अकाल्पनिक
तुम्हारे भीतर आऊंगा
हे नगरी
कभी–कभी चुपचाप
बसन्त में कभी
कभी बरसात में
जब दबे हुए ईर्श्या–द्वेष
पराजित होंगे इस क़लम के आगे
तब,
जैसा कि तुमने चाहा था,
एक सोने का हार भी लाऊंगा उपहार।
तुम्हारा सर्वांग ज्यों इश्तहार
यौवन के बाज़ार का,
फिर भी तुम्हारे पास आकर
महसूस होता है,
जैसे तुम्हारी अपनी
एक तहज़ीब है,
सिर्फ़ तुम्हारी,
और जो आदमी के भीतर की
चिरन्तन वृत्ति का प्रकाश भी है।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
अकाल्पनिक
तुम्हारे भीतर आऊंगा
हे नगरी
कभी–कभी चुपचाप
बसन्त में कभी
कभी बरसात में
जब दबे हुए ईर्श्या–द्वेष
पराजित होंगे इस क़लम के आगे
तब,
जैसा कि तुमने चाहा था,
एक सोने का हार भी लाऊंगा उपहार।
तुम्हारा सर्वांग ज्यों इश्तहार
यौवन के बाज़ार का,
फिर भी तुम्हारे पास आकर
महसूस होता है,
जैसे तुम्हारी अपनी
एक तहज़ीब है,
सिर्फ़ तुम्हारी,
और जो आदमी के भीतर की
चिरन्तन वृत्ति का प्रकाश भी है।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
क्या बात..!!
अच्छी कविता, अच्छे भाव, अच्छी कामना
शुक्रिया …बहुत-बहुत आभार…
जब दबे हुए ईर्श्या-द्वेष
पराजित होंगे इस क़लम के आगे
तब,
प्राकृतिक विचारों को प्रस्तुत करती उम्दा भावों की कविता. शुभकामनाएं
आभार पूजा..
ek genuine kavi ko logon ke beech laane ke liye shukriya. inki aur 4 kavitayen ab anudit hain. jald hi aap inhein bhi dekhenge.
shukriya neelkamal jee
बहुत ही सुन्दर वचन आपकी जितनी तारीफ करू उतनी कम है जी |
आप मेरे ब्लॉग पे भी देखिये जीना लिंक में निचे दे रहा हु |
http://vangaydinesh.blogspot.com/