• मुखपृष्ठ
  • अनहद के बारे में
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक नियम
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
अनहद
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • समीक्षा
    • संस्मरण
    • विविध
  • कला
    • सिनेमा
    • पेंटिंग
    • नाटक
    • नृत्य और संगीत
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विविध
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • समीक्षा
    • संस्मरण
    • विविध
  • कला
    • सिनेमा
    • पेंटिंग
    • नाटक
    • नृत्य और संगीत
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विविध
No Result
View All Result
अनहद
No Result
View All Result
Home कविता

संदीप प्रसाद की कविताएँ

by Anhadkolkata
June 20, 2022
in कविता, साहित्य
A A
15
Share on FacebookShare on TwitterShare on Telegram

Related articles

जयमाला की कविताएँ

शालू शुक्ला की कविताएँ

संदीप प्रसाद

युद्धजीवी
हम लड़ना शुरू करते हैं
और चल पड़ती हैं इनकी दुकानें।
युद्धजीवी बदल देते हैं रंगों के मायने
और उनमें बुझा कर शब्दों के तीर
बरसा देतें हैं उस ओर
जहाँ बच्चे हैं,
स्कूल है
और है हमारा भविष्य।
विचार जब हथियार उठाने को कहने लगे
तब हथियार ही बन जाते हैं विचार,
ऐसे में वह युद्धजीवी
दुहाई देता है
हमारे खेतों में लहलहाते सपनों की
और यकीन दिलाता है कि सपनों को कुतरने वाले
कीड़े-मकोड़ों की
अब खैर नहीं
क्योंकि उसने अपनी असंख्य भुजाओं में
थाम लिए है अस्त्र-शस्त्र असंख्य
और तब हमारे जागने पर लगाकर पहरा
हमें भेज दिया जाता है
जबरन
एक बेहोश नींद सोने को।
नींद के पाखण्ड में डालकर हमें
वह घुसता है इतिहास में
और निकाल लाता है अपने मतलब के सामान
और बदल देता है दर्शनों की व्याख्याएं।
युद्धजीवी जो कहता है
किसी न किसी दलील पर
उसे मानना ही पड़ेगा
क्योंकि
सवाल उठाना गुनाह है
सोचना खतरनाक है
जागना जुर्म है।
कोई मतलब नहीं इस बात का
कि वह युद्धजीवी कौन है?
वह छिपकर देख रहा है–
मेरे भेष में तुम्हें
तुम्हारे भेष में मुझे।
बुद्धिजीवी
अपने स्याह कमरे में
मैं खुदगर्ज
सूँघता हूँ उनका दर्द
अपनी खिड़की से
और बाहर
वे अदद बैलों-से जुते हुए
जरूरतों का गट्ठर
पीठ पर लादकर
उनका होना
जैसे मेरे जूते पर चमकता
काला पानी
जैसे चीकट मैल की लकीर
मेरे सफेद कॉलर पर
मैं किसी अबुझ रेखा का दास
गिनता हूँ
पियराते करियाते
गायब हो चुके उनके दाँत
सोचता हूँ होकर बेसब्र
उनके कमर-घुटनों का दर्द
उनकी भूख पर देकर भाषण
खोज रहा हूँ
अपनी बदहजमी का इलाज|
इक हँसीन अदा में
मैने उन्हें सजाया है
किसी लालची मौके के बटन की कज में
शब्दों में फेंटकर कुछ बेजान दर्द
अपने बालों पे लगा लिया है
ख़िज़ाब-सा|
अब मैं हूँ उनका दरदी
अब तो हूँ मैं पूजनीय|
हरी घास पर घण्टे भर
हरी घास पर घण्टे भर
सुबह मैदान में
टहलते हुए मैं मिला
एक छुटकू प्यारे फूल से
उसने कहा- नमस्ते!
और झुककर छूने चाहे मेरे पैर
पर मैने झट-से मिला लिया हाथ
उसकी मासूम सपनीली बातें
सुनी देर तक
उसके बगल में बैठ।
मैने जाते हुए
हाथ हिलाकर उससे कहा था-
कल फिर मिलेंगे।
पर कल वह नहीं मिला।
घासों से पूछा
तो बताया
कल यहाँ हुई थी कोई सभा
और मंच से बार-बार
सबसे जोरदार
सुनायी पड़े थे शब्द-
सपने, शुरुआत, विकास।
लड़ाई
हम लड़े थे जोर-जोर
किस बात पर
याद नहीं अब
ऐ दोस्त!
पर क्या कहूँ कि
उसका असर
कायम है अब भी।
नहीं
हमेशा
नहीं का मतलब
नहीं
नहीं होता।
नहीं
हाँ भी तो है
अगर कहें
“गलत नहीं।”
‘नहीं‘ बताता है कि
हमारे लिए क्या है सही!
भ्रमर गीत
हमारी चकरघिन्नी धरती को
हो गया है बुखार
उसकी कोख
हमेशा से ज्यादा गर्म हो रही है
औ धीरे-धीरे लील रही है
माटी से उसका मातृत्व
पितृत्व आसमाँ से ।
गुलशन के फूल अब उगल रहे हैं- बू
क्योंकि उनकी जड़ें पी रही हैं खून
अंदर दबे उन नर कंकालों की
जो मार दफना दिए गये
अपनी प्रतिबद्धता के नाम पर।
मेघ अब नहीं लाते संदेशा…
मकानों के मोकियों से पसरते ज़हर से
हो गया है उनकी आँखों में मोतिया-बिंद
और बेचारा अंजाने ही कभी-कभी
छिड़क देता है धरती पर तेज़ाब ।
बासंती बयार से गायब हो रहे हैं
वे शब्द और विचार
जो हमारे पुरखों ने बूँद-बूँद कर जुटाया शीशियों में
और जिसे हमने चुटकी भर रुई में समेट
बड़े शौक से रखा अपने कान पर ।
फिजाँ से गायब है संगीत
जिसकी जगह चारो ओर चिपके हुए हैं
चीख के अनगिने तस्वीर
जिनकी वजहों को हमने कभी सोचा भी न था ।
मगर बरस पीछे
था न ऐसा कुछ यहाँ
बसंत उस हरे रंग की तरह था
जो तितली के पीले पंखों पर
किसी जादू की तरह चमकता था,
पंछियों के गीत और झरनो के कोरस को
एक लय में पिरोता था संगीतकार- दादुर,
हवाओं में तिरते थें हिमालय के फूल,
सलोने-साँवले चारण-बादल
सज-धज कर आते
बाँध कर सिर पर
पगड़ी इंद्रधनुष की,
रोज सबेरे सूरज आता
चार्ली चैपलीन की टोपी पहन कर
सीटी बजाता, छड़ी घुमाता ।
अगले बरस
मैं यहाँ आ सकूँगा क्या
या आ सकेगा बह फागुन ही…?
ग्लोबल वार्मिंग
जैसे – जैसे कम होगी जमीन
कम हो जाएगी कविता
और बढ़ जायेगी खुदा की दिक्कत
कि क़यामत से पहले ही
देनी होगी हर शख्स  को
उसकी जायज पनाह |
कम होगी कविता
तो कम होगी गुंजाईश 
फरिश्तों के भी आने की
क्योंकि धरती नहीं रहेगी
घुले नमक के ढेले से जयादा
कुछ भी|
बारिश के बाद
जमीन पर सोए चने के अँखुओं को देख
मिलती है राहत कि
अभी भी नहीं हुआ है खतरनाँक साँस  लेना
और बची है कविता
और मिल जाएगी सुकून के साथ
एक मुकम्मल मौत|
शहर में सावन
नाचते हुए
आ रहे सावन के पैरों की थाप
सुन रहा हूँ।
बहुत मन करता
कि थिरक लूँ उसके साथ
उसके ठुमकों से ताल मिला कर…
पर क्या करूँ
काम का मारा हूँ
सियालदह स्टेशन पर खड़ा हूँ
इस इंतजार में कि
वह थोड़ा आराम करे
और मैं थोड़ा काम करूँ।
प्याज-1
काट लो छांट लो चाहे तुम जितना भी
उघार दो जितनी भी परतें
मगर इस प्याज-सी जिंदगी का रहस्य इतना ही
कि आखिर में
बस, कुछ बुरा-सा महकेगा
आंखों में आंसू ही होंगे।
प्याज-2
एक-एक कर हटाता गया सारी परतें
सब कुछ बेनकाब करने को
पर क्या मिला?
परतों में तब्दील होती चीजें
या परतों से बन गई चीजें
इस तलाश का हासिल
इस जिंदगी का सिला
परतों के सिवा, कुछ भी नहीं मिला।
प्याज-3
एक भारी ठोस पत्थर के बदले
इतना बुरा भी नहीं है
सतहों में फैला परतदार जीवन।
अगर शख्सियत हो जाए मैली
फट जाए उसका कोना कोना
नहीं बची हो थोड़ी-सी भी जी पाने की
कोई गुंजाइश,
तब ऊपर की परत
उतार कर
चमकते साहस के संग
शुरू की जा सके– ताजा जिंदगी
काश! फिर से एक बार।
प्याज-4
एक अशक्त
झीने छिलके के भीतर
बंद
परतें ही परतें
यही तो है जिंदगी।
अधूरी मां
वह एक ऐसी कहानी
लिखते-लिखते रह गई
जिसे परिंदों के साथ उड़ना था
बहुत दूर तक।
उसके सपनों के गौरैया झुंड
करीब तक तो आए
पर बिना धप्पा दिए
मुड़ गए दूसरी ओर
जिसे सूने दरख्त की तरह खड़ी वह
बस निहारती रह गई।
उसके लिए
परमात्मा उस सूदखोर की तरह था
जिसके पास वह
अपने दर्द, नींद, परहेज, अरमान
किश्त की तरह भरती रही
पर जब मूल वापस पाने की बारी आई
तो वह मुकर गया-
बकाया हिसाब दिखाकर।
उसे लगता कि
छोटी-छोटी नन्हीं कोमल अंगुलियां
उसे छूने को आतुर
रुई-सी उसके आसपास ही उड़ रही हैं
पर अपनी भिंची हुई मुट्ठियों को खोल
वह उनको कभी थाम नहीं पायी।
उस नर्म जमीं ने सींचा तो था
कतरा-कतरा अपने रक्त से
अपने भीतर सोए नाजुक बीज को
जिसके अंकुर फूटने को तो थे
पर फूट न पाए।
किसी अवश मजबूरी की तरह
वक्त की किनारी पकड़े
वह आगे तो बढ़ती रही
पर बाकी रह गई
नाजुक नन्हें हथेलियों का
उसकी अंगुली पकड़ना
उसके कंधे पर पड़ने वाली हल्की सांसें
उसके जांघों पर सोए माथे के बालों को
हौले-हौले सहलाना
अनगिनत किस्से
असंख्य नाज-नखरे
कुछ गर्वीले सुख
कुछ नापसंद दुख
एक पूरा जीवन चक्र
एक पूरी की पूरी सृष्टि।
वह माँ
वैसे ही पूरी न हो पाई
जैसे आंखें खुलते ही
पूरे होते-होते रह जाते हैं सपने।
सात बेटियों वाली औरत
वह दिलेर औरत
ज़िद्दी ख्याल की पगड़ी वाले
अपने मरद की
जिंदा रसायनिक प्रयोगशाला है।
अपनी पठार-सी पीठ को पेट पर लादे
वह, एक औरत की हैसियत में
‘मां‘ शब्द के नाम पर
उड़ाया जाने वाला
एक भद्दा मजाक है।
सात बेटियों वाली औरत
फूल-सी पवित्र मुस्कान वाली उस बच्ची को
कमर पर लादे
अपनी विरासत की उंगली पकड़ा कर
सिखा रही है चलना
छठवीं बेटी को
कंकड़ और धूल भरी राह में
जैसे जैसे उसकी बेटी कदम बढ़ा रही है
वह औरत खुद होती जा रही है
कंकड़ और धूल।
वह बिल्कुल धरती जैसी है
भीतर उसके कोई लावा खदकता है
फूटता है और
राख हो जाता है
अरमान काले-काले गुबार बन कर
उठते हैं उसके मस्तक पर
ईश्वर के लिखे हुए लेख-से।
हर बार किसी अनजाने अपराध में
उसे सजा सुनाई गई
कि वह अपनी गट्ठर सी देह को
ले जाए किसी काली खोह में
और गांठ खोलकर निकाल लाए
वह नायाब चमकता हीरा
लेकिन हर बार उसने दुहराया, वही अपराध।
आज न्यायाधीश ने एक बार और
तोड़ी है उसके फैसले में अपनी कलम
और सात बेटियों वाली वह औरत
इस बार प्रतिद्वंदी बनकर खड़ी है
अपनी ही बेटियों के सामने।
ऐ आइनो उठो
ऐ आइनो उठो!
अपनी आँखे खोलो
देखो मुझे!
तुम्हारा शहंशाह आया है।
इससे पहले कि दुनियाँ लाइलाज हो जाए
ओ चपटी सूरत वालों
अपनी आवाज के तार काँपने दो।
सादे कातिलों के खौफ में
विचारधाराओं ने छोड़ दी है अपनी केंचुल
धीरे-धीरे
और बेजुबानों के लोथड़ों पर
लिखी जा रही है आदमी होने की परिभाषा।
ऐसे में तुम
गूँगा हो कर दिवाल से चिपके कैसे रह सकते हो?
उठो
कि तुम्हारे सामने छिन रही है
घासों से उनकी जमीन, रंगधनुष आसमाँ से,
गरीबों से उनकी गरीबी, मासूमियत बच्चों से,
बूढ़ों से उनके किस्से, लोरियाँ माँओं से,
उठो कि कहीं फिर
औरत  बस माँदा बनकर न रह जाए।
देख रहे हो तुम?
रिस रहा है हलाहल
नीतियों के मथते हुए इस दौर में
और
सब सोए हैं अपने-अपने बहाने में
विष के बाद अमृत की चाहत पाने में
हर कोई भाग जाना चाहता है
चाँद या मंगल पर
इसलिए आइनों उठो!
अपने बच्चों के हिस्सों का अमृत बचाओ
इस बार तुम भी नीलकंठ हो जाओ।
उठो कि
नफरत की निगाहों से घूरते हुए
लायक बन बैठें हैं नालायक सारे
कह दो उनसे कि
मेरी सूरत से इतनी नफरत न कर ऐ नादान
जरा गौर से देख, मैं तो बस इक आइना हूँ
मैं तो बस इक आइना हूँ…
***
संदीप प्रसाद महत्त्वपूर्ण युवा कवि हैं – साथ ही कोलकाता के सिटी कॉलेज में अध्यापन भी कर रहे हैं। उनसे 0933545942 पर संपर्क किया जा सकता है।

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

ShareTweetShare
Anhadkolkata

Anhadkolkata

अनहद कोलकाता में प्रकाशित रचनाओं में प्रस्तुत विचारों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है. किसी लेख या तस्वीर से आपत्ति हो तो कृपया सूचित करें। प्रूफ़ आदि में त्रुटियाँ संभव हैं। अगर आप मेल से सूचित करते हैं तो हम आपके आभारी रहेंगे।

Related Posts

जयमाला की कविताएँ

जयमाला की कविताएँ

by Anhadkolkata
April 9, 2025
0

जयमाला जयमाला की कविताएं स्तरीय पत्र - पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होती रहीं हैं। प्रस्तुत कविताओं में स्त्री मन के अन्तर्द्वन्द्व के साथ - साथ गहरी...

शालू शुक्ला की कविताएँ

शालू शुक्ला की कविताएँ

by Anhadkolkata
April 8, 2025
0

शालू शुक्ला कई बार कविताएँ जब स्वतःस्फूर्त होती हैं तो वे संवेदना में गहरे डूब जाती हैं - हिन्दी कविता या पूरी दुनिया की कविता जहाँ...

प्रज्ञा गुप्ता की कविताएँ

प्रज्ञा गुप्ता की कविताएँ

by Anhadkolkata
April 6, 2025
0

प्रज्ञा गुप्ता की कविताएँ

ममता जयंत की कविताएँ

ममता जयंत की कविताएँ

by Anhadkolkata
April 3, 2025
0

ममता जयंत ममता जयंत की कविताओं में सहज जीवन के चित्र हैं जो आकर्षित करते हैं और एक बेहद संभावनाशील कवि के रूप में उन्हें सामने...

चित्रा पंवार की कविताएँ

चित्रा पंवार की कविताएँ

by Anhadkolkata
March 31, 2025
0

चित्रा पंवार चित्रा पंवार  संभावनाशील कवि हैं और इनकी कविताओं से यह आशा बंधती है कि हिन्दी कविता के भविष्य में एक सशक्त स्त्री कलम की...

Next Post

हंस कथा सम्मान से सम्मानित जयश्री रॉय की कहानी - माँ का कमरा

वसंत सकरगाए की कविताएँ

समीक्षा-समीक्षा - हरे प्रकाश के नए कविता संग्रह पर राहुल देव

Comments 15

  1. subratalahiri says:
    6 years ago

    अनुभव बिक्रम

    Reply
  2. Abhinav Prasad says:
    6 years ago

    Bahut Sundar Sandeep bhaiya

    Reply
  3. Unknown says:
    6 years ago

    बहुत खूब

    Reply
  4. स्टेनलेस स्टील स्टैंड अकेले बाथटब मिक्सर नल says:
    5 years ago

    साझा करने के लिए धन्यवाद। मैं आपके द्वारा पढ़ी गई जानकारी के लिए खुश हूं।

    Reply
  5. स्टेनलेस स्टील अकेले बाथटब नल says:
    5 years ago

    मुझे आपको धन्यवाद देना होगा, क्योंकि आपके ब्लॉग जैसी अच्छी जानकारी प्राप्त करना बहुत मुश्किल है

    Reply
  6. स्टेनलेस स्टील आउटडोर बौछार says:
    5 years ago

    अच्छा कार्य। मैं और पढ़ने के लिए वापस आऊंगा।

    Reply
  7. स्टेनलेस स्टील साबुन मशीन है says:
    5 years ago

    मैंने अभी ऑनलाइन खोज की और आपके लेख पर आया। दिलचस्प। और साझा करने के लिए धन्यवाद

    Reply
  8. स्टेनलेस स्टील साबुन मशीन है says:
    5 years ago

    यह पता चला है कि मैं अब तक जो कुछ भी देख रहा हूं वह इस पत्र में है, मुझे इस ब्लॉग पर कई लेख पाकर बहुत खुशी हो रही है, मैं ऊपर दिए गए आपके वाक्य में दिलचस्पी रखता हूं, मेरी राय में बहुत राय निर्माण, क्यों? क्योंकि आपने इसे भाषा में लिखा है जिसे समझना आसान है .. हम आपके ब्लॉग से बिल्कुल प्यार करते हैं

    Reply
  9. काला बेसिन says:
    5 years ago

    कृपया अधिक बार लिखें क्योंकि मुझे आपके ब्लॉग से प्यार है। धन्यवाद!. I found something new on this website, some of my opinions agree with that, I just want to ask for one brief opinion or tips on the article or a few sentences above and I'm sure you are more skilled in making concise conclusions and concise for that.

    Reply
  10. तांबे का नल says:
    5 years ago

    इस जानकारी के लिए धन्यवाद, आपके लेख दूसरों की तुलना में बहुत बेहतर हैं।. I found something new on this website, some of my opinions agree with that, I just want to ask for one brief opinion or tips on the article or a few sentences above and I'm sure you are more skilled in making concise conclusions and concise for that.

    Reply
  11. काला बेसिन नल says:
    5 years ago

    साझा करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, अच्छा लेख

    Reply
  12. पीतल का बेसिन says:
    5 years ago

    नमस्ते, मुझे आपका ब्लॉग पढ़ने में मज़ा आता है

    Reply
  13. काला मिक्सर नल says:
    5 years ago

    मुझे यहाँ अच्छे पोस्ट मिले। मैं आपकी पोस्ट को मानता हूं। अति उत्तम!

    Reply
  14. पीतल की रसोई नल की नली के साथ नल says:
    5 years ago

    मुझे यहाँ अच्छे पोस्ट मिले। मुझे आपके द्वारा वर्णित तरीका पसंद है। अति उत्तम!

    Reply
  15. तांबा साबुन निकालने की मशीन says:
    5 years ago

    अच्छा लेख। अच्छी जानकारी साझा करने के लिए धन्यवाद।

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2009-2022 अनहद कोलकाता by मेराज.

No Result
View All Result
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • समीक्षा
    • संस्मरण
    • विविध
  • कला
    • सिनेमा
    • पेंटिंग
    • नाटक
    • नृत्य और संगीत
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विविध

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2009-2022 अनहद कोलकाता by मेराज.