कुछ अरसा पहले वागर्थ के संपादक विजय बहादुर सिंह ने अपने संपादकीय में एक बहुत ही अच्छी कविता लिखी थी। कविता के रूप में संपादकीय लिखने का शायद पहला सिससिला उन्होंने शुरू किया, जहाँ तक मेरी जानकारी है। कविता को पढ़ते हुए मैं काफी उद्वेलित हो गया और अनायास ही मेरे जेहन में एक कविता ने जन्म लेना शुरु किया। उस कविता को आपके साथ शेयर कर मुझे बहुत खुशी हो रही है।
कहना सच को सच की तरह
राहत मिलती है यह सुन-देखकर कि अब भी गुस्सा है
और भड़ास निकालने का साहस भी
इस अजीब सी हो गई दुनिया में
जहां सिर्फ नाच का शोर चमचमाती रंगिनियों में
एक पूरी पीढ़ी डिस्कोथेक और नाईट क्लब के हवाले
बूढ़े सब मोह भंग के शिकार
और जिनसे दुनिया को उम्मीद
वे शब्दों की बाजीगरी में ढुंढते अपने जिन्दा होने के सबुत
चुप रहो और करो इंतजार का नाकाब ओढ़े
जहाँ मर गए लोगों की एक लंबी जमात खड़ी
ऐसे में जब अचानक चीखने की हद तक चिल्लाता है
निकालता है भड़ास पूरी ताकत के साथ साठ पार का एक आदमी
तो भड़ास वह अच्छा लगता है
सच को सच की तरह कहना और सुनना सच को सच की तरह
जरूरी लगता है इस मुर्दगी सन्नाटे में
समय ऐसा यह जब पता नहीं कितने ‘अंत’ की घोषणा
और लगभग स्वीकार कर चुके लोग
कि सच का भी हो गया अन्त
कि फिसल जाने दिया हमने ही समय वह हाथ से
जब एक स्त्री की इस्मत के मसले पर
रच जाता था भारत इसी धरती पर इसी भारत में
भाई के चप्पलों को सिर पर रख
जंगल से घर तक की यात्रा का मिसाल भी यहीं देखने में आता
और कितना कुछ
कि पूरी दुनिया देखती थी हैरत से
नत होते थे गुरूर से भरे मस्तक
विस्मय से
क्या जरूरी है दुहराना कि कैसे-कैसे मंजर देखे
और झेले हमने अपनी छातियों पर
पर इतने अकेले नहीं हुए हम कभी
न इतने खाली
कि जिस जमीन पर खड़े हम
किसी भी पल उसी के खिसक जाने का अंदेसा
एक हत्यारा संसद में पहुंचकर करता है अट्टहास
हमें गुस्सा नहीं आता
क्या फर्क पड़ता है हमें
कि दुनिया में नहीं रहे ऐसे लोग
जिनके रहने से दुनिया को दुनिया की तरह
बने रहने की एक उम्मीद जगती थी
अभी कल ही कि बात है
इसी शहर के एक फूटपाथ पर पड़ी थी लाश एक अधेड़
गुजरे थे हजारों लोग उसी रास्ते से भागते
अपने-अपने दफ्तर दुकानों तक पहुँचने के लिए
गुजरी थी शहर के सबसे बड़े अधिकारी की गाड़ी उसी रास्ते के किनारे से
गुजरने वालों में शहर के लेखक कवि भी थे
जिन्हें पहुंचना था किसी गोष्ठी में और सुनानी थी कविता मनुष्य के बदहाल होते जाने पर
कहते हैं उसी शहर से गुजरती है राज्य के मुख्यमंत्री की कार भी
और उस दिन भी गुजरी थी
उसी रास्ते से गुजरना हुआ था स्कूल के कुछ बच्चों का
साथ में उनकी माताएं भी थी स्कूल के भारी भरकम बैग सम्हाले
पानी के बोतल
एक बच्चे ने पूछा था – मां कौन सो रहा है सड़क के किनारे।
— कोइ नहीं बेटा, कोइ नशाखोर होगा। तुम चलो स्कूल के लिए देर हो रही है
और बच्चा कुछ सोचते हुए आगे बढ़ गया था
वह कोई नशाखोर नहीं था
था वह इसी देश का नागरिक
और अचानक स्ट्रोक के बाद सत्तरह घंटे तक पड़ी रही थी
उसकी बूढ़ी देह लावारिश
उस समय उसका इकलौता बेटा अमेरिका के किसी शहर में था
कब तक आखिर कब तक हम
अपनी ही पनही सम्हालने में करते रहेंगे उम्र यह शेष
एक न एक दिन खड़ा होना ही पड़ेगा
बोलना ही पड़ेगा वर्षों से दबी वह बात
जो आज तक बोली नहीं गई
कभी भय से कभी मजबूरी से और कभी जान बूझकर
कि बोलने से ही हमारा सदियों का बनाया
तिलस्मी दानव मोम की तरह पिघल सकता था।
और वह कल पिघल सकता था तो आज भी
जरूरी है कि हमारे अन्दर
सच को सच की तरह कह पाने का साहस हो
और एक जरूरी ताकत जिसे किसी बाजार से नहीं खरीदा जाता
तो शुरूआत एक भड़ास से ही
कि सच को सच की तरह कहने से ही सही……
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
ACHCHI HAI AUR SACH BHI. SACH KO SACH KI TARAH KAHNA SHAYAD SABSE MUSHKIL KAAM HAI.
achhi rachna vimlesh ji ….
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वर्ड वेरिफिकेशन क्या है और कैसे हटायें ?
संवेदना और सद्भावना से रीते आज के मानव को सडक पर पडी लाश के बारे में जानकारी लेने और अस्पताल तक पहुंचाने के बाद गवाही के लिये कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने का समय ही कहां है?
"फ़ुट पाथ पर पडा था वो भूख से मरा था
कुर्ता हटा के देखा-उसके पेट पर लिखा था
्सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा"
बहुत उम्दा रचना, बधाई.
वर्ड वेरिपिकेशन हटा लें तो टिप्पणी करने में सुविधा होगी. बस एक निवेदन है.
डेश बोर्ड से सेटिंग में जायें फिर सेटिंग से कमेंट में और सबसे नीचे- शो वर्ड वेरीफिकेशन में ’नहीं’ चुन लें, बस!!!
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
सच से रूबरू कराती के बेहतरीन प्रस्तुति …
भावनाओं को झिंझोड़ने में सफल ….
टिप्पणीकर्ता :
सउदी अरब के किसी शहर में बैठा एक गैरजिम्मेदार नागरिक
This comment has been removed by the author.
bhaut sahi likha hai har mudda
sakhi
अच्छा लिखा है,
bahut achcha hai….sach ko sach ki tarah kah pana agar hota itna aasan…to ye duniya kuch aur hi hoti…very true…
इस रचना को इतना प्यार देने के लिए हार्दिक कृतज्ञता…
आप हिंदी में लिखते हैं। अच्छा लगता है। मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं……….हिंदी ब्लॉग जगत में आपका स्वागत हैं…..बधाई स्वीकार करें…..हमारे ब्लॉग पर आकर अपने विचार प्रस्तुत करें…..|
हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें
bimleshji
2nd may ke karykram ka kya hua
कली बेंच देगें चमन बेंच देगें,
धरा बेंच देगें गगन बेंच देगें,
कलम के पुजारी अगर सो गये तो
ये धन के पुजारी वतन बेंच देगें।
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भाई बिमलेश जी,आपकी कविताएँ अनहद मे पढी बहुत मार्मिक हैं।बधाई स्वीकारें।