साहित्य की नई सुबह कब आएगी ?
भरत प्रसाद
पृथ्वी पर आज तक विकास के जितने आश्चर्य दिखे या दिख रहे हैं, उसका सूत्रधार कौन है ? आगे अभी न जाने कितने चमत्कारी विकास प्रत्यक्ष होंगे, उनका मूल कारण कौन होगा ? प्रायः साधारण कद-काठी, वजन और शारीरिक बल वाला यह मनुष्य ही वह कारण है, जो कल्पना को जमीन पर उतारता है, जो इच्छाओं को आकार देता है, सपनों को हकीकत में बदलने का जज्बा रखता है और हारी हुई बाजी को महाविजय में बदल देता है। समाज, राजनीति, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, विविध कलाएँ सबकी सब अपना नवजीवन, नवोत्थान पाने के लिए किसी न किसी ऐसे ही कद-काठी वाले हीरे की प्रतीक्षा करती हैं, और उसके आवेगमय व्यक्तित्व की धारा के बूते आश्चर्यजनक शिखरत्व हासिल करती हैं। याद कीजिए एमर्सन का वह सूत्र, कहते क्या हैं – ‘‘केवल प्रतिभा ही लेखक नहीं बना सकती, कृति के पीछे एक व्यक्तित्व भी होना चाहिए।’’
संसार की सारी कलाएँ मनुष्य से उपजती हैं मनुष्य के लिए जीवित रहती हैं और मनुष्य तक पहुँचकर समाप्त हो जाती हैं। पृथ्वी की प्रकृति द्वारा निर्मित इस मानव शरीर ने सृजन की असम्भव सी ऊँचाइयों को छुआ है, तो अपनी अर्थहीनता से भाषा, साहित्य और सृजन को शर्मसार भी किया है। क्यों दूर जायँ, किसी अन्य देश के पास ? यहीं भारतवर्ष में ही सैकड़ों उदाहरण इतिहास में लहक रहे हैं। संस्कृत साहित्य में बाल्मीकि, भवभूति, कालिदास, बांग्ला में रवीन्द्रनाथ, शरत्बाबू, काजीनजरूल और सुकांत दा, पंजाबी में गुरुनानक और अवतार सिंह पाश, मराठी में संत ज्ञानेश्वर तो राजस्थानी में मीराबाई और विजयदान देथा। भारतवर्ष की प्रत्येक भाषा का साहित्य अँटा पड़ा है – ऐसी जगमगाती रौशन आत्माओं से। समय अपने मुताबिक गढ़ता है कलम के सिपाहियों और रौशनी के दीयों को। समय अपने आप में कुछ नहीं, सिवाय एक दबाव, प्रेरणा, चुनौती और पाठ के। व्यक्तित्व में जो तराश किताबी ज्ञान, उपदेश, जीवन अनुभव भी नहीं ला पाते, वह तराश समय ला देता है। व्यक्ति सर्वाधिक समय से संचालित होता है, समय के मुताबिक अपना चेहरा बदलता है, समय की चाल भांपकर उसके पीछे-पीछे चलता है। पांच सौ वर्ष पहले यूरोपीय समय के जिस तनाव और दबाव ने शेक्सपियर को पैदा किया, आज पांच सौ वर्ष बाद एक और शेक्सपीयर दबाव ने शेक्सपीयर को पैदा किया, आज पांच सौ वर्ष बाद एक और शेक्सपीयर पैदा करने के लिए समय पूरी तरह तत्पर है। ठीक यही वाक्य केवल कवि का नाम बदल कर भारतवर्ष पर भी लागू किया जा सकता है।
उद्दाम विस्फोट का अकाल
अज्ञेय द्वारा सम्पादित ‘तीसरा सप्तक’ में स्थान पाकर नयी कविता के दौर से अपनी पहचान कायम वाले कवि केदारनाथ सिंह आज समकालीन कविता के सुप्रसिद्ध नाम हैं। सृजन की यात्रा आरम्भ हुई गीतों से और शिखरत्व मिला गद्यमय बौद्धिक कविताओं के द्वारा। ‘अभी बिल्कुल अभी’, ‘जमीन पक रही है’ और ‘अकाल में सारस’ जैसे संकलनों की विशुद्ध बिम्ब और संकेतधर्मी कविताओं ने जहाँ कवि को अपने ढंग की अलग पहचान दी, तो ‘उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ’ तथा ‘सृष्टि पर पहरा’ जैसे संकलनों की कविताओं ने केदारनाथ सिंह को कभी दृश्य-यथार्थ से एकान्तिक संवाद करते और कभी अपनी रोमानी कल्पना पर टटकी अनुभूतियों का रंग चढ़ाते हुए कवि के रूप में स्थापित किया। ‘बाघ’ जो कि कवि की सबसे लम्बी, और लम्बी ही नहीं, आकंठ बौद्धिक तैयारी के साथ तराशी गयी कविता है – केदारनाथ सिंह की सम्भावना और सीमा दोनों का ही दस्तावेज है। अपने समूचे बनाव में यह कविता यथार्थ, प्रतीक, मिथक, फैंटेसी और कुतूहल का ऐसा तानाबाना खड़ा करती है कि एक बारगी कविता का धुरन्धर मर्मज्ञ भी चकरा जाता है। कवि ने जब-जब बेखास, बदरंग और दृष्टि से ओझल जीवन सत्यों का अनुरागपूर्ण उद्घाटन किया तब-तब वे प्रभावशाली और जरूरी कवि के रूप में हृदय से जगह बनाए। लेकिन उन्होंने जब-जब बहुत मार्के वाली बात खोज निकालने की महत्वाकांक्षा में चैंकाने वाले रूपकों, बिम्बों और शब्दों को भर्ती किया – वे कमजोर, मद्धिम और अप्रमाणिक सर्जक हो गये। प्रारम्भिक संग्रहों की कविताएँ जहाँ जीवन के रंग में प्राण भरती हुई जीवित कविताएं हैं, वहीं साहित्य में स्थापित और बहुचर्चित होने के बाद की कई कविताएं जीवन-समुद्र की लहरों से ऊपर-ऊपर खेलते हुए समाप्त हो जाने वाली खालिस बिम्बवादी कविताएं। ‘जमीन पक रही है’ संग्रह की एक भावनाधर्मी कविता को बांचिए – अपनी सारी गर्द/और थकान के साथ/ अब आ तो गया हूँ/ पर यह कैसे साबित हो/ कि उनकी आंखों में/ मैं कोई तौलिया या सूटकेस नहीं/ मैं ही हूँ……. छू लूँ किसी को ? लिपट जाऊ किसी से ? मिलूं/ फिर किस तरह मिलूं/ कि बस मैं ही मिलूं/ और दिल्ली ने आए बीच में – (गाँव आने पर – कविता)। यह कविता निश्चय ही समृद्ध मनुष्यता की ओर कदम बढ़ते कवि के भाव-समृद्ध व्यक्तित्व की प्रतिध्वनि है। ठीक यहीं पर ‘मुक्ति’ शीर्षक कविता की पाँच पंक्तियों पर निगाहें जमाइए – मैं लिखना चाहता हूँ ‘पेड़’/ यह जानते हुए कि लिखना पेड़ हो जाना है/ मैं लिखना चाहता हूँ पानी/ ‘आदमी’ आदमी मैं लिखना चाहता हूँ/ एक बच्चे का हाथ/ एक स्त्री का चेहरा/ (‘समय की आवाज’ – सम्पा. कर्मेन्दु शिशिर)। यह कविता किसी नये और उन्नत अर्थ तक मन को पहुँचाने में असमर्थ तो है ही, सामान्य दृश्यों की स्वाभाविक जीवन्तता भी नहीं कायम रख पाती।
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केदारनाथ सिंह |
कवि केदारनाथ सिंह का रचनात्मक जीवन हिन्दी के कम से कम तीन महारथियों का प्रत्यक्ष गवाह रहा है, वे हैं – निराला, मुक्तिबोध और नागार्जुन। इनमें नागार्जुन को छोड़कर किसी की भी काव्य-गरिमा सरल रेखीय नहीं, अभिधात्मक नहीं ; किन्तु क्या अजीब आनन्द है कि निराला और मुक्तिबोध शब्द अर्थ और संगीत के रोमांचा का ऐसा व्यामोह खड़ा करते हैं कि मन लुटा-लुटा सा खो जाता है, अनुभूतियों की गहरी नदी में। नागार्जुन बेशक जन-मन की भाषा में कविता पकाने वाले लुहार हैं, मगर इस मर्मशिल्पी कवि की बेहद सपाट दिखती कविताएँ आत्मा के कोने-कोने को झनझना देने वाली वेदना की तरंगें छिपाए हुए हैं। इन तीन पैमानों को सामने रखने का मकसद बस इतना ही है कि केदारनाथ सिंह के सृजनपथ ने इन ज्योति-स्तंभों के बीच से गुजरने का सौभाग्य प्राप्त किया, किन्तु कवि पर इनमें से एक का भी प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाई नहीं देता। वैसे यह भी एक उपलब्धि है कि उन्होंने अपने वक्त के पैमानों से अलग राह बनायी, परन्तु यह अलगपन किसी ऐसी मंजिल को गढ़नेे का उदाहरण न बन सका जैसा कि निराला और मुक्तिबोध का अलगपन। केदारनाथ सिंह की कविताएँ टकराती कम हैं – सुसंवाद ज्यादा करती हैं, बहस कम करती हैं – समन्वय ज्यादा करती हैं, अँड़ती-लड़ती बहुत कम हैं – सामंजस्य का रास्ता अधिक अपनाती हैं। एक साफ‘सुधरापन, एक झाड़-पोंछ, सुघड़ता, तराश और कोमलता अक्सर छाया बनकर उनकी कविताओं में घूमती रहती है। गाँव के प्रति, स्मृतियों में रची-बसी वहाँ की खाँटी-भदेस प्रकृति के प्रति कवि के चित्त में अनुराग तो है, किन्तु वह भी बुद्धि नियंत्रित धुली हुई भाषा की मर्यादा में बंधा हुआ है, नागार्जुन के अक्खड़, दीवाने मन की तरह बिफरता हुआ बह नहीं चलाता। ‘अपनी गंवई पगडंडी की चंदन वर्णी धूल’ को लिखते वक्त मन से बौद्ध भिक्षु बन चुके माटी के लाल में कैसी विकट हूक उठी होगी, इसकी कल्पना आसान नहीं। जब मिट्टी और माँ के बीच, अन्न और प्राण के बीच, हवा और जमीन के बीच, सूर्य और आँख के बीच, सृष्टि और शरीर के बीच सारे भेद, कवि के भीतर मिट जाते हैं, और दृश्य जगत का रेशा-रेशा, कण-कण, वस्तु-वस्तु असाधारण से भी असाधारण दिखने लगती हैं तो कवि की कलम से काल को पछाड़ती हुई अनमोल दृष्टि का विस्फोट होता है। केदारनाथ सिंह ने सृजन की उपलब्धि के रूप में भाषा, शब्द, शिल्प और गठन को अधिक वजन दिया, इसीलिए उनकी कविताओं में उद्दाम विस्फोट का अकाल है। एक नहीं कई आलोचकों ने कवि के अलगपन की प्रशंसा करते हुए भी शिल्प के प्रति अतिशय व्यामोह को उनकी प्रबल दुर्बलता माना। जैसे – आलोचक आनन्द प्रकाश – ‘‘कभी-कभी लेखक गाँव के लोगों की लम्बी भाव-परम्परा की बात करते-करते सुदूर इतिहास के रहस्यलोक में जाकर आश्चर्य-मिश्रित मधुरता का अनुभव कराता है, जिससे लोगों के सरल एवं सहज विश्वासों की एक सुंदर तस्वीर तो अवश्य बन जाती है, (माझी का पुल) लेकिन पाठक को अंत में ऐसे प्रश्नों का सामना करना पड़ता है, जो उसके एहसास को रोमानी कल्पनाशीलता और आश्चर्य के बीच ले जाकर छोड़ देते हैं। (समकालीन कविता: प्रश्न और जिज्ञासाएँ, पत्र. सं. 46)
कवि केदारनाथ सिंह की कलात्मक दक्षता को देखते हुए यह मानना पड़ता है कि उनमें मानक कवि बनने की संभावना प्रबल थी। यदि वे प्रचण्ड संवेदना से आप्लावित कलात्मकता को बेहिसाब हृदयस्पर्शी बना ले जाते तो निश्चय ही हिन्दी कविता एक और शिखर का साक्षात्कार करती, किन्तु दुर्भाग्य ! ऐसा न हो सका, और ऐसा कभी होगा भी नहीं। जो जेनुइनली मानक होता है – वह खुद को साबित करने के लिए तर्क-विर्तक के सारे रास्ते बन्द कर देता है, प्रमाणों से ऊपर उठ जाता है, संदेह उसके कद के आगे बोने पड़ जाते हैं, उसे किसी समर्थन की दरकार नहीं, न ही वह प्रशंसाओं का मोहताज होता है। अमरता दोनेां हाथ जोड़े दौड़ती है पीछे-पीछे जीनियस प्रतिभा के। भयानक भूल करते हैं वे जो इस खुशफहमी में हैं कि एक से बढ़कर एक नायाब कविताएं लिखकर वे महान शिल्पी का तमगा पा जाएँगे। सर्जक को महानता न केवल सृजन से मिलती है, न प्रतिभा से और नहीं अपार लोकप्रियता से। वह हासिल होती है साँस-दर-साँस तपा-तपाकर तराशने वाले आला दर्जे के उदात्त व्यक्तित्व से। यह व्यक्तित्व है अपने आप में पेंचीदा मसला। प्रतिभा कवि को बाहर से हासिल नहीं हो सकती, किन्तु व्यक्तित्व उसे हासिल करना होता है। लगभग प्रत्येक प्रतिभावान कवि ताउम्र इसी खुशफहमी में रहता है कि उसे तो ऐसी अनमोल हुनर यूं ही हासिल है कि अपनी अद्वितीय रचनाओं की चमक से पूरी पृथ्वी को चमत्कृत कर सकता है, फिर फिक्र किस बात की ? इस बेमिसाल रहस्य को समझने की उसे कोई फिक्र ही नहीं होती कि चट्टान से भी मजबूत व्यक्तित्व ही वह सुरक्षा कवच है, जिसमें सृजन की आत्मा का दीया एक रस, एक लय में अखण्ड जलता रहता है। व्यक्तित्व की निर्मिति का प्रथम मंत्र है – अद्वितीय प्रतिबद्धता। दरसत्यों की निर्भीक अभिव्यक्ति के प्रति, स्वयंभू आत्मा के आदेश सुनने के प्रति, जड़-चेतन अथवा दृश्य-अदृश्य सृष्टि में छिपी चेतना को अमरता के आसन पर बिठाने के प्रति। रचनाकार का व्यक्तित्व अनुकूलता में नहीं, प्रतिकूल परिस्थितियों में चमचमाता है, स्थापित होने के जय-जयकार में नहीं, सघन आलोचना की धूप में निखरता है, हाँ-हाँ की सुखद बयार में नहीं, नकार के तीरों के बीच अपराजेय बनता है। अपने वक्त में तिरस्कृत निराला और मुक्तिबोध आज अपनी सदी के बाद भी कविता का सौभाग्य बने हुए हैं तो सिर्फ इसीलिए कि चारेां तरफ वर्षों तक उठने वाली आलोचनाओं ने उनके भीतर वह अमोघ संकल्प पर्वताकार कर दिया, जो समय के किसी भी विपरीत आघात को नाचीज बना सके।
अंग्रेजी का शब्द ‘रेशनैलिटी’ हिन्दी में हूबहू किस शब्द के नजदीक बैठता है, कहना थोड़ा मुश्किल है – परन्तु सृजन, जीवन या समाज के किसी भी क्षेत्र में मानक स्थापित करने के लिए है यह बड़े काम का शब्द। यह न केवल वैज्ञानिक दृष्टि है, न साहसिक हृदय है, न केवल दरसत्य की पक्षधरता है और न ही मात्र विवेक की प्रखर आँखों से सृष्टि को देखने की चेतना है – बल्कि ‘रेशनैलिटी’ अपनी छठी इन्द्री अर्थात् ‘मन’ से बहुत ऊपर उठकर प्रस्तुत जगत के एक-एक तथ्य, रहस्य और रूप को अपूर्व अंदाज में देखने की अभिनव प्रज्ञा है। ‘रेशनैलिटी’ को सिद्ध कर लेने वाला सर्जक सेकेण्ड के हजारवें हिस्से के बराबर भी आत्ममुग्ध या प्रतिभा के अहंकार से ग्रसित नहीं होता, वह न तो खुद को महानता के तराजू पर तौलता है – न ही किसी अन्य जीनियस को। वह भव भूति की भांति इस आत्मज्ञान का मालिक होता है – उत्पत्स्यते हि मम कोऽपि समान धर्मा, कालोह्यं निरवधिर्विपुलाच पृथ्वी।
लगभग प्रत्येक कालजयी सर्जक अभिशप्त है – इस ‘रेशनैलिटी’ को छूने के लिए। व्यक्तित्व में जीवन भर बिजली की तरह चमकती इस रेशनैलिटी के बिना, सदियों तक टिका रहने वाला सर्जक न हुआ, न होगा। यह रेशनैलिटी जिस कवि में जितनी ही बड़ी होती है, वह समय से आगे दौड़ने वाला उतना ही अनोखा धावक सिद्ध होता है। वह जीवन भर मात खाता है, कभी सर्व स्वीकृति नसीब नहीं होती, केवल हानि ही हानि उठाती है- रेशनल मेधा, परन्तु क्या अजीब दीवानगी है कि रेशनल व्यक्तित्व अपना हर दांव हार कर भी परम आनन्दित रहता है। बस सीख लीजिए कबीर के उदाहरण से – ‘कबीरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय। आप ठगे सुख होता है – और ठगे दुख होय।’
अनिवार्य और इन्कार्य के बीच
समकालीन हिन्दी कविता के माक्र्सवादी कवियों में अपनी पहचान कामय करने वाले कवियों में विजेन्द्र जी का नाम अग्रगण्य है। वरिष्ठ कवियों का एक वर्ग उन्हें विशिष्ट कवि मानने से इंकार करता है, तो दूसरा वर्ग जो कि माक्र्सवाद के सिद्धांतों का प्रबल प्रेमी है – उन्हें समकालीन हिन्दी कविता का अनिवार्य कवि घोषित करता है। वस्तुतः दोनेां प्रकार के निष्कर्ष अतिवादी, श्रेष्ठता की ग्रंथि से भरे और पूर्वाग्रह पूर्ण हैं। विजेन्द्र जी को न तो क्षमतामय कवि होने से इंकार किया जा सकता है, न ही उन्हें समकालीन कविता के मानक कवि के रूप स्वीकार किया जा सकता है। ‘अग्निपुरुष’ जो कि विजेन्द्र जी का लम्बा काव्य नाटक है – निश्चित तौर पर उनकी प्रतिभा को प्रमाणित करता है। उसका ताना-बाना तेवर, गठन और नाटकीयता कुछ हद तक ‘अन्धायुग- की याद दिलाती है। ‘अन्धायुग’ का फलक विस्तृत है- वह विषय की बहुत गहराई में उतर कर युगसत्य को आवाज देता है, जबकि ‘अग्निपुरुष’ का एक रेखीय स्वर है, जो कई जगहों पर भावों के दुहराव का बेतरह शिकार हुआ है। ‘अग्निपुरुष’ विजेन्द्र की कविता का उत्कर्ष है, उनकी प्रतिनिधि कविताओं में अन्यतम है और कवि के गुण-दोष को अलग-अलग देखने का पैमाना भी। विजेन्द्र प्रायः तुक और लय में कविताएं लिखते हैं। विषय विशुद्ध आधुनिक हैं, समस्याँ टटकी हैं- परन्तु उन्हें व्यक्त करने का अंदाज कई बार इतना सीधा, सपाट और उपदेशाप्लावित हो जाता है कि उसमें कविता का प्राण कहीं धड़कता ही नहीं। विषयों, समस्याओं, घटनाओं और मानवीय पतन को कला की मारक, बेधात्मक भंगिमा में प्रायः न बांध पाना कवि विजेन्द्र की दुर्बलता है। इनके पास भाव हैं, विचार हैं, ईमानदारी है, जज्बा है- मगर मस्तिष्क में, हृदय पर चढ़कर बिजली के समान कौंधती रहने वाली, आर-पार की कला उनके पास प्रायः नहीं हैं। यह महज संयोग नहीं कि जब वे गद्य में अपने विचार प्रस्तुत करते हैं- तो ज्यादे साहित्यिक और प्रतिबद्ध विचारक प्रमाणित होते हैं।
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विजेन्द्र |
मार्क्सवाद ने यदि कवि को पहचान दी तो उन्हें उनके अनजाने सीमित भी कर दिया। मंदिर में प्रवेश करने वाले भक्त के हृदय और मस्तिष्क में मंदिर के प्रति श्रद्धा का जो दोष आ जाता है, ठीक वही दोष किसी वाद में बंद होकर जीने वाले रचनाकार में…..। वह सोचता है कि वही सबसे स्वस्थ श्रेष्ठ और सम्यक् चिंतन, सृजन कर रहा है- परन्तु सच ये है कि उसकी प्रतिभा की जड़ में ‘वाद’ से उत्पन्न होने वाले बासीपन का रोग लग चुका है। विचार प्रेमी, दर्शनवादी या वाद समर्थक होना कुछ अनुचित नहीं है। हमारे अनुचित होने की शुरुआत तब होती है – जब हम अपने वाद सिद्धांत या विश्वास की वकालत करते-करते दूसरी विचारधारा के प्रेमी को कटघरे में खड़ा करना, जड़ से उखाड़ फेंकना आरम्भ कर देते हैं। आज दुनिया की रहस्यमय असलियत को केवल माक्र्सवाद की दूरबीन से नहीं देखा जा सकता। सृजन अथवा चिंतन के क्षेत्र में यह एकवाद का नहीं, बहु दर्शनवाद का समय है।
विजेन्द्र जी की एक कविता ‘कच्ची बाटी’ की दो-चार पंक्तियाँ –
काटा झाड़ बेरिया काटी
माटी खोदी, खाई पाटी
फिर भी भूखा अब तक
सोया है-
पेट काटकर बच्चे पाले
मुँह पर मेरे ताले डाले। (घना के पांखी – पृ. सं. – 49)
ये पंक्तियाँ कवि व्यक्तित्व की गवाही देती हैं कि विजेन्द्र जी को श्रमिक, मजदूर, कारीगर और खेतिहर चेहरों से आकंठ लगाव है। अन्य जन पक्षधर कवियों की तरह उनकी पक्षधरता में दोहरापन दूर-दूर तक नहीं है। वे कलात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर जलेबीनुमा उलझाऊ वाक्यों का चमत्कार नहीं खड़ा करते- बल्कि सीधे, बोधगम्य और जुबानप्रिय शब्दों के माध्यम से अपने मन की बात बेलाग ढंग से स्थापित करते हैं। कई बार अभिधा शैली में फैली ये कविताएँ महज लिखने के लिए लिखी गयी कविताएँ लगती हैं। इनमें सुदूरगामी दार्शनिक व्यंजना का अभाव है। कविता-दर-कविता पढ़ जाने के बावजूद शायद ही कुछ पंक्तियाँ मिलें, जो क्लासिकल क्लाइमेक्स का हृदय पर दावा करती नजर आएँ। विजेन्द्र जी ठेठ राजस्थानी शब्दों का भरपूर प्रयोग करते हैं – इस कठिनाई की परवाह किये बगैर कि वे राजस्थानी भाषा के नहीं, हिन्दी के कवि हैं। कवि की दूसरी प्रबल कमजोरी है- लय और तुक लहकाने के शौक में हिन्दी के शब्देां को तोड़-मरोड़ डालना। शब्दों के स्वरूप में तोड़-फोड़ मचाना साहित्य की कोई नयी प्रवृत्ति नहीं। कबीर, निराला और मुक्तिबोध ने काफी हद तक यह दुस्साहस किया है, मगर ऐसे उन्होंने किया- इच्छित अर्थ को मौलिक गरिमा देने के लिए, उच्च दार्शनिक विचारेां का वाहक बनाने के लिए- न कि मात्र लय और तुक की चूर-गांठ फिट बैठाने के लिए।
‘वागर्थ’ पत्रिका का अगस्त- 2015 अंक विजेन्द्र जी की सुदीर्घ सृजन-यात्रा को समर्पित है। इसमें प्रकाशित कविताएँ स्थानीय, जनपदीय, ठेठ ग्रामीण प्रकृति के प्रति कवि के अनुराग का आइना हैं। संदर्भवश यहीं आ खड़े होते हंै। नागार्जुन जिन्होंने खांटी अभिधा शैली में आत्मीय प्रकृति के प्रति अनन्य भक्ति की ऐसी तान छेड़ी है कि लक्षणा और व्यंजना वाली कविताएँ बौनी नजर आए। प्रत्यक्ष दृश्य की वर्णनात्मकता विजेन्द्र जी की कलम से ऐसी बंध गयी है, जो छूटे नहीं छूटती। जैसे ‘चैत की लाल टहनी’ कविता की पंक्तियाँ – वह उग रहा है/ मेरे तुम्हारे बीच/ नया आम का पौधा/ गंगा के मैदान में। (वागर्थ-अगस्त-2015, पृ. सं. – 69)
वैसे तो हिन्दी ही नहीं, सम्पूर्ण भारतवर्ष का समकालीन साहित्य प्रगतिशीलता की भूमि पर लहलहा रहा है, किन्तु यहाँ भी बहुरुपिया सामंतीपन परले दर्जे का व्याप्त है। कवि का सारा संघर्ष, सारा श्रम और सम्पूर्ण साधना उसकी स्थायी प्रसिद्धि तक है- उसने जैसे ही साहित्य में स्थापित कवि का सर्टिफिकेट हासिल किया, असली आत्मसंघर्ष को तिलांजलि दी। मौजूदा समय में उन्हीं की कविता कमाल की है, जो विख्यात हैं, उन्हीं की कविता कला की हजार खूबियों से भरी पड़ी है – जो साहित्य की सत्ता के संचालक हैं, उन्हीं की कविता अमरता की हकदार है जो साहित्य की राजनीति का रथ हाँक रहे हैं। यहाँ हिन्दी में फिलहाल कविता की नहीं, कवि की तूती बोलती है। कविता की नहीं, कवि की पूजा होती है। अब कविता साहित्य से विस्थापित है और कवि केन्द्र में स्थापित। यह दुखद है किन्तु हकीकत कि गुमनामी, संघर्ष और उपेक्षा की बेला ही कवि की क्षमता में सृजन की सच्ची आग दिख रही है, जो कि स्थापित, सुप्रसिद्ध और बहुप्रशंसित होने के बाद खोखला, अर्थहीन और बेखास होता जा रहा।
साहित्य पर वक्त की मौकापरस्ती इस कदर हावी है कि रचनाकार के काम की नहीं नाम की पूछ है। उसका मूल्य उसकी रचना से नहीं, उसकी हैसियत, पहुँच और प्रभुसत्ता से तय हो रहा है। युवा और वरिष्ठ दोनों प्रकार के रचनाकारों में नामपूजा सिर चढ़कर बोल रही है। आलोचक रचना को आंकने की कसौटियाँ रचनाकार का नाम तौलकर तय कर रहा है। यदि वह रचनाकार नई दिल्ली टाइप किसी इन्द्रलोकपुरी का है, यदि वह कई प्रतिष्ठित पुरस्कार गले में लटकाए घूमता है, यदि सारे प्रतिष्ठित प्रकाशक उसकी किताब पर मुहर लगा चुके हैं, यदि वह हवाई जहाज की अफलातूनी यात्राएँ करने से लेकर स्वदेशी-विदेशी भाषाओं में अनुवादित होने का झण्डा लहरा रहा है- तो फिर उसकी भूरि-भूरि वन्दनावादी आलोचना सुनिश्चित। आलोचक के लिए असाधारण, महान, अद्भुत, कालजयी, विशिष्ट, मौलिक, बाकमाल जैसे शब्द दाएं-बाएं का खेल बन गये हैं। इस बाजारपरस्त समय ने बड़े से बड़े शब्दों का अर्थ बौना कर दिया है। बाजार की सुनें तो आज हिन्दी साहित्य में एक दर्जन बड़े कवि हैं, आधा दर्जन युगशिल्पी उपन्यासकार हैं- और नाहीं-नूहा दो दर्जन जीनियस कहानीकार। समकालीन साहित्य में भक्तों की नाना मंडलियाँ हैं, उन मंडलियों के अपने-अपने ईश्वर हैं। काम के बजाय नाम और कविता के बजाय कवि की केन्द्रीयता ने एक विवकेशून्य तानाशाही को जन्म दे दिया है। प्रकाशक अब रचना नहीं, रचनाकार को छापते हैं। हिन्दी साहित्य के विशाल पाठक वर्ग में जब तक यह नाम रूप, रंग, सत्ता और शक्ति का आतंक छाया रहेगा, तब तक न तो साहित्य का नया सूर्य उगेगा, न ही सृजन की नयी सुबह आएगी।
कविता में कहानी के कवि
वरिष्ठ कवि विष्णु खरे आलोचनात्मक गद्य शैली में कविता लिखते हैं, लेकिन वह न शुद्ध रूप से आलोचना होती है, न ही खांटी गद्य। उसमें बेरेाकटोक वार्तालाप शैली का खुलापन नजर आता है। समकालीन कविता को कथा का भरपूर ढांचा देने वालों में विष्णु खरे और उदय प्रकाश का नाम सर्वोपरि है। विषयों का चुनाव परम सामान्य होते हुए भी कथन की बुनावट के कारण नया सा दिखता है। ऐसा अक्सर लगता है कि विष्णु खरे सहज ढंग से कविता लिखते-लिखते ऊब जाते हैं और अचानक अबूझ किस्म के उलझाऊ शब्दों में वाक्यों का ऐसा जाल रच देते हैं कि पाठक अर्थ खोजना चाहता है- मगर अर्थ हैं कि न जाने कहाँ-कहाँ फिसलते रहते हैं। विष्णु खरे में सहज-संवादात्मक शैली में महत्वपूर्ण और चित्तस्पर्शी कविता लिखने की गहरी क्षमता मौजूद है, परन्तु इस क्षमता को अनम्य संकल्प बना कर चलें तो।
समकालीन कविता के दौर में एक ऊँचाई मिल जाने के बाद किसी कवि का बहुचर्चित रहना नियति बन गयी है। वह कुछ भी लिखेगा, अनिवार्यतः उसे चर्चित होना ही है। इसीलिए एक मजबूत स्तर पा लेने के बाद लोकप्रियता का सम्बन्ध सशक्त रचनाशीलता से नहीं रह जाता। वह लोकप्रियता यांत्रिक, कृत्रिम या पूर्वनिर्धारित हो जाती है। एक बार जो रचनाकार बहुप्रतिष्ठित हो गया, उसके बेखास सृजन के बावजूद उसकी यथोचित आलोचना करना तमाम आलोचकों के लिए नाकों चने चबाने जैसा लगता है।
विष्णु खरे की कविताएँ प्रायः लम्बी होती हैं। इसका कारण है- बोलचाल की व्यावहारिक भाषा में अतिशय कथात्मकता। ‘पिछला बाकी’ काव्य संग्रह की एक कविता है- ‘गर्मियों की शाम’। यह अत्यन्त सीधी, सपाट और आवेगरहित भाषा में फैली हुई कविता है। दरअसल विष्णु खरे पूरी कविता के भाव में, कथात्मकता में, संरचनात्मकता में कला पैदा करते हैं। वे अनुभूतियों के बल्कि अप्रत्याशित अनुभूतियों के कवि हैं। सामान्य अंदाज में कहते-कहते चुपके से ऐसी बात कह देते हैं, जो देखा-सुना और अनुभव किया गया होने के बावजूद नया लगता है । उनकी कविता ‘प्रारम्भ’ की कुछ पंक्तियाँ – किन्तु मैं नहीं उठा और दौड़कर मैंने उसे नहीं छुआ/ क्योंकि मैं सोचना चाहता था कि जो लड़की चली गई/ वह एकदम वह नहीं थी, जो कि आई थी……… (संग्रह- पिछला बाकी)। इसमें मात्र अन्तिम पंक्ति है, जो अर्थ की कलात्मकता लिए हुए है। इसी संग्रह की एक छोटी सी कविता है- ‘वर्ष-राग’। यह कविता पाठक को अमूर्त अर्थलोक में घुमाती रहती है और कोई निर्णायक अर्थ नहीं दे पाती। इसमें विष्णु खरे समय को एक वीणा के रूप में प्रस्तुत करते हुए वर्ष को एक तार का रूपक देना चाहते हैं। अर्थात् समय की वीणा में वर्ष एक स्वर है- ललित स्वर। यह ऐसा आकर्षक मोहक स्वर है, जिसे मनुष्य बार-बार सुनना चाहता है। नया और योग्य अर्थ देने के बावजूद कविता शिथिल और गठन में बिखरी हुई है।
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विष्णु खरे |
1976 में लिखी गयी ‘डरो’ नामक कविता सीधी, पारदर्शी और कलात्मक भंगिमा के कारण प्रचुर आकर्षित करती है। दो-दो पंक्तियों में व्यक्त की गयी एक-एक अनुभवजन्य सच्चाई हर आम व्यक्ति की वास्तविकता नजर आती है। वैसे इसमें भी कोई व्यापक दर्शन या कालजयी उत्कर्ष प्रस्तुत नहीं हुआ है। फिर भी जीवन के सामान्य अनुभवों को बेधड़क बेलाग व्यक्त कर देने वाली यह कविता इस संग्रह की मूल्यमय कविताओं में से एक है। ‘कहो तो डरो कि हाय यह क्यों कह दिया/ न कहो तो डरो कि पूछेंगे चुप क्येां हो/ सुनो तो डरो कि अपना कान क्यों दिया/ न सुनो तो डरो कि सुनना लाजिमी तो नहीं था।’
हम इस अकाट्य सत्य से टकराएं या पीछा छुड़ा लें, किनतु ध्रुव हकीकत यह है कि हिन्दी साहित्य में मायावी जातिवाद और सामंती दम्भ पसरा हुआ है। हैं तो हम एक से बढ़कर प्रगतिशीलता की ताल ठोंकने वाले- मगर अन्दर और बाहर दोनों स्तरों पर घुटे हुए जातिपरस्त। न जाने कैसा विचित्र मोह अपनी जातीय उपाधियों के साथ है कि न उसका पीछा हम छोड़ते हैं, न वह हमारा। गाएंगे हम भीमराव अम्बेडकर की सामाजिक क्रांति के गीत, मगर दलित के घर भोजन सपने में भी नहीं। दलित साहित्य और चिंतन पर भाषणों का राष्ट्रीय तूफान ला देंगे, मगर मजाल है कि उनकी सवर्णी उपाधि की कोई आलोचना कर दे। हमने कबीर, प्रेमचन्द, मुक्तिबोध और नागार्जुन की नवचेतनावादी कृतियों को रग-रग में पचा मारा है- मगर रहेंगे फलाँ मणि त्रिवेदी ही। यह जातिवाद दिलोदिमाग और आत्मा के स्तर-स्तर में पसर चुका ऐसा परमानन्ददायी जहर है, जो उदग्र विवेक की, हमारी चमकती अन्तर्दृष्टि की, वैज्ञानिक वैचारिकता की और व्यक्तित्व में छिपी क्रांति-चेतना की हत्या कर देता है। इसका एहसास हमारे बुद्धिजीवियों को तब होता है, जब यह जाति का आनुवंशिक जहर उसे जीते जी मुर्दा बना देता है, उसके चारांे ओर घृणा, उपेक्षा, तिरस्कार और मृत्यु अट्टहास करती हुई नृत्य करने लगती है। जातिवादी यह भी है कि हम वरिष्ठ हैं अतः शर्तिया श्रेष्ठ इसीलिए हमारी वन्दना करो। जातिवाद यह भी कि तुम नये हो- इसीलिए अपरिपक्व, अतः सिर झुकाकर घुटने टेकने की आदत डालो । जातिवाद यह भी तुम कवि हो तो आलोचक नहीं हो सकते। आलोचक हो गये तो भूलकर भी तुम कवि कहलाने का स्वप्न मत पालना। यदि उम्र या पुरस्कार विशेष का आतंक दिखाकर अपना सिक्का चलवाना जातिवाद है तो साहित्यिक प्रभुसत्ता की लगाम थामकर अपने प्रखर आलोचकों की जुबान छीन लेना भी जातिवाद है। सुप्रसिद्ध रचनाकार चाहे वह किसी भी विधा का हो- अपने व्यक्तित्व और रचनाकर्म पर स्वर्णिम आलोचना पाने का अनमोल अवसर खो देता है, क्येांकि उसके नाम के आगे, कीर्ति की आंधी के आगे, जय जयकार और प्रभुता के आगे अनेकों महावीरों की बोलती बन्द हो जाती है। इसीलिए जिसके नाम का डंका एक बार साहित्य में बज गया, उसका परम सटीक मूल्यांकन, पानी में आग लगाने जैसा है।
यह सामंतीपन आज भी कहीं गया नहीं है, यही हमारे, आपके, हम सबके भीतर पांव जमाए हुए हैं। अपनी-अपनी विधा के लगभग हर वरिष्ठ के आगे युवा रचनाकार दण्डवत् मुद्रा में झुके रहेंगे- यह साहित्यिक सामंतवाद है। दस बार कोई नवोदित सम्पर्क साधेगा तभी उसकी ओर नजर उठेगी, यह सामंतवाद है। मंच पर कुर्सीधारी रहने के दौरान मैं ही मुख्य अतिथि या अध्यक्ष रहूँगा- यह भी सामंतवाद है। विचित्र किन्तु दरसत्य है कि जहाँ जातिवाद है, वहीं सामंतवाद है, जहाँ सामंतवाद है- वहाँ प्रतिभा का, परिश्रम का, बुद्धि और भावना का अनन्त शोषण है, जहाँ शोषण है- वहाँ मनुष्यता की हत्या सुनिश्चित, जहाँ मनुष्यता मर गयी वहाँ जेनुइन रचनाशीलता पनप ही नहीं सकती। जहाँ सच्ची सर्जना नहीं, वहाँ बाढ़ की तरह चारों ओर बहता साहित्य भी दो कौड़ी है, बिल्कुल ही दो कौड़ी का।
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भरत प्रसाद
एसोसिएट प्रोफेसर
हिन्दी विभाग
पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय
शिलांग – 793022 (मेघालय)
मो. 9863076138
‘लहक’ से साभार।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’स्वामी विवेकानन्द को याद करते हुए – ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है…. आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी….. आभार…