ये कविताएं कुछ ही दिन पहले की लिखी हैं। पता नहीं कैसी हैं। बहुत संकोच के साथ मैं इसे आपके सामने रख रहा हूं। इस आशा के साथ कि आप अपनी बेवाक राय देंगे. साथ ही यह कहना बेहद जरूरी है कि कृत्या ने अपनी वेब पत्रिका पर इसे जगह दी है, और ये कविताएं आदरणीय राकेश श्रीमाली एवं रति सक्सेना को आभार सहित प्रस्तुत की जा रही हैं। ये कविताएं यहां मिन्नी को समर्पित हैं.
— विमलेश त्रिपाठी
हम बचे रहेंगे
हमने ही बनाए वे रास्ते
जिनपर चलने से
डरते हैं हम
हमने ही किए वे सारे काम
जिन्हें करने से
अपने बच्चों को रोकते हैं हम
हमने किया वही आज तक
जिसको दुसरे करते हैं
तो बुरा कहते हैं हम
हमने ही एक साथ
जी दो जिंदगियां
और इतने बेशर्म हो गए
कि खुद से अलग हो जाने का
मलाल नहीं रहा कभी
वे हम ही हैं
जो चाहते हैं कि
लोग हमें समय का मसीहा समझें
वे हम ही हैं
जिन्हें इलाज की सबसे अधिक जरूरत
समय नहीं
सदी नहीं
इतिहास और भविष्य भी नहीं
सबसे पहले खुद को ही खंगालने की जरूरत
खुद को खुद के सामने खड़ा करना
खौफ से नहीं
विश्वास से
शर्म से नहीं
गौरव से
और कहना समेकित स्वर में
कि हम बचे रहेंगे
बचे रहेंगे हम….।
संबंध
हमारे सच के पंख अलग-अलग
उड़ना चाहता एक सच
दुसरे से अलग
अपनी तरह अपनी ऊंचाई
साथ उड़ने की हर कोशिश में
टकराते
और हर बार हम गिरते जमीन पर
लहूलूहान एक दूसरे को कोसते
अफसोस करते
शुरू दिनों के पार
भूल चुके हम
साथ उड़ने के वायदे
चंदन पानी दिए बाती-सा रहना
रहना और रहने को सहना
क्या सीखा था हमने
या यूं ही कूद पड़े थे आग के समंदर में
कि एक खास उम्र के निरपराध संमोहन में)
दूर किसी होस्टल में
अनाथ की तरह रहता आया एक किशोर
हमें अलग-अलग दे चुका बधाइयां
और यह हमारे साथ के वायदे की
सोलहवीं सालगिरह का दिन
और तमाम चीजों के बीच
हम खाली
खाली और इस बूढ़ी पृथ्वी पर
हर पल बूढ़े होते
एकदम अकेले…
बचा सका अगर
बचा सका अगर
तो बचा लूंगा बूढ़े पिता के चेहरे की हंसी
मां की उखड़ती-लड़खड़ाती सांसों के बीच
पूरी इमानदारी से उठता
अपने बच्चे के लिए अशीष
गुल्लक में थोड़े-से खुदरे पैसे
गाढ़े दिनों के लिए जरूरी
बेरोजगार भाई की आंखों में
आखिरी सांस ले रहा विश्वास
बहन की एकांत अंधेरी जिन्दगी के बीच
रह-रह कर कौंधता आस का कोई जुगनु
कविता में न भी बच सकें अच्छे शब्द
परवाह नहीं
मुझे सिद्ध कर दिया जाय
एक गुमनाम-बेकार कवि
कविता की बड़ी और तिलस्मी दुनिया के बाहर
बचा सका तो
अपना सबकुछ हारकर
बचा लूंगा आदमी के अंदर सूखती
कोई नदी
मुरझाता अकेला एक पेड़ कोई
अगर बचा सका
तो बचा लूंगा वह गर्म खून
जिससे मिलती है रिश्तों को आंच
अगर बचा सका तो बचाउंगा उसे ही
कृपया मुझे
कविता की दुनिया से
बेदखल कर दिया जाय…
एक थी चिड़िया
एक चिड़िया थी
अकेली और उदास
दिन बदले रातें बदलीं
एक और चिड़िया आई
दोनों ने मिलकर
एक घोसला बनाया
चिड़िया ने दो अंडे दिए
दो चूज्जे आए
और घोसले में चीं-चीं चांय
और मिठी किलकारी
फिर एक दिन चिड़िया रूठ गई
दुसरी मे मनाया
फिर एक दिन चिड़िया ने झगड़ा किया
दुसरी चुप रही
बात फिर आई-गई हो गई
अब अक्सर रूठना होता
मनाना होता
झगड़े होते
ऐसी बातों पर कि कोई सुने तो हंसी आ जाय
बेतुकी बातें
झमेले बेकार के
चूज्जे डरे-सहमे
घोसले में चीखता सन्नाटा
शोर के बीच
यूं तिनके बिखरते गए
एक-एक जोड़े गए
बातें थीं कि बढ़ती गईं
एक दिन दुसरी चिड़िया उदास
घोसले से उड़ गई
उड़ी कि फिर कभी नहीं लौटी
फिर पहला चूज्जा उड़ा
दूसरा इसके बाद
चिड़िया फिर अकेली थी
अकेली स्मृतियों के बीच
निरा अकेली
पेड़ की जगह
अब ठूंठ था
रात के सहमे सन्नाटे में
पेड़ के रोने की आवाज आती
घोसले में एक तिनका भर बचा था
एक तिनका
और एक अकेली
चिड़िया..
( http://www.kritya.org से साभार)
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
अच्छी कविताएँ .जीवन के हर रंग को समेटे .हर कमियों -अभावों के बीच भी मुस्कुराहटों के मोती बिखेरने की चाहत ,तमाम मलिनताओं को एक प्रतिदीप्ति देती है .इन कविताओं में मूल स्वर जद्दोजहद की जिंदगी के बीच भी अपनी जीवट प्रवृत्ति को बचाए रख पाने का आदिम संघर्ष है जो गझिन होकर ठंडी छांह दे न दे एक राह जरूर देता है .बधाई बिमलेश भाई !
शुक्रिया ब्रजेश भाई…. आपके स्नेह के लिए
भरे बाज़ार में आपकी कवितायों का स्वाद किसी बच्चे के हाथ में छुपे चुराए हुए जामुन की तरह मीठा और तीता हैं.
अच्छी कविताएँ है… और ब्रजेश जी ने अच्छी बाते कही है….
बेहतरीन कवितायें और आखिरी वाली ज़िदगी का सच ।
achhi kavitayen hain.
kritya men bhi dekhi thin.
आप सबके स्नेह के लिए शुक्रिया…. आभार…
सुंदर कविताएं हैं, विमलेश जी। अच्छा लगा पढ़ना।
मैं कविता का पाठक नहीं हूं और इससे पहले विमलेश जी का कुछ पढा नहीं. इसलिए मेरी संक्षिप्त टिप्पणी विमलेशजी की ताजा कविताओं (कुछ अलग तरह की कविताएं) का उचित मूल्यांकन कर पायेगी, इसकी आशा कम है.
हम बचे रहेंगे-
आत्मालोचना की आवश्यकता महसूस कराती कविता. सच में आज हर व्यक्ति को अपने अंदर झांकने की जरूरत है. उपदेश देने से मानव, समाज और देश का उत्थान नहीं होगा. सबसे पहले खुद को बदलना होगा.
संबंध-
संबंधों की नाजुकता उजागर करती कविता. संबंधों को जीवंत रखना मुश्किल है, लेकिन जरूरी भी है. इस तरह की कविता संबंधों की जटिलता के गहरे अनुभव से ही संभव है.
बचा सका अगर-
यह कविता भी संबंधों की गर्माहट को बनाए रखने की चिंता को जाहिर करती है.सच में इस जीवन में अच्छे संबंध बनाना और उनको जीवंत बनाए रखना बहुत अहम होता है. हम आगे बढने के क्रम में अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि (हमारे अच्छे संबंधों) को भूल जाते हैं, और जब चेतते हैं तो देर हो चुकी होती है. 'टूटे से फिर ना जुडे, जुडे गांठ पड जाय'.
एक थी चिडिया-
पुनः संबंधों की अहमियत पर जोर देती कविता.
संक्षेप में कहा जा सकता है कि उपर्युक्त चारों कविताएं मानवीय संबंधों की जटिलता और नाजुकता के गहरे अनुभव से उपजी हैं. मानवीय संबंधों की उपेक्षा करने के कारण ही मानव के जीवन में अकेलेपन और उससे उपजे तनाव का दायरा बढता जा रहा है. इससे बचने का एक ही उपाय है- हम तमाम रिश्तों का सम्मान करें और उन्हें प्राथमिकता देकर उनकी गर्माहट को बनाए रखें. सुखी जीवन के लिए यह बहुत जरूरी है.
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आपका बहुत-बहुत धन्यवाद आशोक जी और मीणा जी… दरअसल कविता मेरे लिए सदैव ही सच के आस-पास की चीज है…कहानियों में भले मैं 'फिक्शनz' का सहारा लूं..कविताएं मेरे विशुद्ध जीवनानुभव से ही संYव होती हैं…आपलोगों के स्नेह के लिए आभार…
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद आशोक जी और मीणा जी… दरअसल कविता मेरे लिए सदैव ही सच के आस-पास की चीज है…कहानियों में भले मैं 'फिक्शन' का सहारा लूं..कविताएं मेरे विशुद्ध जीवनानुभव से ही संभव होती हैं…आपलोगों के स्नेह के लिए आभार…
bahoot sundar bimlesh ji. yahi jivan ki satyata hai.
एक तिनका
और एक अकेली
चिड़िया..
hemendra
शुक्रिया हेमेन्द्र भाई…
achchhi kavitaen… saral bhasha par sashakt abhivyakti.
इतनी सादगी और शब्दों की किफ़ायत के साथ, सच को लिये हुए, हमारे भीतर तक उतरती कविताएं..। बधाई…!
बिमलेश जी, आपकी कविता की शैली कुछ विशिष्ट है, और वही विशिष्टता ही भा जाती है । एक छोटी सी, पर सटीक सोच और उसमें भीगी हुई, पगी हुई लाइनें ।
हम बचे रहेंगे
लगातार ध्वंस होती नैतिकताओं और मूल्यों के बीच व्यक्ति हमेशा अपने वर्तमान से असंतुष्ट रहा है। उम्रदराज अपने भूतकाल में रहते हैं और नई पीढ़ी भविष्यत में ! इन दोनों अवस्थाओं के बीच आपका ये मनन पूरी तरह से सम-सामायिक है और बहुत जरूरी है कि इस चेतना को कि "खुद को खुद के सामने खड़ा करना, खौफ से नहीं, विश्वास से, शर्म से नहीं, गौरव से" झकझोर कर उठाया जाय ताकि "बचे रहें हम !"
संबंध
यह बात भले ही सही है कि हम अकेले धरती पर आते हैं और अकेले ही जाते हैं पर इस जाने-आने के बीच कम से कम ये उम्मीद की जाती है कि हम साथ-साथ रहें । जब यह साथ-साथ के "संबंध" के धागे ढीले होने लगें, टूटने लगें, हरियाली ठूँठ में बदलने लगे तो जरूरत थोड़े से प्रेम की खाद-पानी की ही रह जाती है । फ़िलहाल शून्य में डूबती हुई सी आपकी ये कविता स्त्री-पुरुष के बीच के खाली होते संबंधों की एक परछाईं है । सुन्दर और सफल प्रयास !
बचा सका अगर
अस्तित्व की लड़ाई और परिस्थितियों की बीहड़ता के सामने खुद की रचनात्मकता को पल-पल सूखते हुए देखने की पीड़ा… बात और है कि शहद जितना सूखा, उतना मीठा हुआ ! सोना जितना तपा, उतना कुंदन हुआ !
एक थी चिड़िया
बिमलेश जी, पहले सोचा था कि इस पर कोई गम्भीर सी टिप्पणी लिखूँगा, पर क्षमा कीजियेगा, इस कविता पर तो एक ही बात समझ में आ रही है कि.. "बीबियाँ होती ही ऐसी हैं" ;-)….
खैर, संबंध जंगली फूल नहीं होते, जिन्हें छोड़ दिया जाय, गिरते-पड़ते सम्हलने के लिये ! स्त्री-पुरुष संबंधों पर टिप्पणी करती आपकी यह कविता भी बहुत नोंकदार है ! छोटी सी, पर तेज चुभने वाली !
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उदय सर, अपर्णा दी…आप लोगों का आभार व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है… नीरज जी आपने कविता के मर्म को सही पकड़ा है… आप स्वयं एक अच्छे कवि हैं..शायद इसलिए ही… आपका आभार कैसे व्यक्त करूं…
अच्छी कवितायेँ विमलेश भाई | बधाई !
– मनोज पटेल
Thanks Manoj bhai….
सारी कवितायेँ जीवन उर्जा से भरी है . आनद से सराबोर ……… पढ़ना बहुत अच्छा लगा . बधाई ..
एक थी चिडिया कविता भी मर्म को छू लेने वाली कविता है आपसी कलह के कारण परिवार टूटने की त्रासदी को बखूबी दर्शाया गया है .
बचा सका अगर' कविता परिवार के प्रति निष्ठा को दर्शाता है. मध्यवर्गीय परिवार के युवकों की यही विडंबना है कि उसको हमेशा रोटी और कविता के बीच जूझना पडता है'
एक तिनका
और एक अकेली
चिड़िया..
alag si hai…sundar bhi
हम बचे रहेंगे aaj phir se padhi… do bar bahot achi hai.
एक थी चिड़िया… touching…. ye chidiya aap hai, vo hai ya is it me n everyone!!!
अगर बचा सका
तो बचा लूंगा वह गर्म खून
जिससे मिलती है रिश्तों को आंच
…………bahut khoobsurat hai
subah-subah padha hai to ..n jaane kitne logo ko padhaunga abhi …hum bachche rehenge
विमलेश जी, नमस्कार!
पहली बार पाठ्यक्रम से अलग रचनाशीलता के स्तर पर किसी रचनाकर के बारें में,उसके पूर्वाग्रहों,मान्यताओं या वाद-विवादों और आग्रह को बिना जाने,उसकी कविताओं पर प्रतिक्रिया या उसपर बात करने की दुस्साहस कर रहा हूँ |
उपभोक्तावादी और अवसरवादी चलन ने जिन मानवीय संवेदनाओं को हमारे अवचेतन से मिटाने की कोई कसर नहीं छोड़ी है,संबंधो के रासायनिक अव्ययों के आंतरिक सम्मिश्रण में खोई संवेदना के हर कण को आपने आँखों के सामने खड़ा कर दिया है…..आपकी कविताओ। में "रिश्तो की आँच" है,संबंधो को बचाने की छटपटाहट है,चुज्जे की विवशता है तो एक चिड़िया पर जीवन शैली से उत्पन्न मानसिक दवाव से बचने की उड़ान है तो दूसरी अकेली चिड़िया की अपनी अधूरी चाहतें | घर से दूर हर पथिक को घर लौटने की चाह जगाती है; ये कविताएँ | धन्यवाद!
बहुत बूहुत शुक्रिया सुंदर जी….
bahut gahre utarti hain aur antas me chhipe hamare avsaad ko oolichti hain. अगर बचा सका
तो बचा लूंगा वह गर्म खून
जिससे मिलती है रिश्तों को आंच
अगर बचा सका तो बचाउंगा उसे ही
कृपया मुझे
कविता की दुनिया से
बेदखल कर दिया जाय…
itni samvedansheelta ko naman.
कविता की बड़ी और तिलस्मी दुनिया के बाहर
बचा सका तो
अपना सबकुछ हारकर
बचा लूंगा आदमी के अंदर सूखती
कोई नदी
मुरझाता अकेला एक पेड़ कोई
बहुत सहज और अच्छी कविताएँ
विमलेश जी बहुत दिनो के बाद ऎसा लगा जैसे चारो कविताए पूरी की पूरी अन्तर्मन को छूती हुइ अपना वजूद रखने मे किसी भी समीक्षा की मोहताज नही है ।आपका आभार ….।
सरल, सहज शब्दो , के कथ्यो को समझना बेहद आसान है ।मै चाहूगा और भी ऐसी ही सुन्दर ,यथार्थ ,पढने को मिलता रहे ।धन्यवाद ।
सब रचनाये बहुत ही बेहतरीन है,बधाई आप को
गुल्लक में थोड़े-से खुदरे पैसे
गाढ़े दिनों के लिए जरूरी
बेरोजगार भाई की आंखों में
आखिरी सांस ले रहा विश्वास
बहन की एकांत अंधेरी जिन्दगी के बीच
रह-रह कर कौंधता आस का कोई जुगनु………….
आपकी कवितावों में हमेशा एक सच सन्निहित होता है जो आपको औरो से जुदा करता है …..बहुत बधाई
अच्छी कविताये है ,….सरल भाषा लेकिन गहन भाव ,अच्छा लगा पढ़ कर
बड़ी उत्सुकता से इन कविताओं को पढ़ा। दो शब्द – बेहतरीन और मार्मिक। इन कविताओं मेँ सादगी का सौन्दर्य है। बहुत बढ़िया।