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Home समीक्षा

समीक्षा-समीक्षा – आदित्य विक्रम सिंह

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in समीक्षा, साहित्य
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                युवा कवि विमलेश त्रिपाठी की कविताओं को हम पिछले कुछ वर्षों से प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लगातार पढ़ते आ रहे हैं। अभी हाल में उनकी कविताओं का मुकम्मल संग्रह ‘‘हम बचे रहेंगे’’ प्रकाशित हुआ है। आजकल साहित्य संसार में एक वाक्य का बहुधा प्रयोग हो रहा है कि ये समय कविता के लिए संकट काल है। अगर आप इतिहास में जाने का कष्ट करें तो पायेंगे कि साहित्य की समस्त विधाओं के लिए कोई भी समय आसान या निरापद नहीं था। यह समय क्रिटिकल या काम्पलेक्स उतना ही है, जितना कभी था। विमलेश इसी जटिल समय में उम्मीद की कविता और अच्छी कविताओं की उम्मीद के साथ अपने इस संग्रह को रचते हैं।
                इस संग्रह का फ्लैप लिखते हुए हमारे समय के सबसे बड़े कवि केदार नाथ सिंह कवि की दो विशेषताओं के प्रति ध्यान आकृष्ट कराते हैं, पहला कवि का भाषिक व्यवहार और दूसरा अपने आस-पास की छोटी-छोटी छूटी हुई चीजों को लेकर चलना। संग्रह को पढ़ते हुए आप बार-बार महसूस करेंगे कि कवि के यहाँ उसका लोक उसके अनुभव का विषय है फैशन का नहीं।
                इस कविता संग्रह की पहली कविता ‘वैसे ही आऊँगा’ कवि की आशावादिता को दिखाते हुए हमे केदार नाथ जी की कविता ‘तुम आयीं’ की भी याद दिलाती है। जहाँ केदार नाथ जी ने लिखा था ‘‘तुम आयी’/ जैसे छीमियों में धीरे-धीरे/आता है रस’’ वहीं विमलेश लिखते है कि-‘‘जैसे लम्बे इतंजार के बाद/सुरक्षित घर पहुँचा देने का/मधुर संगीत लिए/प्लेटफार्म पर पैंसेजर आती है।’’ इस संग्रह की एक बड़ी विशेषता घर-परिवार या रिश्तों का भरापूरा संसार है। हिन्दी कविता में फैशन, पुनरूक्ति और उपहासास्पद होने की हद तक रिश्तों पर लिखा गया है। कवि अनुभवों की सच्चाई के बल पर अपनी इन कविताओं को बचा ले जाते हैं। माँ, पत्नी पर लिखी गयी कविताएँ इसका प्रमाण है। माँ पर दो कविताएँ लिखी गयी है एक ‘माँ’ शीर्षक से एक ‘आजकल माँ’ शीर्षक से। एक बानगी देखें ‘माँ’ कविता से- माँ के सपने घेंघियाते रहे/जात की तरह/पिसते रहे अन्न/बनती रही गोल-गोल मक्के की रोटियाँ और माँ सदियों/एक भयानक गोलाई में/चुपचाप रेंगती रही।’’
या ‘पत्नी’ कविता देखें-
                ‘‘चलती कि हवा चलती हो/जलती की चूल्हें में लावन चलता हो/उसके सपने नादान मंसूबे गुमराह भविष्य के/मायके से मिले टिनहे सन्दूक में बन्द’’। इन दोनों कविताओं की पंक्तियों से साफ जाहिर होता है कि माँ वह जो परिवार की गृहस्थी में और पत्नी वह जो पुरुष की गृहस्थी में खो गयी है। उसका अपना अस्तित्व वहीं विलीन हो गया है।
                संग्रह की अनेक कविताएँ काम-काज या अन्य कारणों से घर छोड़कर शहर और शहर में एकाकीपन और स्मृतियों में मौजूद अपना गाँव अपनी माटी अपने लोग की याद को याद दिलाती है: कविता ‘गनीमत है अनगराहित भाई’ की निम्न पक्तियाँ देखें-
                ‘‘अपनी गवई धूल की सोंधी गन्ध का अपने बस्ते में छुपाए/अपने हिस्से की थोड़ी सी हवा को फेफड़े में बाँधे/हम चले आते थे इतनी दूर/यहाँ आदमी बनने के लिए।’’
संग्रह की जो केन्द्रीयता है वह है आज का कठिन समय और इस कठिन समय से मुठभेड़। ‘कठिन समय’ ये शब्द कई कविताओं में और कविताओं में कई बार आया है-
                ‘‘लाख कोशिश के बावजूद इस कठिन समय में/कोई भी कविता पूरी हुई नहीं…..’’
या
‘‘एक कठिन समय में मैंने कहे थे/उसके कानों में/कुछ भीगे हुए से शर्मीले शब्द।’’
मुझे फिर यहाँ केदारनाथ जी द्वारा कही बात याद आती ही है- ‘‘इस उखड़ती साँस जैसे समय में यहाँ अब भी बचा हुआ यकीन है और एक ‘उठा हुआ हाथ’ जिसका सपना मरा नहीं है। विमलेश की कविता अदम्य जिजिवषा की कविता है। एक आस, एक भरोसा, एक विश्वास, एक यकीन, एक उम्मीद जो कहीं न कहीं हमें हमारे अच्छे भविष्य के प्रति आश्वस्त करती है और कवि पूरी सहजता से यह स्वीकारता है कि कविता कहीं न कहीं इस बदलाव का एक पायदान है तभी वह परिवर्तन की कविता की बात करता है।
‘‘एक उठे हुए हाथ का सपना/मरा नहीं है/जिन्दा है आदमी/अब भी थोड़ा-सा चिडि़यों के मन में/बस में दो कारण/काफी है/परिवर्तन की कविता के लिए’’
अपने बेरोजगार भाई के लिए कवि जब कहता है कि-
‘‘उदास मत हो मेरे भाई/ तुम्हारी उदासी मेरी कविता की पराजय है’’
इन पंक्तियों से कवि का कविता पर जो विश्वास है और साथ ही साथ कविता की जो शक्ति है दोनों का अन्दाजा लगाया जा सकता है।
संग्रह की छोटी-छोटी कविताओं में वैचारिकता मुखरता से दिखती है। ‘खबर’, ‘लौटना’, ‘ईश्वर हो जाऊंगा’ कविताएं आदि ऐसी ही कविताएं है जिनमें एक तरह का फार्मूलेशन मौजूद है। अनेक कविताओं में जीवन और संघर्ष के प्रति गहरी आस्था दिखती है।
‘‘जहाँ सब कुछ खत्म होता है/सब कुछ वहीं से शुरू होता है’’।
बसंत कवि का प्रिय मौसम प्रतीत होता है। एक कविता में कवि बसंत का अनुभव सबके लिए कैसा-कैसा होता है उसका वर्णन किया है तो दूसरी, जगह बसंत में फिर आशवादिता का छौंक लगाया है और वहाँ भी कवि की अदम्य उम्मीद बसंत की नई कोपलों के साथ उगती है।
‘‘फिर भी इस बसन्त में/मिट्टी में/ धँसी जड़ों से पचखियाँ झाक रही हैं’’
प्रेम साहित्य का आदि विषय रहा है। ये अलग बात है कि काल और व्यक्ति विशेष के अनुसार इसका बहिरंग और अंतरग बदलते रहे है और हम विमलेश की उम्र देखते हुए यह उम्मीद कर सकते है कि प्रेम की कुछ अच्छी कविताएं हमें पढ़ने को मिलेंगी और कवि निराश भी नहीं करता है वैसे भी प्रेम युवावस्था का ही विषय है मनुव्वर राना ने लिखायी है:
‘‘इश्क में राय बुजुर्गों से ली नहीं जाती’’
विमलेश की तमाम प्रेम कविताओं में उनकी आशवादिता और उनकी उम्मीद बदस्तूर बरकरार रहती है।
‘‘और बार-बार/मैं लौट जाना चाहता हूँ/ एक छूट गये घरौंदे में/ सिर्फ तुम्हारे लिए’’
यह अलग बात है कवि उन तमाम तरीकों व प्रतीकों को नकारता है जो प्रेम में सहायक का कार्य करते हैं क्योंकि आज के इस अविश्वासी समय में वह उन क्रिया व्यापारों पर कतई विश्वास नहीं करना चाहता जिस पर अविश्वास की मुहर लग चुकी है।
‘‘मैं तुम्हें शब्दों में प्यार नहीं करूंगा/नहीं भेजूँगा वह खत/ जिस पर अकित होगा पान के आकार का एक दिल/नहीं भेजूँगा हवा में लहराता कोई चुम्बन’’
पर प्रेम में होने के बाद माहौल कैसे बदलता है-
‘‘जब पहली बार मैंने प्यार किया/ तो महसूस हुआ कि हर सुबह पूरबी खिड़की से/ सूरज की जगह, अब मैं उगने लगा हूँ।
संग्रह की कुछ अन्य कविताएं जो याद रखने योग्य है उनमें राजघाट पर घूमते हुए, गुजरात, आग सभ्यता चाय और स्त्रियां, महानगर में एक माडल आदि है। ये कविताएं इस मायने में भी विशिष्ट है कि ये कवि की दृष्टि के स्वभाव व प्रभाव दोनों को प्रकट करती है। साथ ही साथ मैं यह कहना भी जरूरी समझता हूँ कि कवि की अधिकतर कविताओं पर केदारनाथ जी की कविताओं को प्रभाव स्पष्टतया महसूस किया जा सकता है। ये कविताएं इतनी सहज और सरल है कि इन्हें समझने के लिए पढ़ते हुए रूकने की या दुबारा पढ़ने की जरूरत ही महसूस नहीं होती। सम्प्रेषण का कोई संकट यहां नहीं मिलता। कविता संग्रह को पढ़ते समय मुझे बार-बार कैफी आजमी साहब की गजल का एक शेर याद आता रहा-
                ‘‘इक दिया नाम जिसका उम्मीद
टिमटिमाता ही चला जाता है।’’
निश्चित रूप से ‘हम बचे रहेंगे’ एक महत्वपूर्ण कविता संग्रह है।
—————————————————————————————————–
हम बचे रहेंगे
कवि- विमलेश त्रिपाठी
नयी किताब
एफ-3/78-79
से0-16 रोहिणी
दिल्ली-89
मूल्य: 200 रू0 (सजिल्द)

आदित्य विक्रम सिंह
डॉक्टर फेलो
(एन0टी0एस0)
भारतीय भाषा केन्द्र
मैसूर
मो0 8010583076
ईमेल- उंल2ंिपत/हउंपसण्बवउ

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 1

  1. Anonymous says:
    11 years ago

    बहुत अच्छी समीक्षा । विमलेश एक महत्वपूर्म कवि के रूप में सामने आ रहे हैं…उन्हें बधाई…

    Reply

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