विहाग वैभव |
माँ का सिंगारदान
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हर जवान लड़के की याद में
बचपन
सर्दियों के मौसम में उठता
गर्म भाप सा नहीं होता
रेत की कार में बैठा हुआ लड़का
गुम गया मड़ई की हवेली में
हमारे प्रिय खेलों में
सबसे अजीब खेल था
माँ के सिंगारदान में
उलट-पलट , इधर-उधर
जिसमें रहती थी
कुछेक पत्ते टिकुलियाँ
सिन्दूर से सनी एक डिबिया
घिस चुकी दो-चार क्लिचें
सस्ता सा कोई पाउडर
एक आईना
और छोटी-बड़ी दो कंघी
हमने माँ को हमेशा ही
खूबसूरत देखना चाहा
हम नाराज भी हुए माँ से
जैसे सजती थी
आस-पड़ोस की और औरतें
माँ नहीं सजी कभी उस तरह
माँ उम्र से बड़ी ही रही
हमने माँ को
थकते हुए देखा है
थककर बीमार पड़ते देखा है
पर माँ को हमने
कभी रोते हुए नहीं देखा
हमने माँ को कभी
जवान भी नहीं देखा
बूढ़ी तो बिल्कुल नहीं
मैंने सिंगारदान कहा
जाने आप क्या समझे
मगर अभी
लाइब्रेरी के कोने में
एक लड़का सुबक उठ्ठा है
मेरी दवाइयों के डिब्बे में
सिमटकर रह गया
माँ का सिंगारदान ।
ओझौती जारी है
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तपते तवे पर डिग्रियाँ रखकर
जवान लड़के जोर से चिल्लाये – रोजगार
बिखरे चेहरे वाली अधनंगी लड़की
हवा में खून सना सलवार लहराई बदहवास
और रोकर चीखी – न्याय
मोहर लगे बोरे को लालच से देख
हँसिया जड़े हाथों को जोड़
किसान गिड़गिड़ाये – अ.. अ..अन्न
उस सफेद कुर्ते वाले मोटे आदमी ने
योजना भर राख दे मारी इनके मुँह पर
और मुस्कुराकर कहा – भभूत ।
तलवारों का शोकगीत
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कलिंग की तलवारें
लगकर स्पार्टन तलवारों के गले
खूब रोयीं इक रोज फफक-फफक
हिचकियाँ बाँध तलवारें रोयीं
कि उन्होंने मृत्यु भेंट दिया
कितने ही शानदार जवान लड़कों के
रेशेदार चिकने गर्दनों पर नंगी दौड़कर
और उनकी प्रेमिकाएँ
किले के मुख्यमार्ग पर खड़ी
बाजुओं पर बाँधें
वादों का काला कपड़ा
पूजती रह गयीं अपना अपना ईश
चूमती रह गयीं बेतहाशा
कटे गर्दन के खून सने होंठ
तलवारों ने याद किये अपने अपने पाप
भीतर तक भर गयीं
मृत्यु- बोध से जन्मी अपराध- पीड़ा से
तलवारों ने याद किया
कैसे उस वीर योद्धा के सीने से खून
धुले हुए सिन्दूर की तरह बह निकला था छलक छलक
और योद्धा की आँखों में दौड़ गयी थी
कोई सात आठ साल की खुश
बाँह फैलाये , दौड़ती पास आती हुई लड़की
दोनों तलवारों ने
विनाश की यन्त्रणा लिए
याद किया सिसकते हुए –
यदि घृणा , बदले और लोभ से सने हाथ
उन्हें मुट्ठियों में कसकर
जबरन न उठाते तो
वे कभी भी
अशुभ और अनिष्ट के लिए
उत्तरदायी न रही होतीं
एक दूसरे की पीठ सहलाती तलवारों ने
सांत्वना के स्वर में
एक दूसरे को ढाँढस बँधायी –
तलवारें लोहे की होती हैं
तलवारें गुलाम होती हैं
तलवारें बोल नहीं सकतीं
तलवारें खुद लड़ नहीं सकतीं ।
आखिरी कुछ भी नहीं
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राजा को उम्मीद है
वह सत्ता में बना रहेगा
जनता को उम्मीद है
वह चुनेगी अबकी अपना सच्चा नेता
हत्यारे को उम्मीद है
वह बच निकलेगा इस बार भी
बुढ़िया को उम्मीद है
आयेगा फ्रांस से फोन
धरती को उम्मीद है
वह सब सह लेगी
चेहरे को उम्मीद है
वह छिपा लेगा गीली हँसी
अँधेरे को उम्मीद है
सुबह फिर होगी
गोपियों को है उम्मीद
लौट आयेंगें कृष्ण
समसारा को उम्मीद है
मरेगा मेरे कवि का पुरुष
मछुआरे की उम्मीद नहीं टूटी है
वह जाल फिर फेंकेगा
आदिवासियों को है उम्मीद
अब नहीं आएगा
बुल्डोजरी दाँतों वाला दानव
चिचोरने जंगल की जाँघ
उम्मीद उनमें से सबसे खूबसूरत है
जो कुछ भी है
या जिसके होने की सम्भावना है
तो आओ हम मिलकर जोड़ें हाथ
और नियति से करें प्रार्थना
धरती की कोख से
सूरज की जड़ तक
सबकी उम्मीद बँधी रहे
बची रहे ये दुनिया
बनी रहे ये सृष्टि ।
इजहार और एक लोना अबाब
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पैरों में पगड़ी बांध बाप की
भगी दुपहरी रात अँधेरे में
लोना अबाब
पाने कुसुम कुमार को
मिलने कुसुम कुमार से
जाने बिना अता-पता ही कोई
लोना भागी खेत – खेत
लोना भागी रेत – रेत
वन – वन भागी लोना
मन – मन भागी लोना
भागी पर्वत – पर्वत , घाटी – घाटी
थकी नहीं वह तनिक भी जबकि
तलुओं से छाले फूटे ऐसे
कि नदियों की धारा तेज हो गयी
पत्थर धँसे पाँव में इतने
कि पश्चिम – पहाड़ के सिर पर
वह थका हुआ बूढ़ा सूरज
लगा उगलने खून
हारिल से पूछी लोना कुसुम कुमार का वास
हारिल ने हवा में गिरा दिया पंजे से काठ
पर लोना नहीं हुई उदास
रेती से पूछी लोना कुसुम कुमार का वास
रेत के पीठ पर उग आया बरगद विशाल
पर लोना का साहस कम न हुआ
योगी से पूछी लोना कुसुम कुमार का वास
योगी के मुँह से लगी टपकने देह
फिर भी लोना थम्हीं नहीं उस छद्म देश
पल भर ठहरी लोना
रुकी , सुनी अपने भीतर
पाँच तार से बँधे हृदय का सितार रूदन
फिर सीधे पूरब में भागी
नीली स्याही से रँगा हुआ वह स्याम पुरुष
सरयू के तट पर व्याकुल खड़ा मिला
लोना अबाब को था कहना कुसुम कुमार से ये सब –
जैसे गौरैया फुदक – फुदक कहती माटी से
जैसे बादल है टपक – टपक कहता धरती से
जैसे पराग है निचुड़ – निचुड़ कहता तितली से
हाँ ठीक मुझे भी प्रेम है तुमसे , बिल्कुल वैसे ही
उतना ही
अकूत , अनन्त , अथाह ,अपरिमित
पर ये क्या !
लोना को कुछ कहना था !
क्या कहना था ?
चुप रहना था ?
सब भूल गयी
कुछ याद नहीं
तब लोना ने काट स्वयं की जीभ स्वयं ही
सेमल के दो पत्तों में रख भेंट कर दिया
प्रिय पुरुष कुसुम को
सदियों पीछे
मुक्त हो गयी
मौन हो गयी ।
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बेहतरीन..परास्नातक में इस तरह की परिपक्व कविता उम्मीद को रौशन करती है.."तलवारों का शोक गीत" और "इजहार और लोना अबाब" कविता की गहरी संवेदना छू गयी…बधाई विहाग वैभव को इसी तरह बेहतरीन करते रहें।"अनहद" अच्छी कविताओं को स्थान दे रहा है यह संम्भावनशील कवियों के लिए और हम जैसे पाठक वर्ग के लिए सार्थक जगह है।
शिवानी गुप्ता
Behtareen…bahut sundar rachna
Shalini Mohan
बहुत आभार शिवानी गुप्ता और शालिनी जी।
विहाग की इस राग से मडई की हवेली में मीठी नींद आएगी. यकीनन. अनहद खूब गूँजे. आमीन ! अभयानंद कृष्ण
शुक्रिया अभयानंद जी। साथ बना रहे।
माँ का सिंगारदान,तलवारों का शोकगीत,इजहार और एक लोना अबाब अच्छी कविताएँ हैं……
कवि के संवेदनशीलता और कल्पना की परम पारदर्शिता दिखाती है। कतई सन्देह नही कि "विहाग वैभव" से बहुत सी उम्मीदे जागती हैं।
मुझे अच्छी लगी यह लाईने—-
१. तलवारें लोहे की होती हैं
तलवारें गुलाम होती हैं
तलवारें बोल नहीं सकतीं
तलवारें खुद लड़ नहीं सकतीं….
२. "लोना ने काट स्वयं की जीभ स्वयं ही
सेमल के दो पत्तों में रख भेंट कर दिया
प्रिय पुरुष कुसुम को
सदियों पीछे
मुक्त हो गयी
मौन हो गयी" ……।
शुभकामनाएँ विहाग वैभव।..
विहाग वैभव एक संभावनाशील युवा कवि हैं।पिछले साल उसे डीएवी कॉलेज ,बनारस में कविता पाठ करते सुना था और प्रभावित हुआ था।अच्छी कविताएँ अनहद पर लगी है।विहाग को बहुत शुभकामनाएँ।
– आनंद गुप्ता
बहुत आभार पूजा जी और आनंद बाबू। साथ बना रहे।
अच्छी कविताएँ। "रेखांकित"में लिया जा सकता है।
सभी कविताओं का विषय तो है अलग-अलग मगर उतर रही है सभी एक ही जगह… सीधे हृदय में। "मुट्ठी भर राख" जबरदस्त बिंब। विहाग वैभव को जन्मदिन की अनंत मंगलकामनाएं। "अनहद" एक अच्छा ब्लॉग है और यहाँ बेहतरीन रचनाकारों की रचनाएं पढ़ने को मिल रही है इसके लिए विमलेश जी को अनेकानेक साधुवाद।
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कविताएँ बेहद अच्छी हैं, लेकिन सम्पादक ने सम्पादक के अपने कर्त्तव्य पूरे नहीं किए हैं। भाषा और वर्तनी की त्रुटियों को दूर नहीं किया है।