यह समय मौकापरस्तों और सट्टेबाजों का समय है। इस समय सबसे ज्यादा खतरा हमारे संस्कृति को है। यह इसलिए कि कभी हमारी संस्कृति की जान समझे जाने वाले जीवन मूल्य आज बेमानी साबित होते जा रहे हैं। आज एक इमानदार आदमी खुद को ‘बैकडेटेड’ और ‘मिसफिट’ महसूस कर रहा है तो इसके कारण कहीं न कहीं हमारे इस समय में है जो आदमी को आदमी से अलग एक यंत्र में तब्दील करता जा रहा है। और भारी संख्या उन लोगों की है जो समय के साथ चलने में ही अपनी सफलता मान रहे हैं। जो चल नहीं पा रहे और प्रतिरोध में खड़े हैं उन्हें समय और समाज हाशिए पर ठेलता जा रहा है। क्या यही वजह नहीं है कि साहित्य, संस्कृति और समाज के लिए हमें एकजूट होने की जरूरत है।
हमें एकजूट ही नहीं होना अपने मन को खंगालना भी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम साहित्य और संस्कृति का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए या अपनी कद ऊंची करने के लिए कर रहे हैं। यदि ऐसी बात है तो हम भी समय की मार के शिकार हो गए हैं। और उससे भी अधिक खतरा यह कि हमने मान लिया है कि मूल्यों की बात पुरानी हो गई, यह समय सबकुछ को, चाहे वह मानवता के लिए कितना भी खतरनाक क्युं न हो, तिलांजली देकर खुद को सफल साबित करने का है।
हमें याद रखना होगा कि संस्कृति सिर्फ अपनों के लिए नहीं होती, सबके लिए होती है। जो अपनों के साथ ही दूसरों के लिए भी उतनी ही शिद्दत से सोचते हैं, साहित्य और संस्कृति से उनका ही जुड़ाव समझना चाहिए। जो अपनी लोकप्रियता और अपनों की भलाई में लग गए वे समय के रंग में रंग गए। इस समय सबसे खतरा ऐसे ही लोगों से है क्यूंकि समय के सट्टेबाज और मौकापरस्त चाल से लड़ने के लिए सच्चे संस्कृतिकर्मी, सच्चे साहित्यसेवी और निष्काम समाजचिंतकों की जरूरत है, रंगे सियारों से काम नहीं चलने का।
साहित्य और संस्कृति का भला तब तक नहीं हो सकता जब तक कि मौकापरस्त और सट्टेबाज लोग साहित्य संस्कृति और समाज के केन्द्र में बने रहेंगे।
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