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केशव तिवारी |
समकालीन कविता के कुछ स्वर जहां पहेलियों और मुकरियों में बदलते जा रहे हैं वहीं कुछ कवियों के स्वर ऐसे भी हैं जो लोक की जमीन पर खड़े होकर आसमान को संबोधित करते दिखते हैं। यह एक तथ्य है कि कविता ही नहीं संपूर्ण साहित्य में खाद-पानी और संवेदना के बीज लोक से ही आते हैं। लोक वह जमीन है जहां कला अपने मूल रूप में मौजूद रहती है, आकार पाती है। केशव तिवारी की कविता में उनका अपना गांव-जवार तो बोलता ही है, ऐसे जरूरी धरोहरों के विस्मृति में चले जाने की पीड़ा भी दिखलाई पड़ती है, जो हमारे आदमी बने रहने के लिए बेहद जरूरी हैं। लोक का दायित्व आदमी के अंदर अदमियत को बचाए रखना है, सदियों से लोक की धरती ने अपने आंचल में ऐसे मूल्यों को सुरक्षित रखा है जिसे नागर सभ्यता कब की भुला चुकी है। केशव की कविता की चिंता वह मूल्य ही है जिससे मानवता का नूतन संसार रचा जाता है, कि रचा जाएगा।
केशव तिवारी की कविता को महज लोक की कविता कहकर या आंचलिकता से जोड़कर सीमित नहीं किया जा सकता। यह कवि अपनी जमीन पर तो खड़ा है लेकिन इसकी पहुंच आज के तेजी से बदलते समय पर भी है। उनकी कविताएं विश्वबोध से भी जुड़ती हैं। लोक और अलोक के बीच जो खाई है उसके बीच केशव की कविता एक पुल की तरह है। केशव इसलिए बड़े कवि हैं।
अनहद पर हम पहली बार उन्हें पढ़ रहे हैं। हमेशा की तरह आपकी बेबाक प्रतिक्रियाओं का इंतजार है…।
एक औरत
मेरे भीतर भटक रही है,
एक वतन बदर औरत
अपने गुनाह का सबूत
अपनी लिखी किताब लिये।
दुनिया के सबसे बडे़ लोकतन्त्र
का नागरिक मैं
उसे देख रहा हूं सर झुकाये।
जहां मनुष्यता के हत्यारे
खुले आम घूम रहे हों
वहीं सर छुपाने की जगह
मांग रही है वह।
वह कह रही है
ये वक्त
सिर्फ कलम की पैरोकारी
का नही है
अपने अपने रिसालों से
बाहर निकलने का है
उनसे आंख मिलाने का है
जिनके खिलाफ लिख रहे हो तुम
अपनी छाप लिये
यूं तो तुम रत्ती भर
नहीं बदले
पर मैं तुम्हे
बदली हुयी नजर से देखता हूं
तुम्हारे न होने का
ऐलान सुनता हूं
और तुम्हे देख
आश्वस्त होता हूं
तुम नही बच पाओगे
सुन कर के ही दहल जाता हूं
और तुम्हारी विश्वास
से भरी आंखे
मेरा ढाढस हैं।
बदलना ही पड़ा तो
हम मौसमों की तरह
तो बिल्कुल ही
नही बदलेगे।
न ही किसी इश्तहार की तरह
जिंदा चेहरों की तरह
अपनी अपनी छाप लिये
बदलेंगे हम।
जोखू का पुरवा
कितने दिनों बाद
जोखू का पुरवा आया हूं
ये मेरी मां का गांव है
यहीं पर गड़ा है मेरा नारा
आज यहीं पर खडे होकर
उन लड़कों के बारे में सोच रहा हूं
जिनके साथ खेलता था
सुर्ररा और कबड्डी
उन लडकियेां के बारे में
जिनके लिये अमियां
तोडने चढ़ जाता था
पेडों की टुन्नी तक
सोच रहा हूं
कुछ गांव में ही रह गये
मित्रों से मिला
लड़कियों की चली चर्चा
तो पता चला
कालिंदी ने ससुराल में
लगा ली फांसी
विमला ने भंगेड़ी आदमी से
परेशान हो खा लिया जहर
सुशीला को बुला लाये
उसके मां बाप घर
ये सब मेरे सपनों में तैरती
तितलियां थी जिन्हें इन
हाल में मरना जीना था
मै मूंछो से ढके खोहों से मुंहो से भी
सुन रहा था किस्मत
और पुरविल की बातें
देख रहा था एक मां की
डबडबार्इ आंख
याद आ रहा था नानी
का गाया हुआ गीत
बाबुल हम तोरे रन बन की चिरर्इ
एक दिन उड़ जैहें
अरे वो बेवक्त उडा दी गयी चिरइयों
मेरी स्मृतियों का संसार सूना हो गया है।
मेरे सपनों का गांव
जोखू का पुरवा
अचानक बेरंग हो गया है।
रास्ते
जिस गली में कभी
दुनिया के हर रास्ते खत्म होते थे
एक दिन उसी गली से
रास्ते खुले भी
जब प्रेम डहरी पर डटा
दरिद्र हो जाये
और मन डाड़ी मार का तराजू
चेहरों पर सिर्फ अतीत की
इबारतें रह जायें
और वर्तमान खाली सपाट
जमुना में समाती केन का दृश्य
आंखो मे लिये हम
कब तक जी सकते हैं।
इतना ही सोचकर
होता है संतोष
हमारे छोडे रास्ते सूने न होंगे
जिन घाटियों से हम गुजरे हैं
उनके उन खूबसूरत मोडों पर
रूक कर सुस्ता रहे होंगे लोग।
धुंध
हर चीज पर चढी है एक धुंध
तुम्हारे सच पर मेरे झूठ में भी
वह सच जिसे तुम कविता में
कह कर मुक्त हुये
वह झूठ जिसकी ओट में
छिपाये फिरता हूं अपना चेहरा
एक ही है।
दोनों ही एक अलग अलग ढाल है
हमारे लिये।
उदासी
किस किस को बताता
अपनी उदासी का सबब
किस किस से पूछता एक ऐसी उदासी
जिसमें बैचेनी न हो
हर तरफ फैली
एक मित्र ने कहा कामरेड
बिना वजह की उदासी भी
एक रूमान है
मैं उसे देखता रहा
वजहों पर बहस क्या करता
वेवजह कुछ करने में भी सुकून है उसे क्या बताता
ऊंट सी तनी गर्दन लिये
कोर्इ कब तक रह सकता है
वैसे बगुलों सी झुकी गर्दनें
देख कर भी डर जाता हूं मै ।
विचार की बहंगी
जीवन में कितना कुछ छूट गया
और हम बिचार की बहंगी उठाये
आश्वस्त फिरते रहे
नदी पर कविता लिखी
और जिंदगी के कितने
जल से लबालब चौहडे सूख गये
समय नजूमी की पीठ पर
पैर रख निकल जाता है
और अतीत खोह में पडा
कराहता है
जिसने प्रेम किया
एक अथाह सागर थहाता रहा
जिसने प्रेम परिभाषित किया
किताबो मे दब कर मर गया
हमारे सपने कैसे विस्थापित हो गये
हमें अपनी आखों पर कितना भरोसा था
जब रूक कर सोचने का वक्त था
खुद को समेटने का
हम विचारों की घुडसवारी कर रहे थे
वह धीरे धीरे रास्ता बनाता
आगे बढता कौन था
उसे कहां छोड आये हम…
केशव तिवारी समकालीन कविता में लोक चेतना को आवाज़ देने वाले महत्वपूर्ण कवि हैं । समय का दंश उनकी कविता में रेखांकित करने लायक है । कवि का खुद से बोलना बतियाना भी कितना अर्थपूर्ण हो सकता है यह उनकी कविता में देखना एक दिलचस्प अनुभव हो सकता है ।
– नील कमल
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
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केशव तिवारी |
समकालीन कविता के कुछ स्वर जहां पहेलियों और मुकरियों में बदलते जा रहे हैं वहीं कुछ कवियों के स्वर ऐसे भी हैं जो लोक की जमीन पर खड़े होकर आसमान को संबोधित करते दिखते हैं। यह एक तथ्य है कि कविता ही नहीं संपूर्ण साहित्य में खाद-पानी और संवेदना के बीज लोक से ही आते हैं। लोक वह जमीन है जहां कला अपने मूल रूप में मौजूद रहती है, आकार पाती है। केशव तिवारी की कविता में उनका अपना गांव-जवार तो बोलता ही है, ऐसे जरूरी धरोहरों के विस्मृति में चले जाने की पीड़ा भी दिखलाई पड़ती है, जो हमारे आदमी बने रहने के लिए बेहद जरूरी हैं। लोक का दायित्व आदमी के अंदर अदमियत को बचाए रखना है, सदियों से लोक की धरती ने अपने आंचल में ऐसे मूल्यों को सुरक्षित रखा है जिसे नागर सभ्यता कब की भुला चुकी है। केशव की कविता की चिंता वह मूल्य ही है जिससे मानवता का नूतन संसार रचा जाता है, कि रचा जाएगा।
केशव तिवारी की कविता को महज लोक की कविता कहकर या आंचलिकता से जोड़कर सीमित नहीं किया जा सकता। यह कवि अपनी जमीन पर तो खड़ा है लेकिन इसकी पहुंच आज के तेजी से बदलते समय पर भी है। उनकी कविताएं विश्वबोध से भी जुड़ती हैं। लोक और अलोक के बीच जो खाई है उसके बीच केशव की कविता एक पुल की तरह है। केशव इसलिए बड़े कवि हैं।
अनहद पर हम पहली बार उन्हें पढ़ रहे हैं। हमेशा की तरह आपकी बेबाक प्रतिक्रियाओं का इंतजार है…।
एक औरत
मेरे भीतर भटक रही है,
एक वतन बदर औरत
अपने गुनाह का सबूत
अपनी लिखी किताब लिये।
दुनिया के सबसे बडे़ लोकतन्त्र
का नागरिक मैं
उसे देख रहा हूं सर झुकाये।
जहां मनुष्यता के हत्यारे
खुले आम घूम रहे हों
वहीं सर छुपाने की जगह
मांग रही है वह।
वह कह रही है
ये वक्त
सिर्फ कलम की पैरोकारी
का नही है
अपने अपने रिसालों से
बाहर निकलने का है
उनसे आंख मिलाने का है
जिनके खिलाफ लिख रहे हो तुम
अपनी छाप लिये
यूं तो तुम रत्ती भर
नहीं बदले
पर मैं तुम्हे
बदली हुयी नजर से देखता हूं
तुम्हारे न होने का
ऐलान सुनता हूं
और तुम्हे देख
आश्वस्त होता हूं
तुम नही बच पाओगे
सुन कर के ही दहल जाता हूं
और तुम्हारी विश्वास
से भरी आंखे
मेरा ढाढस हैं।
बदलना ही पड़ा तो
हम मौसमों की तरह
तो बिल्कुल ही
नही बदलेगे।
न ही किसी इश्तहार की तरह
जिंदा चेहरों की तरह
अपनी अपनी छाप लिये
बदलेंगे हम।
जोखू का पुरवा
कितने दिनों बाद
जोखू का पुरवा आया हूं
ये मेरी मां का गांव है
यहीं पर गड़ा है मेरा नारा
आज यहीं पर खडे होकर
उन लड़कों के बारे में सोच रहा हूं
जिनके साथ खेलता था
सुर्ररा और कबड्डी
उन लडकियेां के बारे में
जिनके लिये अमियां
तोडने चढ़ जाता था
पेडों की टुन्नी तक
सोच रहा हूं
कुछ गांव में ही रह गये
मित्रों से मिला
लड़कियों की चली चर्चा
तो पता चला
कालिंदी ने ससुराल में
लगा ली फांसी
विमला ने भंगेड़ी आदमी से
परेशान हो खा लिया जहर
सुशीला को बुला लाये
उसके मां बाप घर
ये सब मेरे सपनों में तैरती
तितलियां थी जिन्हें इन
हाल में मरना जीना था
मै मूंछो से ढके खोहों से मुंहो से भी
सुन रहा था किस्मत
और पुरविल की बातें
देख रहा था एक मां की
डबडबार्इ आंख
याद आ रहा था नानी
का गाया हुआ गीत
बाबुल हम तोरे रन बन की चिरर्इ
एक दिन उड़ जैहें
अरे वो बेवक्त उडा दी गयी चिरइयों
मेरी स्मृतियों का संसार सूना हो गया है।
मेरे सपनों का गांव
जोखू का पुरवा
अचानक बेरंग हो गया है।
रास्ते
जिस गली में कभी
दुनिया के हर रास्ते खत्म होते थे
एक दिन उसी गली से
रास्ते खुले भी
जब प्रेम डहरी पर डटा
दरिद्र हो जाये
और मन डाड़ी मार का तराजू
चेहरों पर सिर्फ अतीत की
इबारतें रह जायें
और वर्तमान खाली सपाट
जमुना में समाती केन का दृश्य
आंखो मे लिये हम
कब तक जी सकते हैं।
इतना ही सोचकर
होता है संतोष
हमारे छोडे रास्ते सूने न होंगे
जिन घाटियों से हम गुजरे हैं
उनके उन खूबसूरत मोडों पर
रूक कर सुस्ता रहे होंगे लोग।
धुंध
हर चीज पर चढी है एक धुंध
तुम्हारे सच पर मेरे झूठ में भी
वह सच जिसे तुम कविता में
कह कर मुक्त हुये
वह झूठ जिसकी ओट में
छिपाये फिरता हूं अपना चेहरा
एक ही है।
दोनों ही एक अलग अलग ढाल है
हमारे लिये।
उदासी
किस किस को बताता
अपनी उदासी का सबब
किस किस से पूछता एक ऐसी उदासी
जिसमें बैचेनी न हो
हर तरफ फैली
एक मित्र ने कहा कामरेड
बिना वजह की उदासी भी
एक रूमान है
मैं उसे देखता रहा
वजहों पर बहस क्या करता
वेवजह कुछ करने में भी सुकून है उसे क्या बताता
ऊंट सी तनी गर्दन लिये
कोर्इ कब तक रह सकता है
वैसे बगुलों सी झुकी गर्दनें
देख कर भी डर जाता हूं मै ।
विचार की बहंगी
जीवन में कितना कुछ छूट गया
और हम बिचार की बहंगी उठाये
आश्वस्त फिरते रहे
नदी पर कविता लिखी
और जिंदगी के कितने
जल से लबालब चौहडे सूख गये
समय नजूमी की पीठ पर
पैर रख निकल जाता है
और अतीत खोह में पडा
कराहता है
जिसने प्रेम किया
एक अथाह सागर थहाता रहा
जिसने प्रेम परिभाषित किया
किताबो मे दब कर मर गया
हमारे सपने कैसे विस्थापित हो गये
हमें अपनी आखों पर कितना भरोसा था
जब रूक कर सोचने का वक्त था
खुद को समेटने का
हम विचारों की घुडसवारी कर रहे थे
वह धीरे धीरे रास्ता बनाता
आगे बढता कौन था
उसे कहां छोड आये हम…
केशव तिवारी समकालीन कविता में लोक चेतना को आवाज़ देने वाले महत्वपूर्ण कवि हैं । समय का दंश उनकी कविता में रेखांकित करने लायक है । कवि का खुद से बोलना बतियाना भी कितना अर्थपूर्ण हो सकता है यह उनकी कविता में देखना एक दिलचस्प अनुभव हो सकता है ।
– नील कमल
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
सभी कवितायें बहुत अच्छी हैं ! पहली कविता विशेष रूप से प्रभावित करती है । केशव जी को बधाई ।
प्रेणादायक रचनाएं .
वह कह रही है
ये वक्त
सिर्फ कलम की पैरोकारी
का नही है
अपने अपने रिसालों से
बाहर निकलने का है
उनसे आंख मिलाने का है
जिनके खिलाफ लिख रहे हो तुम…
सशक्त और प्रभावी रचनाएँ …
ek lokdharmi kavi ke sarokar kitane gahare or vyapak hote hain in kavitaon se pata chalata hai.in kavitaon main saf-saf dekha ja sakata hai ki lokdhaemi hone ka matalab kisi sthan vishesh tak simit hona nahin hota hai. in kavitaon main kavi apane bahar-bheetar se lagatar sangharsh karata dikhayi deta hai.apane ko janchata rahata hai or kisi raste main aankh band karake nahi chalata hai.apane man-mashtishk ko khula rakhata hai.
केशव जी की कवितायेँ पढ़कर हमेशा खुशी इसलिए होती है कि उनमें हमेशा कुछ ऐसा होता है ,जो अन्यत्र नहीं मिलता |यहाँ तक कि विषय की समरूपता होने पर भी उनकी काव्य-वस्तु अपने तरीके से अपनी एक बेहद तर्क-संगत ,समकालीन, सार्थक और आधारभूत मनुष्यता का कोई पैना और तीखा सवाल उठाती है |असल बात यह है कि उनका कवि उन सवालों से तटस्थ न रहकर उनमें शामिल रहता है ,तभी वह कवि,कलाकार और रचना-कर्म में लगे लोगों से "अपने-अपने रिसालों से बाहर निकलने " की बात करता है |कहन-शैली और मुहावरे में तो उनका केशवत्व झलकता ही है |बड़ी संभावनाएं हैं उनमें | इसके लिए उनके साथ 'अनहद 'को भी बधाई
केशव भाई की कविताओं को अकसर लोकधर्मी कहकर उनकी अधिक विस्तृत पढ़त से रोक दिया जाता है…जबकि उनकी कविताएं एक विराट फलक पर उपस्थित हैं….उनकी राजनीतिक चेतना…उनकी कविता का सीधा नुकीला चुभने वाला शिल्प…उनकी अजेय प्रतिबद्धताएं…
हमारे प्रिय मित्र महेश पुनेठा ने अपनी टीप में लोकधर्मी शब्द का इस्तेमाल किया है…उनकी ख़ुद की कविता एक बड़े कैनवास की कविताएं हैं…मेरी अरज़ है कि लोक बांधता नहीं खोलता है…नागार्जुन इसका सबसे सही उदाहरण हो सकते हैं…फिर देखिए कि मुक्तिबोध की जटिलता में भी कितने अद्भुत लोकतत्व हैं…हमें ध्यान रखना होगा कि हिंदी में एक बड़ा समूह ऐसा है जिसका हित ही इसी बात में है कि कुछ कवियों पर लोक की चिप्पी चिपका कर उनकी पढ़त और बढ़त को बांध दिया जाए…जबकि महेश भाई के ही शब्दों में वे कहीं अधिक गहरे और व्यापक सरोकारों के कवि होते हैं।
एक बार देहरादून में मित्र विजय गौड़ से इस बारे में लम्बी चर्चा हुई थी मेरी…लोकतत्व हमें विश्वसनीय बनाते हैं..हमें ताक़त देते हैं…सीधे खड़े रहना का सहारा देते हैं…पर कुछ लोग इसी घेरे में बांधकर हमें उम्रक़ैद सुना देना चाहते हैं…बिना अपने लोक को जाने-समझे और व्यक्त किए हम कवि ही नहीं हो सकते। मुझे बहुत ख़ुशी हूई कि जीवन सिंह जी ने अपनी पूरी टिप्पणी में लोक शब्द का प्रयोग नहीं किया…भाई लोग उन पर भी महज लोकसम्बन्धित कविताओं का आलोचक होने की चिप्पी चिपका चुके हैं। कितने क़ीमती कवि हैं हमारे पास….रजत कृष्ण, विजय सिंह…सब पर एक ही चिप्पी….
मैंने लोक का संधान किया तो वो मनोज कुमार झा में मिला, राजस्थानी लोक, अलहदा शिल्प के बावजूद, गिरिराज किराड़ू में भरपूर मिला, एक लोक प्राचीन शहरों का भी है…वह व्योमेश मिला….बोधि भाई में देखिए…कभी कोई कविता लोक से विमुख नहीं होती…अशोक कुमार पांडेय के कविता संग्रह 'लगभग अनामंत्रित' में कितना लोक है…
अनहद को शुक्रिया इन कविताओं को हम तक पहुंचाने का…केशव भाई हमेशा से मेरे अग्रज कवि हैं…उनकी वो समय समय पर फोन पर आती भरोसेमंद आवाज़…वैसी ही उनकी कविताएं…व्यक्तित्व और कविताओं में कहीं कोई फांक नहीं..दोनों एक जैसे प्रतिबद्ध…बड़े भाई सलाम पेश करता हूं आपको।
कवि शिरीश कुमार मौर्य की टिप्पणी देखी जानी चाहिए । लोकधर्मी या लोक का कवि कहे जाने से केशव तिवारी या किसी भी दूसरे कवि की पढ़त और बढ़त कैसे और क्यों अवरुद्ध होगी । किसने तय कर दिया कि लोक का अर्थ गांव है । रुरल और अर्बन की दीवार यहां कौन खड़ी कर रहा है । कहना चाहूंगा कि जो अपने लोक का नहीं है वह कवि भी नहीं है ।
लोक से जुड़े बर्बर पूर्वाग्रह और आत्मग्रस्त आक्रामकता ने उसे एक टैबू में तब्दील कर दिया है. सर्वग्रासी या सर्वग्राही, किसी भी किस्म के घेराव में बाँधना, उसे लम्पट या दयनीय बना देना है. मेरी सम्मति है कि लोकधर्म, युग-बोध और जीवन-विवेक का सजग और सुचिंतित आत्मसंघर्ष है. समय और समाज की आँखों से आँख मिलाता हुआ, परम्पराओं की नब्ज़ पर समकाल का प्रतिरोध सुनता हुआ. केशव जी को लोक का कवि कहना इसी मानवीय आस्था और वैचारिक जिजीविषा का आत्मविश्वास है.
और हाँ, लोक का सरलीकरण संभव नहीं है. कविता में 'लोक' का इस्तेमाल किसी चकमक पत्थर की तरह अथवा कढाई के धागे की तरह करने वाले ही उसका सर्वाधिक नुकसान कर रहे हैं……….
सभी कवितायेँ पसंद आई …….. सच कहूँ तो ये मेरे टेस्ट की कवितायेँ हैं …….. इन कवितायों की व्यापक रेंज है……… और खूबी देखिये की बड़ी बातें भी कितनी सहजता से पाठक तक पहुँच रही हैं ……… शिल्प और कथ्य का ऐसा संगम कम ही देखने को मिलता है……..हम जैसे कविता के विद्यार्थियों के लिए जरूरी पोस्ट …….. विमलेश भाई धन्यवाद स्वीकार करें |
बिलकुल सही बात नीलकमल जी…..पूरी टिप्पणी में मेरा भी कहना यही है पर यह भी हो रहा है…ज्ञानेंद्रपति को सिर्फ़ गंगाघाट का कवि कहने वाले महानुभाव भी मौजूद हैं….अभी तो सब मंच पर भाषणों में बोल रहे हैं…शायद आगे लिखकर भी कहें…
लोक की बात चली तो मुझे शैलेश मटियानी की बम्बईवाली कहानियां याद आईं..एक लोक वो…वीरेन डंगवाल की कविताओं में आने वाला इलाहाबाद…एक लोक वो…चन्द्रकान्त देवताले की कविताओं का मालवा…एक लोक वो…ऐसे उदाहरण अनेक हैं..बिना लोक को जाने मुश्किल है मनुष्य भी हो पाना…कवि होना बहुत दूर की बात है। पर लोग लोक को बहुत सीमित अर्थ में बांध रहे हैं…गांव के अर्थ में…अंचल के अर्थ में…यह नासमझी पहले सिर्फ़ हिंदी के शोधप्रबन्धों में होती थी…अब उससे बाहर भी पसर रही है।
मेरे नाम के आगे कवि लगाने की ज़रूरत नहीं थी प्रिय भाई… अगर हूं भी तो अभी 'लगभग कवि' हूं…और क्या कहूं…लोकधर्मी और लोक का कवि कह कर पढ़त और बढ़त बाधित की जा रही है…पता नहीं आप देख पा रहें कि नहीं …क्यों रजत कृष्ण या विजय या केशव तिवारी पर उतनी चर्चा नहीं हो पा रही तथाकथित मुख्यधारा में…मैं वाकई गम्भीरता से सोच रहा हूं…त्रिलोचन ने ख़ुद को जनपद का कवि क्या कह दिया…उन्हें उसी दायरे में बांधने वाले कई आप्तवाक्य हिंदी आलोचना में मौजूद हैं…लगभग सभी लोग जानते हैं।
मेरी अरज बस इतनी है कि लोक को सीमित करके न देखा जाए…हिंदी का अकादमिक समुदाय ये करता रहा है…यह जानना भी रोचक है कि हमारे कितने ही आलोचक उसी समुदाय से आते हैं।
barobar !
शिरीष ने बहुत महत्वपूर्ण बिन्दु पर बात उठाई है. ऊपर टिप्पणी मे जो लोक और 'अलोक' का ज़िक़्र किया गया है वह भी मुझे नहीं जँचा . 'अलोक' को जानने समझने की ख्वाहिश है. मुझे तो यह कहीं नहीं मिलता . न जीवन में , न जीवन की अभिव्यक्ति में !!
यह ठीक है कि उपेक्षित लोकजीवन का अभिव्यक्त होना आज की ज़रूरत है. लेकिन लोक का एक मुद्दे की तरह दोहन होना भी लोक हित से डेविएट हो जाना है.और ज़्यादा खतरनाक है. केशव , निशांत , विजय, रजत ,सुशील कुमार, शिरीष , अशोक , से ले कर देवी प्रसाद मिश्र और विजेन्द्र तक की कविता मे लोक अपने सहज रूप मे आया है. अपना अपना अनुभूत लोक आया है . अपने अपने स्तर पर प्रामाणिक लोक आया है. जितना जैसा जिस ने लोक देखा , भोगा; उतना , वैसा लोक आया है.और अलग अलग शिल्प के सहारे आया है. और यह अच्छा है. लेकिन इधर लोक का एक मतलब शिल्प की अनदेखी करना भी माना जाने लगा है. और ओढ़ी हुई अनगढ़ता का फैशन भी चल पड-आ है.कि अनगढ़ हो कर ही अभिजात्य को हेठा दिखाया जा सकता है. यह विचार हास्यास्पद है.
सही
भाई महेश पुनेठा ने यहाँ तक पहुँचाया . मैं उन के स्वाद को समझता हूँ और उसे एप्रिशिएट भी करता हूँ. इन मे से कई कविताएं केशव भाई ने फोन पर सुनाई हैं. अपनी उद्विग्न / विदग्ध / स6तप्त वाणी में . यहाँ पढ़ने का एक अलग मज़ा आया. विचार की बँहगी बहुत बड़ी कविता बनी है. यद्यपि इस शीषक ने इस की रेंज थोड़ी घटा सी दी है. कुछ और श्र्र्षक भी सोचा जा सकता है.
माँ के गाँव से कुछ वाईटल तत्वों का बेवक्त गायब हो जाना ….. यह दिल को चीर कर रख देता है. इस दुख को शब्द देना इतना आसान न था. कवि को सलाम .
शुक्र है आप मेरी बात को समझे अजेय भाई….वरना इधर तो बहस का मुंह खोलने की जगह ज्ञान-अज्ञान का कपड़ा ठूंस कर उसे बंद कर देने का चलन है। कल रात केशव भाई का फोन आया था…उन्होंने भी कमोबेश वही कहा जो मैंने…और आपने…पर उन्होने जो कहा, वो फोन पर कहा…यहां कुछ नहीं कहा…वैसे भी अपनी कविताओं पर चल रही बात में कवि का हस्तक्षेप बहुत संकोच का विषय होता है, जिसकी मैं पूरी क़द्र करता हूं…
यह भी कि जो अपनी ऊपर वाली टीप मैंने कहा, वो सही ही हो, सबको सही ही लगे, ज़रूरी नहीं – कतई ज़रूरी नहीं – पूरी पूरी गुंजाइश है मैं ग़लत होऊं, न बिना लोक के कोई कवि हो सकता है और न बिना ग़लतियों के और न बिना उन ग़लतियों की शिनाख़्त के …एक विनम्र सी इच्छा थी कि असहमतियां आएं तो पूरे विस्तार से आएं…पूरी बहस चले… चलिए, अब आपके इस नोट के साथ मैं तो इस पोस्ट से विदा लेता हूं।
केशव जी की कवितायेँ भावनाओं के आकाश को छूती हुईं, धीरे से लोक की माटी की सोंधी महक लेकर दिल में उतरती हैं| सभी कवितायेँ अदभुद हैं, धन्यवाद अनहद…
प्रिय भाई शिरीष कुमार मौर्य , आपके नाम के आगे से कवि शब्द हटाऊं भी तो कैसे । आप बड़े कवि हैं। आपकी टिप्पणी में वर्णित "लोक की चिप्पी" लगाने वाले "भाई लोग" कौन हैं , कैसे दिखते हैं , मैं नहीं जानता । जहां तक बात लोक की अवधारण को लेकर है तो विनम्र निवेदन है कि हमारे यहां अम्बानी-मित्तल वगैरह का भी एक लोक है । दूसरे , तीसरे , चौथे और भी न जाने कितने लोक हैं । किस कवि के यहां कौन सा लोक है यह विचारणीय है । पौराणिक कथाओं में देवलोक , पृथ्वीलोक और नागलोक का वर्णन आता है । वह कहां नहीं है । हां , हिन्दी का "लोक" अंग्रेजी का "फ़ोक" नहीं है । लोक से अतिशय बिदकना भी काहे के लिए । सकुशल होंगे ।
कल अनुनाद पर एक अनिल कुमार कार्की की किताब पर महेश भाई की टिप्पणी पर प्रतिक्रया में मैंने भी ऐसा लिखा था. लोक = गाँव, जैसा सरलीकरण भयावह है, मैं जिस शहर में रहता हूँ वह मेरा लोक क्यूं नहीं? केशव तिवारी जैसे कवि के लिए वह बाड़ा बहुत छोटा है…
लोक से जुड़े बर्बर पूर्वाग्रह और आत्मग्रस्त आक्रामकता ने उसे एक टैबू में तब्दील कर दिया है. सर्वग्रासी या सर्वग्राही, किसी भी किस्म के घेराव में बाँधना, उसे लम्पट या दयनीय बना देना है. मेरी सम्मति है कि लोकधर्म, युग-बोध और जीवन-विवेक का सजग और सुचिंतित आत्मसंघर्ष है. समय और समाज की आँखों से आँख मिलाता हुआ, परम्पराओं की नब्ज़ पर समकाल का प्रतिरोध सुनता हुआ. केशव जी को लोक का कवि कहना इसी मानवीय आस्था और वैचारिक जिजीविषा का आत्मविश्वास है.
और हाँ, लोक का सरलीकरण संभव नहीं है. कविता में 'लोक' का इस्तेमाल किसी चकमक पत्थर की तरह अथवा कढाई के धागे की तरह करने वाले ही उसका सर्वाधिक नुकसान कर रहे हैं……….
-सुबोध शुक्ल
जीवन और कवितायें अलगाई नहीं जा सकती …जो कुछ लोग ऐसा प्रयास करते हैं , समय के सामने अंततः उनका भेद खुल ही जाता है ..| और जो लोग , उससे अभिन्न रूप से जुड़े होते हैं , समय उन्हें भी पहचान ही लेता है | केशव जी को जितना मैं जानता हूँ , वे बिलकुल अपनी कविताओं की तरह ही स्पष्ट , प्रतिबद्ध और जमीन से जुड़े हुए हैं ..| यह हमारा सौभाग्य भी है , कि वे हमारे समय में रचना रत है | यहाँ प्रस्तुत कविताओं में भी आप देख सकते हैं , कि वे किस जमीन से खड़े होकर और किसके पक्ष में बोल रहे हैं | मेरा सौभाग्य है , कि मैंने इन कविताओं को उन्ही के स्वर में सुना भी है …आज जब इन्हें पढ़ने का अवसर मिला , तो ऐसा लग रहा है , कि केशव जी उन्हें उसी तरन्नुम में सुना रहे हैं ….उनका यह मार्गदर्शन हमें मिलता रहेगा , हमारी अपेक्षा है ..और हा …अनहद को भी बहुत बधाई
लोक से जुड़े बर्बर पूर्वाग्रह और आत्मग्रस्त आक्रामकता ने उसे एक टैबू में तब्दील कर दिया है. सर्वग्रासी या सर्वग्राही, किसी भी किस्म के घेराव में बाँधना, उसे लम्पट या दयनीय बना देना है. मेरी सम्मति है कि लोकधर्म, युग-बोध और जीवन-विवेक का सजग और सुचिंतित आत्मसंघर्ष है. समय और समाज की आँखों से आँख मिलाता हुआ, परम्पराओं की नब्ज़ पर समकाल का प्रतिरोध सुनता हुआ. केशव जी को लोक का कवि कहना इसी मानवीय आस्था और वैचारिक जिजीविषा का आत्मविश्वास है.
और हाँ, लोक का सरलीकरण संभव नहीं है. कविता में 'लोक' का इस्तेमाल किसी चकमक पत्थर की तरह अथवा कढाई के धागे की तरह करने वाले ही उसका सर्वाधिक नुकसान कर रहे हैं……….
– सुबोध शुक्ल
ashok bhayi लोक ka बाड़ा बहुत छोटा kaise hai or लोक = गाँव, जैसा सरलीकरण kaun kar raha hai is par kuchh vistar se kahen to baat spasht hogi…….jahan tak main samajhata hun lok shabd vyapak arth samete huye hai jo us duniya ka paryay hai jo shramsheelon se judi hai. abhijan se bhinn jo hai wahi lok hai.samoohikata ,sadagi ,spashtata ,parsparikata ,nishchhalata ,bebaki ,prakriti se nikatata aadi jisaki visheshata hai. ganv ya shahar jaisa bhed isake beech nahi aata.jo ped , fool-patti ,khet ,nadi , pahad , chidiyan , pashu-pakshi or ganv ya anchal vishesh ko hi lok manate hain we lok ki awadharana ko simit karate hain ……….lok vyapak jan-jeevan ka prateek hai…….jo bandha nahin hai or nitant niji ,sankuchit or asthayi lakshya se nahin juda hota hai wah lok hai..
कवि-कर्म के साथ' लोक' के रिश्ते को लेकर बहस कीअच्छी शुरूआत भाई शिरीष कुमार मौर्य ने की है | दरअसल ,लोक के मामले में सबसे ज्यादा गड़बड़ अंगरेजी के 'फोक'शब्द ने की है जिसकी तरफ नील कमल भाई ने सही इशारा किया है |दूसरी बात यह भी है कि मार्क्स की धारणाओं के साथ इस का बस इतना सा मेल बैठता है कि इतिहास कि मोटी-मोटी सामान्य गति के साथ किसी समाज की उसकी अपनी विशिष्टताएं भी होती हैं |लम्बे समय तक भारतीय समाज की उत्पादन व्यवस्था में खेती-किसानी की हिस्सेदारी रही आने की वजह से हमारे यहाँ एक समृद्ध लोक-साहित्य (फोक-लिटरेचर ) वाचिक रूप में ,बाद में कुछ लिखित रूप में भी ,मौजूद रहा है जिसकी स्मृतियाँ हमारे उन मित्रों के जीवनानुभवों में गहरे रूप में अंकित हैं कि वे उसे नए अर्थ-संबंधों की नयी 'शास्त्रीयता 'बन जाने के बाद भी भूल नहीं पाते |वह कहीं उनके मनोमय जीवन में तरंग सी पैदा करता रहता है और नए रूप में वह 'सर्वहारा' तक की अर्थ व्याप्ति हासिल करने का प्रयास करता है |आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जब पश्चिम की उपनिवेश-परस्त शास्त्रीयता के समक्ष ,तथा तुलसीदास की ' लोक-वेद' परम्परा के बीच से अपने समय के लिए नए —-लोकमंगलकारी —विधान के लिए इसे आविष्कृत किया तो उनके जमाने के रीतिवादी —-रस-अलंकार-वादी —–आचार्यों को बड़ा नागवार गुजरा था कि अच्छे-भले हजारों सालों से चले आ रहे शास्त्रीय विधान में यह –लोक-का अनावश्यक फच्चर क्यों ?लेकिन लोक-तंत्र के नए राजनैतिक परिवेश में भी इसको नयी परिस्थितियों में जगह नहीं मिलेगी यह चिंता की बात है | ,इस वजह से अभी तक इस शब्द का 'पिछड़ापन' दूर नहीं हो पाया है |मेरे हिसाब से इस शब्द को पूरी और नयी समृद्धि आज की नयी रचनात्मकता से मिल रही है |यह 'शास्त्र की रूढ़ जकडबंदी ' और किसी भी तरह की 'कुलीनता और आभिजात्य ' के विरोध में आज की रचनाशीलता को आगे ले जाने वाला साहित्य-पद लगभग बन चुका है |कोई माने या न माने कुछ बात तो इसमें अवश्य है ,जो इसे चर्चा के केंद्र में रखे हुए है |
उपरोक्त बहसों को पढ़ते हुए कुछ बातें मेरे मन में उठ रही थीं… उसे बहुत विनम्रता के साथ आपके सामने रख रहा हूं…. आशा है इस बहस को आगे बढ़ाने में इसकी कुछ उपयोगिता हो सकेगी…..
लोक
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यह कोई शब्द नहीं
जिसका करें आप प्रयोग कविता में
खोजें जिसे गांव के एक कवि में
जिसके लिए खेत-बधार गांव-जवार
किसी भी कविता से ज्यादा जरूरी
उसके पांव जमीन पर है
और वह वहीं से देश दुनिया की खबर लेता है
आपके पास तो कोई जमीन ही नहीं
न कोई आसमान है
आप लिखते हैं कविताएं पुरस्कार के लिए
लुभाने के लिए आलोचकों को
लेकिन उसके लिए मेरे भाई
कविता रोटी की तरह
बारिश की तरह
धूप की तरह है बेहद जरूरी
आप एक शब्द लिखकर हंसते हैं
दो पंक्ति लिखकर गर्व से सीना फूलाते हैं
वह हर शब्द पर रोता है
इस अभागे देश के दुर्भाग्य पर
आप नकली फूल
आप जोरदार अभिनय कर सकते हैं
शब्दों का खूब इस्तेमाल कर
लूटते हैं वाहवाही
आपकी नकली चमक कभी कम नहीं होती
असली फूल वह
लड़ता है जीवन के हर मोर्चे पर
और मुरझाता जाता है
क्या कभी आप समझ पाएंगे
उसके मुरझाने से ही उगते हैं नए पौधे
खिलते हैं फूल
और बची रहती है यह दुनिया
सदियो-सदियों…..।
अद्भुत पंक्तियाँ !!!
जी, बिलकुल ! कवि को बधाई और विमलेश दा को धन्यवाद!
'जोखू का पुरवा'कविता जिसपर पूरे ब्लॉग में 'लोक' की पारिभाषिक व्याख्या देने में सारी शक्ति खर्च की गई है, को छोड़कर बाकी सभी कविताएं समसामायिक और 'लोक' के प्रस्थापित/रूढ़ दायरे के बाहर जो की कवि या हम जैसे पाठकों का वास्तविक लोक है, की बात करती है | अशोक जी ने बहुत थोड़े में जिस 'लोक'की बात कही है, वह भी केशव जी की कविताओं में समाहित है |कविताओं (शैली)में कुछ पाश्चात्य टच भी है , बेहद प्रभावोत्पादक और सार्थक कविताएं |
कवि को बधाई और विमलेश दा को धन्यवाद!
'जोखू का पुरवा'कविता विमलेश भाई के 'हम बचे रहेंगे' की कविताओं की याद दिलाती है |