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Home कविता

अर्चना राजहंस मधुकर की कविताएं

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in कविता, साहित्य
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2
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अर्चना राजहंस मधुकर की कविताएं उनके अपने जीवन की जद्दोजहद से उपजी हैं। इनकी कविताओं में स्त्री की पीड़ा के साथ वह मानवीय पीड़ा भी है जो उन्हें व्यापक जन सरोकार से जोड़ता है। अभी-अभी अर्चना का एक काव्य संग्रह भीगा हुआ सच नाम से प्रकाशित होकर आया है। बहुत दिनों बाद अनहद पर कुछ पोस्ट करते हुए हमें खुशी हो रही है। अनहद पर अब लागातार सामग्रियां प्रकाशित होंगी। तो एक लंबे अंतराल के बाद इस बार अर्चना राजहंस मधुकर की कविताएं..।
मुबारकबाद
तुम्हें ही मिलना था ये ताज
इसलिए तुम्हें मुबारकबाद
जिंदाबाद मुबारक
तालियां मुबारक
खुशी और अमीरी मुबारक
शहर और शहर की चमक मुबारक
ये मुझे रास भी कहां आती
इसलिए तुम्हें ही ताज मुबारक
ये आरामगाह मुबारक
हम तो सच ही कहते चले गए
तो चलो, हमें हमारी आदत मुबारक
बगावत मुबारक
यहां मेरा घर नहीं
बाबा
यहां मन नहीं लगता
खत्म हो रहा है सबकुछ
और मैं भी
बाबा
बस! बस!
यहां मन नहीं लगता
चलो,
ले चलो मुझे
ये जगमग चांद-सितारे नहीं बाबा
मुझे मद्दिम सी डिबिया में रहना है
यहां नहीं बाबा
यहां मन नहीं लगता
चिकनी जुबान, चिकने लोग, चिकना फर्श
मेरा पैर फिसलता है बाबा!
यहां नहीं दोस्त मेरे
मुझे बुद्धू बिल्लू के पास जाना है
नहीं, नहीं, बाबा
यहां ना छोडे जाओ
इस शहर में मेरा दम घुटता है
हर कोई तमीज से बोलता है यहां
बाबू यहां मेरा घर नहीं
मुझे घर जाना है
मुझसे न होगी चाकरी
बैल जैसा न होना बाबा
मैं खेतों में बैल हांकूंगा
बस बाबा बस!
मुझे घर जाना है
यहां मेरा घर नहीं
मैला उठाने का धर्म
तुम्हें क्या उधार में मिला है जीवन
ले आए हो कहीं से भीख में
क्या उस खोटे सिक्के की तरह हो तुम
जिसे फेंक दिया जाता है भिखारी के सामने
अपनी जेब हल्की करने के लिए
तुम क्यों आ जाते हो हर बार
मेरे लाख मना करने के बावजूद
सिर पर लाद कर ये मैले की टीन
ये कौन सा धर्म है जो तुम निभा रहे हो
सिर की नहीं
कम से कम अपने गर्दन पर रहम करो
अपने हाथों पर तरस खाओ
नाक की तो बिल्कुल ही परवाह नहीं लगती तुम्हें
मन पर तुम कभी दया नहीं दिखाओगे
गंदे, मैले संडाश अपने सिर पर उठाते चलते फिरते हो
ये कौन सा कर्ज है जो तुम उतारते ही जा रहे हो
जमाने से
कहां पढ़ आए हो तुम
ये सब किस किताब में लिखा है
कि तुम ही संडाश साफ करते रहोगे
जब तक तुममे बची है एक भी सांस
तुमने क्यों धारण किया है गुलामी का ये गंदा वस्त्र
उतारो इसे
अभी फेंको
मेरे सामने ही
मैं खुद साफ कर सकती हूं अपना संडाश
इसलिए, तुम दूर रहो
मत खटखटाओ दरवाजा मेरा
भागो यहां से
जाओ और लोगों को बताओ
कि खुद ही करे अपना मैला साफ
ढोएं अपने सिर पर
या रखें घर के भीतर
करें कुछ भी
तुम्हें क्या तुम्हारी जाति में जन्म लेते ही मिल गया था
मैला ढोने, संडाश साफ करने का प्रमाण पत्र
तो सुनो
आज मैं अपनी जाति बदलती हूं
और शामिल होती हूं तुम्हारी जाति में
क्यों लिखूं मैं शोकगीत
मैं क्यों लिखूं तुम पर
क्यों बर्बाद करूं अपनी स्याही
जाया करूं अपना वक्त
बताओ
क्योंकि तुम एक स्त्री हो और अब तुम इस दुनिया में नहीं हो
सिर्फ इसलिए खर्च करूं अपनी कागज
तुम्हारी नृशंस मौत पर राग-अलाप करूं
आंसू बहाऊं
नहीं
मैं नहीं आऊंगी तुम्हारे पार्थिव शऱीर को देखने
तुम्हारी आत्मा मरे तो मरे
मैं अपनी आत्मा का गला नहीं घोटूंगी
जो जानती है तुम्हारा सच
और ना लिखूंगी एक भी पंक्ति
सहानुभूति के तौर पर
जाओ,तुम बटोरो उसी से अब ये सुख भी
मांगों अपनी आत्मा के लिए दुआएं
श्रद्धांजली,सहानुभूति
जिसने तुम्हें दिए
चमचमाचे गहने
और मोटी मोटी आंखों में बड़े बड़े सपने
और तुम भूल गई फर्क जमीन आसमान का
वही बहाए तुम्हारे लिए आंसू
वही बने तुम्हारे हमदर्द
वही चढ़ाए तुम्हें
सफेद गुलाब
तुमने भी तो उसी पर खर्ची थी अपनी सारी उम्र
अपनी हंसी और लाड़
कहां गए वो अनगिनत दोस्त तुम्हारे
जो भोर से रात तक तुम्हारे ईर्द गिर्द मंडराते थे
जिसने तुम्हारे ऐशोआराम में तेजी से किए इजाफे
तुमने तो खुद ही तो तय किया था ना
अपने जैसा जीवन
तमाम रिश्तों और समाज की परिधि से ऊपर
खड़ा किया था एक फौलादी आदर्श
और खुद ही जल भी गई
तुम ही बताओ खाक छानने मैं क्यों आऊं
क्यों दूं मैं झूठी तसल्ली तुम्हारी आत्मा को
क्यों ना देखूं तुम्हें मैं हिकारत से
क्यों करूं तुम्हारे चले जाने का अफसोस
अपने सौंदर्य को बेचने मैंने तो नहीं कहा था तुमसे
फिर क्यों चित्कार रही है तुम्हारी आत्मा
उसे शांत करो
वरना दूसरी योनियां तुम्हें धिक्कारती रहेगी
कहती रहेगी जमाने तक
तुम्हारे आचरण गलत थे
तुम्हारे रास्ते गलत थे
तुम्हारे जीने के तरीके गलत थे
और भटकती रहोगी तुम यूंही
इसलिए तुम मांगो अपनी आत्मा के लिए एक सफेद गुलाब
उनसे जिन्होंने तुम्हें एक दिन में चार बार दिए थे लाल गुलाब
ताकि तुम और तुम्हारी आत्मा ले सको चैन की नींद
ताकि जब फिर से लौटो इस जहान में तो ताकिद रहे मेरी कही बातें
मेरा गुस्सा और अंत में मेरी तकलीफ….

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 2

  1. नंद भारद्वाज says:
    10 years ago

    विषम परिवेश में जीती स्‍त्री की पीड़ा और वृहत्‍तर मानवीय सरोकारों से जुड़ी इन कविताओं में रचनाकार का सात्विक आवेश वाकई मन पर गहरा असर छोड जाता है। सबसे अच्‍छी बात यह कि अर्चना की इन कविताओं में एक स्‍वाभिमानी स्‍त्री का स्‍वर मुखर होता हुआ दिखाई देता है, जो स्‍वयं स्‍त्री को उसके संघर्ष के लिए प्रेरित करती है। बधाई और शुभकामनाएं।

    Reply
  2. प्यार की स्टोरी हिंदी में says:
    9 years ago

    Ek Achhi Kavya Rachna Prastutikaran Aapke Dwara. Thank You For Sharing.

    प्यार की स्टोरी हिंदी में

    Reply

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

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