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Home कथा

पहली कहानी – विजय शर्मा ‘अर्श’

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in कथा, साहित्य
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 विजय शर्मा ‘अर्श’

कहानियों में विषय और शिल्प को लेकर लागातार प्रयोग होते रहे हैं –  हिन्दी कहानी ने इस मायने में एक लंबी यात्रा की है। कहानी का इतिहास बताता है कि अब की कहानियाँ पहले से किस मायने में भिन्न शिल्प और कहन को लिए हुए हैं। विजय की यह लगभग पहली ही कहानी है जो अपने शिल्प और कहन से आश्चर्यचकित करती है। समय के गुजरने के साथ संवेदना के रंग किस तरह बदले हैं – यह कहानी सूक्ष्म और सशक्त रूप में प्रस्तुत करती है। कहानी अंत में यह भी बताती है कि संवेदना से शून्य होते जा रहे समय में हम किस तरह अपनी आदमीयत को बचाए-जिलाये रख सकते हैं।
खास बात यह कि आज विजय का जन्मदिन भी है । अनहद की ओर से उन्हें ढेरों बधाई और उनकी रचनात्मकता के लिए अशेष शुभकामनाएँ। कहने की जरूरत नहीं कि आपके साथ ने हमें बहुत हौसला दिया है।

_______________मिसिंग_______________
                                विजय शर्मा ‘अर्श’
रवि स्टेशन की दीवार पर आख़िरी पोस्टर लगाकर कुछ देर तक स्तब्ध खड़ा रहा..पोस्टर पर बाबा की नई तस्वीर के नीचे बड़े-बड़े लाल अक्षरों में लिखे ‘मिसिंग’ को देख कर जैसे सोच रहा हो कि क्या इस उम्र में भी लोग खोते हैं !बचपन में मेले में खो जाना आम बात है.पर क्या इस उम्र में भी ये मुमकिन है? इस तस्वीर को देखकर कोई कैसे कह सकता है कि ये इंसान भी खो सकता है, कहीं भी….
वो तो अच्छा हुआ कि यहाँ आने से पहले नीसू की ज़िद पर बाबा ने उसके साथ नई तस्वीरें निकलवा लीं ,वरना पुरानी तस्वीरों के रंग तो फ़ीके पड़ चुके थे, उन तस्वीरों की मदद से वो कैसे ढूंढता…कैसे खो सकता है कोई अपने स्टेशन से एक स्टेशन पहले..बाबा ने जरा सी देर कर दी, और फिर पानी का नल भी तो दूर था ,काश! रवि उनकी जगह खुद चला जाता तो शायद बाबा आज घर में होते…घर……ओह घर भी तो जाना है…रवि ने आख़िरी बार पोस्टर पर छपा अपना फोन नंबर देखा और स्टेशन के गेट से रास्ते पर आ गया …
आज तीसरा दिन था…रवि उन्हें ढूँढने के सारे जतन कर रहा था ..पुलिस स्टेशन, अस्पताल, मुर्दाघर हर जगह उनकी तस्वीर के साथ अपना नंबर दे चुका था …फ़ोन की हर रिंग एक नया धोखा दे जाती थी. घर में नीसू और गौरी अपनी-अपनी जगह पर बैठे-बैठे जड़ से हो जाते थे ..शायद उन दोनों माँ-बेटी ने पहली बार कुछ खोने जैसा खोया था..ख़ासकर नीसू अभी उम्र ही क्या है इस बच्ची की! इस उम्र में भी इसने खो दिया,अपने सबसे क़रीबी दोस्त को..ये हमेश एक रहस्य रहा है कि ज़िन्दगी के सारे तज्रुबों से अन्जान एक बच्चा और ज़िन्दगी के सारे तज्रुबों का क़ैदी एक बूढा इतना घुल-मिल कर कैसे रह लेते हैं ,जैसे दोनों ही एक डाल के फूल हों और एक फूल की ख़ुशबू माँद पड़ चुकी है…
एक हफ़्ता बीत चुका था और इन सात दिनों में रवि जाने कितनी ही बार थाने के कई चक्कर लगा चुका था…घर में नीसू की उदासी थोड़ी कम हुई थी ,बीच-बीच में ऐसे सहम जाती कि उसके दादू कब घर कभी नहीं लौटेंगे…गौरी हल्का-हल्का घर के काम-काज करती पर ध्यान हमेशा फोन की तरफ़ होता….
समय गुज़र रहा था..ज़िन्दगी की रफ़्तार बाबा की तलाश में थामना नहीं चाहती थी…पंद्रह दिन, बीस दिन, फिर एक महीना ……नीसू का स्कूल जाना ज़रूरी था तो रवि का पैसे कमाना भी और गौरी का रवि और नीसू के लिये खाना पकाना भी…सारे काम वक़्त पर होने लगे थे ..अब नीसू बैठे-बैठे सहमती नहीं थी,पर दादू के हाथ की गुडिया के साथ खेलते-खेलते सामने पापा या माँ को पाकर पूछ लेती थी कि ‘दादू कब आयेंगे?’ ये सवाल नीसू की जुबान से निकलकर घर के टेलीफोन के ज़रिये थाने पहुँच जाया करता था. रास्ते में कुछ तब्दीलियाँ ज़रूर होती थीं जैसे दादू की जगह उनका नाम ‘श्री रामनाथ शर्मा’ आ जाया करता, क्योंकि वो सबके दादू नहीं थे…
अक्सर हम कहते-सुनते रहते हैं कि धीरे-धीरे सब ठीक हो जाता है..दर-असल धीरे-धीरे हम सबकुछ भूलते जाते हैं, भूलते जाते हैं क्योंकि जीने के लिये भूलना ज़रूरी है ..हम हर वक़्त स्मृतियों के साथ नहीं रह सकते …हमें स्मृतियाँ परछायी की तरह नहीं बल्कि किसी ‘शोकेस’ में सजे खिलौनों की तरह चाहिए,जिसे जब चाहे देख लें औए जब चाहें उनसे नज़रें फेर लें..फिर धीरे-धीरे खिलौने बढ़ते जाते हैं और ‘शोकेस’ की जगहों को देखते हुए हमें पुराने खिलौने निकलने पड़ते हैं,फ़ेंकने पड़ते हैं…
घर में सबकुछ ठीक चलने लगा था..नीसू की वो गुडिया भी टूट गयी थी जो घर में वक़्त-बेवक़्त जाने-अन्जाने ‘दादू’ का ज़िक्र लाया करती थी ..रवि एक नई गुड़िया भी ला चुका था जो बैटरी से चलती थी…शायद सबके दिल में कुछ आस बची हो कि दादू की तस्वीर पर माला नहीं चढ़ी थी..ऑफिस निकलने में कुछ वक़्त था ..रवि अपने कमरे के आरामकुर्सी पर तैयार होकर पड़ा हुआ था..आँखें मूँद कर शायद अपनी स्मृतियाँ खँगाल रहा था..माथे पर उभरे शिकन से ये कहा जा सकता था कि किसी गहरी बात की चिंता है ..शायद बाबा की…बाबा के होने और न होने की चिंता ..जैसे ख़ुद से फिर वही सवाल पूछ रहा हो कि –‘क्या इस उम्र में भी लोग खोते हैं?’
हाँ- ये उम्र खोने की ही है… इसी उम्र में लोग खोते हैं अपनी जवानी के आख़िरी दिन ,अपनी नौकरी, अपना सच्चा बेटा, अपना आत्मविश्वास,कुछ रिश्ते, बहुत-से दोस्त, कुर्ते की जेब में रखी डायरी,सिरहाने रखी हाथ की घडी,माचिस की डिबिया और न जाने क्या-क्या?
इसी बीच सामने रखी टेबल पर टेलीफोन की घंटी बज उठी
-‘हेल्लो! रवि शर्मा!’
-‘जी कहिये!’
-‘जी मैं शिवाजी सरकारी अस्पताल से बोल रहा हूँ. आपने शायद एक इन्क्वायरी छोड़ी थी..’
-‘जी’ कहते हुए रवि ने रिसीवर और कस के पकड़ लिया..’
-‘हमें एक वैसी ही बॉडी मिली है जैसा आपने बताया था और कपडे भी वैसे ही हैं जो तस्वीर में थे..’
-‘जी’ रवि का गला सूखने लगता है.
-‘एक दिक्क़त है कि चेहरा पूरी तरह घायल है, जैसे किसी ने हमला किया हो, पुलिस इसकी जाँच कर रही है…पर..शिनाख्त आपको क़द-काठी और पहनावे से ही करनी होगी.आप फ़ौरन यहाँ आ जाएँ’
फोन कटने के बाद रवि कुछ देर वहीँ बैठा रहा ..वह कमरे के बाहर झाँकने की कोशिश करता है, उसकी नज़र खिड़की के काँच पर जाती है …बाहर बादल उमड़े हुए दिखाई देते हैं …कुछ देर में वह गौरी और नीसू को साथ लेकर निकल जाता है…रास्ते में कार के ‘फ्रंट ग्लास’ और ‘साइड विंडो’ पर बूँदा-बाँदी शुरू हो जाती है..
अस्पताल पहुँचने पर वार्डन उन्हें मुर्दा घर के सामने से उस कमरे में ले गया जहाँ पंचनामा होता है…नीसू बच्ची थी,उसे वैसे मरे हुए वातावरण में रखना गौरी ने सही नहीं समझा. वो उसे अपने साथ वार्ड से बाहर ले आयी..दोनों रवि का इंतज़ार करने लगे.. इधर कमरे में दाखिल होते ही रवि निनज़र स्ट्रेचर पर पड़ी उस बॉडी पर जाती है जिस का पहनाव अभी तक उतारा नहीं गया था बहुत ताज़ा लाश थी… सर से छाती तक एक कपडे से ढँका हुआ… रवि का हाथ अचानक उसकी कमीज़ की जेब की तरफ़ जाता है… जेब खाली थी… वो शायद बाबा की तस्वीर कार में ही भूल आया था…अगले ही पल उसे बड़ा अजीब सा लगा कि क्या गुज़रे डेढ़ महीनो ही इतना कुछ भूल चुका है कि बाबा को बग़ैर तस्वीर के नहीं पहचान सकता   …क्या उसे बाबा का स्पर्श तक याद नहीं? …वह अचानक ये याद करने की कोशिश करने लगता कि उसने आख़िरी बार बाबा को कब छुआ था… उसे किसी भी क़ीमत पर उसे ये याद नहीं आ पाती… फिर वो अपने सुन्न पड़े हाथों से लाश के शरीर के अलग-अलग हिस्सों को छूता ….कभी हाथ…कभी पैर… परन! कुछ भी नहीं… उसकी अंतरात्मा के लिये ये बिल्कुल नया और अन्जान स्पर्श था…वहीं उसके दिमाग़ के लिये यह स्पर्श दूसरे लाशों केस्पर्श की ही तरह ठण्डा था …अपने शरीर के सभी अंगों को शुन्य महसूस करता रवि एकटक उस लाश को देखता रहा…उसी रंग की कमीज़, वैसी ही पैन्ट…इन सब से पूरा बाबा के होने का अहसास होता था …वहीँ दूसरी तरफ़ कोई ऐसी चीज़ दिख जाती कि मन को खटका–  सा लग जाता… जैसे बाबा के हाथों पर इतनी झुर्रियां तो नहीं पड़ी थीं.. आदमी का मन जब दु:खी होता है तो वह तर्क नहीं चाहता बस उस क्षण सिर्फ़ मानने को तैयार हो जाताहै।..दिलो-दिमाग़ के काफ़ी जद्दो-जहद के बाद रवि ये मानने पर मजबूर हुआ कि ये लाश उसके बाबा की ही है..वह बाबा के शरीर के साथ सरकारी गाड़ी में बैठकर घर निकलता है। इधर गौरी नीसू को लेकर अपनी गाड़ी से घर पहुँचती है। आसमान बादलों से भर गया था। गौरी घर पहले पहुँची थी…वो चाहे कुछ भी कर रही थी उसकी पर आँखों के कोने लगातार बहते रहे। उसने आँगन में रखी कुछ चीजों को हटाकर जगह बनायी। कुछ देर में रवि भी घर आ गया। एक सफ़ेद कपड़े ढँके शरीर को आँगन के ठीक बीचो–बीच रखा गया। रवि अपने गिरते–थमते आँसुओं को सँभालते हुए इनकी अंतिम यात्रा की तैयारी करता रहा…नीसू का बाल मन कुछ भी समझ नहीं पा रहा था…उसने सुना तो था कि इस सफ़ेद कपड़े के नीचे उसके दादू हैं, मगर उसके उस क्षण की प्रतीक्षा थी, जब वो ख़ुद इस बात की तसल्ली कर सके।
लगभग सारी तैयारियाँ हो चुकी थीं। अब बाबा के शरीर से उनकी पुरानी क़मीज़ और पैंट हटा कर क़फ़न ओढ़ाने का समय आ गया था…इस दौरान रवि द्वारा उनके पार्थिव शरीर से कपड़ा हटाते ही नीसू उत्सुकतावश दौड़कर दादू के पास आ गयी…. घायल चेहरे का कपड़ा गले से इस तरह बाँधा हुआ था जैसे उसे खोलने की मनाही हो। नीसू का बालमन अपने दादू का चेहरा देखना चाहता था..वह अचानक चेहरे के बँधे कपड़े को हटाने की कोशिश करने लगी तो रवि ने आगे बढ़कर उसे रोका… उसने नीसू से कहा-‘ये कपड़ा हटाने से दादू का वो सपना टूट जाएगा, जिसमें इस समय उन्हें उनकी प्यारी नीसू उनके साथ खेल रही है…वह बच्ची अपना नन्हा –सा हाथ उस मृत हाथ में डालकर कुछ क्षण तक निस्तब्धता से एक–टक उस शरीर को देखती रही…रवि चुपचाप दोनों को देख रहा था….तभी अचानक नीसू ने पलट कर रवि का हाथ अपने दोनों हाथों से पकड़ा और उसके हाथ को झकझोरते हुए कहने लगी-‘पापा…पापा! ये दादू नहीं हैं। रवि समझ पाता है कि बिना चेहरा देखे नीसू कैसे किसी को अपना दादू मान सकती है! रवि उसके पास जाकर उसे अपने गोद में उठाता है और अपनी बिखरती-सी आवाज़ में कहता है-‘बेटा! ये दादू ही हैं, देखो! उस दिन दादू ने इसी रंग की कमीज़ पहनी थी न!’
नीसू रवि के आँसुओं को पोंछते हुए कहती है-‘पर पापा दादू की शर्ट में तो पॉकेट नहीं थी।‘
रवि नीसू को गोद से उतार कर दौड़ के आँगन से बाहर जाता है।वह अपने कार में रखी हुई बाबा की तस्वीर ढूँढने लगता है। तस्वीर मिलती तोहै मगर धूल की एक परत उससे चिपकी हुई होती है।ये वो धूल थी जो पिछले एक– डेढ़ महीने में रवि के मन पर चढ़ी थी…जिसे आज की घटना ने साफ़ कर दिया था। रवि तस्वीर साफ़ करके देखता है सच में बाबा की क़मीज़ में जेब नहीं थी। उसेये यक़ीन हो जाता है कि ये उसके बाबा नहीं हैं…वह ये बात गौरी को बता देता है गौरी खुल के रो देती है।
वाक़ई ये उसके बाबा नहीं हैं। रवि को इस बार एक अजीब–सी ख़ुशी होती है, बाबा के न मिलने की ख़ुशी… मगर पिछले घंटो जो भी इस लावारिस शरीर और रवि के मन के बीच गुज़रा था, वह शाश्वत था। भावनाएँ सच्ची थी… दोनों ने ये तय किया कि इस मृत शरीर को वापस किसी अँधेरे मुर्दा घरमें नहीं भेजेंगे बल्कि वे स्वयं इसका अंतिम संस्कार करेंगे..उन दोनों ने उस शरीर की अंतिम यात्रा को सफ़ल बनाया, उसे मुखाग्नि रवि ने दी, और फिर गँगा–किनारे उसकी अस्थियों को विसर्जित करते हुए, अस्ताचलगामी सूर्य देवता से अपने पिता के कुशल होने की और जल्द मिल जाने की प्रार्थना करने लगा……
                                 
                                            *****
विजय शर्मा ‘अर्श’ कोलकाता में रहते हैं।  उनसे आप यहाँ संपर्क कर सकते हैं :

8013296527/8282824393

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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जन्म : 7 अप्रैल 1979, हरनाथपुर, बक्सर (बिहार) भाषा : हिंदी विधाएँ : कविता, कहानी कविता संग्रह : कविता से लंबी उदासी, हम बचे रहेंगे कहानी संग्रह : अधूरे अंत की शुरुआत सम्मान: सूत्र सम्मान, ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार, युवा शिखर सम्मान, राजीव गांधी एक्सिलेंस अवार्ड

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Comments 1

  1. कल्पना says:
    5 years ago

    सिहरन पैदा हो गई पढ़ कर। दिल से दुआ निकली कि कभी कोई अपना इस कदर खो न जाए, कि ऐसी अनहोनी इसी तरह सुखद अंत मे बदल जाए, कि खो जाना इतना अस्थायी हो कि मिलने पर उस सूनेपन और विछोह का नामोनिशान तक धुल जाए।

    विजय को ममता के माध्यम से एक दो बार पहले भी पढ़ा है। पिछली बार कविता जंक्शन में सुना भी था। बहुत सधा हुआ शिल्प है। पाठक को पकड़ कर और लगभग जकड़ कर रखने की काबिलियत है इनके लेखन में। उज्ज्वल भविष्य के लिए हार्दिक शुभकामनाएं।

    उनके इस कहानी के पात्रों रवि गौरी और नीसू को प्यार। और बाबा अमर रहें।

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

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