रविन्द्र, सच सिर्फ वही नहीं होता जो दिखता है, उसके आगे भी सच के कई छोर होते हैं। मुझे इस बात का कोई मलाल नहीं कि तुम उन छोरों तक पहुँचने की कोशिश नहीं करते कभी —कम से कम मेरे मामले में तो कभी भी नहीं। लेकिन यदि लंबे समय तक अगर तुम सचमुच लिखना चाहते हो तो सच के उन अंधेरे गह्वरों में तुम्हे जाना ही होगा। मेरे लिए नहीं रविन्द्र अपनी रचना की बेचैनी के लिए। और तुम वहाँ जाकर ही खुद को बचा भी पाओगे।
यह सही है कि अपने कुछ न लिख पाने का कोई सही कारण तुम्हे नहीं बता पाता। लेकिन जरा सोचो, क्या भाषा के पास उतनी ताकत है कि न कह सकने को भी अपनी छाती पर धारण कर सके? उतनी ही शिद्दत के साथ?
मेरा न कहा हुआ मेरे कहे हुए से ज्यादा महत्वपूर्ण है मेरे भाई……उसे सुनो कभी अपने एकांत में । जिस दिन सुन लोगे, उस दिन मेरे सामने यह प्रश्न कभी नहीं रखोगे, कि मेरे इस निष्क्रिय उदासी के छोर किन घाटियों के किन अतल गह्वरों में सांस की आस में तड़प रहे हैं…
भाई!हम सवल नहीं करते-आपसे प्रेम करते हैं.
रविन्द्र