एक बड़े कवि की बड़ी कविताः नीम के फूल
विमलेश त्रिपाठी
एक कवि के बड़े होने की कसौटी क्या हो सकती है यह सवाल कविता पर कुछ भी लिखने–कहने से पहले मेरे जेहन में बारहा उभरता है।
साथ ही यह सवाल भी कि एक बड़ी कविता की पहचान क्या है? यही कि वह कितने गझिन विचारों से लबरेज है कि वह पाठक को अपने कहन और शैली से अपने आगोश में ले लेती है कि वह हमें एक क्षण के लिए निःशब्द और मौन कर देती है कि उसमें आई भाषा और शब्द जादू की तरह लगते और असर करते हैं याकि वह हमारे अंदर छुपी-दबी सदियों पुरानी कविता की एक देह में संजीवनी की तरह प्रवेश कर उसे जिंदा कर देती है?
क्या इनमें से एक भी लक्षण होने पर कोई कविता बड़ी हो सकती है, याकि इनमें से कई-कई लक्षण एक साथ होने पर!!
एक आलोचक की आंख जाहिर है कि उपरोक्त बातों से होते हुए कई अन्य छोरों की भी तलाश कर सकती है – लेकिन मेरे जैसे नए कवि की आँख कहां ठहरेंगी ?
मेरे लिए बड़ा कवि वह है जो हवा में कविता नहीं लिखता। मतलब उसकी एक ठोस जमीन होनी चाहिए। वह जमीन चाहे गांव में हो, शहर में हो, या कहीं और लेकिन उसकी संपूर्ण कविता कर्म की जड़ वहीं कही छुपी हो – या कम-अज-कम होने की अपेक्षा मुझे है। वह जमीन – चाहे वह जहां हो – वही कवि का लोक है – वह लोक जिसकी परिधि में बैठकर वह रचना-कर्म करता है। इस कसौटी पर जब हम कुँवर नारायण की कविताओं को परखते हैं तो वे एक बड़े कवि साबित होते हैं और उनकी कविता सच्चे अर्थों में कालजयी। यहां उनकी कई एक कविताओं पर दृष्टि रखने का समय भी नहीं है और अवकाश नहीं अतएव उनकी एक कविता की मार्फत उनकी कविता कर्म और साथ ही उसके मर्म को समझने प्रयास हम करना चाहते हैं।
कुँवर नारायण की एक कविता है- नीम के फूल। यह कविता राजकमल से प्रकाशित उनकी प्रतिनिधि कविताओं में संकलित है। जाहिर है कि उनकी बहुत सारी अच्छी कविताओं की भीड़ में इस कविता पर बहुत लोगों का ध्यान नहीं जाता – यह कोई अनहोनी या गुनाह नहीं है लेकिन पता नहीं क्यों जब भी यह पुस्तक मेरे सामने आती है मेरी आँख बार-बार उसी एक कविता पर ठहर जाती है। मेरे सामने शीर्षक की मार्फत एक बिंब उभरता है जो मेरे बचपन का है – नीम के फूल पेड़ पर लगे हुए, जमीन पर झरे हुए- हमारे खेल में चुपचाप शामिल। इतने चुप कि हमारे कुछ भी करने में किसी तरह का अवरोध या खलल न डालते हुए।
बार-बार यह प्रश्न भी कौंधता है कि कवि की आँख नीम के फूल पर क्यों गई – फल पर क्यों गई? जाहिर है कि नीम के फल ज्यादा उपयोगी हैं – उनकी निबौरियां कई औषधिय गुणों से भरपूर है – कवि की आंख नीम के पेड़ पर भी जाती है, पत्ते पर, फल पर – लेकिन वह ठहरती है उसके फूल पर। नीम के फूल के बारे में बहुत कम लोग ही सोचते होंगे या बहुत कम लोगों का ही ध्यान जाता होगा। लेकिन कवि की आंख सबसे ज्यादा उसके फूल पर ही है। नीम के फूल पर कवि की दृष्टि का यह टिकना महत्वपूर्ण है – यह कवि के अलीक पर चलने की ओर सिर्फ इशारा ही नहीं – एक संजीदा कवि और संजीदा कविता का दृष्टांत भी है।
यह कविता न केवल कवि की अपनी जमीन की ओर इशारा करती है, वरन् उन स्मृतियों की ओर भी संकेत करती है जो कवि के कविता कर्म का मूल है। साथ ही यह कविता कवि के समुदायबोध की ओर भी एक गहन संकेत करती है। नीम का पेड़ एक गांव के एक आंगन में है। वह गांव कवि का ही गांव नहीं है सिरफ। वह एक ऐसा गांव है जिसके आंगनों में नीम के पेड़ होते हैं, जिनमें नीम के फूल लगते हैं और पूरा घर (गांव भी) औषधीय गंध से भर उठता है। कवि का यहां घर के संदर्भ में ‘कड़वी’ और ‘मीठी’ शब्द का एक ही साथ प्रयोग बहुत कुछ कह देता है।
एक बड़ी कविता या बड़े कवि की यह विशेषता होती है कि वह साधारण शब्दों की मार्फत असाधारण बात कहता है – सीधे और सरल शब्दों में विशाल अर्थ-छवियां भरता है। घर के साथ कड़वी और मीठी शब्द का प्रयोग उन अर्थछवियों की ओर संकेत है जो कविता में बहुत बाद में खुलते हैं जब पिता का पार्थिव शरीर उस नीम के पेड़ के नीचे रखा जाता है और मां के बालों में फंसे नीम के फूल सांत्वना की तरह उस मृत देह पर झरते हैं। यह वही घर है जिसमें मां जब तुलसी पर जल चढ़ाकार लौटती थीं तो साबुन के बुलबुले की तरह हवा में उड़ते छोटे-छोटे फूल उनके बालों में फंसे रह जाते थे। लेकिन वही फूल अंत में मां के बालों से पिता के पार्थिव शरीर पर सांत्वना की तरह झर रहे हैं।
जाहिर है कि जिस घर में नीम का पेड़ है कि कविता में जिसका जिक्र है उस घर में हंसी और दुख, अभाव और संपन्नता दोनों ही साथ-साथ हैं। नीम के फूल के साथ कड़वी और मीठी गंध है और वह सिरफ गंध नहीं है। जब कविता में इसका प्रयोग कुंवर नारायण करते हैं तो वह एक घर के इतिहास की पूरी छवि प्रस्तुत करने में सक्षम दिखने लगती है। यह कविता का वह कैनवास है जो जमीन पर रहकर भी आसमान को संबोधित करता है। अगर पेड़ कवि की अपनी जमीन है तो उसके फूल आसमान हैं जो कुंवर की पूरी कविता में झीम-झीम जलते हुए महसूस किए जा सरकते हैं। और इस जमीन और आसमान के बीच एक पूरी भारतीय परंपरा है जो इस कविता को एक दीर्घ विस्तार देती है। नीम कविता में नीम होते हुए भी नीम नहीं है और न नीम के फूल कविता में महज नीम के फूल हैं। कविता में मां है और वह तुलसी के पौधे पर जल चढ़ाकर आंगन से लौटती हैं। कविता में मां का तुलसी के पौधे को जल चढ़ाकर आंगन से लौटना परंपरा से कवि के गहरे सरोकार के साथ उसकी लोक संपृक्ति को भी साफ-साफ उजागर करता है।
कुंवर नारायण के ही शब्दों में – “रचना जीवन मूल्यों से जुड़कर अभिव्यक्ति पाती है। लेखक का हदय बड़ा होना चाहिए, अन्यथा आपका लेखन बनावटी-सा लगता है। जिस दौर में मैंने पढऩा-लिखना शुरू किया, हमारे बीच ऐसे कई लेखक थे, जिनकी रचनाओं में और उनके व्यक्तित्व में सामाजिक सरोकार और जीवन-दृष्टि स्पष्ट रूप से दिखाई देती थी। उस समय भी और आज भी जब-जब मैं लिखने बैठता हूं तो मुझे उन लेखकों की याद आती है।“ उनके इस कथन से दो बातें स्पष्ट होती हैं – पहली यह कि रचना के लिए जीवन मूल्य का होना बेहद जरूरी है और दूसरे रचना और व्यक्तित्व में सामाजिक सरोकर संश्लिष्ट होने चाहिए। कुंवर भले कवियों के बीच छोटे-बड़े का भेद न मानते हों, लेकिन उनका स्पष्ट मत है कि आपका लेखन बनावटी न लगे इसके लिए जरूरी है कि आपका हृदय विशाल हो। जाहिर है अपने संपूर्ण लेखन में यह कवि उपरोक्त बातों का अक्षरसः पालन करता हुआ दिखायी पड़ता है। रचनाकर्म उसके लिए एक साधना की तरह है इसलिए वह रोटी के लिए एक अलग व्यवसाय इख्तियार करता है ताकि रचना सिर्फ और सिर्फ रचना रह सके।
कवि नीम के फूल को देखकर अतीत-वर्तमान और भविष्य के कई छोरों को स्पर्श करता दिखता है – उसकी यह कविता इस बात का दृष्टांत है कि वह किस तरह एक मामूली लगने वाली चीज का सिरा पकड़कर कितनी आकाश गंगाओं की शैर कर सकता है – शब्दों की मार्फत इतिहास और भविष्य के बीच वह एक लंबा वितान रच सकता है।
कवि उस फूल को हमेशा बहुवचन में ही देखता है – एक कवि कभी भी किसी चीज को एक वचन में नहीं देखता या उसे नहीं देखना चाहिए। इसलिए उपर कहा गया है कि इस कविता में कवि का समुदायबोध भी अभिव्यक्त हुआ है। यह बहुवचन कभी कुम्हलाया नहीं, हां यह जरूर है कि उसमें वह चमक नहीं आ सकी जिसकी अपेक्षा और वादा आजादी के पहले थी। लेकिन कवि को बहुवचन में फूलों का झरना उनके खिलने से भी अधिक शालीन और गरिमामय लगता है। उनके झरने में निबौरियों के जन्म की कथा छुपी हुई है- उनके झरने में असंख्य चिडियां की चहचहाहट शामिल है और है उसके झरने के बीच धीरे-धीरे उम्र का झरना जो शाश्वत है जिसके उपर किसी का वश नहीं है।
कवि ने इस छोटी सी कविता में स्मृति को दर्शन में तब्दील किया है। स्मृति अनुभव में और आगे चलकर दर्शन में तब बदलती हुई दिखायी पड़ती है जब उसे नीम का विशाल और दिर्घायु वृक्ष याद आता है। यहां सिर्फ उपनिषद की ही स्मृति नहीं आती उसके साथ वह सुदीर्घ भारतीय परंपरा भी याद आती है जहां एक ‘स्वच्छ सरल जीवन-शैली है। भारतीय परंपरा का एक दुर्लभ गुण उदारता की भी याद आती है। यहां नीम का पेड़ भारतीय परंपरा का वाहक होने के साथ ही एक अनुभवी अभिभावक के रूप में भी सामने आता है जो हमारे कठिन समय में एक शीतल छाया की तरह उपस्थित रहता है जैसे कि नीम के पेड़ की उदार गुणवत्ता – गर्मी में शीतलता देती और जाड़े में गर्माहट। जाहिरा तौर पर यहां कवि को एक तीखी पर मित्र-सी सोंधी खुशबू याद आती है। मित्र की यह दुर्लभ परिभाषा है जिसे कुंवर नारायण इस कविता में प्रस्तुत करते हैं। एक और बात उनके बाबा का स्वभाव भी मित्रों जैसा ही रहा है। कवि के लिए उनके बाबा हमेशा मित्र ही रहे- कविता इस बात का संकेत करती है।
एक बड़ी कविता के लिए यह जरूरी होता है कि उसके सरोकार का रेंज कितना बड़ा है – अपने कहन की ताकत और शब्दों की उड़ान से वह कहां पहुंचती या अपने पाठक को भी पहुंचाती है। बाबा के स्वभाव के ठीक बाद कुंवर जी को नीम के पेड़ के नीचे सबके लिए पड़े रहने वाले बाध के दो चार खाट याद आते हैं। ये खाट किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं, एक परिवार के लिए भी नहीं वरन् सबके लिए बिछे हुए हैं जिसके साथ ही निबोलियों से खेलता एक बचपन है। यह कवि की स्मृति है जिनमें यह सबकुछ संभव था। यह स्मृति इस बात की ओर संकेत भी करती है कि आज हम कितने अकेले होते जा रहे हैं। अधुनिकीकरण और शहरीकरण ने भले ही हमें बहुत सारी सुविधाएं मुहैया करवाई हैं लेकिन सबके लिए बिछा रहने वाले बाध के खाट कहीं गुम गए हैं – उसके पास निबौरियों से खेलते बचपन के हाथ में बंदूक, पिस्तौल और विडियो गेम आ गए हैं।
हर बड़ी कविता की तरह इस कविता में भी कवि का मौन बोलता है। पंक्तियों के बीच की खाली जगह भी मुखर है और कवि जहां बोलता नहीं वहां सबसे अधिक मुखर है यह कविता। कविता में परंपरा और आधुनिकता का एक द्वन्द्व भी है और वह द्वन्द्व अनभिव्यक्त होकर भी कहीं अधिक मुखर है।
कविता में अंतिम स्मृति पिता के पार्थिव शरीर की है जिसे नीम के पेड़ के नीचे रखा गया है। बचपन की स्मृति के बाद पिता के पार्थिव शरीर की स्मृति का आना उन करोणों बच्चों की पीड़ा का प्रतीक बन जाता है जो असमय ही अपने पिता को खो देते हैं। इन पंक्तियों को एक अलग कोंण से भी देखा जा सकता है – कवि की स्मृति में पिता का पार्थिव शरीर उसी आंगन में उसी पेड़ के नीचे रखा हुआ कौंधता है जहां उसका अपना बचपन बीता है। लेकिन यह गहन दुख का क्षण भी मोहक लगने लगता है जब नीम के फूल उनके पार्थिव शरीर पर वितराग-से झरते हैं – और उनका झरना ऐसा है कि वे मां के बालों से झर रहे हों। और वे नन्हें फूल आंसू की तरह नहीं सांत्वना की तरह झरते हुए दिखते हैं।
इस कविता में शुरू से लेकर अंत तक एक कथा-सूत्र की भी तलाश की जा सकती है। इस कविता में बहुत धीमी और शांत एक कथा चलती रहती है। कथा की शुरूआत नीम के झरने और मां से होती है और अंत पिता के पार्थिव शरीर पर मां के बालों से झरते हुए नीम के फूल से होती है। एक बड़ी कविता अपने अंदर इतिहास, परंपरा, वर्तमान के प्रश्न के साथ एक तरह का अद्भुद कवित्व और रोचक कथा सूत्र को भी साथ लिए चलती है। कुंवर नारायण की यह कविता इसका उदाहरण है।
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हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
वाह आपकी समीक्षा ने तो ये पुस्तक और ये कविता पढने के लिये प्रेरित कर दिया।
लाजवाब प्रस्तुति…बहुत बहुत बधाई…