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Home कविता

कुछ अलग तरह की कविताएं…

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in कविता, साहित्य
A A
37
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ये कविताएं कुछ ही दिन पहले की लिखी हैं। पता नहीं कैसी हैं। बहुत संकोच के साथ मैं इसे आपके सामने रख रहा हूं। इस आशा के साथ कि आप अपनी बेवाक राय देंगे. साथ ही यह कहना बेहद जरूरी है कि कृत्या ने अपनी वेब पत्रिका पर इसे जगह दी है, और ये कविताएं आदरणीय राकेश श्रीमाली  एवं रति सक्सेना को आभार सहित प्रस्तुत की जा रही हैं। ये कविताएं यहां मिन्नी को समर्पित हैं.
                                 — विमलेश त्रिपाठी




हम बचे रहेंगे



हमने ही बनाए वे रास्ते
जिनपर चलने से
डरते हैं हम
हमने ही किए वे सारे काम
जिन्हें करने से
अपने बच्चों को रोकते हैं हम
हमने किया वही आज तक
जिसको दुसरे करते हैं
तो बुरा कहते हैं हम
हमने ही एक साथ
जी दो जिंदगियां
और इतने बेशर्म हो गए
कि खुद से अलग हो जाने का
मलाल नहीं रहा कभी
वे हम ही हैं
जो चाहते हैं कि
लोग हमें समय का मसीहा समझें
वे हम ही हैं
जिन्हें इलाज की सबसे अधिक जरूरत
समय नहीं
सदी नहीं
इतिहास और भविष्य भी नहीं
सबसे पहले खुद को ही खंगालने की जरूरत
खुद को खुद के सामने खड़ा करना
खौफ से नहीं
विश्वास से
शर्म से नहीं
गौरव से
और कहना समेकित स्वर में
कि हम बचे रहेंगे
बचे रहेंगे हम….।
संबंध
हमारे सच के पंख अलग-अलग
उड़ना चाहता एक सच
दुसरे से अलग
अपनी तरह अपनी ऊंचाई
साथ उड़ने की हर कोशिश में
टकराते
और हर बार हम गिरते जमीन पर
लहूलूहान एक दूसरे को कोसते
अफसोस करते
शुरू दिनों के पार
भूल चुके हम
साथ  उड़ने के वायदे
चंदन पानी दिए बाती-सा रहना
रहना और रहने को सहना
क्या सीखा था हमने
या यूं ही कूद पड़े थे आग के समंदर में
कि एक खास उम्र के निरपराध संमोहन में)
दूर किसी होस्टल में
अनाथ की तरह रहता आया एक किशोर
हमें अलग-अलग दे चुका बधाइयां
और यह हमारे साथ के वायदे की
सोलहवीं सालगिरह का दिन
और तमाम चीजों के बीच
हम खाली
खाली और इस बूढ़ी पृथ्वी पर
हर पल बूढ़े होते
एकदम अकेले…
बचा सका अगर
बचा सका अगर
तो बचा लूंगा बूढ़े पिता के चेहरे की हंसी
मां की उखड़ती-लड़खड़ाती सांसों के बीच
पूरी इमानदारी से उठता
अपने बच्चे के लिए अशीष
गुल्लक में थोड़े-से खुदरे पैसे
गाढ़े दिनों के लिए जरूरी
बेरोजगार भाई की आंखों में
आखिरी सांस ले रहा विश्वास
बहन की एकांत अंधेरी जिन्दगी के बीच
रह-रह कर कौंधता आस का कोई जुगनु
कविता में न भी बच सकें अच्छे शब्द
परवाह नहीं
मुझे सिद्ध कर दिया जाय
एक गुमनाम-बेकार कवि
कविता की बड़ी और तिलस्मी दुनिया के बाहर
बचा सका तो
अपना सबकुछ हारकर
बचा लूंगा आदमी के अंदर सूखती
कोई नदी
मुरझाता अकेला एक पेड़ कोई
अगर बचा सका
तो बचा लूंगा वह गर्म खून
जिससे मिलती है रिश्तों को आंच
अगर बचा सका तो बचाउंगा उसे ही
कृपया मुझे
कविता की दुनिया से
बेदखल कर दिया जाय…
एक थी चिड़िया
एक चिड़िया थी
अकेली और उदास
दिन बदले रातें बदलीं
एक और चिड़िया आई
दोनों ने मिलकर
एक घोसला बनाया
चिड़िया ने दो अंडे दिए
दो चूज्जे आए
और घोसले में चीं-चीं चांय
और मिठी किलकारी
फिर एक दिन चिड़िया रूठ गई
दुसरी मे मनाया
फिर एक दिन चिड़िया ने झगड़ा किया
दुसरी चुप रही
बात फिर आई-गई हो गई
अब अक्सर रूठना होता
मनाना होता
झगड़े होते
ऐसी बातों पर कि कोई सुने तो हंसी आ जाय
बेतुकी बातें
झमेले बेकार के
चूज्जे डरे-सहमे
घोसले में चीखता सन्नाटा
शोर के बीच
यूं तिनके बिखरते गए
एक-एक जोड़े गए
बातें थीं कि बढ़ती गईं
एक दिन दुसरी चिड़िया उदास
घोसले से उड़ गई
उड़ी कि फिर कभी नहीं लौटी
फिर पहला चूज्जा उड़ा
दूसरा इसके बाद
चिड़िया फिर अकेली थी
अकेली स्मृतियों के बीच
निरा अकेली
पेड़ की जगह
अब ठूंठ था
रात के सहमे सन्नाटे में
पेड़ के रोने की आवाज आती
घोसले में एक तिनका भर बचा था
एक तिनका
और एक अकेली
चिड़िया..
 ( http://www.kritya.org  से साभार)

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 37

  1. Brajesh Kumar Pandey says:
    12 years ago

    अच्छी कविताएँ .जीवन के हर रंग को समेटे .हर कमियों -अभावों के बीच भी मुस्कुराहटों के मोती बिखेरने की चाहत ,तमाम मलिनताओं को एक प्रतिदीप्ति देती है .इन कविताओं में मूल स्वर जद्दोजहद की जिंदगी के बीच भी अपनी जीवट प्रवृत्ति को बचाए रख पाने का आदिम संघर्ष है जो गझिन होकर ठंडी छांह दे न दे एक राह जरूर देता है .बधाई बिमलेश भाई !

    Reply
  2. विमलेश त्रिपाठी says:
    12 years ago

    शुक्रिया ब्रजेश भाई…. आपके स्नेह के लिए

    Reply
  3. Umber Ranjana Pandey says:
    12 years ago

    भरे बाज़ार में आपकी कवितायों का स्वाद किसी बच्चे के हाथ में छुपे चुराए हुए जामुन की तरह मीठा और तीता हैं.

    Reply
  4. shesnath pandey says:
    12 years ago

    अच्छी कविताएँ है… और ब्रजेश जी ने अच्छी बाते कही है….

    Reply
  5. vandan gupta says:
    12 years ago

    बेहतरीन कवितायें और आखिरी वाली ज़िदगी का सच ।

    Reply
  6. arun dev says:
    12 years ago

    achhi kavitayen hain.
    kritya men bhi dekhi thin.

    Reply
  7. विमलेश त्रिपाठी says:
    12 years ago

    आप सबके स्नेह के लिए शुक्रिया…. आभार…

    Reply
  8. Ashok Pandey says:
    12 years ago

    सुंदर कविताएं हैं, विमलेश जी। अच्‍छा लगा पढ़ना।

    Reply
  9. गंगा सहाय मीणा says:
    12 years ago

    मैं कविता का पाठक नहीं हूं और इससे पहले विमलेश जी का कुछ पढा नहीं. इसलिए मेरी संक्षिप्‍त टिप्‍पणी विमलेशजी की ताजा कविताओं (कुछ अलग तरह की कविताएं) का उचित मूल्‍यांकन कर पायेगी, इसकी आशा कम है.

    हम बचे रहेंगे-
    आत्‍मालोचना की आवश्‍यकता महसूस कराती कविता. सच में आज हर व्‍यक्ति को अपने अंदर झांकने की जरूरत है. उपदेश देने से मानव, समाज और देश का उत्‍थान नहीं होगा. सबसे पहले खुद को बदलना होगा.

    संबंध-
    संबंधों की नाजुकता उजागर करती कविता. संबंधों को जीवंत रखना मुश्किल है, लेकिन जरूरी भी है. इस तरह की कविता संबंधों की जटिलता के गहरे अनुभव से ही संभव है.

    बचा सका अगर-
    यह कविता भी संबंधों की गर्माहट को बनाए रखने की चिंता को जाहिर करती है.सच में इस जीवन में अच्‍छे संबंध बनाना और उनको जीवंत बनाए रखना बहुत अहम होता है. हम आगे बढने के क्रम में अपने जीवन की सबसे महत्‍वपूर्ण उपलब्‍धि (हमारे अच्‍छे संबंधों) को भूल जाते हैं, और जब चेतते हैं तो देर हो चुकी होती है. 'टूटे से फिर ना जुडे, जुडे गांठ पड जाय'.

    एक थी चिडिया-
    पुनः संबंधों की अहमियत पर जोर देती कविता.

    संक्षेप में कहा जा सकता है कि उपर्युक्‍त चारों कविताएं मानवीय संबंधों की जटिलता और नाजुकता के गहरे अनुभव से उपजी हैं. मानवीय संबंधों की उपेक्षा करने के कारण ही मानव के जीवन में अकेलेपन और उससे उपजे तनाव का दायरा बढता जा रहा है. इससे बचने का एक ही उपाय है- हम तमाम रिश्‍तों का सम्‍मान करें और उन्‍हें प्राथमिकता देकर उनकी गर्माहट को बनाए रखें. सुखी जीवन के लिए यह बहुत जरूरी है.

    Reply
  10. गंगा सहाय मीणा says:
    12 years ago

    This comment has been removed by the author.

    Reply
  11. विमलेश त्रिपाठी says:
    12 years ago

    आपका बहुत-बहुत धन्यवाद आशोक जी और मीणा जी… दरअसल कविता मेरे लिए सदैव ही सच के आस-पास की चीज है…कहानियों में भले मैं 'फिक्शनz' का सहारा लूं..कविताएं मेरे विशुद्ध जीवनानुभव से ही संYव होती हैं…आपलोगों के स्नेह के लिए आभार…

    Reply
  12. विमलेश त्रिपाठी says:
    12 years ago

    आपका बहुत-बहुत धन्यवाद आशोक जी और मीणा जी… दरअसल कविता मेरे लिए सदैव ही सच के आस-पास की चीज है…कहानियों में भले मैं 'फिक्शन' का सहारा लूं..कविताएं मेरे विशुद्ध जीवनानुभव से ही संभव होती हैं…आपलोगों के स्नेह के लिए आभार…

    Reply
  13. Unknown says:
    12 years ago

    bahoot sundar bimlesh ji. yahi jivan ki satyata hai.
    एक तिनका
    और एक अकेली
    चिड़िया..
    hemendra

    Reply
  14. विमलेश त्रिपाठी says:
    12 years ago

    शुक्रिया हेमेन्द्र भाई…

    Reply
  15. अपर्णा says:
    12 years ago

    achchhi kavitaen… saral bhasha par sashakt abhivyakti.

    Reply
  16. Uday Prakash says:
    12 years ago

    इतनी सादगी और शब्दों की किफ़ायत के साथ, सच को लिये हुए, हमारे भीतर तक उतरती कविताएं..। बधाई…!

    Reply
  17. Niraj says:
    12 years ago

    बिमलेश जी, आपकी कविता की शैली कुछ विशिष्ट है, और वही विशिष्टता ही भा जाती है । एक छोटी सी, पर सटीक सोच और उसमें भीगी हुई, पगी हुई लाइनें ।

    हम बचे रहेंगे
    लगातार ध्वंस होती नैतिकताओं और मूल्यों के बीच व्यक्ति हमेशा अपने वर्तमान से असंतुष्ट रहा है। उम्रदराज अपने भूतकाल में रहते हैं और नई पीढ़ी भविष्यत में ! इन दोनों अवस्थाओं के बीच आपका ये मनन पूरी तरह से सम-सामायिक है और बहुत जरूरी है कि इस चेतना को कि "खुद को खुद के सामने खड़ा करना, खौफ से नहीं, विश्वास से, शर्म से नहीं, गौरव से" झकझोर कर उठाया जाय ताकि "बचे रहें हम !"

    संबंध
    यह बात भले ही सही है कि हम अकेले धरती पर आते हैं और अकेले ही जाते हैं पर इस जाने-आने के बीच कम से कम ये उम्मीद की जाती है कि हम साथ-साथ रहें । जब यह साथ-साथ के "संबंध" के धागे ढीले होने लगें, टूटने लगें, हरियाली ठूँठ में बदलने लगे तो जरूरत थोड़े से प्रेम की खाद-पानी की ही रह जाती है । फ़िलहाल शून्य में डूबती हुई सी आपकी ये कविता स्त्री-पुरुष के बीच के खाली होते संबंधों की एक परछाईं है । सुन्दर और सफल प्रयास !

    बचा सका अगर
    अस्तित्व की लड़ाई और परिस्थितियों की बीहड़ता के सामने खुद की रचनात्मकता को पल-पल सूखते हुए देखने की पीड़ा… बात और है कि शहद जितना सूखा, उतना मीठा हुआ ! सोना जितना तपा, उतना कुंदन हुआ !

    एक थी चिड़िया
    बिमलेश जी, पहले सोचा था कि इस पर कोई गम्भीर सी टिप्पणी लिखूँगा, पर क्षमा कीजियेगा, इस कविता पर तो एक ही बात समझ में आ रही है कि.. "बीबियाँ होती ही ऐसी हैं" ;-)….
    खैर, संबंध जंगली फूल नहीं होते, जिन्हें छोड़ दिया जाय, गिरते-पड़ते सम्हलने के लिये ! स्त्री-पुरुष संबंधों पर टिप्पणी करती आपकी यह कविता भी बहुत नोंकदार है ! छोटी सी, पर तेज चुभने वाली !

    Reply
  18. Niraj says:
    12 years ago

    This comment has been removed by the author.

    Reply
  19. Niraj says:
    12 years ago

    This comment has been removed by the author.

    Reply
  20. विमलेश त्रिपाठी says:
    12 years ago

    उदय सर, अपर्णा दी…आप लोगों का आभार व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है… नीरज जी आपने कविता के मर्म को सही पकड़ा है… आप स्वयं एक अच्छे कवि हैं..शायद इसलिए ही… आपका आभार कैसे व्यक्त करूं…

    Reply
  21. Anonymous says:
    12 years ago

    अच्छी कवितायेँ विमलेश भाई | बधाई !

    – मनोज पटेल

    Reply
  22. विमलेश त्रिपाठी says:
    12 years ago

    Thanks Manoj bhai….

    Reply
  23. Amrita Tanmay says:
    12 years ago

    सारी कवितायेँ जीवन उर्जा से भरी है . आनद से सराबोर ……… पढ़ना बहुत अच्छा लगा . बधाई ..

    Reply
  24. dhruv kumar jha says:
    12 years ago

    एक थी चिडिया कविता भी मर्म को छू लेने वाली कविता है आपसी कलह के कारण परिवार टूटने की त्रासदी को बखूबी दर्शाया गया है .

    Reply
  25. dhruv kumar jha says:
    12 years ago

    बचा सका अगर' कविता परिवार के प्रति निष्ठा को दर्शाता है. मध्यवर्गीय परिवार के युवकों की यही विडंबना है कि उसको हमेशा रोटी और कविता के बीच जूझना पडता है'

    Reply
  26. पारुल "पुखराज" says:
    12 years ago

    एक तिनका
    और एक अकेली
    चिड़िया..

    alag si hai…sundar bhi

    Reply
  27. Anonymous says:
    12 years ago

    हम बचे रहेंगे aaj phir se padhi… do bar bahot achi hai.

    एक थी चिड़िया… touching…. ye chidiya aap hai, vo hai ya is it me n everyone!!!

    Reply
  28. विजय सिंह says:
    12 years ago

    अगर बचा सका
    तो बचा लूंगा वह गर्म खून
    जिससे मिलती है रिश्तों को आंच

    …………bahut khoobsurat hai
    subah-subah padha hai to ..n jaane kitne logo ko padhaunga abhi …hum bachche rehenge

    Reply
  29. सुंदर says:
    12 years ago

    विमलेश जी, नमस्कार!
    पहली बार पाठ्यक्रम से अलग रचनाशीलता के स्तर पर किसी रचनाकर के बारें में,उसके पूर्वाग्रहों,मान्यताओं या वाद-विवादों और आग्रह को बिना जाने,उसकी कविताओं पर प्रतिक्रिया या उसपर बात करने की दुस्साहस कर रहा हूँ |
    उपभोक्तावादी और अवसरवादी चलन ने जिन मानवीय संवेदनाओं को हमारे अवचेतन से मिटाने की कोई कसर नहीं छोड़ी है,संबंधो के रासायनिक अव्ययों के आंतरिक सम्मिश्रण में खोई संवेदना के हर कण को आपने आँखों के सामने खड़ा कर दिया है…..आपकी कविताओ। में "रिश्तो की आँच" है,संबंधो को बचाने की छटपटाहट है,चुज्जे की विवशता है तो एक चिड़िया पर जीवन शैली से उत्पन्न मानसिक दवाव से बचने की उड़ान है तो दूसरी अकेली चिड़िया की अपनी अधूरी चाहतें | घर से दूर हर पथिक को घर लौटने की चाह जगाती है; ये कविताएँ | धन्यवाद!

    Reply
  30. विमलेश त्रिपाठी says:
    12 years ago

    बहुत बूहुत शुक्रिया सुंदर जी….

    Reply
  31. लीना मल्होत्रा says:
    12 years ago

    bahut gahre utarti hain aur antas me chhipe hamare avsaad ko oolichti hain. अगर बचा सका
    तो बचा लूंगा वह गर्म खून
    जिससे मिलती है रिश्तों को आंच

    अगर बचा सका तो बचाउंगा उसे ही
    कृपया मुझे
    कविता की दुनिया से
    बेदखल कर दिया जाय…
    itni samvedansheelta ko naman.

    Reply
  32. कल्पना पंत says:
    11 years ago

    कविता की बड़ी और तिलस्मी दुनिया के बाहर
    बचा सका तो
    अपना सबकुछ हारकर
    बचा लूंगा आदमी के अंदर सूखती
    कोई नदी
    मुरझाता अकेला एक पेड़ कोई

    बहुत सहज और अच्छी कविताएँ

    Reply
  33. Unknown says:
    11 years ago

    विमलेश जी बहुत दिनो के बाद ऎसा लगा जैसे चारो कविताए पूरी की पूरी अन्तर्मन को छूती हुइ अपना वजूद रखने मे किसी भी समीक्षा की मोहताज नही है ।आपका आभार ….।
    सरल, सहज शब्दो , के कथ्यो को समझना बेहद आसान है ।मै चाहूगा और भी ऐसी ही सुन्दर ,यथार्थ ,पढने को मिलता रहे ।धन्यवाद ।

    Reply
  34. avanti singh says:
    11 years ago

    सब रचनाये बहुत ही बेहतरीन है,बधाई आप को

    Reply
  35. Unknown says:
    11 years ago

    गुल्लक में थोड़े-से खुदरे पैसे
    गाढ़े दिनों के लिए जरूरी
    बेरोजगार भाई की आंखों में
    आखिरी सांस ले रहा विश्वास
    बहन की एकांत अंधेरी जिन्दगी के बीच
    रह-रह कर कौंधता आस का कोई जुगनु………….
    आपकी कवितावों में हमेशा एक सच सन्निहित होता है जो आपको औरो से जुदा करता है …..बहुत बधाई

    Reply
  36. रचना प्रवेश says:
    10 years ago

    अच्छी कविताये है ,….सरल भाषा लेकिन गहन भाव ,अच्छा लगा पढ़ कर

    Reply
  37. ललन चतुर्वेदी says:
    1 year ago

    बड़ी उत्सुकता से इन कविताओं को पढ़ा। दो शब्द – बेहतरीन और मार्मिक। इन कविताओं मेँ सादगी का सौन्दर्य है। बहुत बढ़िया।

    Reply

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

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