1971 में बलिया में जन्में संतोष कुमार चतुर्वेदी ने भारतीय इतिहास से स्नातकोत्तर के साथ ही पत्रकारिता एवं जनसंचार में परास्नातक की पढ़ाई की है। इनकी कविता की पहली किताब पहली बार भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुकी है। लंबे वर्षों तक कथा पत्रिका में संपादन सहयोग करने के बाद अनहद पत्रिका का संपादन कर रहे हैं और साथ में एम.पी.पी.जी कॉलेज, मउ में इतिहास के विभागाध्यक्ष का उतरदायित्व भी निभा रहे हैं।
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संतोष कुमार चतुर्वेदी -09450614857 |
संतोष लोक की जमीन पर खड़े होकर कविता को पुकारते हैं और अद्भुद कविताएं संभव करते हैं। इनकी कविताओं में लोक की भाषा लय और संवेदना के साथ लोक की सहजता को भी साफ-साफ महसूस किया जा सकता है। कविताओं में लोक की मौजूदगी हमें एक ऐसी दुनिया की ओर ले जाती है जिसे हम वर्तमान बाजार की संस्कृति और शहरी संवेदनहीनता की चपेट में आकर भूलते जा रहे हैं। इस बार प्रस्तुत है अनहद पर चर्चित युवा कवि की कविताएं।
आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रियाओं का इंतजार तो रहेगा ही।
पानी का रंग
गौर से देखा एक दिन
तो पाया कि
पानी का भी एक रंग हुआ करता है
अलग बात है यह कि
नहीं मिल पाया इस रंग को आज तक
कोई मुनासिब नाम
अपनी बेनामी में भी जैसे जी लेते हैं तमाम लोग
आँखों से ओझल रह कर भी अपने मौसम में
जैसे खिल उठते हैं तमाम फूल
गुमनाम रह कर भी
जैसे अपना वजूद बनाये रखते हैं तमाम जीव
पानी भी अपने समस्त तरल गुणों के साथ
बहता आ रहा है अलमस्त
निरन्तर इस दुनिया में
हरियाली की जोत जलाते हुए
जीवन की फुलवारी में लुकाछिपी खेलते हुए
अनोखा रंग है पानी का
सुख में सुख की तरह उल्लसित होते हुए
दुःख में दुःख के विषाद से गुजरते हुए
कहीं कोई अलगा नहीं पाता
पानी से रंग को
रंग से पानी को
कोई छननी छान नहीं पाती
कोई सूप फटक नहीं पाता
और अगर ओसाने की कोशिश की किसी ने
तो खुद ही भीग गया वह आपादमस्तक
क्योंकि पानी का अपना पक्का रंग हुआ करता है
इसलिए रंग छुड़ाने की सारी प्रविधियां भी
पड़ गयीं इसके सामने बेकार
किसी कारणवश
अगर जम कर बन गया बर्फ
या फिर किसी तपिश से उड़ गया
भाप बन कर हवा में
तब भी बदरंग नहीं पड़ा
बचा रहा हमेशा एक रंग
प्यास के संग-संग
अगर देखना हो पानी का रंग
तो चले जाओ
किसी बहती हुई नदी से बात करने
अगर पहचानना हो इसे
तो किसी मजदूर के पसीने में
पहचानने की कोशिश करो
तब भी अगर कामयाबी न मिल पाये
तो षरद की किसी अलसायी सुबह
पत्तियों से बात करती ओस की बँूदों को
ध्यान से सुनो
अगरचे बेनाम से इस पनीले रंग को
इसकी सारी रंगीनियत के साथ
बचाये रखना चाहते हो
तो बचा लो
अपनी आखों में थोड़ा सा पानी
जहाँ से फूटते आये हैं
रंगों के तमाम सोते
विषम संख्याएँ
जिन्दगी की हरी-भरी जमीन पर
अपनी संरचना में भारी-भरकम
दिखायी पड़ने वाली सम संख्याएँ
किसी छोटी संख्या से ही
विभाजित हो जाती हैं प्रायः
वे बचा नहीं पातीं
शेष जैसा कुछ भी
विषम चेहरे-मोहरे वाली कुछ संख्याएँ
विभाजित करने की तमाम तरकीबों के बावजूद
बचा लेती हैं हमेशा
कुछ न कुछ शेष
वैसे इस कुछ न कुछ बचा लेने वाली संख्या को
समूल विभाजित करने के लिए
ठीक उसी शक्ल-सूरत
और वजन-वजूद वाली संख्या
ढूढ लाता है कहीं से गणित
परन्तु अपने जैसे लोगों से न उलझ कर
विषम मिजाज वाली संख्याएँ
शब्दों और अंकों के इस संसार में
बचा लेती हैं
शेष की शक्ल में संभावनाएँ
अन्धकार के वर्चस्व से लड़ते-भिड़ते
बचा लेती हैं विषम-संख्याएँ
आँख भर नींद
और सुबह जैसी उम्मीद
निगाहों का आइना
तुम्हारी निगाहों का
फकत
ये आइना न होता
तो कभी
परख ही न पाता मैं
अपना चेहरा।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
Satya Mitra Dubey( Satya Dubey)
Sunder tatha bhawpurna. badhaee..
अगरचे बेनाम से इस पनीले रंग को
इसकी सारी रंगीनियत के साथ
बचाये रखना चाहते हो
तो बचा लो
अपनी आखों में थोड़ा सा पानी
जहाँ से फूटते आये हैं
रंगों के तमाम सोते
samvedna ko bachaye rakhne ki tadap isse behtar kya ho sakti hai,behad sunder kavitaye.n hai.n santosh ji ki , unhe badhayee, dhanyvaad aapko bhi aise samirdh rachnakar se parichit karvane ke liye.
Dr. Dinesh Tripathi 'shams'
अगरचे बेनाम से इस पनीले रंग को
इसकी सारी रंगीनियत के साथ
बचाये रखना चाहते हो
तो बचा लो
अपनी आखों में थोड़ा सा पानी
जहाँ से फूटते आये हैं
रंगों के तमाम सोते bahut hi sundar aur utsahit karne wali kavitaayen hai hamlogo ke liye …………….vimlesh bhaiya dhanyavaad &santosh bhaiyaa ko badhaayee
तीनों बेहतरीन कविताएं। बहुत बहुत बधाई।
तीनों बेहतरीन कविताएं। धन्यवाद|