिठास, भाषाई व समुदायगत श्रेष्ठता ग्रंथी, परस्पर असुरक्षा की भावना और इनके बीच मौजूद अपने अपने विशिष्ट सांस्कृतिक वजूद की चिंताओं से जुड़े तनाव को भी व्यंजित करते हैं । सामान्यत: आर्थिक एवं राजनीतिक कारणों से दो भाषाई समुदायों के साथ साथ रहने से एक अन्तराल के बाद सांस्कृतिक मेल जोल तो पनपता है पर कुछ और चीजें भी जाने- अनजाने निर्मित होती रहती हैं। उनमें से एक है – स्थानीय बनाम बाहरी की भावना । बिहार की छवि / स्थिति हमारे देश में लगभग वही है जो भारत की विदेशों में है। बिहारी अपने देश में सब जगह हैं पर हर जगह वे अपनी पहचान की संकट से जूझते हुए सतत असुरक्षित और उपेक्षित जीवन जीने को बाध्य हैं। वे जहाँ हैं बड़ी संख्या में हैं परंतु सब जगह समान रुप से बाहरी हैं। यही नहीं एक बिहारी बिहार में रहते हुए भी खुद को बाहरी जैसा ही महसूस करता है।इसकी वजहें कई हैं- मुख्यरूप से एक तो बिहार की खराब हो चुकी अथवा बहुत हद तक कर दी गई छवि और दूसरी स्वयं बिहारियों में बिहारियत की भावना की अनुपस्थिति। बिहारियत से यहाँ मतलब किसी तरह की नकारात्मक ‘क्षेत्रीयता‘ नहीं बल्कि अपनी भाषाई, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विरासतों के प्रति सचेत सम्मान की भावना का न होना अथवा न के बराबर होना। इस तरह वह कई कारणों से टूटा- टूटा सा , बिखरा – बिखरा सा रहता है। वह चीज़ों को बदलता हुआ देखना तो चाहता है पर उसका हिस्सा नहीं बन पाता! निश्चित रुप से पिछले दशक में बिहार और बिहारियों के प्रति देश का नजरिया बदला है।पर कुछ स्थाई रुप से जड़ जमा चुकी ग्रंथियाँ कुछ लोग में अब भी बरकरार हैं। देश की मीडिया को , जिसमें हिन्दी और गैर – हिन्दी दोनों शामिल हैं, के लिए बिहार से जुड़ी नकारात्मक घटनाएँ अधिक आकर्षित करती हैं। कह सकते हैं कि यह ख़बर – क्षेत्र उनके व्यवसायिक लाभ (टीआरपी ) के लिए सबसे अधिक सुरक्षित, स्थाई और मसालेदार चारागाह है । अपराध, अराजकता और असुरक्षा के मामले में बिहार से चौदह हाथ आगे रहने वाले राज्य भी अपने को बिहार से अच्छा मानकर थोड़ी मानसिक सुकून पाने का प्रयास करते रहते हैं और इसमें मीडिया उनके प्रति सहानुभूति दिखाने का काम करता रहता है। हमारे देश की मीडिया की पूरी कोशिश रहती है कि ‘ जंगल राज‘ का खिताब बिहार के खाते में ही रहे और पूरे देश में ‘ मंगल राज ‘ घोषित किया जाता रहे! आश्चर्य तब अधिक होता है जब संविधान और कानून के जानकार और रक्षक माने जाने वाले न्याय और प्रशासन तंत्र के लोग भी अक्सर ऐसी गलतबयानी कर जाते हैं। अभी महीना भर पहले एक महाराष्ट्र के सांसद ने एक विमान कर्मचारी के साथ बेहद असभ्य बर्ताव किया।मीडिया ने इसे पूरी ताकत के साथ उठाया भी। पर वह अपराधी सांसद मराठी समाज का प्रतिनिधि नहीं बनाया गया जैसा कि बिहारियों के मामले में जाने अनजाने अक्सर कर दिया जाता है। पूर्व न्यायधीश काटजू बिहार के क़ानून व्यवस्था पर अक्सर व्यंग्य करते हैं। अभी एक ट्विटर संदेश में ‘बिहारी चूहे शराब पीते हैं‘ जैसे वाक्य से उन्होंने अपनी आलोचनात्मक टिप्पणी की। नीयत चाहे जितनी अच्छी हो ख़राब भाषा संदेह पैदा करती है। देश के लगभग सभी बड़े शहरों, उत्पादन के क्षेत्रों और तमाम सेवा क्षेत्रों में बिहारी अपनी सेवाएं देकर देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान कर रहे हैं। वे कठिन परिस्थितियों और कम से कम संसाधनों में बेहतर परिणाम देने के लिये जाने जाते हैं। यदि दो टूक शब्दों में कहें तो बिहारी जनता देश के मानव संसाधन की अनिवार्य ज़रूरत को पूरा ही नहीं करती है बल्कि इस नज़रिये से वह देश की जनता के सामने एक बेजोड़ मिशाल बनकर खड़ी है। यह जनता एक साथ पंजाब, हरियाणा और मणिपुर के खेतों में खेती करती है,देश भर में रिक्सा खिंचती है और पूरे देश के प्रशासन का कमान संभालती है! दुर्भाग्यवश इसी जनता के श्रम और बौद्धिक कौशल के अहमियत को अपने अपने राज्यों की सामाजिक एवं आर्थिक खाताबही में ठीक ठीक समझते हुए भी कुछ राजनेता बचकानी राजनीति का परिचय देकर, उन्हें अपने बयानों से उन्हें अपमानित करते रहते हैं।‘
बिहारी संस्कृति‘ पर बिहार और बिहार के बाहर भी बहुत कम बात होती है। हालांकि , हमारे देश में बिहार और बिहारियों पर चर्चाएँ तो खूब होती हैं पर इनमें से अधिकांश बातें नकारात्मक होती हैं।यानी बिहार का जिक्र सकारात्मक संदर्भों में कम ही होता है।उदार से उदार व्यक्ति भी बिहार के बारे में बहुत कम बोलकर निकल जाना चाहता है। सामान्यत: बिहार पर कुछ अच्छा बोलने का आग्रह व्यक्ति विशेष को धर्म संकट में डाल देता है। वह निस्हाय सा, रटे रटाए ढंग से बिहार के अतीत के गौरव का गान करके अपना पिंड छुड़ाने की कोशिश करता हुआ दिखाई देता है।इस दौरान वह विविध ऐतिहासिक संदर्भों जैसे नालंदा, बुद्ध, महावीर और मौर्य साम्राज्य का एक छोटा सा चक्कर लगाता हुआ वर्तमान के संदर्भ में इतना ही कह पाता है कि बिहारी मेधा पूरे देश में विभिन्न नौकरियों में रहते हुए देश सेवा में लगी हुई है। संक्षेप में कहें तो बिहार का बखान करने लिए उसके पास नये शब्दों और संदर्भों की कमी पड़ जाती है। सवाल है ऐसी स्थिति क्यों है? बिहारी समाज राजनीति प्रिय समाज है। दूसरे शब्दों में यह समाज राजनीति के ओवरडोज का शिकार है। यहां का हर एक मतदाता एक कुशल राजनेता है। वह स्वभाव से ही ‘ लोकल‘ नहीं है। उसे राष्ट्रीय और वैश्विक होना अच्छा लगता है। यही वजह है कि यहाँ की जनता और यहाँ के राजनेता स्थानीय समाज और संस्कृति के प्रति अपनी जबावदेही से बच निकलने की कोशिश करते दिखाई देते हैं। दुर्भाग्यवश वे इसमें सफल भी हैं। समाज में कोई नई ऊँचाई नज़र नहीं आती। कला और संस्कृति का क्षेत्र वर्षों से सूना पड़ा है। स्त्री पराधीनता , जातीय भेदभाव और विविध समूहों में परस्पर वर्चस्वगत लड़ाई- इस समाज का खास चरित्र बना हुआ है।मानव श्रम व संसाधन के अलावा इस राज्य के पास देश को देने के लिए बहुत थोड़ी चीजें रही हैं। दुखद है कि वृहतर बिहारी समाज इस तथ्य से अनजान है अथवा बना हुआ है! बिहारी एक गौरवशाली पहचान होनी चाहिए थी जो अबतक नहीं हो पाई है। इसके लिए जिन नागरिक प्रयासों की जरुरत थी अथवा है वह यहाँ कभी हुई ही नहीं। तथाकथित बड़े सवालों ने यहाँ के छोटे छोटे घरेलू मसलों को कभी गम्भीरता से लेने का अवसर ही नहीं दिया। सारी जन ऊर्जा राजनीतिक सत्ता परिवर्तनों में ही लम्बे समय से होम हो रही है । कुलमिलाकर ,यहाँ राजनीति धुरी बनी हुई है – व्यक्ति जीवन की भी और वृहतर सामाजिक – सांस्कृतिक जीवन की भी। सारे नागरिक संगठन राजनीतिक हैं।अत: राजनीतिक बीमारियों से ग्रस्त भी हैं। ऐसे में नये सिरे से अ- राजनीतिक नागरिक प्रयासों की जरुरत पहले से अधिक बढ़ गई है। बिहारी समाज में वे सभी बुराइयाँ और अच्छाइयाँ हैं जो हर एक समाज में काल एवं परिस्थितियों के अनुसार रहती आई हैं। पर अपने देश में सांस्कृतिक पिछड़ेपन की दृष्टि से भी बिहार पहले नम्बर पर है। आज भी बिहार में इज्जत की दो रोटी खाना आसान काम नहीं है। पलायन चरम पर है। स्वास्थ्य और शिक्षा के सवाल लोगों के लिए बड़े राजनीतिक सवाल नहीं हैं। ‘ हमारी जाति ‘ और ‘उसकी जाति ‘ के दुष्चक्र में पूरा बिहार फंसा है। सत्ता और वर्चस्व की राजनीति ने समाज को कभी जुड़ने नहीं दिया और दुर्भाग्यवश इस समाज ने राजनीति के इस काले पक्ष को समझने का प्रयास भी नहीं किया। लम्बे समय से बिहार की जनता कराह रही है और हमारे बिहारी राजनेता शराबियों की तरह नशे में धुत्त होकर हरदम दिल्ली दिल्ली बकते पाये जाते हैं। ‘पटना ‘ उनके लिए कोई मायने नहीं रखता। पटना उन्हें सोचने को मजबूर नहीं करता।खैर, दिल्ली का नशा है ही ऐसा! कुछ लोगों को वहाँ कि गाली भी आइसक्रिम लगती है।बिहारी समाज विवाह और परिवार में उलझा हुआ समाज है। लड़के की चाह, लड़के का व्याह और लड़के के लिए जमीन – जायदाद के जुगाड़ की चिंता – हर वक्त इस समाज में व्याप्त रहती है। यानी बेटा प्रेमी है यह समाज। इस समाज में बेटियाँ अन्य समाजों की तुलना में अधिक और अनचाही बोझ समझी जाती हैं । बिहारी पुरुष समाज की आधी से अधिक शक्ति जाया हो जाती है इस तरह के भय और चिन्ता में कि – कहीं घर में बेटी न पैदा हो जाए, दहेज कैसे जुटेगा और इज्जत आबरु कैसे बचेगी ? यहाँ यह समझने की जरुरत है कि बेटियों का जन्म उल्लास का विषय तबतक नहीं बन सकता जबतक कि हमारा यह समाज दहेज को पाप न समझने लगे और अपनी बेटियों को उसका पूरा हक देना अपना प्रथम नैतिक और कानूनी धर्म। प्रवासी बिहारियों की स्थिति इन दो घटनाओं से समझिए –
ईटानगर के एक प्रवासी बिहारी सैलून कर्मी ने बताया कि वह बहुत मजबूरी में वहाँ काम करता है। उससे मनमाना किराया, चंदा वैगरह लिया जाता है क्योंकि वह एक तो बाहरी है ऊपर से बिहारी है। मेरे यह कहने पर कि लौट क्यों नहीं जाते हो उसने कहा – दो बार लौट कर भी देख लिया, अब यहीं जीना – मरना है!
एक हरियाणवी साथी ने एक वाकया सुनाया । उसके अनुसार जिलाधिकारी ने सचिव से कहा कि चार मजदूर बुलाकर यह काम आज ही करा दो। उसने जिलाधिकारी के सामने ही सिपाही को आदेश दिया कि वह चार बिहारी बुलाकर काम करा दे।यह सुन जिलाधिकारी ने कहा तब तीन ही बुलाओ क्यों कि एक बिहारी मैं भी हूँ! सुरक्षाबल समेत सरकारी नौकरियों में बिहारियों की संख्या जनसंख्या के अनुपात में सर्वाधिक है। इसी तरह हिन्दी पत्रकारिता समेत अन्य सेवा क्षेत्रों में भी बिहारियों की संख्या सबसे अधिक है।बावजूद इसके बिहारियों की जीवन स्थिति संतोषजनक नहीं है। जीवन में लालच, बेईमानी और दबंगई का स्थान ज्यादा है। नियम कानून का पालन , स्वअनुशासन की भावना और उदारता जैसे मूल्यों में गिरावट देखने को मिलती है। बिहार से गुजरने वाली ट्रेनें बिहार की सीमा में रहते हुए बिना ‘माई- बाप‘ की हो जाती हैं।कहा जाता है कि बिहारियों की खराब छवि में इस यात्रा – स्थिति का बड़ा हाथ है। आश्चर्य है कि ऐसे हालात दशकों से जस के तस हैं।सवाल यह भी है कि क्या रेलवे लोकल यात्रियों के लिए अतिरिक्त १०-२० ट्रेने उन्हीं पटरियों पर नहीं दौड़ा सकता? एक अनुमान यह भी है कि रेलवे की यात्रा भी सबसे अधिक बिहारी ही करते हैं। यानी रेलवे बिहारियों से लाभ तो लेता है पर समुचित सेवा से यह कहकर बच निकलता है कि यह राज्य की कानून व्यवस्था का मामला है। कुल मिलाकर धन्य हैं हम बिहारी और धन्य हैं हमारी चुनीं सरकारें! बिहारी समाज को खुद को बदलने की जरुरत है। कुछ सुझाव – खानदानी सम्पत्ति विवादों से बचाव, जातिवाद से घृणा, स्त्रियों को खेती, व्यवसाय और सांस्कृतिक कार्यक्रमों से जोड़ना, घूंघट प्रथा के खात्मे की कोशिश , सास – बहू के झगड़ों का तार्किक निपटान, छोटे परिवार का स्वागत, कन्यादान वाली सोच का विरोध, विद्यालयों, पुस्तकालयों और शौचालयों के निर्माण पर जोर, सार्वजनिक जगहों पर होने वाले गलत बातों के विरोध की आदत, अपने राजनेताओं से उच्च मूल्यों के पालन की अपेक्षा, कला क्षेत्रों को बढ़ावा देना, अमर्यादित गीतों का बहिष्कार और उत्तरदायी लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई, अपनी पहचान छिपाने की आदत का विरोध, दहेज का विरोध , बहिष्कार और सादगी के साथ विवाह के अनुष्ठान की परंपरा की शुरुआत और अपने वोट – अधिकार का निष्ठापूर्वक पालन।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad