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प्रदीप सैनी |
हाल के वर्षों में अपनी अच्छी कविताओं से सक्रिय और मजबूत उपस्थिति दर्ज कराने वाले कवियों में प्रदीप सैनी का नाम प्रमुखता से लिया जाना चाहिए। प्रदीप सैनी की कविताओं को उनकी अलग भाषा की मार्फत आसानी से पहचाना जा सकता है। प्रदीप पहाड़ की गंभीरता को अपनी कविताओं में साधते दिखाई पड़ते हैं। उनकी कविताओं में एक सहज निश्चलता है जो पाठकों को अपनी ओर खींचती है। यहां प्रस्तुत उनकी प्रेम कविताएं खालिश प्रेम की कविताएं न होकर जीवन की कविताएं लगती हैं। प्रेम की बात करते हुए वे नदी, घर पहाड़ और रोजमर्रा की चीजों को नहीं भूलते। यही वह विशेषता है इस कवि की जो उसके जमीन से जुड़े होने का सबूत देती है। प्रेम में भींजते हुए उन्हें बछड़ा याद आता है। वे प्रेम करते हुए भी दुनियादारी को नहीं भूलते।
अनहद पर हम प्रदीप सैनी की कविताएं पहली बार पढ़ रहे हैं। आपकी बेबाक प्रतिक्रियाओं का इंतजार तो रहेगा ही…।
नजाने क्या था
रंग लालच का तेज़ धूप वाले दिन हरा था
उस तरफ मैं अनजान तुम्हारे मौसमों से
खींचा चला आया हुआ अचानक
बारिश में घिर गया था
कोई था नहीं जो आगाह करता
वैसे छाता भी मेरा पिछली किसी बरसात में बह गया था
हरे मैदान में भिन्जते
तर–बतर हुए बछडे की तरह मैं
मासूम लग रहा था
जो घास खाना और घर लौट जाना
दोनों भूल गया था
धुल गए रंग जिसमे सभी धीरे धीरे
ऐसी बारिश का रंग न जाने क्या था |
वाद्ययंत्र
आप में बजता है कभी
आनंद के चरम का संगीत
कभी गहरी उदासियों की धुन
कभी किसी पंछी के पंख
फड़फड़ाते हैं आपके भीतर
कभी गहरे पानी में डूबते हुए
किसी पत्थर की ख़ामोशी गूंजने लगती है
आप जब नींद में होते हैं
तब भी ख़ामोश नहीं होता संगीत
कोई आदिम धुन
आपके सपनों में रास्ता तलाशती है
प्रेम
आपको एक वाद्ययंत्र में तबदील कर देता है।
शब्दों का गाढ़ापन
नपा–तुला ही
स्वाद पैदा नहीं करता
कुछ होता है
जिसका किसी रैसिपि–बुक में जिक्र नहीं
इस रुखे और बेस्वाद वक्त में
मुझे तलाश है उसकी
हाँ मैं याद कर रहा हूँ
खोई हुई प्रेम कविता के शब्दों का गाढ़ापन ।
नदी के लिए
किसी बीते युग में गायब हुई
नदी के निशान हैं रेत पर
जो सरक रहें हैं मेरे भीतर
मैं लगातार सुन रहा हूँ
किसी देह में दूर नदी का बहाव
क्या नदी भी सुन रही है
रेत का सरकना |
मुरम्मत
आप होते हैं हैरान ऐसी दीवार पर
जो लेटी रहती है दिन भर
सूरज की तरफ पीठ किये
समझ नहीं पाते हैं क्यूँ
रहती है सीलन उसमे
किसी गुम चोट के अंदेशे पर बुला लेते हैं मिस्त्री
जो मुआयने के बाद
औज़ार समेट कर लौट जाता है चुपचाप
जैसे जान गया हो घर का
कौन सा दुःख रिसता है यहाँ
जिसे रोक पाना उसके बस की बात नहीं
नया रंग–रोगन दीवार पर
एक बची हुई उम्मीद की तरह पुतता है
जिसे पुख्ता करती बाज़ार में एक ऐसी पुट्टी उपलब्ध है
जो सभी दाग़ और नमी सोख लेने का वायदा करती है
तमाम तरकीबों के बाद भी लेकिन
जाती नहीं सीलन
वहीँ कोने में डेरा जमाये
लौट आते हैं उसके धब्बे
किसी किसी दीवार में यूँ
हक़ और ज़िद से रहती है सीलन
जैसे बचा रहता है मेरे भीतर
इस कठिन समय में प्रेम
उसे मिटा देने की हर कोशिश के खिलाफ़
करते हुए ख़ुद की मुरम्मत |
जो देह नहीं है
जाओ
अनेक शब्दों में से एक है
मैनें उनमें से कोई भी कहा होता
वह यूं ही उठकर गई होती
यह देह का जाना है
क्या है भाषा तुम्हारे पास
कोई इतना खौफनाक शब्द
जिससे डर कर गायब हो जाए वह सब
जो देह नहीं है
और मुझे घेरे हुए है ।
[ केदारनाथ सिंह जी की कविता ” जाना ” को याद करते हुए ]
इस तरह
दुनियादारी से ताल मिलाते ही
प्रेम की लय से भटक जाता हूँ मैं
ऐसा ही कोई लम्हा होता है जब
गिरते हुए सुर को पकड़ने के लिए
ज़िन्दगी से बाहर छलांग लगा सकता है कोई सच्चा साधक
लौट आता हूँ लेकिन मैं
मुहाने तक जा कर हर बार
प्रेम को करता हूँ थोड़ा और बेसुरा
और जीवित बचा रहता हूँ
ठीक कहती हो तुम कि दुनियादार हूँ मैं |
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
आप जब नींद में होते हैं
तब भी ख़ामोश नहीं होता संगीत
कोई आदिम धुन
आपके सपनों में रास्ता तलाशती है
प्रेम
आपको एक वाद्ययंत्र में तबदील कर देता है।
……!!! सच !
पहली कविता में कुछ 'था' अतिरिक्त लगे.
प्रदीप की काव्यभाषा के अलग से पहचाने जाने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है उसका अर्थवान होना, अपने कथ्य के साथ कुछ इस तरह सहजता से सामने आना कि कविता भीतर उतरे और देर तक गूंजती रहे. 'दुनियादारी से ताल मिलाते ही प्रेम की ताल के भटक जाने के खतरे से सावधान इस कवि को बहुत लंबा सफ़र करता देखना चाहूंगा.
कविता पढवाने के लिए विमलेश का आभार तो बनता ही है.
जो देह नहीं है और मुझे घेरे हुए है…आदमी की असल शिनाख्त खोजते इस कवि को शुभकामनाएं और छापक को धन्यवाद।
भाई बहुत अच्छी प्रेम-पगी कविताएं हैं। बधाई।
बहुत सुंदर एवं सशक्त कवितायेँ , आभार
kavita main pradeep bhayi ki dastak kuchh apane tarah ki hai….unake yahan shorgul nahin hai par kavita ke bhetar shant jheel ki tarah ek halchal hai jo seedhe dil par asar karati hai. pradeep prem ki gahari anubhooti ke kavi hain. …..mujhe bahut pyare hain.
किसी गुम चोट के अंदेशे पर बुला लेते हैं मिस्त्री
जो मुआयने के बाद
औज़ार समेट कर लौट जाता है चुपचाप
जैसे जान गया हो घर का
कौन सा दुःख रिसता है यहाँ
जिसे रोक पाना उसके बस की बात नहीं…..
….
सभी कवितायें सुंदर हैं , प्रदीप जी को बधाई !
प्रदीप सैनी जी की कविताओं से गुजरना जैसे एक जीवन में उतरे हुए कवि के अंतस में उपस्थित जीवनबोध को उसके अद्भुत समूचेपन में साकार कर शब्दों में उकेर देता है उनका ठहराव दुनियावी गणित की तेज गति के मध्य बेहद सुकून देते हुए कह उठता है देखो … दिखी मेरी झलक … मै जीवन का अनंत स्वर हूँ …
प्रदीप वह लिखता है जो उसे लिखना होता है . यह साहस बहुत ही कम लोगों मे होता है. लिखते रहो भाई .
प्रदीप तो अच्छा लिखते ही हैं,उन्हें बधाई ! मैं स्वयं भी बहुत अच्छा लिखता हूँ…..ऐसा लोग कहते हैं……मेरी कवितायें आप लोगों तक और बहुसंख्यक अवाम तक कैसे पहुँच सकती हैं……यदि संभव हो तो मार्गदर्शन कीजियेगा |
भाई कुलीन जी अगर आप वाकई अच्छा लिखते हैं तो आपकी कविताएं हम आवाम तक पहुंचाएंगे। आप अपनी कुछ अच्छी कविताएं मुझे bimlesh.tripathi@saha.ac.in पर भेज दिजिए। कविताएं पसंद आने पर हम अपने ब्लॉग पर छापेंगे। आपका आभार….
सभी मित्रों का बहुत-बहुत अभार…
आप सभी का शुक्रिया जिन्होंने कवितायों को अपना समय दिया ……..आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर लिखने की ऊर्जा मिली और ये भरोसा भी कि जो थोडा बहुत अभी तक लिख पाया हूँ …..वो प्रयास व्यर्थ नहीं गया……….विमलेश भाई …..आभार |
कुलीन जी ………. विमलेश भाई ने आपको रास्ता बता दिया है ……. अपनी कवितायेँ उन्हें जरूर भेजें |
दुनियादारी से ताल मिलाते ही
प्रेम की लय से भटक जाता हूँ मैं
ऐसा ही कोई लम्हा होता है जब
गिरते हुए सुर को पकड़ने के लिए
ज़िन्दगी से बाहर छलांग लगा सकता है कोई सच्चा साधक
,..बहुत अच्छी लगी आपकी सारी कविताये ,..अच्छा लगा पढकर शुक्रिया आपको ।
आपकी यह पोस्ट आज के (१३ अगस्त, २०१३) ब्लॉग बुलेटिन – प्रियेसी पर प्रस्तुत की जा रही है | बधाई