युवा कथाकार-आलोचक राकेश बिहारी कथा लेखन के साथ ही आलोचना में भी सक्रिय और महत् हिस्सेदारी रखते हैं। कथा संग्रह वह सपने बेचता था के अलावा अभी-अभी उनकी एक आलोचना की किताब केन्द्र में कहानी आई है। अनहद पर प्रस्तुत है उनका यह लेख जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गहरी पड़ताल करता है। सहमतियों के साथ असहमतियों का भी स्वागत है और बेबाक प्रतिक्रियाओं का तो इंतजार है ही..।।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ संकुचन
राकेश बिहारी
न तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रश्न नया है और न हीं इस स्वतंत्रता पर मंडराने वाले खतरों का. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में हिन्दी साहित्य समाज में कुछ इस तरह की घटनायें लगातार घटित हो रही हैं जिन्हें देखते हुये इन पुराने-से दिखते सवालों पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा सकती है.
बहुत दिन नहीं बीते हैं जब एक पत्रिका में प्रकाशित एक कवर स्टोरी में कुछ वरिष्ठ लेखकों के हवाले से युवा रचनाशीलता की दशा-दिशा पर कुछ प्रश्न उठये गये थे. उस पत्रिका के अगले ही अंक में एक चर्चित युवा लेखक ने अपने वरिष्ठ रचनाकरों द्वारा उठाये गये सवालों का उत्तर जिस अशालीन और लगभग अश्लील अंदाज़ में दिया उसके कारण कुछ लोग चाह कर भी उक्त युवा लेखक की कुछ तर्कसंगत बातों के पक्ष में भी नहीं खड़े हो सके. इसी तरह पिछले दिनों अपनी पुस्तक की समीक्षा से विचलित होकर अपना पक्ष रखने के नाम पर कभी अशोभन तो कभी आत्ममुग्ध अंदाज़ में लेखकीय प्रतिरोध दर्ज़ कराने के भी कई मामले देखने में आये हैं. यहां इस बात का उल्लेख जरूरी है कि यह व्याधि आज किसी खास पीढ़ी तक सीमित नहीं है. दर असल क्या युवा, क्या वरिष्ठ सबको इसने अपने चंगुल में ले रखा है. एक युवा लेखिका के उपन्यास की आलोचना के बहाने एक वरिष्ठ कथाकार-आलोचक के द्वारा अपनी निजी कुंठाओं के अश्लील वमन की एक घटना भी पिछले दिनों चर्चा के केंद्र में रही है.
आलोचना-प्रतिआलोचना के इन ताज़ा उदाहरणों से गुजरते हुये इस प्रश्न का उठना बहुत स्वाभाविक है कि क्या आज लेखकों में अपनी आलोचना सुनने का धैर्य नहीं रहा? प्रशन जायज है, लेकिन तस्वीर का एक रूख और भी है, जो एक दूसरे प्रश्न को जन्म देता है कि क्या आज की आलोचना अपने संतुलन का विवेक खो रही है? ईमानदारी से कहा जाये तो इन दोनों ही प्रश्नों के उत्तरों से जो स्थिति निकलकर आती है वह खासी चिंताजनक है. असंतुलित आलोचना जो कि वस्तुनिष्ठता के अहाते का अतिक्रमण करते हुये पूर्वाग्रही और निजी आलोचना का पर्याय बन जाती है के समानांतर लेखकों के बीच अपनी कृतियों की आलोचना को लेकर बढ़ती जा रही असहिष्णुता के परस्पर प्रतिवादी समय के बीच आज अभिव्यक्ति के तीसरे लक्षण को भी बड़ी आसानी से रेखांकित किया जा सकता है. यह तीसरा लक्षण है – ठकुरसुहाती और चाटुकारिता का. छोटे-छोटे हित-अहित के संधान के चक्कर में आज लेखकों के भीतर इस प्रवृति का जिस तरह इजाफा हो रहा है वह भी कम चिंताजनक नहीं है. कभी सम्मानों (?) / पुरस्कारों की अपेक्षा तो कभी रचनाओं / पुस्तकों के प्रकाशन का लोभ, जिस तरह इन छोटी-छोटी महत्वकांक्षाओं और लाभ-हानि के गणित लेखकों की साहित्येतर औपचारिक-अनौपचारिक अभिव्यक्ति को संचालित कर रहे हैं वह एक नई तरह की निराशा को जन्म देनेवाला है. पुस्तक प्रकशन से पहले लेखक-प्रकाशक के बीच होनेवाले द्विपक्षीय अनुबंध और रॉयल्टी के अधिकार को खोकर, विज्ञापन में रिड्यूस हो चुकी आलोचना-समीक्षा के नये फॉरमेट में अपनी फोटो देखकर खुद को अंग्रेज़ी का सेलिब्रेटी लेखक जैसा मानने की घोषणा करनेवाले युवा लेखक आखिर किन लेखकीय भावनाओं-संवेदनाओं को अभिव्यक्त कर रहे हैं? आलोचना और चाटुकारिता की इस त्रिवेणी के बीच आलोचकीय अभिव्यक्ति की उस चौथी धारा को भी आसानी से पहचाना जा सकता है जो छपने के पहले फोन पर ही लेखक/लेखिका को उसकी कृति की समीक्षा सुनाकर समकालीन साहित्य में उसकी ‘आश्वस्तकारी उपस्थिति’ को सुनिश्चित कर देता है.
असंतुलित आलोचना, लेखकीय असहिष्णुता, क्षुद्र लाभ-हानि और भय आदि से संचालित चाटुकारिता तथा कुछ अवांतर अपेक्षाओं और निजी कुंठा के पृष्ठ-पेषण से उत्पन्न आखेटकी आलोचना के चौखटे में फल फूल रहे अभिव्यक्ति की आज़ादी के इस उत्तर आधुनिक चेहरे और लगातार क्षीण पड़ती जा रही अभिव्यक्ति का खतरा उठाने की प्रवृत्तियों पर आज एक साथ विचार किये जाने की जरूरत है.
चाहे कुछ भी कह जाने की हड़बड़ी हो या कुछ भी न कहने की सुनियोजित रणनीति, ये दोनों ही प्रवृत्तियां लगभग एक ही मानसिकता से संचालित होती हैं. येन केन प्रकारेण यश और समृद्धि पा लेने की लिप्सा और सफलता के शॉर्ट कट की तलाश में अभिव्यक्ति के नित नये फार्मूले गढ़ता यह समय दरसल एक गहरे अंतर्विरोध का भी साक्षी है. असहमति के लोकतंत्र की बात हर कोई करता है लेकिन विडंबना यह है कि असहमति के लोकतंत्र की सारी मान्यतायें हम दूसरों पर ही आजमाना चाहते हैं और खुद की बारी आते ही हम न सिर्फ दूसरों के लोकतांत्रिक अधिकारों की उपेक्षा करते हैं बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में ही अपने नख-दंतों का उपयोग करने से भी नहीं चूकते. और इस क्रम में सहमति के विवेक और असहमति के साहस का लोकतांत्रिक चरित्र कब और कैसे असहमति के दुस्साहस और सहमति की स्वार्थपूर्ण रणनीति में बदल जाता है पता ही नहीं चलता.
अपने अधिकार खोकर चाटुकारिता करने की बात हो या फिर एक दूसरे को नांधने या खुश करने की प्रवृत्ति इसके पीछे कहीं न कहीं एक खास तरह का असुरक्षा बोध भी काम करता है जिसकी जड़े मूल्यों और संगठनों के विखंडन से जुड़ी हैं. पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक परिवर्तन हुये हैं उसके कारण समाज में सामूहिकता का जबर्दस्त ह्रास हुआ है. ‘हम’ के विस्थापन और ‘मैं’ की प्रतिष्ठा का ही यह नतीज़ा है कि आज लोग सिर्फ और सिर्फ अपने हित-अहित की बातें सोचते हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अर्थ संकुचन को निजी महत्वाकांक्षाओं के विस्फोट के ‘साइड इफेक्ट्स’ के रूप में भी देखा जा सकता है. अपने अहित का यह डर हमे तबतक सताता रहेगा जबतक कि हम सामूहिक हक की लड़ाई में एक दूसरे के साथ न खड़े हों. निश्चित तौर पर लड़ाई का यह रास्ता लम्बा होता है, जिस पर चलने के लिये साहस के साथ धैर्य की भी बहुत जरूरत है. जीवन और जोखिम के बीच धैर्य का अभाव भी इस असंतुलन और असहिष्णुता का एक बड़ा कारण है.
साथ चलने के विपरीत एक दूसरे को पीछे छोड़ जाने की एक अंधी महत्वाकांक्षा ने आज जिस तरह हमारे जीवन-व्यवहार को संचालित करना शुरु कर दिया है उसमें अभिव्यक्तियों का प्रायोजित या कि बड़बोला हो जाना एक स्वाभाविक-सी परिणति है. प्रचार और अभिव्यक्ति के आभासी माध्यमों ने जहां एक तरफ अव्यक्त रह जानेवाली संवेदनाओं को स्वर दिया है वहीं, एक ‘पब्लिक रेग्यूलेटर’ की अनुपस्थिति लोगों को अराजक और अनियंत्रित भी बना रही है जिसके असर आज अभिव्यक्ति के पारंपरिक माध्यमों में भी दिखने लगे हैं. देश और दुनिया के एक्स्पोजर के भ्रम का यह संजाल लोगों को कई अर्थों में बाकी दुनिया से काटकर भी रख दे रहा है. अभिव्यक्ति के अधिकारों के अवमूल्यन के लिये ये नई स्थितियां भी कम जिम्मेवार नहीं हैं.
मुक्तिबोध ने कभी कहा था “उठाने ही होंगे अभिव्यक्ति के खतरे / तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़”. एक ऐसे समय में जब हर व्यक्ति गढ़ और मठ में तब्दील हो रहा हो या कि हो जाना चाहता हो, निजता के खोल से बाहर निकलकर अभिव्यक्ति की आज़ादी को उसका सही अर्थ लौटाना ही होगा और यह तबतक संभव नहीं जबतक हम अपने छोटे-छोटे स्वार्थों से संचालित होना न छोड़ें. क्या हम यह खतरा उठाने को तैयार हैं ?
(सबलोग से साभार)
राकेश बिहारी
जन्म : 11 अक्टूबर 1973, शिवहर (बिहार)
शिक्षा : ए. सी. एम. ए. (कॉस्ट अकाउन्टेंसी), एम. बी. ए. (फाइनान्स)
प्रकाशन : प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में कहानियां एवं लेख प्रकाशित
वह सपने बेचता था (कहानी-संग्रह)
केन्द्र में कहानी (आलोचना)
संप्रति : एनटीपीसी लि. में कार्यरत
संपर्क : एन एच 3 / सी 76
एनटीपीसी विंध्याचल
पो. – विंध्यनगर
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हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
पिछली कुछ चर्चित आलोचनाओ के मद्देनजर आपके इस आलेख मे एक खुलापन सच्चाई और वजन है शुक्रिया आपका बहुत उपयोगी लेख ।