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हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
जन्म : 7 अप्रैल 1979, हरनाथपुर, बक्सर (बिहार) भाषा : हिंदी विधाएँ : कविता, कहानी कविता संग्रह : कविता से लंबी उदासी, हम बचे रहेंगे कहानी संग्रह : अधूरे अंत की शुरुआत सम्मान: सूत्र सम्मान, ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार, युवा शिखर सम्मान, राजीव गांधी एक्सिलेंस अवार्ड
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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।
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vipin ko badhai! achchhi hain kavitaen!
"महानगरों के सताये हुऐ हम,
अपने गाँवों-कस्बों से बटोर कर
लायी हुई खुशियों को बड़ी कँजूसी से
खर्च करते हैं"
गहरी देशज संवेदना के साथ रची गई सहज कविताएं। जहां एक ओर ये महानगरों में जीवन की विडंबना और विषम हालात पर ध्यान आकर्षित करती हैं, तो दूसरी ओर रंगों की बदलती भूमिका पर भी सोचने का अवसर देती है। इन अच्छी कविताओं के लिए विपिन को बधाई।
vipin ji , aap ne aaj kee jeevan ki sacchaee ka bahut hee sunder varnan kiya hai!
Hisar ki Vipin mahanagar me bhi utna hi achchha likh rahi hai… yah sachmuch sukhad hai…
।बहुत सुन्दर रचनायें।
hu / achchha h / dil ko chhu jati h aapki rachnayen / thhora bhitar se nikalne ki koshish bhi ho to thhik rahega /
achchhi kavitain hai, kahaini bhi padhni padegi.
shubhkamnain. vimlesh aabhar padhwane ke liye.
उखडती है टीस
तो दर्द देती है
दबी रहती है
तो कहीं ज्यादा दुख देती है
अच्छा है !!!! शब्दो मे ढालने का सुन्दर प्रयास !!!
उखडती है टीस
तो दर्द देती है
दबी रहती है
तो कहीं ज्यादा दुख देती है
यह ठीक है कि भूरे रंग से मुझे कभी शिकायत नहीं रही
यही मेरे सबसे नजदीक की
मिटटी में गुंधा हुआ है
अनुभव की रोशनाई में,
मैंने इसे धीमी आँच में देर तक पकाया
यह भूरा रंग कुछ- कुछ मेरी भूख से वाबस्ता रखता है शायद
तभी जैसे ही मेरे भीतर की हाँठी रीतने लगती है उसी समय मैं
दुनियादारी से बंधन ढीले कर के इसे पकाने में जुट जाती हूँ।
बहुत सुंदर पंक्तियां…तीनो ही कविताओं में सुंदर अभिव्यक्ति,
ऐसी रचना पढ़वाने के लिए आभार
'ना चाँद से काम निकलता है
ना तारें ही काम आते हैं
कभी कम
कभी ज्यादा
टीस हाज़िर है भीतर हमेशा'
!!!!!!!!!!!!!!!
बहुत खूब ….
अच्छी.
उखडती है टीस
तो दर्द देती है
दबी रहती है
तो कहीं ज्यादा दुख देती है
achchhi koshish hai.
ranjana srivastava
vipin ji ki kahaani maine parikathaa me paddi hain.sanyog se isi ank me meri bhi ek kahaani MUKTI chhapi hai.
VIPIN ji ki kavitaaye tthar kar sochne ko majbur karati hain.unhe meri badhai.
RAMESH SHARMA
(shaharnamaraigarh.blogspot.com)
wah!अपने गाँवों-कस्बों से बटोर कर
लायी हुई खुशियों को बड़ी कँजूसी से
खर्च करते हैं….
आप की बहुत अच्छी प्रस्तुति. के लिए आपका बहुत बहुत आभार आपको ……… अनेकानेक शुभकामनायें.
मेरे ब्लॉग पर आने एवं अपना बहुमूल्य कमेन्ट देने के लिए धन्यवाद , ऐसे ही आशीर्वाद देते रहें
दिनेश पारीक
http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/
http://vangaydinesh.blogspot.com/2011/04/blog-post_26.html
Comment from premchand sahajwala तीनों कवितायेँ सशक्त हैं. मुझे व्यक्तिगत रूप में 'टीस' कविता सर्वाधिक हृदय के निकट लगी. आज की युवा पीढ़ी में जो अच्छी कविता लिख रहे हैं, उनमें से एक अचछा और संभावनाशील नाम विपिन जी का लगता है. वैसे कविता जितने नगण्य लोग पढ़ते हैं उतने ही असंख्य लोग उसे लिखते हैं. यह अपने आप में एक पहेली है. कविता के सैलाब में ऐसी अच्छी कविताएँ खोजना एक कठिन कार्य है. विपिन जी कविता के नए क्षितिजों तक पहुंचे, मेरी शुभकामना.
बहुत सुन्दर रचनायें।बहुत खूब