जन्म -बक्सर (बिहार)
कथादेश, देशज, परिकथा सहित पत्र -पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। कविताएँ लीलाधर मंडलोई द्वारा सम्पादित किताब “कविता का समय” में भी। अचला शर्मा और सुधीश पचौरी की किताब नए जनसंचार माध्यम और हिंदी में बीबीसी के कार्यक्रमों पर समीक्षा प्रकाशित ।
संपर्क – बर्फ फक्ट्री के पास ,पांडे पट्टी ,बक्सर,
बिहार-802103. Mobile: [09770556046]
इन सबके बीच
अरे पगली मैना
किस-किस जतन से
तिनका -तिनका सुख जोड़ा
लेकिन कभी यह सोचा
कि जिस कूप में
बनाया घोसला तुमने
एक छांह देखकर
देखकर एकाकी
और यह भी कि
लहरा रहा है
इंटों के बीच इंच भर जगह में
जड़ जमाए यह झुरमुट
लेकिन तुम्हारी मुग्धता ने कभी यह सोचने का भी
समय नहीं दिया
कि कभी भी खिसक सकता है आधार
कि तुम हो जाओगी फुर्र
और तुम्हारे अंडे डुप्प से …
इन सबके बीच
समय की अंगड़ाई लेने जितना भी
मिल गया समय तो
चूजे भरने को होंगे उड़ान
टकराकर दीवार से
डुप्प से …
यदि घड़ी के सेकंडों के बीच की
बढ़ भी जाए दूरी
तो भी नई पांख लिए परिंदे
कुँए के पानी में दिखते आकाश में
नापेंगे ऊंचाई
डुप्प से… .
मै नहीं मिलूँगा
जब मै पूछता हूँ
किसी से उसका पता
वह कह उठता है
पता नही
कब कहाँ रहूँ
फिर
लिख लीजिए
यह नंबर
नाइन फ़ोर थ्री एट…
हमेशा मिलूँगा इसी पर
मुझसे लोग कहते है
दे दीजिए कोई नंबर
मै कहता हूँ
लिख लीजिए पता
ग्राम-पांडेपुर ,पोस्ट -निमेज
हमेशा मिलूँगा
इसी पते पर
अभी तक मुझसे मिलने
कोई नहीं आया
मेरे गाँव
उन्हें आशंका है न
कि मै नहीं मिलूँगा
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
बहुत गहन रचनायें पढ़ने का मौका लगा!!
Thanks a lot….
यदि घड़ी के सेकंडों के बीच की
बढ़ भी जाए दूरी
तो भी नई पांख लिए परिंदे
कुँए के पानी में दिखते आकाश में
नापेंगे ऊंचाई
डुप्प से… .
धन्यवाद…अच्छी कविता के लिये…….
आपका आभार….
बहुत ही अच्छी कविताएँ है… इस घटाटोप समय में जो संवेदना का क्षरण और आदमी का भटकाव है उसे ये कविताएँ सहजता से कहती है… कवि मैना से सवाल करता है… मैना कभी भारतीय जन मानस के लोक राग रंग की हिस्सेदार रही है… अर्थात सीधे-सीधे न कहते हुए भी कवि मनुष्य के हाथ से छूटता हुआ उसका गाँव उसके लोक राग की बातें करता है… इन बातों से एक रास्ता निकलता है… और वो रास्ता अपने को पहचानने की,विश्वास की भरोसा की… कुला मिलाकर ये कविताएँ आदमी के जड़ो की बात करती है…
मै नहीं मिलूँगा
bahut achichi lagi
जब मै पूछता हूँ
किसी से उसका पता
वह कह उठता है
पता नही
कब कहाँ रहूँ
!!!!!!!!!
लाजवाब !!!
सुंदर कविताएं..खासकर दूसरी वाली..समय की भट्ठी मे गलते-पिघलते आदमी की पहचान कब कितने सांचों मे ढ़ल कर बदल-बदल कर सामने आती है..यह बड़े संवेदनशील तरीके से कहती कविता..
अभी तक मुझसे मिलने
कोई नहीं आया
मेरे गाँव
उन्हें आशंका है न
कि मै नहीं मिलूँगा,…
बहुत अच्छा लगा यह पढकर ,.. शुक्रिया ।