मिथिलेश अपने कहन में अलग तरह के मुहावरे रचने वाले कवि हैं जो उनकी कविता को सीधे-सीधे लोक संवेदना से जोड़ता है। उनकी कविता में गंवई संस्कृति की अनुगूँज तो है ही साथ ही गाँव के उजड़ते जाने और मूल्यहीन होते जाने की कसक भी है। उनकी चिंता गाँव के उन लोगों के साथ जुड़ती है जो आजादी के सात दशकों के बाद भी वंचित और उपेक्षित हैं। मिथिलेश का कवि अब जवान हो रहा है हमें उसके कवित्व के अभी कई रंग और तेवर देखने हैं।
इस कवि की कविताएँ हम अनहद पर पहले भी पढ़ चुके हैं।
आज हम मिथिलेश की कुछ नई कविताएं पढ़ते हैं। आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार तो रहेगा ही।
● हम अपना दुख कीर्तन में जाकर भूल जाते हैं
जिस तरह से आप सोचते हैं
हम उस तरह से नहीं सोच पाते
मसलन जब आप तीसरी मंजिल के निर्माण के वास्ते सोच रहे होते हैं
हम अपने चूते छप्पर को देखकर चिंतित रहते हैं
जब आप चार पहिया के सपने देखते हैं
हमारे सपने में उस रात एक चमचमाती साइकिल आती है
एकबार की बात है
एक छोटी सी चीज के लिए
हम लगातार तीन दिनों तक परेशान रहे
लेकिन वह चीज हमारी पहुंच से दूर छिटकती रही
हतास होकर हमने तब यह उच्चारा
कि वह अपने भाग्य में नहीं है
और अपना मन मजूरी में रमा दिया
जो चीज हमारी पहुंच से दूर होती है
उसे हम अपने भाग्य के सिर पर मढ़ कर संतोष कर लेते हैं
हम अपना दुख कीर्तन में जाकर भूल जाते हैं
जब कुछ नहीं कर पाते हैं
ऊपर की ओर देखते हैं
और सारा दोष उसपर थोपकर
फिर से अपने काम में जुत जाते हैं
ईश्वर हमारी ही आस्था से अमृत-पान करते हैं
और युगों-युगों तक जीवित रहते हैं
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● झूठ कहा था महाजन को
झूठ कहा था महाजन को
कि अभी नहीं मिली है मजूरी
हाथ में आते ही सेवा में हाजिर हो जाऊंगा
यह भी झूठ ही था
कि अभी मक्का नहीं ले गया व्यापारी
बिकता तो मैं दरवाजे पर पहुंचा आता
पाप का तो पता है बहुत सारा
कि झूठ बोलकर बच निकलना भी
कोई पुण्य का काम नहीं
ऊपर के खाते में क्या जमा होगा
कभी नींद नहीं आती तो यही सोचते रात काटती है
कि नीचे के खाते में तो सिर्फ शून्य भरा है
मगर वे क्या करे
जो न इधर के ठहरे
और न उधर के ही माने जाएंगे
लेकिन सुनते हैं कि इस दुनिया में
अपनी जान बचाना कोई मामूली बात नहीं है
जान है तभी यह जहान है
ऊपर का किसको क्या पता
तो मजूरी का पैसा भी मिल गया था
और मक्के का आठ सौ पचास रुपैया भी हाथ ही में था
हुआ यह कि घरनी का कपड़ा चिंदी-चिंदी था
उसका उघरा बदन देखता था तो गुस्सा आ जाता था
बाजार गया तो जोड़ा साड़ी लेकर लौट आया
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● यह लहसुन को आग में भूने जाने की गमक है
आज मेरा कुछ अच्छा खाने का मन है
स्वादिष्ट सा कुछ
यह मेरी इच्छा का एक छोटा सा वाक्य था
उत्तर में मेरी बीबी ने मुझसे कहा था
कि ठीक है
तुम्हारे लिए लहसुन और हरी मिर्च को आग में भून दूंगी
तुम उसमें आम का अचार
सरसों का तेल
और नमक मिलाकर चटनी बना लेना
फिर मैं गरम-गरम रोटी बेलती जाऊंगी
और तुम मजे से खाते जाना
यह लहसुन को आग में भूने जाने की गमक है
सूखा मुंह इसी से गीला हुआ है
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● जब हँस रहा होऊंगा
जब हँस रहा होऊंगा
समझना कि सब भूल गया हूँ
चेहरे पर उदासी दिखे तो
कर्ज की याद आ गई समझना
जैसे फूल मुरझाते हैं
और देखने में बदरंग हो जाते हैं
कभी इस तरह के चेहरे पर नजर पड़े तो
बिना कुछ पूछे यह समझना
कि अभी-अभी कोई तगादा करके निकला है
जब बच्चों के साथ खेलते पकड़ लो
तो टोकना मत
उस बखत मैं उसी पल में जी रहा होऊंगा
तुम टोकोगे तो
आगे का सोचकर हतास हो जाऊंगा
बीबी के मसखरी पर
जब बदन में आग लग जाए
और गुस्से में फुंफकारने लगूं तो
यह समझ लेना कि खुद ही पर नाराज चल रहा हूँ
मुझे सोते से कभी जगाना मत
यह सोचना
कि कितनी मुश्किल से
चिंता ने नींद को रास्ता दिया होगा
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● जिनको तिथियां याद नहीं रहती
जिनको तिथियां याद नहीं रहती
वे कोई घटना याद रखते हैं
जैसे कि बाढ़
जिस बरस बाढ़ आई थी
बच्चा दो साल का था
उसको गोदी में लेकर भागे थे
हहाते पानी की आवाज से
वह बहुत डर गया था
और चुप ही नहीं हो रहा था
उसको बिलखते देखकर
जब घरवाली भी रोने लगी थी
तब हमारा कलेजा भी मुँह को आ गया था
बड़की बचिया का ब्याह
बाढ़ आने से ठीक एक बरस पहले हुआ था
अभी उसकी विदाई का दिन उचारने का सोच ही रहा था
कि नदी ने बांध तोड़ दी
वह नाव में बैठकर विदा हुई थी
बचवा बाढ़ के साल ही परदेश भागा था
खेत डूबने के दुख से जब उबरता
कलेजे के टुकड़े की चिंता में डूब जाता
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● टीन की छपरी पर बारिश की बूंदें
टीन की छपरी पर
बारिश की बूंदों का बजना अच्छा सधता है
एकबार जब मैं सीमेंट की छत वाले घर में सोया हुआ था
तब भी रात भर बारिश हुई थी
लेकिन यह बात गीली जमीन देखकर भोर में पता चला था
मुझे अपने बचपन का सबकुछ याद है
कि फूस के घर पर गिरती बूंदें
धरती पर गिर कर जब भी धुन बजाती थीं
तभी पता चल जाता था
टीन के घर से
बारिश की बूंदों का बजना सुनने का यह फायदा है
कि वहां से आवाज बड़ी साफ आती है
एक फायदा यह भी है
कि इस घर को तोड़ना आसान है
और टूटे घर को फिर से जोड़ना भी
जब कभी बारिश की बूंदें
कई-कई दिनों तक संगीत बजाती ही रहती हैं
तब नदी जोश से भर उठती है
फिर उसमें हिलोरें उठने लगती हैं
तब लगता है कि बारिश की बूंदें
नदी को उन्मत करने के लिए ही बज रही हैं
जब भी कभी ऐसा होता है
घर धमकने लगता है
हम इसलिए टीन का घर बनाते हैं
और बूंदों के संगीत को साफ-साफ सुनने
रात-रात भर जगे रहते हैं
कि इसका टूटना आसान है
कि इसको जोड़ना बहुत मुश्किल नहीं है
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● कीचड़
एकदिन जब मैं कीचड़ पर लिखूंगा
उसमें मैं क्या-क्या लिखूंगा
क्या मैं उसमें यह लिखूंगा
कि देवताओं का सर्वाधिक प्रिय फूल यहीं जन्मता है
और इसी में खिलता है
या यह कि मनुष्य इसी को किसी पर उछालकर
अपने अहं को पुष्ट कर लेता है
नहीं
मैं यह सब नहीं लिख पाऊंगा
कीचड़ पर लिखते हुए
मैं सिर्फ वही लिखूंगा
जो मेरी इन आँखों ने देखा है
जैसे कि मेरी आँखों ने
इस में धान के विरवे को पलते हुए देखा है
और इसी में उन्हें झूमते हुए देखा है
जैसे कि इसी कीचड़ में
मेरी आँखों ने
चलते हुए पांव के चेहरे को खिलते हुए देखा है
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● मिथिलेश कुमार राय
24 अक्टूबर,1982 ई0 को बिहार में सुपौल जिले के छातापुर प्रखण्ड के लालपुर गांव में जन्म।
हिंदी साहित्य में स्नातक। सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं व वेब पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
वागर्थ व साहित्य अमृत की ओर से पुरस्कृत।
कहानी स्वरटोन पर ‘द इंडियन पोस्ट ग्रेजुएट’ नाम से फीचर फिल्म का निर्माण।
लोकोदय नवलेखन सम्मान योजना के तहत कविता संकलन ‘ओस पसीना बारिश फूल’ व मंत्रिमंडल सचिवालय (राजभाषा) विभाग के अंशानुदान से ‘धूप के लिए शुक्रिया का गीत तथा अन्य कविताएँ’ प्रकाशित
कुछेक साल पत्रकारिता करने के बाद बीते पांच वर्षों से ग्रामीण क्षेत्रों में अध्यापन।
संपर्क–
मिथिलेश कुमार राय
ग्राम व पोस्ट- लालपुर
वाया- सुरपत गंज
जिला- सुपौल (बिहार)
पिन-852 137
फोन- 09546906392
ईमेल- mithileshray82@gmail. com
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