मेरा जन्म ऐसे परिवेश में हुआ जहां लिखने-पढ़ने की परम्परा दूर-दूर तक नहीं थी। कहने को हम ब्राह्मण थे, लेकिन मेरे बाबा को क भी लिखने नहीं आता था, शायद यही वजह है कि पुरोहिताई का काम मेरे परिवार से कभी नहीं जुड़ा। लेकिन अनपढ़ होने के बावजूद बाबा को तुलसी दास की चौपाइयां याद थी। गांव में जब भी गीत-गवनई होती – और उसमें अक्सर रामचरित मानस के छन्द ही गाए जाते – मैंने हमेशा देखा था कि बिना पुस्तक देखे बाबा छन्द गाते चले जाते थे, मेरा चुप-चाप उनके पीछे बैठना और गाते और झाल बजाते हुए उनकी हिलती हुई पीठ और उसपर रखा गमछा जरूर याद आते हैं।
मुझे स्वीकार करना चाहिए कि कविता से मेरा पहला परिचय यहीं से होता है – बाद में जब मुझे अक्षरों का ज्ञान हुआ तो बाल भारती के अलावा जो पुस्तक सबसे ज्यादा आकर्षित करती थी वह रामचरित मानस ही थी – मैं सबकी नजरें बचाकर ( यह संकोचबस ही था शायद) उस भारी-भरकम पुस्तक को लेकर किसी घर में बैठ जाता था और लय और पूरी तन्मयता के साथ गाता चला जाता था – श्री राम चन्द्र कृपालु भजुमन….
बचपन गांव में बीता। लेकिन एक दिन बाबा को लगा कि यह लड़का नान्हों की संगत में पड़कर बिगड़ रहा है। उस समय मेरे मित्रों में ज्यादातर लड़के ऐसे थे जिन्हें उस समय की गंवई भाषा में चमार-दुसाध और मियां कहा जाता था। उन दोस्तों के साथ अक्सर मैं भैंस चराने निकल जाता, घांस काटता, नदी नहाता और उनके घर खाना भा खा लेता था। बाबा पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन उनके अन्दर ब्राह्मणत्व कूट-कूट कर भरा हुआ था। सो उन्होंने मेरे पिता को आदेश दिया कि इसे यहां से हटाओ नहीं तो यह लड़का हाथ से निकला जाता है।
इस तरह गांव छुटा – या छुड़ा दिया गया। लेकिन गांव, खेत, बगीचे और दोस्तों के लिए मैं कितना रोया – कितना रोया, आज उस छोटे बच्चे के बारे में सोचता हूं और उसका रोना याद आता है तो मेरी आंखें आज भी नम हो जाया करती हैं। अपने गांव से दूर मुझे कोलकाता भेज दिया गया था आदमी बनने के लिए। पंडी जी का पहाड़ा और शहर कविता उस याद की एक हल्की तस्वीर पेश करती है।
कविताओं की दुनिया ने हमेशा से ही आकर्षित किया। स्कूल में पढ़ते हुए सबसे पहले हिन्दी की किताब ही खत्म होती थी। खत्म होने के बाद भी बार-बार पढ़ी जाती थी- जब मन भर जाता तो बड़े भाई की हिन्दी की किताब पर भी हाथ साफ किया जाता रहा। यह क्रम लगभग दसवीं कक्षा तक बदस्तुर जारी रहा। 10 वीं कक्षा तक सबसे अधिक प्रभावित करने वाले कवियों में निराला, दिनकर और गुप्त जी रहे। एच.एस. में आने के बाद पहली बार नागार्जुन और अज्ञेय जैसे कवियों से पाला पड़ा। वैसे अज्ञेय की एक कविता दसवीं में पढ़ चुके थे – मैने आहूति बनकर देखा। वह कविता तब की कंठस्थ हुई तो आज भी पूरी याद है।
मैं इतना संकोची स्वभाव का रहा हूं कि कभी-भी किसी शिक्षक से यह नहीं पूछा कि और क्या पढ़ना चाहिए। ले-देकर पिता थे जो दिनकर का नाम जानते थे और दिनकर की रश्मिरथि उन्हें पूरी याद थी। फल यह हुआ कि रश्मिरथि मुझे भी लगभग याद हो चली।
कॉलेज में पहली बार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना से परिचय हुआ। उनकी कई कविताएं याद हो गईं। लेकिन सबसे ज्यादा निकट जो कवि लगा, वह थे केदारनाथ सिंह। उनकी जादुई भाषा और गांव से जुड़ी उनकी कविताएं बिल्कुल अपनी तरह की लगती थीं। पहली बार लिखने का साहस केदारनाथ सिंह को पढ़ते हुए ही हुआ। कविताएं लिखना तो बहुत समय से चल रहा था लेकिन कविताएं कैसी हैं, यह कौन बताए। अपनी लिखी हुई रचना किसे पढ़ाई जाय। यह समस्या बहुत दिन तक बनी रही। इसके बाद कई मित्र मिले जो लिखने को साध रहे थे। निशांत बाद में चलकर बड़े अच्छे मित्र बने। प्रफुल्ल कोलख्यान और नीलकमल से बातें होने लगीं तो लगा कि अभी बहुत कुछ करना बाकी है।
इसके बाद लगभग हर समकालीन कवियों को पढ़ा। एक-एक संग्रह खरीद-खरीद कर के। बांग्ला की कुछ कविताएं भी भाई निशांत के सौजन्य से पढ़ने को मिलीं।
पहली बार 2003 में वागर्थ में तीन कविताएं छपी। इसके बाद छपने का सिलसिला जारी रहा। इस बीच मानसिक परेशानियां भी खूब रहीं। मनीषा मेरे साथ ही पढ़ती थी और हम एक दूसरे को पसंद करने लगे थे। घर वालों को यह बात नागवार गुजरी थी और काफी जद्दोजहद और संघर्ष के पश्चात ही हमारी शादी हो सकी। मेरी कविताओं में उस संघर्ष की झलक मिलती है।
2006- से 2009 तक लगभग तीन साल तक मैने लिखना पढ़ना बंद कर दिया था। मुझे लगा कि ऐसे माहौल में कोई कैसे लिख सकता है। मेरे व्यक्तिगत जीवन में कुछ ऐसी घटनाएं घटित हुईं .. साथ ही साहित्यिक जीवन में भी कि मैंने कसम खा ली कि अब लिखना पढ़ना सब बंद। लेकिन बाद में पता चला कि लिखने-पढ़ने के बिना मैं रह ही नहीं सकता। कि लिखने के बिना मेरी मुक्ति नहीं है। और मैं फिर लौटकर आया। इस बीच कोलकाता में उदय प्रकाश के साथ काव्य-पाठ हुआ, उन्होंने कविताओं की दिल से तारीफ की और कहा कि आपको लिखते रहना चाहिए। मेरे लिखने की तरफ लौटाने में भाई निशांत की भूमिका को मैं कभी नहीं भूल सकता। इसी वर्ष लिखना शुरू किया और इंटरनेट को भी साधना शुरू किया। अब सोच लिया है कि कुछ भी लिखूं वह सार्थक हो। इस लिखने के क्रम में कुछ भी सार्थक लिख पाया तो समझूंगा कि एक श्राप से मुझे मुक्ति मिली और साहित्य और समाज को कुछ ( बहुत छोटा अंश) मैं दे सका।
कविताओं में लोक और खासकर गांवों की स्मृतियां ज्यादा हैं। गांव से बचपन में खत्म हुआ जुड़ाव गहरे कहीं बैठ गया था और बार-बार मेरी कविताओं में वह उजागर हो जाता था। बहुत सारी कविताएं गांव की पृष्ठभूमि पर लिखी गई हैं और कई कविताओं में गांवों के ठेठ शब्दों का इस्तेमाल भी मैने किया है।
यह भी सही है कि अपनी कुछ ही कविताएं मुझे अच्छी लगती हैं। अभी जो कविताएं लिखी जा रही हैं, उनमें अधिकांश कविताएं मुझे स्पर्श नहीं करती लेकिन कई एक कविताएं झकझोरती भी हैं। मुझे हमेशा लगता है कि अबी मैं कविताएं लिखना सीख रहा हूं। लगभग 15 साल से लागातार लिखता हुआ मैं कभी तो किसी कविता या किसी कहानी से संतुष्ट हो पाता!!. यह अवसर अब तक नहीं आया है… कविताओं के कुछ अंश अच्छे लगते हैं पूरी कविता कभी नहीं।
एक और बात मुझे कहनी ही चाहिए। कई बार लोग कहते हैं कि तुम इस समय के लायक नहीं हो, तुम बहुत सीधे हो। ऐसे समय में तुम कैसै टिक पाओगे। तुम्हे थोड़ा समय के हिसाब से चालाक बनना चाहिए। लेकिन मैं बन नहीं पाता। मुझे बार-बार लगता है कि जिस दिन मैं चालू बन जाऊंगा, या समय के अनुरूप खुद को चालाक बना लूंगा उसी दिन मेरा लेखक मर जाएगा। इसलिए मैं जैसा हूं वैसा ही बना रहना चाहता हूं… आज न सही लेकिन कभी तो ऐसी कविता संभव हो पाएगी, जिसे लिखना चाहता हूं…।
एक सच्चा आत्मकथन।
"अब सोच लिया है कि कुछ भी लिखूं वह सार्थक हो। इस लिखने के क्रम में कुछ भी सार्थक लिख पाया तो समझूंगा कि एक श्राप से मुझे मुक्ति मिली….."- आपकी मुराद के पूरी होने के आकांक्षी हम भी रहेंगे।
किसी कवि या लेखक का अपने बारे में लिखा पढ़ना हमेशा आकर्षित करता है…आप की अपने प्रति ईमानदारी ही आप को नये रास्ते दिखायेगी…शुभकामनायें!!!!!
"तुम्हे थोड़ा समय के हिसाब से चालाक बनना चाहिए। लेकिन मैं बन नहीं पाता।"
आज के युग में चालाकी जीवन का एक अंग बन गई है, पर फिर भी मैं आपसे यही आग्रह करुँगी कि अपनी मासूमियत को ऐसे ही बरकरार रखें.
"आज न सही लेकिन कभी तो ऐसी कविता संभव हो पाएगी, जिसे लिखना चाहता हूं…"
सहज आत्म कथ्य के लिए आपको साधुवाद. और उस चिर प्रतीक्षित कविता की रचना के लिए अनेक शुभकामनाएं.
बहुत प्यारा आत्मकथन. आपकी साफगोई और सहजता प्रभावित करती है. पढ़कर आपके बारे में बहुत कुछ जानने और समझने का मौका मिला.रचनात्मक जीवन में निरंतर विकास की शुभकामनाएं!
बहुत सुंदर!
सभी लोग अपने समय के लायक होते हैं। बस वक्त को अपने लायक बनाने की कवायद अलग चीज है।
Great vimlesh ji,……….. एक और बात मुझे कहनी ही चाहिए। कई बार लोग कहते हैं कि तुम इस समय के लायक नहीं हो, तुम बहुत सीधे हो। ऐसे समय में तुम कैसै टिक पाओगे। तुम्हे थोड़ा समय के हिसाब से चालाक बनना चाहिए। लेकिन मैं बन नहीं पाता। मुझे बार-बार लगता है कि जिस दिन मैं चालू बन जाऊंगा, या समय के अनुरूप खुद को चालाक बना लूंगा उसी दिन मेरा लेखक मर जाएगा। इसलिए मैं जैसा हूं वैसा ही बना रहना चाहता हूं… आज न सही लेकिन कभी तो ऐसी कविता संभव हो पाएगी, जिसे लिखना चाहता हूं…।
आपने जिस सादेपन से आत्मकथ्य लिखा है वह काबिले तारीफ है।
आप सभी मित्रों का शुक्रिया…बहुत-बहुत आभार….
kitni saadgi se kahi hain aapne sabhi baaten.. aatmkathan ko isi iimandaari aur saadgi ki zaroorat hoti hai..
साफ़गोई प्रभावित करती है,लेखन की सादगी ही आपकी विशिष्टता है आशा है आप इसे संजो कर रखेंगे….
शुभकामनाएँ…
Aparna ji jyotsana jee aapka aabhar….
apnar kotha pore khub bhalo laglo,ramcharit maanas apnake kovitar sathe porichoye koriechhe jene aro khushi holam khali apnake keno amader ramayan to puro prithivi ke kovitar sathe porichoye koriechhe,maharshi valmiki rochito ramayaner shlok e to sansarer prothom kovita
बहुत ही सुंदर रचना…..
बहुत सहजता से कहा गया आत्मकथ्य-प्रभावित कर गया.
seedhi,saaf,saral .wah.
… do shabd … umdaa !!
आप सभी मित्रों का आभार….
बिमलेश जी ,बहुत दिनों बाद पढ़ा इतना ईमानदार और सरल लेख (आत्मकथ्य)!सच लिखने की शुरुआती प्रक्रिया में लेखक असमंजस के दौर से गुज़रता है ,लिहाज़ा एडिटिंग,काट छांट तमाम पूर्वाग्रह वगेरह वगेरह …पर ये आत्मकथ्य स्वाभाविकता के करीब और सहज लगा!समय के साथ तो दुनिया चलती है है .कुछ को समय से अलग भी चलना चाहिए …
आत्म कथ्य तो बहुत खूब लेकिन जिस वज़ह से आपको एक बार लग गया था कि साहित्य-वाहित्य सब बंद… और आपने बंद कर भी दिया था उस बड़ी वज़ह के बारे में आपने कुछ भी नहीं लिखा… आखिर इतनी बड़ी बात को अपने आत्म कथ्य में कोई कैसे नजर अंदाज कर सकता है… उम्मीद है आप अपने आत्म कथ्य के नए पोस्ट में ये वज़ह जरूर सामने लाएंगे…
एक ही लेख में सब समेट दिया आपने….. बचपन से लेकर अब तक की बातें और साहित्य से जुडाव . अच्छा लगा ये सब जानकर. हम सब के जीवन में कभी कुछ ऐसा होता हैं जो हमें रोक देता हैं और एक अंतराल के बाद फिर कोई एक नयी प्रेरणा आगे बढ़ने के लिए.
संभवता किसी एक पूरी हुई इच्छा ने आपको ये प्रेरणा दी …..
साधुवाद इस बेबाकी के लिए….
aaj seewan ko udhedo to jara dekhenge
aaj sandook se wo khat to nikalo yaro.(dushyant)
bahut badhiya.is aatmkathaya ko kavita ki tarah bar-bar padhane ka man kar raha hai.dil ko chhu gaya.shukriya.