लोहा और आदमी
वह पिघलता है और ढलता है चाकू में
तलवार में बंदूक में सुई में
और छेनी-हथौड़े में भी
उसी के सहारे कुछ लोग लड़ते हैं भूख से
भूखे लोगों के खिलाफ
खूनी लड़ाइयां भी उसी से लड़ी जाती हैं
कई बार फर्क करना मुश्किल होता है
लोहे और आदमी में।।
लोहा और आदमी
वह पिघलता है और ढलता है चाकू में
तलवार में बंदूक में सुई में
और छेनी-हथौड़े में भी
उसी के सहारे कुछ लोग लड़ते हैं भूख से
भूखे लोगों के खिलाफ
खूनी लड़ाइयां भी उसी से लड़ी जाती हैं
कई बार फर्क करना मुश्किल होता है
लोहे और आदमी में।।
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अच्छी कविता विमलेश जी, बहुत पहले इसे वागर्थ में पढ़ टुका हूँ..
–नगेन्द्र सिंह
सच में फर्क करना मुश्किल होता है कई बार लोहे और आदमी में…..एक मंजी हुई कविता।।। बधाई…….