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Home कविता

नील कमल की कविताएं

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in कविता, साहित्य
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12
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हेमंत देवलेकर की कविताएँ

 

नील कमल – 09433123379

युवा कवि नील कमल लगभग दो दशकों से कविता लेखन में सक्रिय हैं। कविता लेखन के अलावा उन्होंने कवि और कविता पर भी बहुत कुछ लिखा है, जो किसी भी लिहाज से कम महत्वपूर्ण नहीं है। नीलकमल की कविताओं में एक संजीदा कवि की परिपक्वता तो दिखती ही है, शब्दों की मितव्ययिता और भाषा के प्रति ‘सिरियस अप्रोच’ भी दृष्टिगत होता है। कहने की जरूरत नहीं कि जिन लोगों ने भी उनका काव्य संग्रह ‘हाथ सुंदर लगते हैं’ पढ़ी हैं, वे उनकी कविताओं के कायल हुए हैं। नील कमल एक अच्छे कवि के साथ ही अच्छे मित्र और अच्छे इंसान भी हैं। बांग्ला भाषा बंगालियों की तरह बोलते हैं और ढेरों बांग्ला कविताओं का हिन्दी में अनुवाद किया है। फिलहाल वे पश्चिम बंग सरकार के एक प्रशासनिक पद पर कार्यरत हैं। अनहद पर हम एक लंबे अंतराल के बाद उनकी कविताएं पढ़ रहे हैं। आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार तो रहेगा ही….।

***********************************************************************************
जलकुम्भी के फूल

चैत के चढ़ते दिनों में
चिलचिलाती धूप में
ये खिलखिलाते फूल

पोखर के सतह पर
तैरते पुलकित मुदित
ये देव शिशु

पूजा घरों से बहिष्कृत
प्रेमी जनों से तिरस्कृत
लेकिन उठाए माथ
दीन अनाथ

ये नीलाभ-वर्णी आग की लपटें
पानी के महल में !

पार्थेनियम सिर्फ़ एक घास
का नाम नहीं है..

दुर्वा-दल , बेल-पत्र ,
आम्र-पल्लव , आदि-आदि
जबकि एक प्रायोजित समय में
निष्प्रयोजन सिद्ध हो चुके थे
पोखर पर झुके आम ने
नीम की गिरती हुई परछाईं से
धीमे-धीमे कहा अपना दुख

इस धीमे-धीमे कहे गए दुख में
एक घास का ठण्डा आतंक था
जिसमें देर तक कांपती रही
उजाड़ बगीचे से अनुपस्थित
गूलर की अत्मा

जामुन की एक डाल टूट कर
जा गिरी विकराल एक कुंए
के भीतर , और हाहाकार का मौन
पसर गया पूरे सिवान की छाती पर !

कितनी खतरनाक हो सकती है
एक मासूम सी दिखती घास
पता है आपको ?
अपने खिलते हुए समय में
बिलकुल सफ़ेदपोश
दुबली-पतली घास
चुपचाप दाखिल होती है
हरे-भरे खेतों की मेंड पर
जैसे हड्डियों में उतरता है ज्वर
जैसे रक्त में उतरता है कर्कट
और उखड़ने लगती हैं ग्रामदेवता की सांसें

इन्हें सूंघने की गलती कभी न करना
इनके छोटे क़द पर भी न जाना भूले से
तुम्हारे मवेशियों के चारा के लिए भी
नहीं काम की यह घास

वनस्पति-शास्त्री बताते हैं
संयुक्त-राष्ट्र से उड़ कर
किसी आंधी के साथ आए थे
इसके पराग कण
वाशिंगटन डी सी तक फ़ैली हैं इसकी जड़ें
पार्थेनियम , सिर्फ़ एक घास का नाम नहीं है ।

इस नए भूखण्ड में..

जहाँ कंधों पर उग आया करते थे पंख
और उड़ा जा सकता था इस छोर से उस छोर
बेखटके-बेरोकटोक
जहाँ कुँआ बावड़ी पोखर बाग-बगीचे और
खेत खलिहान मापे जा सकते थे तीन पग में
वह भूखण्ड मेरा था….मेरा था

जिसके सिरहाने विराजते गोइँड़ के खेत
विचरते चरवाहे और हरवाहे
जिसकी कमर से सट कर बहती एक नहर
बत्तखों की क्वाक-क्वाक से मुखरित गुंजार
छप छपाक करते श्याम वर्णी खटिक शिशु
वह भूखण्ड मेरा था….मेरा था

जहाँ खेतों में निराई गोड़ाई करते तज़ुर्बेकार किसान
और मेंड़ों पर खुरपी से घास को गुदगुदाते घसकरे
जहाँ सूर्यास्त में रँभाती गौओं के साथ ऊँघते सिवान
वह भूखण्ड मेरा था….मेरा था

उस भूखण्ड में एक बीज गाड़ आया था मैं
जब चला था आखिरी बार वहाँ से ,
आदमी बनने एक दूसरे भूखण्ड में
यहाँ हवा में उड़ते पुल थे
पाताल में दौड़ती रेलें थीं
गाड़ियाँ थीं, हवाई जहाज थे

यहाँ झड़ गए मेरे कंधों पर उग आये पंख
बहुत मँहगी पड़ी उड़ान एक भूखण्ड से दूसरे तक
कि ८/१० फ़ुट की एक कोठरी का किराया चुकाना
हुआ कुछ उस तरह
कि किसान का बेटा बना सरकार का नौकर
आदमी बन कर बहुत पछताया मन
इस नए भूखण्ड में ।

यूं उनकी आंख में हम ..
 
कसकते हैं जिगर में
टीस बन कर दिल में रहते हैं
यूं उनकी आंख में हम
किरकिरी बन करके रहते हैं ।

कि जैसे नर्मो नाज़ुक
पांव के नीचे कोई पत्थर
हम उनकी राह में चुभते
हुए मंज़र से रहते हैं ।

वो होंगे और जो
कानों में जाकर फुसफुसाते हैं
हम अपनी बात डंका
पीट कर महफ़िल में कहते हैं ।

कि ऊंची है बड़ी परवाज
सुनते थे परिन्दों की
तभी से ज़िन्दगी में हम
समन्दर बनके रहते हैं ।

ये कैसे रिंद जो
झुकते ही जाते हैं इबादत में
ख़ुदा ये कौन सा बन्दे
जिसे जेबों में रखते हैं ।

खेतों में जो उगती हैं
हरे रंग की चिट्ठियाँ..

जितनी हमारे घर में हो उतनी तुम्हारे घर |
अब रोशनी का इक जहाँ आबाद चाहिए   ||

बारिश में   टूट कर   न बिखर जायें   घरौंदे  |
इतनी      हमारे गाँव में     बरसात चाहिए  ||

ऊधो की न लेनी हो न माधो की हो देनी |
अपनी बही में   ऐसा कुछ    हिसाब चाहिए  ||

यमुना से   जहाँ आके गले मिलती है गंगा |
अपने     दिलों में    वह    इलाहाबाद चाहिए  ||

खेतों में जो उगती हैं हरे रंग की चिट्ठियाँ |
उनपर   किसी  किसान का भी   नाम चाहिए   ||

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हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 12

  1. रामजी तिवारी says:
    11 years ago

    पार्थेनियम कविता बहुत अच्छी है …और अंतिम दो कविताओ में छंद का किया गया प्रयोग भी प्रभावित करने वाला है …बहुत बधाई मित्र आपको

    Reply
  2. Ganesh Pandey says:
    11 years ago

    शुरू की तीन कविताएँ अच्छी लगीं।
    शुभकामनाएँ।

    Reply
  3. Unknown says:
    11 years ago

    इस नए भूखण्ड में ,..बहुत छुती है अद्भुत माटी का प्यार और विवशता , जलकुम्भी के फूल,..दुर्लभ प्रतीक ,गहरी काव्य दृष्टि को देख ,.भौचक होना पडा ,.. पार्थेनियम घास (जो बहुत चुनचुनाती है) ,..यूं उनकी आंख में हम ..अपने दिलों में वह इलाहाबाद चाहिए ,… सभी कवितायें गहन संवेदना से लिप्त है इतनी अच्छी प्रस्तुति के लिये आपको बधाई और आपका बहुत बहुत आभार,……।

    Reply
  4. keshav tiwari says:
    11 years ago

    Neel kamal ki kawita ka diction unhe anya kawiyon se algata ha.wo kawita ka eent gara lene kahin door nahi jate. Chitron k sath vichar aise sahaj dhang se aate han.ki manas patal per ankit ho jate han.lai ko atukant me sadhna ak kathin karya ha jo we sahaj hi ker jate han koi kosis nahi dikhti.
    — Keshav Tiwari

    Reply
  5. neel kamal says:
    11 years ago

    विमलेश भाई , आपका बहुत शुक्रिया इस प्रस्तुति के लिए । आपकी सम्पादकीय निपुणता को सलाम । मित्रों की प्रतिक्रियाओं का स्वागत ।

    Reply
  6. हेमा दीक्षित says:
    11 years ago

    नीलकमल जी की इन कविताओं को एक साथ अनहद पर पा कर अच्छा लगा सशक्त विचारभूमि और भावबोध की कवितायें …

    Reply
  7. सुन्दर सृजक says:
    11 years ago

    प्रथम दो कविताएं अपने आप में मुकम्मल है और ये समकालीन कविता में मील के पत्थर साबित होंगे| प्रकृति और गाँव एक दूसरे के अभिन्न पूरक है,कवि उनका चितेरा है| सुंदर कविताओं के लिए कवि को बधाइयाँ और विमलेश दा का आभार ….

    Reply
  8. avanti singh says:
    11 years ago

    bahut hi umda kavitaaye…bdhaai aap ko

    Reply
  9. Anonymous says:
    11 years ago

    sensitivity coupled with altruistic wishes..great expression..

    Reply
  10. नवनीत says:
    11 years ago

    वाह लाजवाब

    Reply
  11. प्रदीप कांत says:
    11 years ago

    वो होंगे और जो
    कानों में जाकर फुसफुसाते हैं
    हम अपनी बात डंका
    पीट कर महफ़िल में कहते हैं ।

    शायद पहली बार ही नील कमल की कविताएँ पढने में आईं हैं
    अच्छी कविताएँ हैं

    Reply
  12. Unknown says:
    9 years ago

    नीलकमल जी की कविताएँ पढ़ कर अच्छा लगा

    Reply

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

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