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Home कविता

रामजी यादव की कविताएं

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in कविता, साहित्य
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13
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रामजी यादव

रामजी यादव कहानी और कथा दोनों ही विधाओं में समान रूप से सक्रिय हैं। उनकी कहानियों में गांव और कस्बे की विद्रुपताएं अपने यथार्थ एवं मार्मिक रूप में प्रस्तुत हुई हैं। कवि के रूप में रामजी यादव अपनी कथन की भंगिमा और बिंबों की सरल और संवेदनात्मक गहराइयों की बदौलत अलग से पहचाने जा सकते हैं। वे बहुत ही मद्धिम स्वर में अपनी बात जोरदार ढंग से कहने में सक्षम हैं – यही कारण है कि उनकी यहां प्रस्तुत कविताएं अपने कई पाठ के बाद भी हमारे जेहन में बची रहती हैं – हमें कुरेदती-उद्वेलित करती। रामजी यादव की ये कविताएं यह अहसास दिलाती हैं कि वे एक संजीदा कवि हैं और उनकी कविताएं पाठकों तक संजीदगी से पहुंचनी चाहिए। इस बार प्रस्तुत है अनहद पर रामजी यादव की ताजातरीन कविताएं..। आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार तो रहेगा ही..।
                 
               
दिल्ली
एक दिन चले जायेंगे वे सभी जो कभी आये थे
दिल्ली में इस सपने के साथ कि यहीं रहेंगे
रचेंगे कवितायेँ और सुने जायेंगे देशभर में
क्योंकि यहीं से जाती है आवाज हर कहीं
और यहीं पर है जंतर-मंतर

एक दिन भूल जायेंगे अपने जन्म-जनपद को
करेंगे कभी-कभी याद और तरस खायेंगे उसके सुविधाहीन पर्यावरण पर

इमारतों के इस बियाबान में जिन्होंने तलाशे थे कुछ पते
और पहुँचते हुए यदा-कदा शामिल हो जाते छंटी हुई भीड़ में
इस तरह वे समझते कि वे एक सांस्कृतिक पर्यावरण में हैं

बहुत देर बाद उन्हें भान हुआ कि दलालों की इस बस्ती में
एक दिन वही बचेगा जो अफसर होगा
या दो-चार अफसरों से कर सकता है यारबाशी
वही पायेगा कोई पुरस्कार और माना जायेगा वही कुछ
जो लिख देगा उनकी किताब की एक समीक्षा


जो बात करेगा इसके विरुद्ध
जो बात करेगा जनता के बारे में
जो बात करेगा सांस्कृतिक एडल्ट्रेशन के खिलाफ
जो बात करेगा कि रुलाई और रुलाई में फर्क होता है
जो बात करेगा कि मुस्कान और मुस्कान में फर्क होता है
जो करेगा इंगित कि कुछ लोग जोर से रोते हैं इसलिए की पीढ़ियों से जानते हैं रोने की कला
बिना मुद्दे को व्यक्त करते हैं कुछ अदृश्य दुःख 
मुस्कराते हैं कुछ लोग कि निर्मम तंत्र के खिलाफ अपना वजूद बचा सकें
भूख से लड़ने और कातरता से बचने के लिए साथ-साथ चलनेवाली कार्रवाई
के दोहरे दायित्व से जो संपन्न करेंगे कविता को

वे बेरोजगार मार दिए जायेंगे बेमुरौव्वत
हंस लिया जायेगा सरेआम उनकी बेबसी पर
बाहर कर दिया जायेगा शब्दों की दुनिया से
फिर भी सत्ताएं रखेंगी उन्हीं से सहानुभूति की उम्मीद

हर जगह से लोग जासूसी करेंगे कि कब उठाते हैं वे दया के लिए अपने हाथ

जिन्होंने इस शहर को महसूस किया होगा अपनी धमनियों में
और एक मोहल्ले की तरह जिया होगा उसे हर साँस में
और उसके सौन्दर्य को देखा होगा मनुष्यता की लाज की तरह
वे खदेड़ दिए जायेंगे एक दिन वहां से बेरहमी से

भारत के न जाने किन कोने-अंतरों से आये वे लोग
जो विचारों से संपन्न होंगे और भाषा को ले जायेंगे एक दिन जिंदगी के दरवाजे तक
फिर से बिखर जायेंगे न जाने कहाँ-कहाँ
आगरा , मथुरा , बनारस और कानपुर
मुंबई , बडौदा , लातूर और किशनगंज
और रह जायेंगे एक नाम की तरह पानी पर लिखे गए

क्यों चले जायेंगे वे आखिर इस शहर से ?
क्या डंकल से ओबामा के दौर तक
मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलुवालिया के निजाम तक
उससे भी आगे और आगे ढेरों बरस

ज़रुरत है दिल्ली को बस ऐसे लोगों की जो नफ़ीस हों दिखने में
लेकिन सपने मर गए हों उनके या बिक गए हो सत्ता के हाथ
क्लर्क हों ,अफसर हों , कातिल हों , जाहिल हों
बस जनता की बात न करें

और सोचें न कविता यात्रा निकालने के बारे में !!
        
एक दिन हो जाऊंगा मैं एकदम असली इंसान

 
किसी स्त्री ने इस कदर नहीं छुआ मन को
कि सारी आकांक्षाएं लगी हों तुच्छ

ह्रिदय में कभी नहीं भरा इतना आवेग
कि मुझे लगा हो कि नितांत मेरा समय है यह

कभी मैंने किसी ठूंठे पेड़ को भी न देखा ऐसे
कि उसे मान लूं एक इतिहास

मैं हर पक्षी के लिए चितित हूँ
— और उन घासों के लिए भी
जो हमारी दुधारू गाय-भैंसों 
और खटेल बैलों को देती हैं जीवन

जिन्हें बड़े आराम से चरती हैं बकरियां पहाड़ों पर चढ़कर 
गदहे और घोड़े भी साथ-साथ लेते हैं लुत्फ़

मैं सभ्यता के उन आदिम समाजों के लिए चिंतित हूँ
जो आज भी नहीं यकीन रखते सिक्कों की खनक में
जो आज भी लेते हैं धरती से उतना ही जितने में चल सके जीवन
और उतना ही लेकर रहते हैं इस कदर अहसानमंद
कि आजतक न किसी क्रीम को छूते हैं और न डिस्परीन ही लिया
जो आज भी बंधे हैं प्रकृति से इतने गहरे
कि हजारों हिंस्र , लालची हत्यारों से लगातार घिरने के बावजूद
पलायन करने से बेहतर समझा है लड़ना
और रोज ही अर्पित कर देते हैं अपना इतना खून
कि बंदूकों और डायनामाइट से थरथराते जंगलों ने भी
हरे रहने की हिम्मत बचा रखी है अपने भीतर अभी

उन जंगलों के भविष्य को लेकर इतना चिंतित होने लगा हूँ
जो तुम्हारे शहर के लिए जाते हुए मिलेंगे
मैं चाहता हूँ बने रहें वे
और हाथ हिलाते हुए कहें गाते हुए कि ठीक है तुम्हारा हालचाल !

तुम उतनी ही नम आँखों से जीती हो जीवन
जितनी नमी चाहिए धरती की उर्वरता के लिए

मैं चाहता हूँ रहें वे हरे भरे इतने कि मेरे दिल को भांप कर हंस पड़े
कि एक पागल ने देखो एक नदी का रुख  किया है
एक नदी भी देखो कितनी बेसुध और उजली

न जाने किस भाषा में भेजती है सन्देश
कि दो नहीं हज़ार दिल साथ ही धडकते हैं !!
अमरफल किसी की किस्मत में नहीं 
भर्तृहरी ने सोचा कि केवल रानी है सुपात्र
और केवल वही खाएगी अमरफल और देखूंगा उसे चिरसुंदर
रानी ने सोचा कि अगर चिरयुवा रहेगा सेनापति
तो मुदित रहूँगी मैं भी जियूँगी एक अमरप्रेम का सुख
सेनापति निबहुरा फंसा हुआ सोचता था अपने को
गिन्नियों के बदले सौंपता था शरीर
बेवफा ने रानी को ही माना बेवफा और दे आया गणिका को
गणिका ने सोचा सेनापति का क्या ! मारा जाएगा कभी भी
या हो सकता है उसके सीने पर सूंघा हो रानी के इत्र की खुशबू
या हो सकता है सोचा हो उसने कि प्रेम ही करूँ तो क्यों न राजा से करूँ
बीच में क्यों रहूँ टंगकर और एक खरे सौदे की तरह उसने भी सौंप दिया राजा को
और चाहा कि राजा उसे दिल न दे न सही एक सच्ची मुस्कान तो दे 
ताकि भरी रहें स्मृतियाँ और सार्थकता का मिले एक बहाना

पता नहीं राजा को ज्ञान मिला या वैराग
लेकिन अमरफल किसी की किस्मत में न था

हे प्रेमिकाओ ! निषेध करो , निषेध करो , निषेध करो सत्ता का
बांटो अमरफल और चुनो सुपात्र
हे प्रेमियो ! झुकना सीखो और उतरना सीखो स्त्री के मन के आँगन
तानाशाह की तरह उतरे तो नहीं पाओगे अमरफल
और थूकेंगी पीढ़ियाँ तुम्हारे दुर्भाग्य पर !
कितना विपर्यय है और कितनी देर बाद में समझ आया
जो खोजते हैं जीवन का सौंदर्य वे केवल पागलपन ही बचा पाते हैं अपना
बहुत कुछ खो देते हैं दुनिया का और बहुत कुछ बेकार हो जाता है उनके लिए
बहुत कुछ को कूड़ा समझते हुये दूर चले जाते हैं बहुत कुछ से
एक-एक सांस को लगा देते हैं विद्रूपता के नुकसान में
अपने सारे आविष्कारों को सौंप कर चले जाते हैं ऐसे
जैसे इतने ही अपराध हो पाये हों सम्पूर्ण सामर्थ्य से
बस एक विनम्र सी चुपचाप अनुपस्थिति में उपस्थित रहते हुये
एक आकर्षक और दुर्निवार पागलपन छोड़ जाते हैं वे

कितना विपर्यय है और कितनी देर बाद में समझ आया
कि कितनी चतुराई से खड़ी हैं सारी सत्तायेँ पागलपन के विरुद्ध
कितनी मुस्तैदी से अकड़ा है जज अपनी कुर्सी पर
कितनी निर्ममता से सूंघ रहा है सिपाही अपना आसपास
कितनी बेशर्मी से संचालित है संसद उनके इशारे पर
जो एक ही दिन में पी जाना चाहते हैं सारे समुंदर
खा जाना चाहते हैं एक ही निवाले में समूची धरती
चबा जाना चाहते हैं एक साथ सारे के सारे जंगल
बाक्साइट और लोहे और कोयले और अबरख की खदानों के लिए
गाँव के गाँव तबाह करना बहुत मामूली है जिनके लिए
वे सबसे अधिक विचलित हैं पागलपन से भरे उन लोगों से
जो जीवन सौन्दर्य ढूंढते हुये उठा रहे हैं उनकी तरफ उंगली

कितने षडयंत्रों से मारा जाता है उसे जिसमें जरा सा भी दिखता ही पागलपन
जो कह पाता है कि असंख्य जोंकों और परजीवियों से ग्रस्त जीवन नहीं है विकास


जीवन के सौंदर्य की खोज में निकले और
अपने पागलपन को बचाते हुये जो हो गए अनुपस्थित
उनके एक वंशज की तरह देख रहा हूँ मैं सौंदर्य
और कोई भीतर से कह रहा है अनवरत
कि अगर बचाए रखे अपना पागलपन
तो बचेंगी सारी संभावनाएं और सौंदर्य भी अवश्य !
तुम्हारा होना बिना शब्दों के संदेश में भी वैसे ही है जैसे तुम सचमुच हो
पता नहीं इसे तुमने भेजा है कि यह चला आया है जबरन
हो सकता है तुमने सोचा हो और इसे कहने वाली ही थी कुछ
कि तुम्हारी उँगलियों ने कर दी हो फर्माबरदारी
और इसने भी रास्ता नाप लिया हो ऐसे
जैसे किसी ऊंट को खोला हो ऊंटहारे ने लदनी के लिए
और वह बेसबरा बढ़ चला हो एकदम खाली पीठ
 अपनी कूबड़ को ही समझते हुये पीठ पर लदा असबाब

कभी-कभी हो उठता है ऐसा लोग कहते हैं
कि दिल वफादार हो तो हो जाती है सारी की सारी कायनात ही वफादार
और अक्सर होने लगता है ऐसा जैसा कभी नहीं चाहा किसी ने

यूं कभी चुप तो नहीं रहती तुम इतनी की शब्दों को कर दो उपेक्षित
भले ही सुनते हुये मुझे तुम कान हो जाती हो
लेकिन शब्दों से नाता तो रखती हो अटूट
तो क्या किसी और ने भेजा है इसे एकदम खाली
क्या कोई खलनायक है हमारे बीच सक्रिय
और कह रहा तुम्हारे बहाने कि तुम शब्दरहित हो मेरे लिए !

लेकिन पता है समूची सृष्टि को अब
तुम्हारा होना बिना शब्दों के संदेश में भी वैसे ही है जैसे तुम सचमुच हो
तुम्हारा होना वैसे ही बिना आकार भी है जैसे कि तुम सचमुच हो
तुम्हारा होना बिना आवाज के भी वैसे ही है जैसे सन्नाटे में मौजूद हो लय
और बिना कुछ लिखे इस संदेश में तुम उतनी हो जितनी शब्दों में सुनता हूँ तुम्हें
तुम्हारा होना सदियों की उदासी के बीच उल्लास की एक उपस्थिति है

क्या तुम भी हो रही हो उतनी ही बेखबर
कि तुम्हारी आँख में उभरती है एक तस्वीर और सक्रिय हो उठता है वातावरण
क्या तुम भी उतनी ही निकल चुकी हो अपने आपे से
कि तुम्हारी उँगलियों ने भी भुला दी है दीन दुनिया
क्या तुम उतनी ही घिर गई हो खुशियों से
कि तुम्हारा मोबाइल भी हो गया है खब्तुलहवाश
क्या तुम इस कदर हो इंतज़ार में लीन
कि लोग जिसे सच कहते हैं वह लगता है एकदम सफ़ेद झूठ

अगर शब्द होते तो पढ़ चुका होता अब तक
और आकर जा चुकी होती वापस खुशी की लहर
बिना शब्दों का यह संदेश जी रहा हूँ न जाने कब से
एक तर्क देता हूँ तो हजारों सवाल और भी सिर उठाते हैं !
किस्सा पुराना है
लाखों जंगलों की राख़ के कणों की संख्या से भी ज्यादा वर्षों पहले
तपते हुये अग्निपिंडों से पिघलते लावों के ठंडा होने से भी पहले
उससे भी पहले जब बूंदें बनना शुरू हुई होंगी पहली
पृथ्वी ने आकार लेना शुरू किया होगा उससे भी पहले
मैंने चाहा होगा तुम्हें इतनी ही शिद्दत से
और तुम न मिली होगी तो बदल गया होऊँगा कोयले में

सहस्राब्दियों तक दबा रहा होऊंगा धरती की गर्भ में
और बाहर निकाला गया होऊँगा फिर से धधकने के लिए

एक मनुष्य एक मनुष्य के लिए कोयले से भी तेज धधकता है !

 

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हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 13

  1. Neeraj Shukla says:
    12 years ago

    बेहतरीन कवितायेँ हैं ..बधाई

    Reply
  2. drsarojinitanha says:
    12 years ago

    samvedansheelata ka uchchatam star dikhayi padta hai in sabhi kavitaaon me.Rishte ,samvedana, sandesh, prem ki parakashtha,bhavanaaon ka udveg, prakriti se sannidhya aur aatmeeyata aur jindagi ki vastvikataaon se otprot hain sabhi kavitaayen.haardik badhai aur aabhaar ki aapne in kavitaaon ko padhne ka avasar diya.

    Reply
  3. amber upadhayay says:
    12 years ago

    sensitive, intense,beautiful and equally bitter with touch of truth

    Reply
  4. Ashok Kumar pandey says:
    12 years ago

    कितना विपर्यय है… मुझे ख़ासतौर पर बहुत पसंद आई. जिस तरह रामजी भाई सादे दिखने वाले शिल्प में इस कविता में अपने समय को कसौटी पर कसते और उसका जनपक्षधर अनुवाद करते चलते हैं वह आकर्षित ही नहीं आंदोलित भी करता है. कवितायें कथ्य के स्तर पर सभी मुझे जँची, लेकिन कई जगह पर लगा कि थोड़ी सी एडिटिंग इन्हें ज़्यादा मारक बना सकती थी. कहानी जहाँ विस्तार के लिए पूरा स्पेस देती है वहीँ कविता में संक्षिप्त होना बेहद ज़रूरी हो जाता है.

    Reply
  5. रामजी तिवारी says:
    12 years ago

    कविताओं में जब जीवन प्रवेश करता है , तब उनकी तासीर ऐसी ही होती है | लगता है , जैसे हम अपने समय और समाज को पढ़ रहे हैं | जाहिर है , कि कला की नपनी लिए घूम रहे आलोचकों के बर्तन में ये नहीं समा पाएंगी , लेकिन यह भी सच है , कि समाज के जीवन में जरुर जगह पायेंगी | बेहतरीन कवितायें |

    Reply
  6. Nilay Upadhyay says:
    12 years ago

    ज़रुरत है दिल्ली को
    बस ऐसे लोगों की जो नफ़ीस हों दिखने में
    लेकिन सपने मर गए हों उनके
    या बिक गए हो सत्ता के हाथ
    क्लर्क हों ,
    अफसर हों ,
    कातिल हों ,
    जाहिल हों
    बस जनता की बात न करें

    Reply
  7. Nilay Upadhyay says:
    12 years ago

    ज़रुरत है दिल्ली को बस ऐसे लोगों की जो नफ़ीस हों दिखने में
    लेकिन सपने मर गए हों उनके या बिक गए हो सत्ता के हाथ
    क्लर्क हों ,अफसर हों , कातिल हों , जाहिल हों
    बस जनता की बात न करें

    Reply
  8. Anonymous says:
    12 years ago

    कवितायेँ अद्भुत हैँ

    Reply
  9. ku kanchan rani says:
    12 years ago

    ek sadharn mnusy ki chah dikhti he aapki kvita me sir

    Reply
  10. Suman Saraswat says:
    12 years ago

    कवि रामजी यादव की ये कवितायेँ अपने परिवेश के प्रति सतत और सजग संचेतना का प्रतिफलन हैं ….

    बधाई …

    Reply
  11. विभा रानी श्रीवास्तव says:
    12 years ago

    मंगलवार 11/06/2013 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं ….
    आपके सुझावों का स्वागत है ….
    धन्यवाद !!

    Reply
  12. Madan Mohan Saxena says:
    12 years ago

    बहुत सुन्दर.बहुत बढ़िया लिखा है .शुभकामनायें आपको .
    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    http://madan-saxena.blogspot.in/
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    http://mmsaxena69.blogspot.in/

    Reply
  13. प्रज्ञा पांडेय says:
    11 years ago

    आपकी कविताओं में शब्द शब्द में आदिम जीवन मिला। बधाई दिल से।

    Reply

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