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Home कविता

संदीप प्रसाद की कविताएं

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in कविता, साहित्य
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6
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संदीप प्रसाद ने स्नातकोत्तर की पढ़ाई प्रेसिडेण्सी कॉलेज, कोलकाता से पूरी की है। स्कूल के समय से ही कविताएं लिख रहे हैं। कुछ पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित हुई हैं। फिलहाल वे पश्चिम बंगाल के एक विद्यालय में अध्यापन का कार्य कर रहे हैं। 
अनहद पर उनकी कविताएं पहली बार आपकी प्रतिक्रियाओं की उम्मीद के साथ। 



माँ, कविता और रोटियाँ
घर की चौखट पर बैठ
मैँ उसे सुनाया करता
अपनी कविता,
जब पीढ़े पर बैठे हुए वो सेँकती थी
रोटी।
अक्सर ऐसे समय मेँ
उसकी पुतलियाँ विचारोँ की लटाई थाम कर
ढीले छोड़ दिया करती— अपने ख़्वाब।
मुझे लगता कि उसके ख़्वाब
अंधेरे माघ के चौदहवेँ दिन के
आकाश मेँ उड़ रहे हैँ
और उसमेँ लहरा रही हैँ
घबराहट और उत्सुकता भरी
दो पूँछेँ।
प्राय: मेरी कविताएँ
खड़बड़ाकर निकल जाती उसके सामने से
और रह जाती केवल उड़ती हुई धूल
जिन्हेँ वह छा जाने दिया करती
अपनी आँखोँ पर।
घर की चौखट पर
माँ को सुनाते हुए कविता,
मैँ लपेट लिया करता खुद को
कुहरे की कई तहोँ से
और जब कुहरा छँटता
तो सामने होती
अद्‌भुत उर्वरता और कविता की खुशबू से लबरेज
माँ की नरम–नरम रोटियाँ।
आज भी अक्सर बड़ी कसक के साथ
सोचता हूँ—
मैँ कविता सुनाते हुए
नहीँ बना सकता रोटियाँ,
जिन्हे वो बना लिया करती थी
सुनते हुए
कविता।

जब प्यार होता है
जब प्यार होता है
तो कम हो जाते हैँ दुनियां के मुद्दे
हकीकत और सपना फड़फड़ाते हैँ
एक ही धागे से चिपक कर ;
महजिद से बँधे रंगीन
कागजी झंडोँ की तरह।
अचानक सब कुछ लगने लगता है–
अलग–अलग सा।
खड़बिद्दर रास्तोँ पर धीमेँ
रिक्शे की दचकन
कसे हुए बस पे पिछली सीट पर
दबी हुई सी जगह
घड़ी की सुइयोँ की नोक पर दौड़ते शहरोँ के
चमचमाते दुकानो के लम्बे– लम्बे आइने
पीछे –पीछे आने वाली
संगीत की कोई मद्धम धुन
सफर मेँ किसी पुल के लम्बे अंधेरे मेँ
डूबा कोई लम्हा
तालाब के किनारोँ पर तैरते शैवालोँ को
खाती हुई नन्ही मछलियां
बाँस के किसी कुंज मेँ छिपते
किसी पीले साँप
को देख कर लगने वाला डर
या ऐसी ही बहुत सी चीजोँ का असर
वैसा नहीँ होता , जैसा होता है।
अक्सर ऐसे समय मेँ
कमजोर हो जाते हैँ दिल मेँ बैठे जानवर के
पैने दाँत और नाखून
अल्लाह और राम के नारोँ के बीच
दिख जाता है
टूटा हुआ राम का धनुष…
कतरा भर अल्लाह के आँसू।
वैलेन्टाईन्स डे
कै–कै की आवाज के साथ
अचानक उकियाती हुई
कुतिया मर गई रात को।
शायद ज़हर दे दिया किसी ने…!
सुबह को फुदकते–कूदते हुए
गली का कुत्ता
उसकी लाश के पास आकर ठिठक गया
और फिर चुपचाप अकेले मेँ
सुनसान हो कर बैठ गया और
उसकी आँखो के कोरोँ मेँ सिमट आई नमकीन बूँद
क्योँकि अपने रंगीन दिनोँ मेँ उसने
उसके साथ गुजारे थे , कई हसीन लम्हे–
शाम को कुत्ता
खीँच –खीँच कर मांस खा रहा था
और कुतिया के
पसलियोँ की हड्डियाँ
सफेद –सफेद दिख रही थीँ…!

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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अनहद कोलकाता में प्रकाशित रचनाओं में प्रस्तुत विचारों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है. किसी लेख या तस्वीर से आपत्ति हो तो कृपया सूचित करें। प्रूफ़ आदि में त्रुटियाँ संभव हैं। अगर आप मेल से सूचित करते हैं तो हम आपके आभारी रहेंगे।

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Comments 6

  1. उत्‍तमराव क्षीरसागर says:
    13 years ago

    उम्‍मीद जगाती कवि‍ताऍं…।

    Reply
  2. वंदना शुक्ला says:
    13 years ago

    संदीप जी
    बहुत सुन्दर कवितायेँ! ''माँ ,कविता और रोटियां…अद्भुत..!..''माँ'' शब्द ही एक कविता है…महसूस किया जाये तो…!
    बधाई

    Reply
  3. Brajesh Kumar Pandey says:
    13 years ago

    जीवन के अनुभवों कि सहज अभिव्यक्ति ये कविताएँ कवि की संवेदना को उद्घाटित करती हैं .आज जब खांटीपन का ह्रास हो रहा है ऐसे में संदीप कि कविताएँ आहत तो जरूर हैं लेकिन एक उम्मीद के साथ .बिना लग -लपेट के घटनाओं से संवेदित हो जाना निश्चित ही आकर्षित करता है.

    Reply
  4. संदीप प्रसाद says:
    13 years ago

    आप सभी को धन्यवाद !

    Reply
  5. Unknown says:
    12 years ago

    अच्छी कविता है

    Reply
  6. जितेन्द्र देव पाण्डेय 'विद्यार्थी' says:
    11 years ago

    शाम को कुत्ता
    खीँच -खीँच कर मांस खा रहा था
    और कुतिया के
    पसलियोँ की हड्डियाँ
    सफेद -सफेद दिख रही थीँ…!

    सांकेतिक भाषा का शानदार प्रयोग

    Reply

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