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Home कविता

अशोक कुमार पाण्डे की एक ताजी कविता

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in कविता, साहित्य
A A
33
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अशोक कुमार पाण्डे
अशोक कुमार पाण्डेय आज के समय में एक विरल रचनाकार हैं। इस अर्थ में कि उनकी रचनाएं हर बार चलकर उस आदमी के पास पहुंचती है जो सदियों से शोषित और प्रताड़ित है। बाजार के दबाव से आहत इस समय में जब कविता और कहानी लिखना भी एक ‘फैशन’ की तरह हो गया है, आशोक हर बार कविता से एक सार्थक उम्मीद तक की यात्रा करते हैं, बिना थके और लागातार। आज जबकि रचना और जीवन के एक्य की बातें बिसरा दी गई हैं, वे निजी जीवन के साथ रचना में भी महत्वपूर्ण ढंग से प्रतिबद्ध हैं..। अनहद पर इस बार प्रस्तुत है भाई अशोक की एकदम टटकी कविता… । कविता पर आपकी बेबाक प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं…।    – अनहद 




कुशीनगर में एक विशाल बुद्ध माल बन रहा है जिसे मैत्रेयी परियोजना का नाम दिया गया है. उसके लिए चार सौ गाँवों की ज़मीन का अधिग्रहण हो रहा है जिसके खिलाफ किसान लाम पर हैं.

यह कविता उनकी ही ओर से… – कवि




कितनी आश्वस्ति थी तुम्हारे होने ही से बुद्ध

दुखों की कब कमी रही इस कुशीनारा में
अविराम यात्राओं से थककर जब रुके तुम यहाँ
दुखों से हारकर ही तो नहीं सो गये चिरनिद्रा में?
कितना कम होता है एक जीवन दुख की दूरी नापने के लिये
और बस सरसों के पीलेपन जितनी होती है सुख की उम्र…

आख़िरी नहीं थी दुःख से मुक्ति के लिए तुम्हारी भटकन
हज़ार वर्षों से भटकते रहे हम देश-देशान्तरों में
कोसती रहीं कितनी ही यशोधरायें कलकतिया रेल को
पटरियाँ निहार-निहार गलते रहे हमारे शुद्धोधन

उस विशाल अर्द्धगोलीय मंदिर में लेटे हुए तुम
हमारे इतिहास से वर्तमान तक फैले हुए आक्षितिज
देखते रहे यह सब अपने अर्धमीलित नेत्रों से
और आते-जाते रहे कितने ही मौसम…

गेरुआ काशेय में लिपटे तुम्हारे सुकोमल शिष्य
अबूझ भाषाओं में लिखे तुम्हारे स्तुति गान
कितने दूर थे ये सब हमसे और फिर भी कितने समीप
उस मंदिर के चतुर्दिक फैली हरियाली में शामिल था हमारा रंग
उन भिक्षुओं के पैरों में लिपटी धूल में गंध थी हमारी
घूमते धर्मचक्रों और घंटों में हमारी भी आवाज़ गूंजती थी
और हमारे घरों की मद्धम रौशनियों में घुला हुआ था तुम्हारे अस्तित्व का उजाला

हमारे लिये तो बस तुम्हारा होना ही आश्वस्ति थी एक…

कब सोचा था कि एक दिन तुम्हारे कदमों से चलकर आयेगा दुःख
एक दिन तुम्हारे नाम पर ही नाप लिए जायेंगे ढाई कदमों से हमारे तीनों काल
यह कौन सी मैत्रेयी है बुद्ध जिसे सुख के लिये सारा संसार चाहिये?
और वे कौन से परिव्राजक तुम्हारी स्मृति के लिए चाहिए जिन्हें इतनी भव्यता?

तुम तो छोड़ आये थे न राज प्रासाद
फिर…
कौन है ये जो तुम्हें फिर से क़ैद कर देना चाहते है?
कौन हैं जो चाहते हैं चार सौ गाँवों की जागीर तुम्हारे लिए
यह कैसा स्मारक है बहुजन हिताय का जिसके कंगूरों पर खड़े इतराते हैं अभिजन?

कहो न बुद्ध
हमारा तो दुःख का रिश्ता था तुमसे
जो तुम ही जोड़ गए थे एक दिन
फिर कौन हैं ये लोग जिनसे सुख का रिश्ता है तुम्हारा?

कहाँ चले जाएँ हम दुखों की अपनी रामगठरिया लिए
किसके द्वारे फैलाएं अपनी झोली इस अंधे-बहरे समय में
जब किसी आर्त पुकार में नहीं दरवाजों के उस पार तक की यात्रा की शक्ति
कौन सा ज्ञान दिलाएगा हमें इस वंचना से मुक्ति
आसान नहीं अपने ही द्वारों के द्वारपाल हो जाने भर का संतोष
कहाँ से लाये वह असीम धैर्य जिसके नशे में डूब जाता है दर्द का एहसास
वह दृष्टि कि निर्विकार देख सकें सरसों के पौधों पर उगते पत्थरों के जंगल
निर्वासन का अर्थ निर्वाण तो नहीं होता न हर बार
और ऐसे में तो कोई स्वप्न भी अधम्म होगा न बुद्ध

कहो न बुद्ध दुःख ही क्यों हो सदा हमारे हिस्से में?
बामियान हो कि कुशीनगर हम ही क्यों हों बेदखल हर बार?
मुक्ति के तुम्हारे मन्त्र लिए हम ही क्यों हों हविष्य हर यज्ञ के ?

कहो न बुद्ध
क्या करें हम उस अट्टालिका में गूंजते
‘बुद्धं शरणम गच्छामि’ के आह्वान का



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अशोक कुमार पाण्डे
अशोक कुमार पाण्डेय आज के समय में एक विरल रचनाकार हैं। इस अर्थ में कि उनकी रचनाएं हर बार चलकर उस आदमी के पास पहुंचती है जो सदियों से शोषित और प्रताड़ित है। बाजार के दबाव से आहत इस समय में जब कविता और कहानी लिखना भी एक ‘फैशन’ की तरह हो गया है, आशोक हर बार कविता से एक सार्थक उम्मीद तक की यात्रा करते हैं, बिना थके और लागातार। आज जबकि रचना और जीवन के एक्य की बातें बिसरा दी गई हैं, वे निजी जीवन के साथ रचना में भी महत्वपूर्ण ढंग से प्रतिबद्ध हैं..। अनहद पर इस बार प्रस्तुत है भाई अशोक की एकदम टटकी कविता… । कविता पर आपकी बेबाक प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं…।    – अनहद 




कुशीनगर में एक विशाल बुद्ध माल बन रहा है जिसे मैत्रेयी परियोजना का नाम दिया गया है. उसके लिए चार सौ गाँवों की ज़मीन का अधिग्रहण हो रहा है जिसके खिलाफ किसान लाम पर हैं.

यह कविता उनकी ही ओर से… – कवि




कितनी आश्वस्ति थी तुम्हारे होने ही से बुद्ध

दुखों की कब कमी रही इस कुशीनारा में
अविराम यात्राओं से थककर जब रुके तुम यहाँ
दुखों से हारकर ही तो नहीं सो गये चिरनिद्रा में?
कितना कम होता है एक जीवन दुख की दूरी नापने के लिये
और बस सरसों के पीलेपन जितनी होती है सुख की उम्र…

आख़िरी नहीं थी दुःख से मुक्ति के लिए तुम्हारी भटकन
हज़ार वर्षों से भटकते रहे हम देश-देशान्तरों में
कोसती रहीं कितनी ही यशोधरायें कलकतिया रेल को
पटरियाँ निहार-निहार गलते रहे हमारे शुद्धोधन

उस विशाल अर्द्धगोलीय मंदिर में लेटे हुए तुम
हमारे इतिहास से वर्तमान तक फैले हुए आक्षितिज
देखते रहे यह सब अपने अर्धमीलित नेत्रों से
और आते-जाते रहे कितने ही मौसम…

गेरुआ काशेय में लिपटे तुम्हारे सुकोमल शिष्य
अबूझ भाषाओं में लिखे तुम्हारे स्तुति गान
कितने दूर थे ये सब हमसे और फिर भी कितने समीप
उस मंदिर के चतुर्दिक फैली हरियाली में शामिल था हमारा रंग
उन भिक्षुओं के पैरों में लिपटी धूल में गंध थी हमारी
घूमते धर्मचक्रों और घंटों में हमारी भी आवाज़ गूंजती थी
और हमारे घरों की मद्धम रौशनियों में घुला हुआ था तुम्हारे अस्तित्व का उजाला

हमारे लिये तो बस तुम्हारा होना ही आश्वस्ति थी एक…

कब सोचा था कि एक दिन तुम्हारे कदमों से चलकर आयेगा दुःख
एक दिन तुम्हारे नाम पर ही नाप लिए जायेंगे ढाई कदमों से हमारे तीनों काल
यह कौन सी मैत्रेयी है बुद्ध जिसे सुख के लिये सारा संसार चाहिये?
और वे कौन से परिव्राजक तुम्हारी स्मृति के लिए चाहिए जिन्हें इतनी भव्यता?

तुम तो छोड़ आये थे न राज प्रासाद
फिर…
कौन है ये जो तुम्हें फिर से क़ैद कर देना चाहते है?
कौन हैं जो चाहते हैं चार सौ गाँवों की जागीर तुम्हारे लिए
यह कैसा स्मारक है बहुजन हिताय का जिसके कंगूरों पर खड़े इतराते हैं अभिजन?

कहो न बुद्ध
हमारा तो दुःख का रिश्ता था तुमसे
जो तुम ही जोड़ गए थे एक दिन
फिर कौन हैं ये लोग जिनसे सुख का रिश्ता है तुम्हारा?

कहाँ चले जाएँ हम दुखों की अपनी रामगठरिया लिए
किसके द्वारे फैलाएं अपनी झोली इस अंधे-बहरे समय में
जब किसी आर्त पुकार में नहीं दरवाजों के उस पार तक की यात्रा की शक्ति
कौन सा ज्ञान दिलाएगा हमें इस वंचना से मुक्ति
आसान नहीं अपने ही द्वारों के द्वारपाल हो जाने भर का संतोष
कहाँ से लाये वह असीम धैर्य जिसके नशे में डूब जाता है दर्द का एहसास
वह दृष्टि कि निर्विकार देख सकें सरसों के पौधों पर उगते पत्थरों के जंगल
निर्वासन का अर्थ निर्वाण तो नहीं होता न हर बार
और ऐसे में तो कोई स्वप्न भी अधम्म होगा न बुद्ध

कहो न बुद्ध दुःख ही क्यों हो सदा हमारे हिस्से में?
बामियान हो कि कुशीनगर हम ही क्यों हों बेदखल हर बार?
मुक्ति के तुम्हारे मन्त्र लिए हम ही क्यों हों हविष्य हर यज्ञ के ?

कहो न बुद्ध
क्या करें हम उस अट्टालिका में गूंजते
‘बुद्धं शरणम गच्छामि’ के आह्वान का



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Comments 33

  1. vijay singh says:
    14 years ago

    कहो न बुद्ध
    हमारा तो दुःख का रिश्ता था तुमसे
    जो तुम ही जोड़ गए थे एक दिन
    फिर कौन हैं ये लोग जिनसे सुख का रिश्ता है तुम्हारा?….

    Reply
  2. Shyam Bihari Shyamal says:
    14 years ago

    सचमुच, बुद्ध से यह अद्भुत और अभूतपूर्व संवाद संभव किया है भाई अशोक कुमार पांडेय ने। अपने समय की ओर से खड़ा होकर… वकील या फरियादी के रूप में या अंतत: कालकवि बनकर। यह कविता बताती है कि सतर्क प्रयोग करके कैसे नितांत मिथकीय संदर्भों को भी ज्‍वलंत, जनपक्षीय और समकालीन आयाम दिया जा सकता है। कवि को बधाई… प्रस्‍तुति के लिए 'अनहद' का आभार…

    Reply
  3. रवि कुमार, रावतभाटा says:
    14 years ago

    कहो न बुद्ध दुःख ही क्यों हो सदा हमारे हिस्से में?
    बामियान हो कि कुशीनगर हम ही क्यों हों बेदखल हर बार?
    मुक्ति के तुम्हारे मन्त्र लिए हम ही क्यों हों हविष्य हर यज्ञ के ?

    एक बेहतरीन कविता…

    Reply
  4. अपर्णा says:
    14 years ago

    sashakt rachna .. Ashok ki kavitaon ki sampreshniyata dekhte banati hai .. ye seedhe asar karti hain.

    Reply
  5. बाबुषा says:
    14 years ago

    हमारे लिये तो बस तुम्हारा होना ही आश्वस्ति थी एक…

    इस के बाद कविता करवट बदलती है ..और लगातार पढ़ने वाले को झकझोरती है ! और कविता ख़तम होने के बाद आराम कक्ष में चली जाती है और पढ़ने वाला ….. जागता रहता है.

    Reply
  6. prabhat ranjan says:
    14 years ago

    तुम देखते रहे यह सब अपने अर्धमीलित नेत्रों से
    और आते-जाते रहे कितने ही मौसम… कविता कहाँ से शुरु होकर कहाँ कहाँ तक जाती है.वाह.

    Reply
  7. Dr.R.N.Tripathi says:
    14 years ago

    कविता बेहद अच्छी है। कवि और प्रस्तुतकर्ता दोनों को आभार!प्रथम दो पद थोड़े कमज़ोर लगे पर बाद में कविता बेहद अच्छी बनती गई।बुद्ध के साथ संवाद के बहाने उन संगतराशों के दिलों पर छेनियाँ चलाई गई हैं, जो मिथकीय संवेदनाओं को पत्थरों पर तराश कर वोटों के बाज़ार मॆं मण्डियाँ लगाने की फ़िराक़ में लगे हैं!हाथी,बाबा और अब बुद्ध!इनके पीछे की माया को भला कौन नही जानता!

    Reply
  8. nilay says:
    14 years ago

    कितना कम होता है
    एक जीवन
    दुख की दूरी नापने के लिये
    और सरसों के पीलेपन जितनी होती है सुख की उम्र…

    Reply
  9. अविनाश says:
    14 years ago

    ताजा हमेशा ताजा होता है, वह ताजी कभी नहीं होता। कविता तो कमाल की है…

    Reply
  10. माधवी शर्मा गुलेरी says:
    14 years ago

    बेहतरीन रचना है अशोक जी! अनहद का आभार!!

    Reply
  11. "तिनका" says:
    14 years ago

    तुम तो छोड़ आये थे न राज प्रासाद
    फिर…
    कौन है ये जो तुम्हें फिर से क़ैद कर देना चाहते है?
    कौन हैं जो चाहते हैं चार सौ गाँवों की जागीर तुम्हारे लिए
    यह कैसा स्मारक है बहुजन हिताय का जिसके कंगूरों पर खड़े इतराते हैं अभिजन? …….. what an expression. Its really really a gr8 work.

    Reply
  12. प्रियंकर says:
    14 years ago

    ’कस्मै देवाय हविषा विधेम’ की तरह बड़े और ज़ुरूरी सवाल करने वाली महत्वपूर्ण कविता.

    "कहो न बुद्ध दुःख ही क्यों हो सदा हमारे हिस्से में?
    बामियान हो कि कुशीनगर हम ही क्यों हों बेदखल हर बार?
    मुक्ति के तुम्हारे मन्त्र लिए हम ही क्यों हों हविष्य हर यज्ञ के ?"

    यही तो वे सवाल हैं जिन्हें हम पूछ रहे हैं कविता में और जिनके हल हमें ढूंढने हैं जीवन में . अच्छी कविता . सच्ची कविता .

    Reply
  13. Patali-The-Village says:
    14 years ago

    कविता तो कमाल की है| धन्यवाद|

    Reply
  14. Travel Trade Service says:
    14 years ago

    अशोक जी …..दिन से कशमकश में उलझ गया …इन शब्द्वली के मायने बहुत कुछ निकलते हुए इंसानी जीवन के ….इस जीवन यात्रा में अनंत यूद्ध छिड़ा हुआ है द्वन्द का इस जीवन यात्रा में जीवन क्या है उस अन सुलझे सवालों को घेरती हुई इंसानी जिज्ञासा न खत्म होने वाली आप की शाब्दिक अभिव्यक्ति है …आज कितना जीवन को अ संतुलित करता हुआ कहा गया है शब्दों में ……..वाह ………इन्सान की निगाह आसमन में एक आशा पूर्ण तारे की और पर कही उसको हजारो निराश वादी तारों का झुण्ड दिख रहा है …कहाँ किस्से पूछे अपनी व्यथा ???….और इसी पक्ति ने मुझे झकझोरा है आपकी
    """""कहाँ चले जाएँ हम दुखों की अपनी रामगठरिया लिए…………..जब किसी आर्त पुकार में नहीं दरवाजों के उस पार तक की यात्रा की शक्ति
    कौन सा ज्ञान दिलाएगा हमें इस वंचना से मुक्ति……आसान नहीं अपने ही द्वारों के द्वारपाल हो जाने भर का संतोष
    कहाँ से लाये वह असीम धैर्य जिसके नशे में डूब जाता है दर्द का एहसास…..वह दृष्टि कि निर्विकार देख सकें सरसों के पौधों पर उगते पत्थरों के जंगल
    निर्वासन का अर्थ निर्वाण तो नहीं होता न हर बार-…..और ऐसे में तो कोई स्वप्न भी अधम्म होगा न बुद्ध"""" हे सब कुछ सहज सह्ब्दों का बोलबाला पर मनो एक एक शब्द सामने वोशल पहाड़ सा प्रतीत हुआ आप की नीर उत्तर करती कविता मुझे कही धकेल गयी …बहुत सुंदरा अन्तरग मन से निकले शब्द …..पर आप की किताब आने के बाद पहली कविता में सही में मुझे निउत्तर किया या सोचने पर विवश किया है …बहुत बधाई अशोक भाई जी
    . Nirmal Paneri

    Reply
  15. सुन्दर सृजक says:
    14 years ago

    This comment has been removed by the author.

    Reply
  16. सुन्दर सृजक says:
    14 years ago

    स्वर्णिम इतिहास रचने के आग्रही सामन्तीय सोच की इससे बड़ी उपहास और क्या होगी?यह कविता नहीं आंदोलन की नई आगाज है,उन चार सौ गावों से उजड़े हुए लोगों का क्रंदन है,अहिंसा के पुजारी पर रक्त-मांस की भेट चढ़ाने का आरोप है और तो और यह आशिक भाई के मुख से निकली शासकीय विलासिता पर विस्मित बुद्ध की ही अंतर्नाद है|
    शैली थोड़ी गद्यात्मक होने पर भी मन को छू लेने में सफल है|समसामायिक विषय का चुनाव सराहनीय है| बहुत-बहुत बधाई और धन्यवाद भी!

    Reply
  17. सुन्दर सृजक says:
    14 years ago

    This comment has been removed by the author.

    Reply
  18. विजय गौड़ says:
    14 years ago

    sundar kavita hai ashok, beshak tumhare abhi tak ke swar se thoda bhinn lekin jyada asardar aur jimmedari se likhi bhi.

    Reply
  19. Ashok Kumar pandey says:
    14 years ago

    आप सबका और भाई विमलेश का बहुत-बहुत आभार.

    Reply
  20. लीना मल्होत्रा says:
    14 years ago

    itihas ke panno se uthkar vartmaan ke 400 ganvo ke logo ke krandan ko kavita is tarah prastut karti hai ki ek baar ko budh bhi apni samadhi se uth khade honge. us ahinsa ke premi ke naam par ki jaa rahi hinsa ki yah vidamabana paathak ke man ko jhakjhor deti hai.आसान नहीं अपने ही द्वारों के द्वारपाल हो जाने भर का संतोष
    कहाँ से लाये वह असीम धैर्य जिसके नशे में डूब जाता है दर्द का एहसास
    वह दृष्टि कि निर्विकार देख सकें सरसों के पौधों पर उगते पत्थरों के जंगल
    निर्वासन का अर्थ निर्वाण तो नहीं होता न हर बार
    और ऐसे में तो कोई स्वप्न भी अधम्म होगा न बुद्ध ek behad shaandar kavita. abhaar.

    Reply
  21. manoj tiwari says:
    14 years ago

    This comment has been removed by the author.

    Reply
  22. अरुण अवध says:
    14 years ago

    यह कौन सी मैत्रेयी है बुद्ध जिसे सुख के लिये सारा संसार चाहिये?
    और वे कौन से परिव्राजक तुम्हारी स्मृति के लिए चाहिए जिन्हें इतनी भव्यता?

    बेहद सशक्त लिखा है ! कुछ लोगों के लिए यह उत्तर है और कुछ के लिए प्रश्न ! एक विचार को अग्रसारित करती है यह कविता !

    Reply
  23. neera says:
    14 years ago

    एक सशक्त रचना… परत दर परत महीनता से दुखो का खुलासा करती, बाज़ारवाद बुध के नाम को केश करने में जुटा है कवि की फ़रियाद और आरोप अन्तर्मन कचोटते हैं मुक्ति की राह दिखाने वाले को नीव में दफना कर ब्रास की प्लेट पर चमकता उसका नाम…

    कब सोचा था कि एक दिन तुम्हारे कदमों से चलकर आयेगा दुःख
    एक दिन तुम्हारे नाम पर ही नाप लिए जायेंगे ढाई कदमों से हमारे तीनों काल
    यह कौन सी मैत्रेयी है बुद्ध जिसे सुख के लिये सारा संसार चाहिये?
    और वे कौन से परिव्राजक तुम्हारी स्मृति के लिए चाहिए जिन्हें इतनी भव्यता?

    Reply
  24. Amrendra Nath Tripathi says:
    14 years ago

    आसपास घटती रहती हैं, उल्लेख की दृष्टि से अनिवार्य घटनाएँ, हिन्दी का साहित्य-सर्जक ‘खबर’ को साहित्यिक रूप में रखने में तौहीन सा समझता है, तब तो और जब खबरिया चैनलों ने खबर का मतलब बिगाड़ के रख दिया हो, अब तो हिन्दी में कोई नागार्गुन भी नहीं जो इसे चुनौती समझ निभा डाले, खबर को संवेदना की सिरजन दे..अशोक जी की इस कविता को पढ़कर थोड़ा तोष अवश्य मिला!

    Reply
  25. संतोष त्रिवेदी says:
    14 years ago

    साहित्य को समाज की चिंताओं से जोड़कर अशोक जी ने कमाल की सार्थकता सिद्ध की है.दर-असल साहित्य का उद्देश्य महज़ 'स्वान्तः सुखाय' नहीं होना चाहिए !निश्चित ही किसी संवेदनशील सरकार को यह जगाने ,झिंझोड़ने के लिए पर्याप्त है,पर ऐसी आशा करना आज के समय में व्यर्थ है.

    रचनाकार और प्रस्तुतकर्ता दोनों बधाई के पात्र हैं !

    Reply
  26. rajani kant says:
    14 years ago

    बहुत ही अच्छी कविता. फ़ेसबुक पर इसकी कुछ पंक्तियां आपने शेयर की थीं. औरों की तकलीफ़ को अपनी वाणी देना कभी आसान नहीं होता.
    बुद्ध के साथ हमेशा यही हुआ है…मूर्तिपूजा के विरोधी बुद्ध की मूर्तियां सबसे अधिक बनीं और अब बाज़ार में बुद्ध फ़ैशन में हैं…कुशीनगर में बुद्ध की आड में बाज़ार अपनी पूरी वीभत्सता के साथ खेल कर रहा है.

    Reply
  27. Neeraj says:
    14 years ago

    बेहद जरूरी कविता

    Reply
  28. Anonymous says:
    14 years ago

    good poem..

    Reply
  29. Anonymous says:
    14 years ago

    बामियान और कुशीनगर का प्रयोग राकेश रंजन अपनी कविता में इससे पहले कर चुके हैं…यहां यह संदर्भ अत्यंत लचर रूप में सामने आता है.

    Reply
  30. Anonymous says:
    14 years ago

    अद्भुत कविता….हिन्दी में प्रतिरोध के बचे-खुचे कुछ स्वरों में अशोक का स्वर सबसे तीखा और स्पष्ट है. यह कविता उसकी गवाह है…

    Reply
  31. Ashok Kumar pandey says:
    14 years ago

    आज बहुत दिनों बाद इसे अचानक देखा.
    यह एनानिमस का खंडन-मंडन मजेदार है..इन बेचेहरा मित्रों का आभार. राकेश भाई मेरे पसंदीदा कवियों में से हैं…काश वह कविता उपलब्ध करा दी जाती!
    वैसे एक कम परिचित युवा कवि पवन मेराज ने भी कुशीनगर के इस सन्दर्भ को लेकर लंबी कविता लिखी है जो वसुधा में छपी थी.

    Reply
  32. अजेय says:
    13 years ago

    तुम मुस्करा रहे हो तथागत ?

    Reply
  33. आनंद says:
    13 years ago

    तुम तो छोड़ आये थे न राज प्रासाद
    फिर…
    कौन है ये जो तुम्हें फिर से क़ैद कर देना चाहते है?
    कौन हैं जो चाहते हैं चार सौ गाँवों की जागीर तुम्हारे लिए
    यह कैसा स्मारक है बहुजन हिताय का जिसके कंगूरों पर खड़े इतराते हैं अभिजन?
    …
    ये प्रश्न है या आवाहन हैं …जो भी हैं, हैं बहुत गहरे| अशोक भाई हैं ही ऐसे!!

    Reply

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2009-2022 अनहद कोलकाता by मेराज.

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