युवा कवि आनन्द गुप्ता के प्रश्न और अग्रज कवि बोधिसत्व के जवाब
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बोधिसत्व |
(1) नई सदी में युवाओं की कविता को आप किस दृष्टि से देखते हैं ? आज की युवा कविता में पहले से क्या भिन्नता है?
इस एक प्रश्न में दो प्रश्न शामिल हैं। पहले प्रश्न के उत्तर में यह कहना है कि आज की युवा कविता हड़बड़ी और उत्तेजना की कविता है। वह कवि क्रोध में है लेकिन क्रोध को सही दिशा नहीं दे पाने के कारण वह सबसे या तो खिन्नता प्रकट कर रहा है या प्रश्न कर रहा है। कवि के “मैं “ का एक रीतिकाल सा बन गया है। आज के कवि का मैं पिछे के कवि के के ” मैं “ से भिन्न नहीं मात्र विस्तार या प्रसार है। कविता में आने वाला मैं एक रोग का रूप ले चुका है। पीछे की कविता में भी मैं था किंतु कभी कभार वह मैं का स्वर विराम भी पा जाता था। पीछे की कविता से भिन्नता के नाम पर ऐसा कोई बड़ा भेद नहीं अर्जित कर पाई है युवा कविता। अगर बात कठोर न लगे तो मैं कहना चाहूँगा कि वह एक प्रकार से अपनी पिछली पीढ़ी की अनुगामिनी ही होके रह गई है या प्रतिलिपि की तरह है। यदा कदा कुछ कवि एक अलग मुद्रा लेते दिखते हैं। लेकिन वे भी शीघ्र ही शामिल बाजा बजाने लगते हैं। मैं जिन कुछ कवियों का नामोल्लेख करना चाहूँगा जिनकी कविता पिछली पीढ़ी से अलग दिखती है। वे हैं राकेश रंजन, अदनान कफील दरवेश व्योमेश शुक्ल, विवेक निराला, अंशुल त्रिपाठी, अनुज लुगुन। खेद की बात है कि मेरे गिनाए नामों में मैं किसी कवयित्री का नाम नहीं शामिल कर पा रहूँ।
आज की कविता को बाज़ार ने कितना प्रभावित किया है ?
आज की कविता बाजार से प्रभावित नहीं बल्कि आक्रांत है। हालाकि आक्रांत होना भी एक प्रकार से प्रभावित होना ही है। कविता का विकट और तनिक धुंधला पक्ष यह है कि वह बाजार में रह कर भी बाजार की विसंगतियों से विचलित होने के स्थान पर उससे बेखबर सी है। ऐसा लगता है कि कवि के समय का बाजार किसी दूसरे ग्रह को ग्रस रहा है। हुआ यह है कि बाजार से लड़ने की मुद्रा में कविता केवल भंगिमा तक सीमित हो गई है। जबकि यथार्थ बेहद कराल है, क्रूर है और कविता का उद्देश्य केवल संघर्ष करना भर ही नहीं है।
क्या आपको लगता है कि सोशल मीडिया ने आज की युवा कविता को एक नई दिशा और ज़मीन दी है ?
सोशल मीडिया ने युवा कविता को बेशक एक नई दिशा और जमीन दी है। अब वह दिशा कितनी धूसर और जमीन कितनी दलदली है या कितनी बंजर है या कितनी नोना मिट्टी वाली है यह तय होना बाकी है। असल में सोशल मीडिया में इतनी चकाचौंध है कि एक नहीं कई-कई पीढ़िया एक साथ डूब उतरा रही हैं। खास कर युवा और युवतर कविता रचनेवाला वर्ग का सब कुछ विराट भव्यता में ऊभ-चूभ कर रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि युवा वर्ग सोशल मीडिया को आत्मरति के ऊपर जाकर अपने लिए एक व्यापक सामाजिक सरोकार के मंच के रूप में उपयोग करेगा। क्योंकि ऐसी सामाजिक संवेदना और लगाव के लिए खुली खिड़की पिछले किसी युग में कला साहित्य के किसी माध्यम को प्राप्य न थी।
नयी सदी में बड़ी संख्या में कवि अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं , इसके क्या कारण हैं ?
यह बड़ी संख्या मीडिया खास कर सोशल मीडिया के कारण सामने आ पा रही है। समय और समाज को तकनीकी बदलाव का बड़ा आधार मिला है। अपनी बात कहने और बिना किसी संपादक-पत्रिका-प्रकाशन संस्थान का मुंह देखे कवि सीधे अपना प्रकाशक-संपादक और प्रकाशन संस्थान स्वयं हो गया है। ऐसे में आने वाले दिनों में कवियोंकी संख्या में अनेक स्तरीय वृद्धि देखने को मिलेगी। पिछली हो चली पीढ़ी के कवियों संपादकों को ऐसे अचानक और बिना बुलाए आ रहे कवियोंके लिए उनका उचित स्थान देने पर हार्दिक विचार करना चाहिए। जब मैं कवियों कह रहा हूँ तो इसमें कवयित्रियों को भी शामिल माना जाए।
आज की कविता में लोक संवेदना का कितना विस्तार हुआ है ?
आज की कविता में लोक संवेदना का विस्तार मेरे अनुसार कम हुआ है। कविता का स्वर अधिक नागर और सुसंस्कृत हुई । प्राकृत और देसज का संसार संकुचित हुआ है। लोक संवेदना भी शास्त्रीयता को प्राप्त होती लग रही है। पिछली पीढ़ी के कवियों ने भी लोक की संवेदना को बेहद किताबी मानकों तक सीमित किया है। वैसे तथ्य यह है कि लोक में भी लोक कहाँ बहुत शेष रह गया है। बल्कि लोक में से लोक विलुप्त होता प्रतीत हो रहा है।
युवा कविता में विचारधारा की क्या जगह है ?
युवा कविता बहुत तेजी से तात्कालिकता के प्रभाव में आई है। अगर यहाँ विचारधारा से तात्पर्य प्रगतिशीलता या मार्क्सवाद से है तो यह एक चिंतित करनेवाली बात है कि आज का युवा अध्ययन को गंभीरता से शायद नहीं लेता। मैंने निजी तौर पर अनेक कवियों से यह जानने की कोशिश की कि वे पुराना साहित्य और वैचारिक गंभीरता के लिए के लिए क्या पढ़ रहे हैं तो यह रहस्य सामने आया कि वे तो पिछला साहित्य नाम मात्र के लिए ही पढ़ रहे हैं और विचारधारा के प्रवाह से वे किंचित मुक्त हो चले हैं। वह दिन दूर नहीं कि शायद युवा यह कहने लगें कि उनकी कोई विचारधारा नहीं। यानी हम उस मुहाने पर खड़े हैं जबकि युवाओं की विचारहीनता ही उनके लिए एक महाविचार का रूप ले ले।
कविता कोकिस हद तक प्रतिरोध के सांस्कृतिक औज़ार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है और किस हद तक इसका लक्ष्य सौंदर्यबोध है ?
कविता अगर स्वभाविक रूप से प्रतिरोध का औजार या अस्त्र बने तो इससे बेहतर क्या और अगर उसे योजना बद्ध तरीके से प्रतिरोध का औजार या अस्त्र बनाया जाए तो उसके लिए इससे अधिक धोखाधड़ी और क्या हो सकती है। क्योंकि कविता जनता के लिए अस्त्र और औजार से अधिक रही है। वह सांस्कृतिक संजीवनी रही है। प्राण वायु और सभ्यता का साकार सत्य रही है। यह कविता का सबसे कठिन अवमूल्यन है कि वह समाज में एक टूल की तरह इस्तेमाल हो। हो सकता है अनेक लोग या कवि स्वयं कविता को अस्त्र बना कर खुश हों कितना कविता तो अनेक उद्देश्यीय अवदान है जो कि हजारों साल से समाज के हारे गाढ़े काम आती रही है। समाज को केवल संघर्ष ही नहीं सुख में आत्मरति के पालने से बाहर लाती रही है। इसीलिए लोक का साराय गायन सामूहिक कंठ में फूटता और विस्तार पाता है। कविता यदि अस्त्र या औजार बन कर हीनता को प्राप्त होती है तो वह केवल सौंदर्य की भी वस्तु नहीं। कविता शोभाकर नहीं। यहीं कविता चित्रकला और मूर्तिकला या संगीत से अपना दायरा बड़ा कर लेती है। वह समाज के सौदर्य का नहीं बल्कि समाज के मन का सौंदर्य विस्तार करती है। और समाज के मन में अनेक लोक शामिल रहते हैं। इसलिए मैं जोर देकर कहना चाहूँगा कि कविता को तात्कालिक उद्देश्य परकता से मुक्त किया जाना चाहिए।वह न मनोंजन का साधन है न सौंदर्य का न प्रतिरोधी अस्त्र और औजार ही है। कविता एक सांस्कृतिक औषधि है जो कभी संजीवनी बनती है तो कभी संवेदना का स्वर। इसके बाद वह संघर्ष के काम आए तो सोने पर सुहागा।
नई सदी की कविता का ईमानदार , प्रामाणिक और समग्र मूल्यांकन अभी बाकी
है, इस संबंध में क्या संभव है ? यह किसकी व्यर्थता है कवि की या आलोचक की ?
इस प्रश्न में भी एक साथ दो या तीन प्रश्न शामिल हैं। नई सदी की कविता ने तो अभी केवल 18 साल की ही यात्रा पूरी की है। अभी तो पिछली सदी के उत्तरार्ध की कविता का भी कोई गंभीर और सार्थक मूल्यांकन कहाँ हो पाया है। या कहें कि कोई प्रामाणिक मूल्यांकन कहाँ हुआ है। पिछले पचास साल की कविता का जिसमें इस सदी के ये 18 साल भी शामिल हैं मूल्यांकन के लिए प्रतीक्षारत हैं। लेकिन यह समय स्फुट समीक्षकों का है। आलोचक तो कोई है नहीं । आज की युवा पीढ़ी के साथ यह परम दुर्योग घटा है कि उसके अपने आलोचक नहीं। रास्ता एक ही है कि कवि अपनी कविता के लिए स्वयं आलोचक की भूमिका तय करे। अगर हम याद करें तो पाएँगे कि छायावादी कवियों ने अपनी कविता की आलोचना के लिए अपने को आलोचक बनाया था। फुटकर समीक्षकों के बूते आजकी युवा कविता का समग्र आंकलन कर पाना संभव बी नहीं रह गया है। आलोचक चूक गए हैं। और उनकी आलोचना दृष्टि पर युवा कवि और उनकी कविता ने इतनी धूल उड़ा दी है कि वे हताश से आलोचक की जगह दर्शक में दब्दील हो गए हैं।
समाज में कविता की उपयोगिता कितनी बची है?
आदिम काल से लेकर आज तक जो भी समाज हो वह सुख में हो या दुख में हो वह तो गाएगा, गुनगुनाएगा, मंत्र की तरह बुदबुदाएगा, भजेगा, जपेगा, उच्चारेगा । कभी स्फुट कभी सस्वर कभी आलाप में तो कभी अजपाजाप में। उसके लिए आज की कविता सटीक न बैठी तो वह अदेर पुरानी कविता को साध लेगा। वह भी न हुई तो लोक से कुछ निकाल लाएगा। लोक ने साथ न दिया तो वह कुछ गढ़ लेगा। ऐसा कौन सा प्रयोजन है जिसमें कविता को स्थान न दिया गया हो। कभी मंगल गान के रूप में कभी मांगलिक मंत्र के रूप में। जन्म से मरण तक कविता का आवरण कविता की छाया साथ रहती है। समाज में अनेक स्तरों पर कविता ने नेक रूपों में अपना होना सुनिश्चित किया है । छंद-मंत्र-श्लोक-कवित्त-आल्हा-बिरहा-कव्वाली-गजल-शेर-दोहाइन तमाम और अनगिनत शैलियों में कविता का स्थान है। अव यह आज की कविता पर निर्भर करता है कि वह अपने लिए व्यापक और विविध समाज में कोई स्थान बना ले या स्वयं कठिन काव्य का प्रेत हो कर मिटा ले। यह कविता के साथ कवियों पर भी निर्भर करेगा कि वे कविता एक असामाजिक उत्पाद बना दें या संजीवनी।
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आनन्द गुप्ता |
साभार – वागर्थ, कोलकाता
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad