• मुखपृष्ठ
  • अनहद के बारे में
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक नियम
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
अनहद
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • समीक्षा
    • संस्मरण
    • विविध
  • कला
    • सिनेमा
    • पेंटिंग
    • नाटक
    • नृत्य और संगीत
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विविध
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • समीक्षा
    • संस्मरण
    • विविध
  • कला
    • सिनेमा
    • पेंटिंग
    • नाटक
    • नृत्य और संगीत
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विविध
No Result
View All Result
अनहद
No Result
View All Result
Home संस्मरण

निडरता की ओर छोटी-सी यात्रा : आरती

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in संस्मरण, साहित्य
A A
2
Share on FacebookShare on TwitterShare on Telegram

आरती

आरती को सबसे अधिक मैं एक कुशल सम्पादक के रूप में जानता हूँ – उनसे जब कोई संपर्क नहीं था तब भी उनके द्वारा संपादित त्रैमासिक पत्रिका समय के साखी मेरे पास हर बार आती ही थी। मैं हर बार ये सोचता था कि इस पत्रिका की सदस्यता ग्रहण कर लूँगा लेकिन मेरी काहिली की वजह से यह न हो पाता था। हालांकि इस बीच इसी पत्रिका में मेरी लंबी कविता एक देश और मरे हुए लोग एक लंबी टिप्पणी के साथ छपी। वह लंबी कविताओं का एक विशेषांक था। बहरहाल आरती न केवल कुशल संपादक हैं वरन् एक एक्टिविस्ट, कवि और शानदार गद्यकार भी हैं। उनका यह संस्मरण महज एक रिपोर्ट भर नहीं है – यह संस्मरण विपरीत परिस्थितियों में साहित्य और संस्कृति के लिए कार्य कर रहे लोगों का एक जीवंत दस्तावेज भी है। कहने की जरूरत नहीं कि जैसे जैसे समय बितेगा इस तरह के दस्तावेजों की कीमत बढ़ती जाएगी।

Related articles

जीवन  का मर्म कानून से  नहीं समझा  जा सकता – मधु कांकरिया

भक्तिन

अनहद से जुड़ने के लिए हम आरती का आभार प्रकट करते हैं और आपके साथ का हार्दिक वंदन भी।
****
निडरता की ओर छोटी-सी यात्रा
आरती
अनुभव बटोरने के लिए दुनियाभर के लेखकों द्वारा की गई यात्राओं के अनेक किस्से हैं। उस लिहाज से अपने गृह राज्य से हजार-दो हजार किलोमीटर दूर की यात्रा करना कोई उल्लेखनीय बात नहीं होती। वो भी आज के सुख-सुविधापूर्ण यातायात के साधनों के जमाने में तो हर्गिज नहीं। लेकिन जब कफ्र्यू लगता है तो लोग अपने पड़ोस के घर तक जाने का जोखिम मोल नहीं लेते। तब इंसानियत के लिए, हाथों में हाथ लेकर निडरता से दस कदम चलना भी एक चुनौती होती है। जब एक लेखक या कलाकार की अभिव्यक्ति पर पहरे बिठा दिये जाएँ, उसे निर्देशित किया जाए कि वो सिफ वही लिखे जो सत्ता को पसंद आता हो, तब विवेक से सत्ता को अप्रिय लगने वाला सच लिखना तो बड़ी बात है ही। बर्टोल्ट ब्रेष्ट ने लिखा था –
क्या अँधेरे वक्त में भी गीत गाए जाएँगे
हाँ, अँधेरे वक्त में भी
अँधेरे के बारे में गीत गाए जाएँगे।
जो बोलने और लिखने के लिए वे लेखक शहीद हुए, जो वे लिखना और बोलना सही और जरूरी समझते थे, उनके विचारों के साथ और उनके परिजनों-साथियों के साथ एकजुटता दर्शाने के लिए, मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ ने अपने पड़ोसी राज्यों महाराष्ट्र और कर्नाटक की यात्रा का कार्यक्रम बनाया। ये एक छोटा-सा कदम ही था लेकिन इसने बहुत सारे अनुभव दिये और हौसलों को मजबूत किया। इन्हीं राज्यों में पिछले चार वर्षों में हमारे तीन बड़े लेखक, विचारक और आंदोलनकारी शहीद हुए। उनके कायर-हत्यारे नाकारा सरकारों की ढील की वजह से अब तक खुले घूम रहे हैं और शेष समाज के लिए खतरा बने हुए हैं। सच और सच की तलाष की लड़ाई में डाॅ. नरेन्द्र दाभोलकर, काॅमरेड गोविंद पानसरे और प्रो. एम. एम. कलबुर्गी ने अपनी शहादत दी है और उनके परिवारजन तथा साथी न्याय के लिए सब्र के साथ वर्षों से लड़ रहे हैं। केवल उनके लिए न्याय नहीं, इस पूरे समाज के लिए और एक तर्कशील विचारवंत समाज की स्थापना के लिए भी न्याय।
हम सोचकर निकले थे कि उनकी लड़ाई में अपनी आवाज मिलाकर आएँगे। हम सोचकर निकले थे कि सच्चाई के लिए उठते नारों की बँधी मुट्ठियों में अपनी मुट्ठी भी लहराकर आएँगे। हम सोचकर निकले थे कि नजदीक से चीजों को जानकर आएँगे। लेकिन जब हम पहुँचे और जिस तरह लोगों ने तमाम शहरों में जो इज़्ज़त और प्यार दिया, जो भरोसा दिखाया, उससे लगा कि हमने कोई बड़ी जिम्मेदारी ले ली है जो सिर्फ़ इस यात्रा के साथ समाप्त नहीं होगी।
लिखने, बोलने और अहिंसात्मक प्रतिरोध करने, लोगों में तर्कशीलता एवं विवेक के इस्तेमाल की समझाईश की प्रवृत्ति को जगाने के प्रयासों में लगे, देश के तीन प्रबुद्ध चिंतक, समाजसेवी और लेखकों की पिछले वर्षों में लगातार उग्र और कट्टरपंथियों द्वारा हत्याएँ की गईं। महाराष्ट्र में तर्क और विवेक पर आधारित कार्य करतेे हुए लोगों को बरगलाने वाले ढोंगी बाबाओं का प्रतिरोध करने की वजह से डाॅ. नरेन्द्र दाभोलकर की 20 अगस्त, 2013 में गोली मारकर हत्या की गई। इसी प्रकार विख्यात सीपीआई नेता और समाजसेवी काॅमरेड गोविंद पानसरे और उनकी पत्नी काॅमरेड उमा पानसरे को भी कट्टरपंथियों ने अपनी बंदूक का निशाना बनाया। फलस्वरूप काॅमरेड गोविंद पानसरे की 20 फरवरी, 2015 को मृत्यु हो गई और काॅमरेड उमा अभी तक पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो सकी हैं। उन्हें भी सिर में गोली लगी थी। कर्नाटक के विख्यात लेखक और 2006 में साहित्य अकादमी सम्मान से नवाजे गए प्रो. एम.एम. कलबुर्गी की उनके घर में घुसकर हत्या की गई। विवेकशील विचारों को समाप्त कर देने के लिए की गई ये हत्याएँ बेहद चिंतनीय हैं लेकिन उससे भी ज़्यादा खतरनाक है सरकारों का लगभग उदासीन रवैया। हालाँकि प्रतिक्रियास्वरूप पिछले चार वर्षों में भारतीय जागरूक जनमानस के बीच इसकी तीखी आलोचना हुई। अनेक लेखकों, पत्रकारों, संस्कृतिकर्मियों, समाजविदों और वैज्ञानिकों ने अपने सम्मानों को लौटाकर, लेख, कविताएँ लिखकर और सड़कों पर उतरकर हत्यारों के न पकड़े जाने को लेकर प्रतिरोध दर्ज किया।
इसी क्रम में ‘मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ’ ने ग्यारह चयनित सदस्यों का दल बनाकर इन लेखकों के विचारों पर हुए कट्टरवादी हमले और अब तक इनके हत्यारों के पकड़े न जाने की न्यायिक शिथिलता के प्रति अपना असंतोष व लेखक परिवारों और उनके साथ न्यायिक लड़ाई लड़ रहे, उनके सहयोगियों के प्रति अपनी एकजुटता जाहिर करने के लिए शहीद लेखकों के गृहनगरों की यात्रा का आठ दिवसीय कार्यक्रम बनाया। यह कार्यक्रम इस तरह नियोजित किया गया कि इसमें हम इन लेखकों के परिजनों से भेंट के साथ-साथ ऐसे मोर्चों और व्यक्तियों से मिलने का अवसर भी पा सकें जो जनसंघर्षों में या किसी न किसी तरह सृजनात्मक तरह से एक बेहतर मानवीय संस्कृति के निर्माण की कोशिशों में जुटे हुए हैं।
14 फरवरी, 2017 से प्रारंभ यह दल पुणे से सतारा, गोवा, धारवाड़ और कोल्हापुर होते हुए स्थितियों को नजदीक से परखते, समझते, विश्लेषण करते हुए 21 फरवरी को वापस आया। इस दल में प्रलेस के प्रांतीय अध्यक्ष राजेन्द्र शर्मा (भोपाल), प्रांतीय महासचिव और राष्ट्रीय सचिव मंडल सदस्य विनीत तिवारी (इंदौर), प्रांतीय कार्यकारी दल सदस्य हरनाम सिंह चांदवानी (वरिष्ठ पत्रकार, मंदसौर), सुसंस्कृति परिहार (प्रांतीय सचिव मंडल सदस्य, दमोह), तरुण गुहा नियोगी (प्रांतीय सचिव मंडल सदस्य, जबलपुर), हरिओम राजोरिया (प्रांतीय अध्यक्ष मंडल सदस्य, अशोकनगर), सीमा राजोरिया (प्रलेस सदस्य व भारतीय जन नाट्य संघ, इप्टा अशोक नगर), दिनेश भट्ट (प्रांतीय सचिव मंडल सदस्य, छिंदवाड़ा), शिवशंकर शुक्ल ‘सरस’ (प्रांतीय सचिव मंडल सदस्य, सीधी), बाबूलाल दाहिया (प्रांतीय सचिव मंडल सदस्य, सतना) एवं आरती (प्रलेस सदस्य, भोपाल) शामिल हुए।
म.प्र. प्रलेस के ये सभी पदाधिकारी और सदस्य अलग-अलग जिलों से पुणे में 14 फरवरी को इकट्ठे हुए। इकट्ठे होने की जगह रेलवे स्टेषन भी हो सकती थी लेकिन तय की गई जगह थी महाराष्ट्र की ही नहीं देश भर की प्रमुख अर्थशास्त्री, आंदोलनकारी और विचारवंत लेखिका और हाल ही में दिवंगत डाॅ. सुलभा ब्रह्मे द्वारा बनाई ‘लोकायत’ नामक संस्था का कार्यालय। वहाँ पुणे के ही एक अन्य सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता अमित नारकर ने हमें ‘लोकायत’ संस्था के कार्यों व संगठन की जानकारी दी। शुरुआत से ही हमारा समूह खामोषी से एक अध्ययन दल में बदल गया। लोकायत के कार्यों को जानते और सुलभा ब्रह्मे जी के बारे में जानते-समझते ये एहसास भी हुआ कि ऐसे ज़रूरी लोगों के बारे में भी हम कितना कुछ नहीं या न के बराबर ही जानते हैं। ये ख्याल भी आया कि दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी के बारे में भी हिंदी का संसार आमतौर पर तब तक नहीं ही जानता था जब तक कि वे शहीद हो जाने की वजह से सभी जगह चर्चित नहीं हो गए।
‘लोकायत’ से हम पुणे के करीब 50 कि.मी. दूर ‘तलेगांव दाभाड़े’ में विदुर महाजन (लेखक और सितार वादक) एवं उनकी पत्नी अपर्णा महाजन (अंग्रेजी की प्राध्यापिका) के बहुत ही कलात्मक और प्राकृतिक खूबसूरती से आच्छादित ‘मैत्रबन’ (यानी ‘दोस्तों के घर’) पहुँचे। पहाड़ी की तलहटी में बने इस मैत्रबन के बनने की कहानी से लेकर, उसका स्थापत्य, फर्नीचर, सैकड़ों पेड़-पौधे और पूरा माहौल ही एक अलग दुनिया का अहसास करवा रहा था। और सबसे खास तो अपर्णा और विदुर का वो सहज और गर्मजोश व्यवहार था, जिसे छूकर पेड़-पौधे और मिट्टी, पत्थर, लकड़ी सभी क़रीबी और पुराने परिचित लगने लगे थे। शाम को विदुर महाजन ने सितार वादन और सभी साथियों ने कविता-पाठ किया। इस स्थान का कोना-कोना, अनगिनत किस्मों के पेड़-पौधे, विदुर-अपर्णा महाजन के प्रकृति और कला प्रेम की कहानी खुलकर कहते हैं। विदुर ने शाम को अपने उस अभियान की भी जानकारी दी जिसमें वे शास्त्रीय संगीत को खास लोगों के दायरे से निकालकर उसे आम ग्रामीण लोगों से परिचित करवाने के लिए सैकड़ों गाँवों में साधारण जन के बीच सितार और शास्त्रीय संगीत लेकर गए जिनमें से अधिकांश ने जीवन में पहली बार ही सितार सुना था। उन्होंने दो एकड़ की उस आत्मीय जमीन के बीचोंबीच बना वह डोम भी बताया जिसमें करीब दो सप्ताह तक बंद रहकर उन्होंने अपनी एक पुस्तक पूरी की थी। विदुर की पारिवारिक पृष्ठभूमि संगीत या कला की नहीं थी लेकिन विदुर को शास्त्रीय संगीत में इतनी दीवानगी थी कि वो तलेगाँव से मुंबई तक संगीत विदुषी ख्यात गायिका किषोरी अमोनकर से संगीत सीखने के लिए अप-डाउन किया करते थे। विदुर ने कविताओं, दर्शन और संस्मरणों की किताबें मराठी में लिखी हैं और वे महाराष्ट्र साहित्य अकादमी से पुरस्कृत भी हुई हैं। रात तारों भरी थी और साथियों के साथ बातें करने की एक दूसरे को जानने की उत्कंठा से और 11 लोगों की चहल-पहल से आबाद मैत्रवन की वो रात अविस्मरणीय बन गई। 
15 फरवरी यानी अगले दिन सुबह हमने अंतरराष्ट्रीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे में विद्यार्थियों से मुलाकात कर, संस्थान के अधिकारियों एवं शासन की रीतियों-नीतियों पर चर्चा की। ये वही संस्थान है जिसने भाजपा के सत्ता में आने के बाद कला, संस्कृति और शिक्षा के संस्थानों के संप्रदायीकरण और राजनीतिक नियुक्तियों के खिलाफ पूरे देश को जगाने वाली आवाज उठाई थी। वहाँ नाचीमुत्थु, रोहित, राॅबिन और अन्य विद्यार्थियों ने प्रलेस के दल को पूरे संस्थान का भ्रमण करवाया। प्रभात स्टूडियो, फिल्म एडिटिंग एवं लायब्रेरी, कैंटीन, हाॅस्टल आदि जगहों का विस्तार से परिचय दिया। इसके बाद पुणे की प्रलेस इकाई एवं अन्य संस्थाओं द्वारा साधना मीडिया सेंटर में चर्चा का आयोजन था। साधना समाचार पत्र करीब 6 दशकों पहले महाराष्ट्र के प्रसिद्ध समाज सुधारक ‘साने गुरूजी’ द्वारा आरंभ किया गया था और आज तक सतत यह वैज्ञानिक चेतना और समाजवादी विचारों के प्रसार में संलग्न है। इसमें म.प्र. प्रलेस द्वारा की जा रही यात्रा के उद्देश्य को पुणे के लेखकों, विचारकों, समाजसेवियों एवं पत्रकारों तथा अंधश्रृद्धा निर्मूलन समिति (अनिस) के कार्यकर्ताओं के बीच साझा किया गया। इस बैठक में 93 वर्षीय काॅमरेड शांता ताई रानाडे (वरिष्ठ सीपीआई नेता व गोविंद पानसरे की राजनीतिक सहयोगी, पिछले साठ सालों से राजनीतिक तथा वैचारिक मोर्चों पर सक्रिय), एस.पी. शुक्ला (वरिष्ठ विचारक, पूर्व सदस्य योजना आयोग, पूर्व वित्त एवं वाणिज्य सचिव), लता भिसे (भारतीय महिला फेडरेशन की राज्य नेत्री), मिलिंद देशमुख (अनिस कार्यकर्ता), नंदिनी जाधव (अनिस कार्यकर्ता), नीरज (लोकायत), अहमद शेख (थियेटर कलाकार), दीपक मस्के (अंबेडकरवादी विचारक और प्रलेस, पुणे), माओ भीमराव (प्रलेस, महाराष्ट्र) एवं अपर्णा, जहाँआरा, शैलजा, रुचि भल्ला, राधिका इंग्ले, सुनीता डागा के साथ ही अनिस, प्रलेस एवं थियेटर से जुड़े कई युवा भी उपस्थित थे। लेखिका राधिका इंग्ले तो देवास से अपने किसी अन्य कार्यक्रम में पुणे आई थीं। उन्हें दस्तक वाट्सअप समूह से इस बैठक की जानकारी मिली तो वे आ गईं। इसी तरह लेखिका रुचि भल्ला पुणे से 110 किमी दूर स्थित फलटण शहर से इस बैठक की जानकारी पाकर इस लोभ में भी आई थीं कि यहाँ उन्हें हिंदी सुनने को मिलेगी जो उन्होंने फलटण रहते 3 महीनों से नहीं सुनी थी। हमारे दल के वरिष्ठ साथी हरनाम सिंह जी ने म.प्र. प्रलेस के सांगठनिक ढांचे और कार्यों का विस्तृत परिचय दिया एवं कहानीकार दिनेश भट्ट ने यात्रा का उद्देश्य साझा किया। हरिओम राजोरिया एवं शिवशंकर शुक्ल ‘सरस’ ने कुछ कविताओं का पाठ भी किया। मराठी के कवियों का भी कवितापाठ हुआ। इस बैठक की विशेषता कट्टरवाद एवं अन्य सामाजिक मुद्दों पर हुई चर्चा थी। आज की परिस्थिति में फासीवाद ताकतों के खिलाफ सभी को एकजुट होकर उनका प्रतिकार करना चाहिए, यह समय की आवश्यकता है, इस बात पर सभी ने जोर दिया। एस. पी. शुक्ला ने हमें महाराष्ट्र की तर्कशील परंपरा और संत साहित्य के भीतर मौजूद रही मानवतावादी धारा का तथा काॅमरेड गोविंद पानसरे द्वारा शिवाजी को हिंदू राजा की चैखट से बाहर निकालने के तथा उनके व्यक्तिगत जीवन के मार्मिक प्रसंगों से संक्षेप में परिचित करवाया।
शाम को हम युवा फिल्म निर्देशक क्रांति कानाडे के घर गए। वहाँ उनकी बनाई और राष्ट्रपति पुरस्कार एवं कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजी लघु फिल्म ‘चैत्र’ देखी। उल्लेखनीय बात ये कि उनके घर की पूरी बनावट इस तरह की गई है कि पूरे क्षेत्रफल का अधिकांश हिस्सा किसी भी सार्वजनिक किस्म के कार्यक्रम के लिए इस्तेमाल हो सकता है। क्रांति का कहना है कि जब सरकारें सार्वजनिक स्थलों पर कब्जा करती जा रही हैं और उन्हें निजी हाथों में सौंपा जा रहा है, साहित्य, नाटक, फिल्म आदि करने के लिए सभी जगहें या तो बहुत महँगी कर दी गई हैं या फिर सरकारी विचारधारा के अनुकूल होने की शर्त उन पर जड़ दी गई है तो उन जगहों को वापस हासिल करने के लिए लड़ना तो होगा ही, साथ ही हममें से जिनके पास भी जगहें हैं, उन्हें आगे आना होगा और अपने निजी आकाश में सार्वजनिक की जगह बढ़ानी होगी। क्रांति ने हमें अपनी नई फिल्म ‘सीआरडी’ का ट्रेलर भी दिखाया जो अभी हाल ही में अमेरिका के पाँच महानगरों में रिलीज हुई है। फिल्म का ट्रेलर देखकर ही ये अंदाजा लग गया कि दक्षिणपंथियों को इससे खासी तकलीफ रहेगी।
शाम को ही पुणे से चलकर हम करीब आधी रात सतारा पहुँचे। 16 फरवरी को हमारी मुलाकात डाॅ. नरेन्द्र दाभोलकर के बेटे डाॅ. हमीद दाभोलकर, डाॅ. शैला दाभोलकर (डाॅ. दाभोलकर की पत्नी) एवं अनिस के कार्यकर्ताओं व पदाधिकारियों के साथ हुई। डाॅ. दाभोलकर के बेटे और अनिस कार्यकर्ता हमीद दाभोलकर ने डाॅ. दाभोलकर के कार्यों, संघर्षों एवं हत्या का वर्णन करते हुए न्याय प्रक्रिया में आनेवाली अड़चनों का विस्तृत विवरण दिया। उन्होंने कहा कि अनिस की स्थापना हुए 25 साल हो गए। महाराष्ट्र के 30 जिलों में करीब 4 से 5 हजार स्वैच्छिक कार्यकर्ता सामाजिक जागरुकता की लड़ाई लड़ रहे हैं। महाराष्ट्र के साथ ही कर्नाटक और दिल्ली में भी नयी इकाइयाँ खुली हैं। उन्होंने बताया कि लोगों का शोषण करने और अंधविश्वास फैलाने वाले कारकों के खिलाफ महाराष्ट्र राज्य में अब कानून भी (डाॅ. दाभोलकर की हत्या के बाद) बन चुका है। म.प्र. प्रलेस के सदस्यों ने डाॅ. शैला से भी विस्तृत और अंतरंग बातें की। उन्होंने कहा कि यह सामाजिक न्याय की लड़ाई है जो आगे भी चलती रहेगी। नरेन्द्र की हत्या के बाद भी लड़ाई थमी नहीं है और थमेगी भी नहीं। डाॅ. दाभोलकर के और उनकी शादी के दिलचस्प किस्सों के साथ ही डाॅ. दाभोलकर के दृढ़ निश्चय और अडिग निर्णयों के बारे में उन्होंने जो बातें कीं, उनसे सभी का दिल भर आया।
सतारा से दोपहर को ही निकलकर हमने गोवा की ओर प्रस्थान किया। गोवा वह स्थान है जहाँ दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी की हत्या के हत्यारों के सूत्र जिस सनातन संस्था के साथ जुड़े बताये जाते हैं, उसका मुख्यालय है। रात करीब 10.30 बजे हम गोवा पहुंचे। यहाँ हमारा आत्मीय स्वागत सुविख्यात मजदूर नेता काॅमरेड क्रिस्टोफर फोन्सेका व उनकी पत्नी काॅमरेड शंाति फोन्सेका (ख्यातिनाम वकील) ने किया। काॅमरेड क्रिस्टोफर एवं काॅमरेड शांति ने गोवा के ताजे हालात, राजनीतिक गतिविधियों, मजदूर संगठनों की जानकारी दी। अगले दिन 17 फरवरी को गोवा के प्रसिद्ध स्थल ‘कला सांस्कृतिक भवन’ में गोवा के लेखकों, समाजसेवकों एवं पत्रकारों के साथ एक बैठक हुई जिसमें साहित्य अकादमी सम्मान प्राप्त लेखक डाॅ. दत्ता नाईक, दिलीप बोरकर, रजनी नैयर (हिन्दी और कोंकणी की लेखक), चितांगी नमन (कवि, युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त), महेश, प्रभु देसाई एवं अन्य प्रतिष्ठित लोग भी मौजूद थे। सभी ने गोवा के ऐतिहासिक-राजनीतिक स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कहा कि लेखकों की हत्याओं के विरोध में गोवा के 30 लेखकों ने अपने सम्मान शासन को वापस किए (इसमें राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय सम्मान शामिल हैं)। इस बैठक का मकसद गोवा के साहित्यकारों से गोवा के उस पहलू को जानना था जो आमतौर पर पर्यटक के तौर पर आने वाले कभी जान नहीं पाते। गोवा का मुक्ति संग्राम, वहाँ के भौगोलिक और सामाजिक-राजनीतिक इतिहास को जानने के लिए गोवा के ही विद्वानों को सुनना हम लोगों ने तय किया था और यही किया भी।
डाॅ. दत्ता नाईक ने अपने उद्बोधन में कहा कि – दुनिया में पर्यटन के लिए विख्यात गोवा में यहाँ के लोगों के लिए रोजगार की काफी कमी है जिससे वे विदेश या भारत के अन्य भागों की ओर पलायन करते हैं। सन् 2012 में खदानों के पूर्णतः बंद होने से पूर्व गोवा खदानों के लिए जाना जाता था। पहले यहाँ खेती भी आजीविका का माध्यम थी। इसके बाद यहाँ सरकारों द्वारा केवल पर्यटन एवं होटल उद्योगों को ही बढ़ावा दिया जाता है जिसने वर्गभेद को और गहरा किया है। युवा कवि नमन ने प्रलेस से बात करते हुए कहा कि दुनियाभर में फिल्मों के द्वारा परोसी गई गोवा की छवि (समुद्री बीच और कसीनो) से इतर आपने इसके भीतर की कलात्मकता, जन-जीवन और संघर्षों की ओर देखने की पहल की, उन्हें करीब से जानने की कोशिश की, यह बेहद सराहनीय है।
गोवा के एटक मज़दूर संगठन के कार्यालय में प्रेस काॅन्फ्रेंस का आयोजन था। प्रेस काॅन्फ्रेंस में हमारे दल ने गोवा के मीडियाकर्मियों से मुलाकात की एवं अपनी यात्रा का उद्देश्य बताया। इसका एक महत्त्व ये भी था कि जिस सनातन संस्था के सदस्यों पर इन तीनों विद्वानों की हत्या का आरोप है, उसका मुख्यालय गोवा में ही है, उस तक भी मीडिया के मार्फ़त ये संदेष पहुँचे कि विचारों नहीं मारा जा सकता। मीडिया की ओर से प्रश्न पूछा गया कि हत्याओं के इतने वर्षों बाद यह यात्रा क्यों? इसका उत्तर विनीत तिवारी ने देते हुए कहा कि हम अपने प्रदेशों में अनेक तरीकों से (लेखन, भाषण, जुलूस, प्रदर्शन और ज्ञापन) द्वारा विरोध दर्ज करते रहे हैं। हममें से कुछ पदाधिकारी पहले भी आकर शहीद लेखकों के गृहनगरों में आयोजित कार्यक्रमों में हिस्सेदारी करके गए हैं। लेकिन अब इतने दिनों तक न्यायिक प्रक्रिया की सुन्नावस्था देखकर, शहीद हुए परिवार के लोगों एवं अन्य प्रादेशिक लेखकों के प्रति अपनी एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए इस यात्रा का आयोजन किया, ताकि यह संदेश दूर तक जाए कि इस लड़ाई में हम भी उनके साथ हैं। पत्रकारों को राजेन्द्र शर्मा, हरिओम राजोरिया और सीमा राजोरिया ने भी संबोधित किया। शाम को हम प्रसिद्ध ‘पिलार सेमिनरी म्यूजियम’ को देखने गए। वहाँ फादर काॅस्मे जोस कोस्टा ने म्यूजियम में गोवा की ऐतिहासिकता से संबंधित बारीक जानकारियाँ दीं एवं वहाँ के विद्यार्थियों एवं शिक्षकों से मुलाकात भी करवाई।
18 फरवरी की सुबह ‘द पलोटी इंस्टीट्यूट आॅफ फिलाॅसफी एवं रिलीजन’ में विद्यार्थियों से एवं वहाँ के शिक्षकों से भी इस यात्रा और गोवा के विषय पर विस्तृत चर्चा हुई। वैसे तो वह भी ईसाइयत के धार्मिक षिक्षक तैयार करने का इंस्टीट्यूट है लेकिन वहाँ सिर्फ़ धर्मषास्त्रों की ही पढ़ाई नहीं होती। इंस्टीट्यूट के विद्यार्थियों ने साहित्य और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित अपनी जिज्ञासाओं को लेखकों के सामने रखा। उनके पूछे प्रश्नों पर भी काफी चर्चा हुई। सुसंस्कृति परिहार जी ने प्रगतिषील लेखक संघ के सुदीर्घ और व्यापक इतिहास से संक्षेप में परिचय करवाया।
18 फरवरी की दोपहर हमने गोवा से, दो दिन में हम सबके बेहद अजीज बन गए काॅमरेड क्रिस्टोफर और काॅमरेड शांति से विदा ली। दो दिनों में इन दोनों ही शख्सियतों ने हम सबको बेहद प्रभावित और प्रेरित भी किया। कभी न भूल सकने वाली शख्सियतें हैं काॅमरेड शांति और काॅमरेड क्रिस्टोफर। अब हम अपनी अगली मंजिल धारवाड़ (कर्नाटक) की ओर रवाना हुए।
धारवाड़ पहुँचकर सीधे हम ‘दक्षिणायन संस्था’ की ओर से आयोजित ‘सोशल मीडिया वर्कशाप’ का हिस्सा बने। यहाँ पर प्रसिद्ध समाजसेवी और लेखक प्रो. गणेश देवी मौजूद थे। साथ ही उनकी पत्नी सुलेखा जी और कर्नाटक के विभिन्न हिस्सों से आये जाने-माने लेखक, कवि, पत्रकार, समाजसेवी और शोधार्थी-विद्यार्थी भी। यहाँ पर जानकारी देना आवश्यक है कि ‘दक्षिणायन संस्था’ प्रो. गणेश देवी एवं अन्यों के प्रयास का वह प्लेटफार्म है जो फासीवाद के बरअक्स लोगों को एक साथ, एकजुट करने का प्रयास कर रहा है। प्रो. एम.एम. कलबुर्गी की हत्या की न्यायिक लड़ाई कर्नाटक के जागरुक लेखक, पत्रकार, समाजसेवी नागरिक मिलकर लड़ रहे हैं। प्रो. गणेश देवी ने हमें दक्षिणायन का सविस्तार परिचय कराया। हमारे साथियों के परिचय के बाद, चाय के दौरान सोशल मीडिया वर्कशाप में आये सभी प्रतिभागियों के साथ हमारे दल का लंबा फोटोसेशन चला जो हमारी यात्रा के उद्देश्य एवं प्रतिरोध के साथ खड़े होने के संकल्प की टिप्पणियों के साथ सोशल मीडिया के सभी प्लेटफाॅर्मों (फेसबुक, ट्वीटर, वाट्सअप, इंस्टाग्राम, गूगल) पर छाया रहा और अभी भी उपलब्ध है। यहीं पर प्रसिद्ध माक्र्सवादी चिंतक और जाने माने समाजसेवी एस. आर. हिरेमठ जी से मुलाकात हुई। वे बस बाहर जाने से पहले हमसे मिलने के लिए ही इंतज़ार में रुके हुए थे। हिरेमठजी अनेक वर्षों से आदिवासियों के हक़ों और प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खि़लाफ लड़ाई लड़ रहे हैं और कर्नाटक के खनन माफिया की रीढ़ पर प्रहार करने के लिए वे देशभर में जाने जाते हैं। यह प्रो. कलबुर्गी का सत्य व ज्ञान से अर्जित स्थान है कि सभी लेखक और अन्य उनके बाद भी उनके सम्मान की लड़ाई लड़ रहे हैं।
19 फरवरी की सुबह हम प्रो. कलबुर्गी के घर उनकी पत्नी उमादेवी और उनके पोते अमोघवर्ष से मुलाकात करने पहुँचे। प्रो. गणेश देवी और सुलेखा जी ने ये बैठक तय की थी। वे भी वहाँ थे। छोटे से ड्राइंगरूम में सोफे पर प्रो. कलबुर्गी की तस्वीर के आसपास तरतीब से सँजोया हुआ उनका रचना संसार देख एक क्षण के लिए समय रुक सा गया। प्रो. गणेश देवी ने हमें बताया कि कलबुर्गी जी ने दर्शन, इतिहास और अन्यान्य गूढ़ विषयों पर 120 से अधिक ग्रंथों की रचना की है और वे लिंगायत समाज के सही इतिहास को लोगों के सामने लाने की लड़ाई लड़ रहे थे। श्रीमती उमादेवी के द्वारा बताया गया और अब तक का सुना घटनाक्रम आँखों के सामने से गुजर गया। सचमुच ये पल बेहद भावुक कर देने वाले थे। अपनी एकजुटता जाहिर करने के बाद हमने उमाजी से और अमोघवर्ष से विदा ली और उमाजी ने प्रो. कलबुर्गी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित पुस्तिका ‘प्रो. एम.एम. कलबुर्गी-द आर्किटेक्ट आॅफ महामार्ग’ हम सभी को भेंट दी।
धारवाड़ में हम आनंद करंदीकर और अरुंधति से भी मिले जो लेखकों को सोशल मीडिया के सार्थक और उद्ेश्यपूर्ण उपयोग की जानकारी दे रहे थे। यहाँ हमने शंकर गुहा नियोगी (छत्तीसगढ़ में पूँजीपतियों और माफियाओं के गठजोड़ ने जिनकी हत्या 28 सितंबर 1991 को कर दी थी) पर बनाई फिल्म और एक अन्य लघु फिल्म भी जिसमें वेलेन्टाइन डे पर बजरंग दल के लोगों द्वारा युवाओं पर लाठियाँ बरसाने के प्रतिरोधस्वरूप प्रेम के गहरे और विषद अर्थों को उठाया गया था, देखी। हिरेमठ जी के सहयोगी इकबाल पुल्ली जी ने हमें कर्नाटक के भीतर चल रहे विभिन्न जनांदोलनों की जानकारी भी दी। उन्होंने हमें ‘समाज परिवर्तन समुदाय’ के कार्यालय का भ्रमण भी कराया जो हिरेमठ जी के क्रांतिकारी कार्यों की जमीन है। यहाँ आते-आते हमें लगने लगा था कि हम अपने पड़ोसी राज्यों, उनके लोगों और उनके संघर्षों के बारे में कितना कम जानते हैं और कैसे मुख्यधारा मीडिया हमें न जानने देने की साजिशें रचता है। हमारी यात्रा का उद्देश्य विस्तृत हो गया था। हम नई बातें सीख रहे थे और अपने कार्यक्षेत्र में नये कामों को करने की प्रेरणा से भर रहे थे।
धारवाड़ से चलकर शाम होते-होते हम कोल्हापुर में थे। यहाँ प्रो. मेघा पानसरे (काॅमरेड गोविन्द पानसरे की बहू) और उनके बेटे कबीर और मल्हार से बेहद आत्मीय मुलाकात हुई।
20 फरवरी को सुबह 7.30 बजे हम काॅमरेड पानसरे के घर के सामने से प्रारंभ होने वाले ‘निर्भय मार्निंग वाॅक’ में शामिल होने पहुँचे। ‘निर्भय मार्निंग वाॅक’ का आयोजन काॅमरेड पानसरे की हत्या के बाद से उनके सहकर्मियों, साथी कार्यकर्ताओं, माॅर्निंग वाॅक के साथियों और वे सब भी जो इस प्रतिरोध में शामिल हैं, ने किया है। वे हर माह की 20 तारीख को (20 फरवरी को ही उनकी हत्या हुई थी) कोल्हापुर के अलग-अलग क्षेत्रों में जुलूस निकालते हैं। काॅमरेड गोविंद पानसरे और काॅमरेड उमा पानसरे को तभी गोली मारी गई थी जब वे अपने घर से बाहर माॅर्निंग वाॅक पर निकले थे। उनकी हत्या को दो साल पूरे हो गए लेकिन देशभर में लोगों के तीव्र प्रतिरोध के बावजूद शासन हत्यारों को पकड़ तक न सकी। इस पूरी रैली का सबसे याद रह जाने वाला नारा था – आम्बी सारे, पानसरे। कई जनगीतों के साथ यह रैली चलती रही। लोग नारे लगाते जा रहे थे। एक जनगीत की दो पंक्तियां अभी भी गूंज रही हैं-
 ‘गोल्या लाठी घाल्या, विचार नहीं मरणार’, मराठी से अधिक परिचित न होने पर भी यह याद है, अपने अर्थ के साथ। यह यात्रा बिन्दु चैक पर जाकर पूरी हुई। यहाँ उस स्कूल के सभी विद्यार्थी और शिक्षक मौजूद थे जिसमें काॅमरेड पानसरे पढ़े भी थे और जहाँ उन्होंने पढ़ाया भी था। सबने काॅमरेड पानसरे के हत्यारों के पकड़े जाने की लड़ाई को जारी रखने और उनके बनाए मूल्यों को जीवन में अपनाने की शपथ ली। इस जुलूस में भारी संख्या में कोल्हापुर के नागरिक, मीडियाकर्मी, माक्र्सवादी कार्यकर्ता और सभी सामाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधि शामिल थे। इस ‘निर्भय माॅर्निंग वाॅक’ रैली का प्रतिनिधित्व एन.डी. पाटिल (सुविख्यात माक्र्सवादी विचारक और समाजसेवी) ने किया। मीडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा कि – यह रैली चुनौती है हत्यारों को और उन्हें बचाने सत्ता में बैठे लोगों को कि हम भयभीत नहीं हैं।
वहाँ से लौटकर हमने काॅमरेड पानसरे की पत्नी उमादेवी से उनके घर आकर मुलाकात की।
इसके बाद हमारी बैठक काॅमरेड पानसरे द्वारा स्थापित ‘श्रमिक प्रतिष्ठान’ के कार्यालय में हुई। वहाँ काॅमरेड दिलीप पवार, काॅमरेड एस. बी. पाटिल और काॅमरेड पानसरे के अन्य सहयोगियों और साथियों ने पानसरे जी के जीवन, उनके कार्यों, संघर्षों और निर्भयता के साथ मंजिल पाने तक डटे रहने की क्षमताओं और कार्यप्रणाली पर प्रकाश डाला। किसी महान व्यक्तित्व के जीवन और उनके कामों से जुड़ी छोटी-छोटी बातें भी बेहद महत्त्वपूर्ण होती हैं और वे एक न देखे, न मिले हुए व्यक्ति को भी आपके सामने ला खड़ा करती हैं। इस बातचीत के दौरान ऐसा ही महसूस हो रहा था। पानसरे जी की लिखी पुस्तकें ‘शिवाजी कौन है?’ और ‘राजर्षि शाहू की शिक्षा नीति’ पुस्तकें भी उन्होंने हमें भेंट में दीं। एक ख़ास बात और देखने को मिली कि कार्यालय में काॅमरेड पानसरे जिस कुर्सी पर बैठते थे, वह दो साल बाद आज भी उनकी याद में खाली रखी गई है।
मेघा जी ने हमें कोल्हापुर विश्वविद्यालय में भ्रमण का अवसर भी दिया। वे ‘रूसी अध्ययन’ विभाग की प्रमुख भी हैं। उनके विभाग में ही बैठकर थोड़ी देर बातचीत कर, मेघा जी के बताए अनुसार हमने मराठी के विख्यात साहित्यकार ‘विष्णु सखाराम खांडेकर स्मृति संग्रहालय’ का भ्रमण भी किया। यहाँ करीने से सँजोई कवि की स्मृतियों के प्रतीकों ने एक बार फिर हमारे प्रदेश के कवियों की याद दिलाई। हमारे खाते में जो सुभद्रा कुमारी चैहान, माखनलाल चतुर्वेदी, हरिशंकर परसाई जैसे अनेक नाम हैं लेकिन इस तरह से सँजो सकने का हुनर नहीं। किसी साहित्यकार का वि.वि. में इतना सम्मानजनक स्थान पाना, हम लोगों के लिए अत्यंत सुखद अनुभव था। सिर्फ संग्रहालय ही नहीं, विश्वविद्यालय में जहाँ-तहाँ दीवारों पर भी मराठी साहित्यकारों के ‘मूल्य वाक्य’ सूक्तियों के रूप में तस्वीरों के साथ दिखे।
तीन बजे हमारी मुलाकात ‘साहू स्मारक भवन’ भवन में कोल्हापुर के प्रिंट एवं इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के पत्रकारों से हुई। पत्रकार वार्ता को राजेन्द्र शर्मा, विनीत तिवारी, सुसंस्कृति परिहार, हरिओम राजोरिया ने संबोधित किया। प्रेस काॅन्फ्रेंस समाप्त होते-होते कार्यक्रम का समय हो गया था जिसमें भारी संख्या में कोल्हापुर और बाहर के लोग भी उपस्थित थे। इतनी तादाद में लोगों की उपस्थिति काॅमरेड पानसरे की लोकप्रियता और उनके विचारों के समर्थन को प्रमाणित करने वाली थी। कार्यक्रम की शुरूआत फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जनगीत
‘ऐ ख़ाकनशीनों उठ बैठो, वो वक्त़ क़रीब आ पहुँचा है।
अब टूट गिरेंगी ज़ंजीरें, अब ज़िंदानों की ख़ैर नहीं,
जो दरिया झूम के उट्ठे हैं, तिनकों से न टाले जाएँगे…’
को हमारे साथियों हरिओम राजोरिया, सीमा राजोरिया, तरुण गुहा नियोगी, हरनाम सिंह, राजेन्द्र शर्मा और विनीत तिवारी ने गाकर की।
कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रो. गणेश देवी, मुख्य वक्ता जाने-माने पत्रकार निखिल वागलेे, हमीद दाभोलकर और विनीत तिवारी मंच पर मौजूद थे। स्वागत की परंपरा के बाद मेघा पानसरे ने मंचासीन अतिथियों का परिचय कराया साथ ही म.प्र. प्रलेस के लेखकों की यात्रा के उद्देश्य को भी श्रोताओं के सामने व्यक्त किया और कहा कि – देश के जागरुक चिंतक, कवि, कलाकार भी हमारे साथ हैं। दो साल बाद भी हत्यारे पकड़े नहीं गए। लेकिन इन शहीदों के रास्ते पर चलने वाले हम भी थके नहीं हैं। यह लड़ाई न्याय पाने तक थमने वाली नहीं है।
हमीद दाभोलकर ने अपने उद्बोधन में स्पष्ट रूप से कहा कि – तीनों ही शहीदों के हत्यारे ‘सनातन धर्म संस्था’ और ‘हिंदू जन जागरण समिति’ से हैं और प्रमाणों के बावजूद वे खुले घूम रहे हैं। प्रलेस महासचिव और म.प्र. प्रलेस लेखक यात्रा दल के मार्गदर्शक विनीत तिवारी ने देश में दिनोंदिन बढ़ते कट्टरवाद व विचारों पर हमले के अन्य उदाहरणों को सामने रखते हुए जोर देकर कहा कि एक लेखक या एक अकादमिक विद्वान के भीतर अनेक पुस्तकों का निचोड़ और सदियों की संचित ज्ञान निधि होती है। अगर राज्य नागरिकों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभाता तो हम नागरिक ऐसे राज्य से लोकतंत्र की रक्षा करने के एपाय अपनाएँगे लेकिन हम अब और किसी को भी खोने के लिए तैयार नहीं हैं। उन्होंने कहा कि हमें इस यात्रा के अनुभवों ने और भी अधिक निर्भीक, मजबूत और ज़िम्मेदार बनाया है।
कार्यक्रम के मुख्य वक्ता प्रतिष्ठित पत्रकार निखिल वागलेे ने सत्ता के इशारों पर काम करने में लगी पुलिस मशीनरी के एक और पहलू को उजागर करते हुए वह नोटिस जो पुलिस की तरफ से कार्यक्रम में आने से पूर्व उन्हें दिया गया, जिसमें लिखा था कि वे पानसरे स्मृति के कार्यक्रम में किसी व्यक्ति या संस्था का नाम लेकर आरोप नहीं लगाएँगे और ऐसा कुछ भी नहीं कहेंगे जो लोगों की भावनाओं को ठेस पहुँचाए, अन्यथा उन्हें पुलिस गिरफ़्तार कर सकती है। ऐसा ही नोटिस आयोजकों को भी दिया गया था। ढेर सारे पुलिस वाले अधिकारी, कर्मचारी, थानेदार और सिपाही कार्यक्रम स्थल पर हाॅल के अंदर-बाहर मंडरा रहे थे। निखिल वागले ने मंच से पुलिस, प्रशासन और सत्ताधीशों को करारा जवाब देते हुए कहा कि उन्हें किन लोगों की भावनाओं की चिंता है। वे ऐसे नोटिस हत्यारों को पैदा करने वाली संस्थाओं और समितियों को क्यों नहीं देते जो विचारों को स्थापित करने के नाम पर हत्या करने, हुड़दंग मचाने का काम करते हैं। उन्होंने मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस की मंच से आलोचना करते हुए कहा कि वो महाराष्ट्र में लोकतंत्र को क्या मजाक बना देना चाहते हैं?
अंत में कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रो. गणेश देवी का वक्तव्य हुआ। उन्होंने कहा कि- आज के हालात अघोषित आपातकाल जैसे ही हैं। केन्द्र सरकार हर क्षेत्र में स्वतंत्र विचारों का विरोध लाठी डंडे के साथ करती है। उन्होंने एफटीआईआई, चेन्नई के आंबेडकर, फुले और पेरियार के विचारों पर मनन करने वाले चेन्नई स्टडी सर्कल, जेएनयू, रोहित वेमुला और नजीब को याद करते हुए कहा कि विचार को गुलाम बनाने की कोशिशें कामयाब नहीं होंगी। उन्होंने कहा कि देश में ही नहीं दुनियाभर में फासीवादी प्रवृत्तियाँ उभर रही हैं और ये मानवता के लिए खतरा हैं। आज की सबसे बड़ी जरूरत फासीवाद विरोधी विचारों, व्यक्तियों और संगठनों के एकजुट होकर कट्टरपंथियों का प्रतिरोध करने की है।
कार्यक्रम समाप्त होने के बाद मेघा पानसरे और अन्य साथियों से विदा लेकर और साथ रहने की प्रतिज्ञा को दोहराते हुए हम वापसी की ओर चल पड़े। हमारे कुछ साथियों ने सतारा स्टेशन से और कुछ ने पुणे से वापसी की राह पकड़ी। इस 14 से 20 फरवरी की यात्रा ने हमारे अनुभव संसार को बढ़ाया और विचारों की आजादी के लिए लड़ने के हमारे संकल्प को मजबूत किया। इस छोटी-सी यात्रा के बीच हम वैचारिक, सांगठनिक और अद्भुत समाहारी, प्रेरणादायी व्यक्त्तिवों से मिले। उनके कार्यों को जाना। समाज के लिए अड़े रहने की शक्ति और उससे हासिल की जा सकने वाली खुशी से भी परिचित हुए। इस यात्रा का खाका महासचिव विनीत तिवारी ने बनाया था। इस तरह की यात्रा की सोच उनकी वैचारिकता और देषभर में फैले उनके ज़मीनी संपर्कों का परिणाम है। यात्रा को उनके सांगठनिक और व्यक्तिगत सूत्रों, परिचयों और हर शहर में उनके अभिन्न मित्रों के सहयोग ने अधिक मूल्यवान बनाया। इन सात दिनों में हम सब शाम को अपने दिनभर के कार्यों, मुलाकातों और रोजमर्रा में नए-नए मिलने वाले अनुभवों पर चर्चा करते। कई बार कुछ मुद्दे अचानक आ जाते और घंटों साथियों के बीच उन पर बहसें होती रहीं। शिक्षा, साहित्य, रिश्ते, सामाजिक स्थितियों पर होने वाले विचार-विमर्ष और जनगीतों, शास्त्रीय संगीत से लेकर फ़िल्मी गाने तक सफ़र का हिस्सा बनते रहे। इस सफ़र के दौरान साथियों के बीच अनेक विषयों पर हुईं बेहद दिलचस्प चर्चाएँ और सोच के दायरों को विस्तृत करने वाली गर्मागर्म बहसें भी स्मृति में रहेंगी।
सात दिन तक लगभग 14 से 16 घंटे जिन साथियों के साथ गुजारे, उनके व्यक्तित्व के भी कुछ नये पहलुओं को जानने का मौका मिला। इतने दिनों तक कोई भी सिर्फ़ औपचारिकता का आवरण ओढ़कर नहीं रह सकता। बाहर के भले लोगों से हुई मुलाकात ने जहाँ हमें भी बेहतर बनाने का काम किया, वहीं अपने ही साथियों के साथ बने जीवंत और अनौपचारिक संपर्क ने एक संगठन के तौर पर भी हमें समीप किया। अपने साथियों पर लिखने का काम कभी अलग से।
हमारे 14 से 21 फरवरी की यात्रा के बीच हुए कार्यक्रमों की प्रेस, इलेक्ट्रानिक मीडिया, आॅनलाइन मीडिया और सोशल मीडिया पर छपी खबरें साथियों द्वारा अभी तक प्राप्त हो रही हैं। हमारे बाहर के देखे अनुभव खासकर मीडिया ने हमें उनकी तुलना अपने प्रदेश से करने पर बार-बार मजबूर कर देते हैं। गोवा, कर्नाटक और महाराष्ट्र में कार्यक्रमों के हुए विशद, विस्तृत, शुद्ध और ‘जैसा कहा गया वैसा ही लिखा गया’, इन कवरेजों ने मीडिया पर खोता जा रहा विश्वास फिर से जगा दिया। हम अद्भुत जीवट वाले निडर लोगों से मिले। यह सोच अधिक दृढ़ हुई कि विचार और तर्कशील कर्म का साथ देने और अन्याय का प्रतिरोध करने के निडरता और सच्चाई ही सच्चे हथियार हैं। इनकी ताक़त को हमने अलग-अलग रूपों में बहुत ही नज़दीक से महसूसा। इस पूरी यात्रा का उल्लेख विनोद के उल्लेख के बिना पूरा नहीं होता जो यूँ तो सिर्फ़ हमारे वाहन चालक थे लेकिन यात्रा समाप्त होते-होते वे हमारे साथी बन गए। इससे हमारा ये विश्वास भी पुख्ता हुआ कि अगर हम अपने विचार योजनाबद्ध रूप में आम लोगों के बीच लेकर जाएँगे तो लोग तार्किक विचारों को सुनने- समझने और अपनाने के लिए तैयार होते हैं।

****
आरती भोपाल में रहती हैं। कविताएँ लिखती हैं। गद्यकार हैं। 
‘समय के साखी’ का संपादन करती हैं।

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

ShareTweetShare
Anhadkolkata

Anhadkolkata

अनहद कोलकाता में प्रकाशित रचनाओं में प्रस्तुत विचारों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है. किसी लेख या तस्वीर से आपत्ति हो तो कृपया सूचित करें। प्रूफ़ आदि में त्रुटियाँ संभव हैं। अगर आप मेल से सूचित करते हैं तो हम आपके आभारी रहेंगे।

Related Posts

जीवन  का मर्म कानून से  नहीं समझा  जा सकता – मधु कांकरिया

जीवन  का मर्म कानून से  नहीं समझा  जा सकता – मधु कांकरिया

by Anhadkolkata
March 13, 2025
0

मधु कांकरिया जीवन  का मर्म कानून से  नहीं समझा  जा सकता मधु कांकरिया          सोचा न था कि वह रात इतनी उदास होगी...

भक्तिन

भक्तिन

by Anhadkolkata
March 8, 2025
0

महादेवी वर्मा का जन्म 26 मार्च 1907 हुआ था। 80 साल के जीवनकाल में उन्होंने महान कवियित्री, प्राचार्य, उप-कुलाधिपति तथा स्वतंत्रता सेनानी जैसे अनेक प्रकार के...

ज्ञान प्रकाश पाण्डे की ग़ज़लें

ज्ञानप्रकाश पाण्डेय : संस्मरण

by Anhadkolkata
March 18, 2023
0

  पिछले 7 मार्च सम्मानीय साहित्यकार पद्मश्री डॉ कृष्णबिहारी मिश्र हमें अकेला छोड़ गए। वे बंगाल की पत्रकारिता के एक स्तंभ थे। आदरणीय कृष्णबिहारी मिश्र जी...

अर्चना लार्क की सात कविताएँ

अर्चना लार्क की सात कविताएँ

by Anhadkolkata
June 24, 2022
4

अर्चना लार्क की कविताएँ यत्र-तत्र देखता आया हूँ और उनके अंदर कवित्व की संभावनाओं को भी महसूस किया है लेकिन इधर की उनकी कुछ कविताओं को पढ़कर लगा...

नेहा नरूका की पाँच कविताएँ

नेहा नरूका की पाँच कविताएँ

by Anhadkolkata
June 24, 2022
4

नेहा नरूका समकालीन हिन्दी कविता को लेकर मेरे मन में कभी निराशा का भाव नहीं आय़ा। यह इसलिए है कि तमाम जुमलेबाज और पहेलीबाज कविताओं के...

Next Post

कस्बाई औरतों के किस्से - शेखर मल्लिक

पहली कहानी - विजय शर्मा 'अर्श'

आजादी के बाद हिन्दी को लेकर हुए मजाक पर बनी उम्दा फिल्म – ‘हिन्दी मिडियम’ - शिवानी गुप्ता

Comments 2

  1. आरती तिवारी says:
    8 years ago

    बहुत अच्छा आलेख

    Reply
  2. Neeraj Express says:
    8 years ago

    बहुत खूब।

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2009-2022 अनहद कोलकाता by मेराज.

No Result
View All Result
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • समीक्षा
    • संस्मरण
    • विविध
  • कला
    • सिनेमा
    • पेंटिंग
    • नाटक
    • नृत्य और संगीत
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विविध

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2009-2022 अनहद कोलकाता by मेराज.