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प्रेमचंद गांधी |
भाई प्रेमचंद की यह कविता जितनी सहजता और साफगई से कई रहस्यों पर से पर्दा उठाती है, वह काबिले तारीफ है। दरअसल प्रेमचंद गांधी तमाम जोडतोड़ से अलग एक इमानदार और संवेदनशील कवि हैं। यह पूरी कविता उनके काव्य विवेक, उनकी समझ और वर्तमान परिदृश्य के सच की गहरी झलक प्रस्तुत करती है। अनहद पर प्रस्तुत है प्रेमचंद गांधी की लंबी कविता भाषा की बारादरी। आपकी बेबाक प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा।
लंबी कविता
भाषा की बारादरी
प्रेमचंद गांधी
एक
संज्ञाओं को
सर्वनाम होने से बचाओ कवियो
तुम भाषा के अभियंता हो
बचाओ भाषा की इमारत को
व्याकरण के पुल को
जर्जर होने से बचाओ
ये जो मीडिया में बैठे हैं
शब्दों के अप्रशिक्षित कामगार
एक जीते–जागते इंसान को
‘व्यक्ति’ और ‘जन’ में बदल रहे हैं
कहो उनसे कि
एक व्यक्ति ने नहीं
गोपाल ने फांसी लगाई
एक विवाहिता ने नहीं
दमयंती ने ज़हर खाया
वे हमारी भाषा की इमारत से
निकाल देते हैं बरसों पुरानी खिड़की
और ठोक देते हैं एक विण्डो
वे तोड़कर गिरा देते हैं
एक मेहराबदार छज्जा
और बना देते हैं सपाट
उनसे जाकर कहो
क्यों हमारी भाषा की
मां-बहन कर रहे हो
कहो कि एक दिन इसी मलबे में
दफ्न हो जाएगी हिंदी पत्रकारिता
लड़ो कि वरना खत्म हो जाएगी
हिंदी कविता और भाषा की सरिता।
दो
विशेषणों की भरमार थी
एक ऐसा युग था
निंदा और प्रशंसा के चरम पर पतनशील
उस कालखण्ड में
कवि जितने निरीह थे
कविता उससे कहीं ज्यादा लाचार।
तीन
दंभी, आत्मरतिग्रस्त और कुंजीछाप
समाचार संपादकों के हाथों में था
शब्दों का भविष्य उस युग में
उनके पास थी एक पूरी फौज
शब्दों के कसाइयों की
जो हलाल और झटके में
फर्क ना करते हुए
जिबह कर डालते कोई भी शब्द
लहूलुहान शब्दों के लोथड़ों को
फिर वे कंप्यूटरीकृत कसाईबाड़े में छीलते-काटते
धो-पोंछ कर बेजान शब्दों को
वे रंगों से सजाते
समाचार और विचारों में पिरोते
और एक रंगीन दर्शनीय लेकिन निष्प्राण
संसार पेश कर देते
पांच मिनट का काम था
पाठकों के लिए
उस रंगीन संसार से गुजरना
इतना सुंदर कब्रिस्तान था
उस युग में शब्दों का।
चार
जब कवि-लेखक बचा रहे थे
लोक के आलोक को
समूची संवेदना के साथ
कुछ लोग और आ गए बचाव में
उन्होंने कहा, ‘यह हमारी जाति का है
यह कविता, यह संगीत
किसी को नहीं दिया जा सकता’
इस तरह लोक का आलोक
जाति के नाम पर
बाकी के लिए निषिद्ध कर दिया गया।
पांच
कुछ कवि थे उस युग में
जो आजीवन अलापते रहे
लोक का राग
एक मृतप्राय: भाषा में खोजते रहे प्रेरणा
जबकि जीवन था इतना संश्लिष्ट कि
सदियों पुरानी भाषा में संभव नहीं था
उसकी मुश्किलों का हल ढूंढ़ना
वाल्मीकि से लेकर कालिदास-भवभूति तक
चुप थे उस युग में
और कवि थे कि पूछे जा रहे थे उनसे
साम्राज्यवाद से लड़ने की युक्तियां
महाकवियों की दुर्दशा का युग था वह
फिर भी कुछ आलोचक थे
जो बांट रहे थे
महाकवि की पदवियां।
छह
सरहदें बेमानी हो गई थीं
शब्दों की आवाजाही इतनी सुगम
जैसे परिंदों की उड़ान
अनुवाद में सब कुछ संभव था
वह अनुवाद का पूरा युग था
अनुवाद पढ़ने के लिए
इतने अधीर नहीं थे लेखक
जितना अनूदित होने के लिए
कुछ तो ऐसे भी थे जिनका
अपनी ही भाषा में होना था अनुवाद
अनूदित होने की ललक इतनी थी कि
लेखक खुद ही सीखने लगे थे भाषाएं
मशीनी अनुवाद को भी गर्व से
कहते थे दूसरी भाषा में जाना
दूसरी भाषाओं में
कुछ इस तरह जा रहे थे लेखक
जैसे सब कुछ तहस-नहस करने के बाद
अमेरिकी सेनाएं लौट रही हो
युद्ध के मैदान से
अपनी ही भाषा को
अनुवाद का युद्धस्थल बना देने का
एक युग था वह असमाप्त।
सात
आलोचक निष्क्रिय थे
रचनाकार ही थे व्यस्त
व्याख्यान और भाषणों में ही
महदूद रह गई थी आलोचना
रचना को कई कोणों से खोजने वाली
एक अद्भुत विधा को बचाने में
जुटे थे उस युग के रचनाकार
जैसे दंगे-फसाद के दिनों में
मोहल्ले वाले ही लगाते हैं गश्त।
आठ
बेधड़क और निर्द्वंद्व भाव से
लिखने का महायुग था वह
गृहस्थी से फुरसत मिलते ही
हो जाती थीं लेखिकाएं तैयार
उनके पास था
एक अपूर्व-अव्यक्त संसार
आभासी दुनिया ने दिया उन्हें
एक भरा-पूरा पाठक संसार
बावजूद तमाम कानूनों और नैतिक बंधनों के
लेखिकाओं के पीछे ही पड़े रहते थे पाठक
वाहवाही का प्रशंसनीय दरबार था
स्त्रियों की सामान्य तुकबंदियां भी
गहरी और मर्मस्पर्शी होती थीं उस काल में
ऐसा स्त्रीलोभी संसार था वह
जहां रचना का स्तर
लिंग से तय होता था
जबकि लिंग परीक्षण निषिद्ध था।
नौ
कुछ लोग थे
जो अपनी मातृभाषा के लिए लड़ रहे थे
जिनसे छूट चुकी थी मातृभाषा
वे उनका उपहास उड़ाते हुए
विरोध कर रहे थे
भाषाई झगड़ों में
खो रही थी सांस्कृतिक अस्मिता
और संस्कृति के प्रहरी
निक्कर-टोपी में
डण्डा लिए चहलकदमी कर रहे थे
दस
एक भाषा को धर्म के आधार पर
सरहद पार भेज दिया गया था
और उसे पढ़ने-बोलने वालों को
हिकारत से देखा जाता था
एक मीठी जुबान को लेकर
इतनी कड़वी-कसैली अफवाहें थीं कि
लोग उसकी लिपि बदलने पर उतारू थे
कब का ढह चुका था रोमन साम्राज्य
पर कुछ लोग थे
सरहद के आर और पार
जिन्हें सब कुछ रोमन में ही चाहिए था।
ग्यारह
अर्थ-विछिन्न और अनुपयोगी
घोषित कर दिए गए शब्दों का मलबा है
भाषा की बारादरी के पास
इस सूखे हुए जलाशय में
जैसे हड़प्पा और मोहन्जोदड़ो में
ठीकरी और ईंटों का मलबा
कुछ लोग अभी भी आते हैं यहां
बेशकीमती शब्दों के अवशेष बीनने
यह रहा टूटा हुआ ‘चषक’
एक कोने में उपेक्षित पड़े हैं ‘प्राणनाथ’
गौर से देखो
यह प्राचीन शब्दकोशों का
जीर्णशीर्ण पुस्तकागार है
बारह
कब का बीत चुका था मध्यकाल
यह था महा-गद्यकाल
जिसमें समाप्त हो चुकी थी
प्रतीक और संकेतों को
संक्षेप में समझने की प्रज्ञा
कुछ लेखक थे इस काल में
जो महाकाव्यों को उपन्यास में बदल रहे थे
तो कुछ उपन्यासों को धारावाहिकों में
कालिदास न जाने कैसे बच गए थे
इस युग के गद्यकारों से।
तेरह
बिल्कुल अभागा देश था वह
जहां कविता सिर्फ धर्मग्रंथों में बची रह गई थी
कविता के नाम पर
धर्मग्रंथ ही बिकते थे वहां
क्योंकि वहीं थी शायद
छंद की थोड़ी-सी गंध
इस तरह बजबजाती थी
छंद की गंध कि
कविता-पाठ से पहले
जलानी पड़ती थीं अगरबत्तियां
कितना विकट काल था उस देश का
जहां कविता का काम
वहां की महान भाषा में
मृत्यु के बाद
सिर्फ शांतिपाठ का रह गया था
कविता के ऐसे दुर्दिन थे कि
निर्द्वंद्व भाव से हर शोक सभा में
होता था कविता-पाठ
और कविगण थे कि
खुदी से पूछते रहते थे
क्या कविता का भी होगा
एक दिन शांतिपाठ ?
चौदह
जो जिस भाषा में लिखता था
उसी में कमतर था
प्रसिद्धि उसे उसी भाषा में मिली
जिसे घृणा से देखता था वह
घृणा और सफलता का
ऐसा समन्वय था उस युग में कि
लोग बेलगाम जुबान को ही समझने लगे थे
सफलता का अंतिम उपाय।
पंद्रह
जब संबंधों में ही समाप्त हो चुका था माधुर्य
ऐसा एक युग था वह
फिर भी कुछ लोग खोज रहे थे
छंदों में माधुर्य
छंद का फंद इतना जटिल कि
कवि होने की पहली शर्त था
गवैया होना
यूं स्वामी हरिदास के बाद
नहीं पाया गया कोई गायक कवि
छंदों में रचने वाले
गवैये भी खोजते थे
एक अच्छा गायक
और गायक
अच्छा लिखने वाला।
सोलह
अपने ही समय को
कहना पड़ता था भूतकाल
अपने ही देश को बताना होता था मगध
कैसी लाचारी थी कवि की
या कि भाषा और समय की
भविष्य हमेशा की तरह
अकल्पनीय था उस युग में
लोगों के पास जीवन में
भले ही कम रही हों उम्मीदें
साहित्य के बारे में वे पूरे आश्वस्त थे।
सत्रह
विश्वविद्यालयों की संख्या की तरह
बढ रही थी अध्यापकों की तनख्वाहें
भरा-पूरा था भाषा का कारोबार
मातृभाषा के सिवा
दूसरी भाषाएं पढने-पढाने का युग था वह
जनता इसी में खुश थी कि
दुनिया भर में पढी जा रही थी
उनकी अपनी मातृभाषा
जिसे खुद दोयम समझते थे
भाषा की देवी के
घोर अपमान का युग था वह
जिसमें विदेशियों की दिलचस्पी
महज कारोबार तक सीमित थी
और जो एक समूची जाति थी भाषा की
उसने गैर जरूरी बना दिया था
अपनी ही भाषा को
उस भाषा में रोजगार
सिर्फ अध्यापन में बचा रह गया था
जिसमें पढाने के अलावा सब कुछ होता था
अठारह
सिनेमा में ही बचे रह गए थे
छंद और तुक
इतना बेतुका था समय
कुछ ब्राण्डेड किस्म के कवि थे
जो बनाते थे रेडीमेड गीत हर मौके के लिए
और कुछ खोजते थे सिनेमा में अवसर
उन्नीस
कुछ कवि हमेशा ही रहते थे
अनंत की खोज में
अन्नदाताओं की खुदकुशी के दिनों में भी
अनंतवादी तलाश रहे थे
देह, संबंध और आत्मा के रहस्य
उनकी अनंत की यात्रा में
शामिल थे बस निजी दुख
पराये दुख नहीं सालते थे उन्हें।
बीस
कविता के नाम पर
एक तरफ था कारोबार
सैंकडों करोड का मंच पर
जहां कविता पनाह मांगती थी
जनता कविता मांगती थी
और चुटकुलों से पेट भरती थी
एक महान भाषा का
हास्य युग था वह
जहां मंच पर कुछ का कब्जा था
कविता की खाली जमीन थी
आयोजकों के पास नकली पट्टे थे
कवियों के नाम पर भाण्ड थे
चुटकुलों के लट्ठ लिए
निर्द्वंद्व भाव से वे
विमानों में उडते थे और
जमीन पर कराहती थी काव्य संवेदना।
***
प्रेमचन्द गांधी
220, रामा हैरिटेज, सेंट्रल स्पाइन,
विद्याधर नगर, जयपुर- 302 023
फोन- 09829190626
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
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प्रेमचंद गांधी |
भाई प्रेमचंद की यह कविता जितनी सहजता और साफगई से कई रहस्यों पर से पर्दा उठाती है, वह काबिले तारीफ है। दरअसल प्रेमचंद गांधी तमाम जोडतोड़ से अलग एक इमानदार और संवेदनशील कवि हैं। यह पूरी कविता उनके काव्य विवेक, उनकी समझ और वर्तमान परिदृश्य के सच की गहरी झलक प्रस्तुत करती है। अनहद पर प्रस्तुत है प्रेमचंद गांधी की लंबी कविता भाषा की बारादरी। आपकी बेबाक प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा।
लंबी कविता
भाषा की बारादरी
प्रेमचंद गांधी
एक
संज्ञाओं को
सर्वनाम होने से बचाओ कवियो
तुम भाषा के अभियंता हो
बचाओ भाषा की इमारत को
व्याकरण के पुल को
जर्जर होने से बचाओ
ये जो मीडिया में बैठे हैं
शब्दों के अप्रशिक्षित कामगार
एक जीते–जागते इंसान को
‘व्यक्ति’ और ‘जन’ में बदल रहे हैं
कहो उनसे कि
एक व्यक्ति ने नहीं
गोपाल ने फांसी लगाई
एक विवाहिता ने नहीं
दमयंती ने ज़हर खाया
वे हमारी भाषा की इमारत से
निकाल देते हैं बरसों पुरानी खिड़की
और ठोक देते हैं एक विण्डो
वे तोड़कर गिरा देते हैं
एक मेहराबदार छज्जा
और बना देते हैं सपाट
उनसे जाकर कहो
क्यों हमारी भाषा की
मां-बहन कर रहे हो
कहो कि एक दिन इसी मलबे में
दफ्न हो जाएगी हिंदी पत्रकारिता
लड़ो कि वरना खत्म हो जाएगी
हिंदी कविता और भाषा की सरिता।
दो
विशेषणों की भरमार थी
एक ऐसा युग था
निंदा और प्रशंसा के चरम पर पतनशील
उस कालखण्ड में
कवि जितने निरीह थे
कविता उससे कहीं ज्यादा लाचार।
तीन
दंभी, आत्मरतिग्रस्त और कुंजीछाप
समाचार संपादकों के हाथों में था
शब्दों का भविष्य उस युग में
उनके पास थी एक पूरी फौज
शब्दों के कसाइयों की
जो हलाल और झटके में
फर्क ना करते हुए
जिबह कर डालते कोई भी शब्द
लहूलुहान शब्दों के लोथड़ों को
फिर वे कंप्यूटरीकृत कसाईबाड़े में छीलते-काटते
धो-पोंछ कर बेजान शब्दों को
वे रंगों से सजाते
समाचार और विचारों में पिरोते
और एक रंगीन दर्शनीय लेकिन निष्प्राण
संसार पेश कर देते
पांच मिनट का काम था
पाठकों के लिए
उस रंगीन संसार से गुजरना
इतना सुंदर कब्रिस्तान था
उस युग में शब्दों का।
चार
जब कवि-लेखक बचा रहे थे
लोक के आलोक को
समूची संवेदना के साथ
कुछ लोग और आ गए बचाव में
उन्होंने कहा, ‘यह हमारी जाति का है
यह कविता, यह संगीत
किसी को नहीं दिया जा सकता’
इस तरह लोक का आलोक
जाति के नाम पर
बाकी के लिए निषिद्ध कर दिया गया।
पांच
कुछ कवि थे उस युग में
जो आजीवन अलापते रहे
लोक का राग
एक मृतप्राय: भाषा में खोजते रहे प्रेरणा
जबकि जीवन था इतना संश्लिष्ट कि
सदियों पुरानी भाषा में संभव नहीं था
उसकी मुश्किलों का हल ढूंढ़ना
वाल्मीकि से लेकर कालिदास-भवभूति तक
चुप थे उस युग में
और कवि थे कि पूछे जा रहे थे उनसे
साम्राज्यवाद से लड़ने की युक्तियां
महाकवियों की दुर्दशा का युग था वह
फिर भी कुछ आलोचक थे
जो बांट रहे थे
महाकवि की पदवियां।
छह
सरहदें बेमानी हो गई थीं
शब्दों की आवाजाही इतनी सुगम
जैसे परिंदों की उड़ान
अनुवाद में सब कुछ संभव था
वह अनुवाद का पूरा युग था
अनुवाद पढ़ने के लिए
इतने अधीर नहीं थे लेखक
जितना अनूदित होने के लिए
कुछ तो ऐसे भी थे जिनका
अपनी ही भाषा में होना था अनुवाद
अनूदित होने की ललक इतनी थी कि
लेखक खुद ही सीखने लगे थे भाषाएं
मशीनी अनुवाद को भी गर्व से
कहते थे दूसरी भाषा में जाना
दूसरी भाषाओं में
कुछ इस तरह जा रहे थे लेखक
जैसे सब कुछ तहस-नहस करने के बाद
अमेरिकी सेनाएं लौट रही हो
युद्ध के मैदान से
अपनी ही भाषा को
अनुवाद का युद्धस्थल बना देने का
एक युग था वह असमाप्त।
सात
आलोचक निष्क्रिय थे
रचनाकार ही थे व्यस्त
व्याख्यान और भाषणों में ही
महदूद रह गई थी आलोचना
रचना को कई कोणों से खोजने वाली
एक अद्भुत विधा को बचाने में
जुटे थे उस युग के रचनाकार
जैसे दंगे-फसाद के दिनों में
मोहल्ले वाले ही लगाते हैं गश्त।
आठ
बेधड़क और निर्द्वंद्व भाव से
लिखने का महायुग था वह
गृहस्थी से फुरसत मिलते ही
हो जाती थीं लेखिकाएं तैयार
उनके पास था
एक अपूर्व-अव्यक्त संसार
आभासी दुनिया ने दिया उन्हें
एक भरा-पूरा पाठक संसार
बावजूद तमाम कानूनों और नैतिक बंधनों के
लेखिकाओं के पीछे ही पड़े रहते थे पाठक
वाहवाही का प्रशंसनीय दरबार था
स्त्रियों की सामान्य तुकबंदियां भी
गहरी और मर्मस्पर्शी होती थीं उस काल में
ऐसा स्त्रीलोभी संसार था वह
जहां रचना का स्तर
लिंग से तय होता था
जबकि लिंग परीक्षण निषिद्ध था।
नौ
कुछ लोग थे
जो अपनी मातृभाषा के लिए लड़ रहे थे
जिनसे छूट चुकी थी मातृभाषा
वे उनका उपहास उड़ाते हुए
विरोध कर रहे थे
भाषाई झगड़ों में
खो रही थी सांस्कृतिक अस्मिता
और संस्कृति के प्रहरी
निक्कर-टोपी में
डण्डा लिए चहलकदमी कर रहे थे
दस
एक भाषा को धर्म के आधार पर
सरहद पार भेज दिया गया था
और उसे पढ़ने-बोलने वालों को
हिकारत से देखा जाता था
एक मीठी जुबान को लेकर
इतनी कड़वी-कसैली अफवाहें थीं कि
लोग उसकी लिपि बदलने पर उतारू थे
कब का ढह चुका था रोमन साम्राज्य
पर कुछ लोग थे
सरहद के आर और पार
जिन्हें सब कुछ रोमन में ही चाहिए था।
ग्यारह
अर्थ-विछिन्न और अनुपयोगी
घोषित कर दिए गए शब्दों का मलबा है
भाषा की बारादरी के पास
इस सूखे हुए जलाशय में
जैसे हड़प्पा और मोहन्जोदड़ो में
ठीकरी और ईंटों का मलबा
कुछ लोग अभी भी आते हैं यहां
बेशकीमती शब्दों के अवशेष बीनने
यह रहा टूटा हुआ ‘चषक’
एक कोने में उपेक्षित पड़े हैं ‘प्राणनाथ’
गौर से देखो
यह प्राचीन शब्दकोशों का
जीर्णशीर्ण पुस्तकागार है
बारह
कब का बीत चुका था मध्यकाल
यह था महा-गद्यकाल
जिसमें समाप्त हो चुकी थी
प्रतीक और संकेतों को
संक्षेप में समझने की प्रज्ञा
कुछ लेखक थे इस काल में
जो महाकाव्यों को उपन्यास में बदल रहे थे
तो कुछ उपन्यासों को धारावाहिकों में
कालिदास न जाने कैसे बच गए थे
इस युग के गद्यकारों से।
तेरह
बिल्कुल अभागा देश था वह
जहां कविता सिर्फ धर्मग्रंथों में बची रह गई थी
कविता के नाम पर
धर्मग्रंथ ही बिकते थे वहां
क्योंकि वहीं थी शायद
छंद की थोड़ी-सी गंध
इस तरह बजबजाती थी
छंद की गंध कि
कविता-पाठ से पहले
जलानी पड़ती थीं अगरबत्तियां
कितना विकट काल था उस देश का
जहां कविता का काम
वहां की महान भाषा में
मृत्यु के बाद
सिर्फ शांतिपाठ का रह गया था
कविता के ऐसे दुर्दिन थे कि
निर्द्वंद्व भाव से हर शोक सभा में
होता था कविता-पाठ
और कविगण थे कि
खुदी से पूछते रहते थे
क्या कविता का भी होगा
एक दिन शांतिपाठ ?
चौदह
जो जिस भाषा में लिखता था
उसी में कमतर था
प्रसिद्धि उसे उसी भाषा में मिली
जिसे घृणा से देखता था वह
घृणा और सफलता का
ऐसा समन्वय था उस युग में कि
लोग बेलगाम जुबान को ही समझने लगे थे
सफलता का अंतिम उपाय।
पंद्रह
जब संबंधों में ही समाप्त हो चुका था माधुर्य
ऐसा एक युग था वह
फिर भी कुछ लोग खोज रहे थे
छंदों में माधुर्य
छंद का फंद इतना जटिल कि
कवि होने की पहली शर्त था
गवैया होना
यूं स्वामी हरिदास के बाद
नहीं पाया गया कोई गायक कवि
छंदों में रचने वाले
गवैये भी खोजते थे
एक अच्छा गायक
और गायक
अच्छा लिखने वाला।
सोलह
अपने ही समय को
कहना पड़ता था भूतकाल
अपने ही देश को बताना होता था मगध
कैसी लाचारी थी कवि की
या कि भाषा और समय की
भविष्य हमेशा की तरह
अकल्पनीय था उस युग में
लोगों के पास जीवन में
भले ही कम रही हों उम्मीदें
साहित्य के बारे में वे पूरे आश्वस्त थे।
सत्रह
विश्वविद्यालयों की संख्या की तरह
बढ रही थी अध्यापकों की तनख्वाहें
भरा-पूरा था भाषा का कारोबार
मातृभाषा के सिवा
दूसरी भाषाएं पढने-पढाने का युग था वह
जनता इसी में खुश थी कि
दुनिया भर में पढी जा रही थी
उनकी अपनी मातृभाषा
जिसे खुद दोयम समझते थे
भाषा की देवी के
घोर अपमान का युग था वह
जिसमें विदेशियों की दिलचस्पी
महज कारोबार तक सीमित थी
और जो एक समूची जाति थी भाषा की
उसने गैर जरूरी बना दिया था
अपनी ही भाषा को
उस भाषा में रोजगार
सिर्फ अध्यापन में बचा रह गया था
जिसमें पढाने के अलावा सब कुछ होता था
अठारह
सिनेमा में ही बचे रह गए थे
छंद और तुक
इतना बेतुका था समय
कुछ ब्राण्डेड किस्म के कवि थे
जो बनाते थे रेडीमेड गीत हर मौके के लिए
और कुछ खोजते थे सिनेमा में अवसर
उन्नीस
कुछ कवि हमेशा ही रहते थे
अनंत की खोज में
अन्नदाताओं की खुदकुशी के दिनों में भी
अनंतवादी तलाश रहे थे
देह, संबंध और आत्मा के रहस्य
उनकी अनंत की यात्रा में
शामिल थे बस निजी दुख
पराये दुख नहीं सालते थे उन्हें।
बीस
कविता के नाम पर
एक तरफ था कारोबार
सैंकडों करोड का मंच पर
जहां कविता पनाह मांगती थी
जनता कविता मांगती थी
और चुटकुलों से पेट भरती थी
एक महान भाषा का
हास्य युग था वह
जहां मंच पर कुछ का कब्जा था
कविता की खाली जमीन थी
आयोजकों के पास नकली पट्टे थे
कवियों के नाम पर भाण्ड थे
चुटकुलों के लट्ठ लिए
निर्द्वंद्व भाव से वे
विमानों में उडते थे और
जमीन पर कराहती थी काव्य संवेदना।
***
प्रेमचन्द गांधी
220, रामा हैरिटेज, सेंट्रल स्पाइन,
विद्याधर नगर, जयपुर- 302 023
फोन- 09829190626
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
अद्भुत कविता है. एक सांस में पढ़ गया. प्रेमचंद जी को मेरी बहुत बहुत बधाई!
काश! ये कविता हिंदी के शास्ताओं का काव्य-विवेक जाग्रत कर पाए!!
बेहद प्रभावशाली कविता.
इस सशक्त रचना के लिए आपको बहुत- बहुत बधाई ।
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति आज के तेताला का आकर्षण बनी है
तेताला पर अपनी पोस्ट देखियेगा और अपने विचारों से
अवगत कराइयेगा ।
http://tetalaa.blogspot.com/
अद्भुत चित्रण किया है ………उसी मे बह रही हूँ।
भाई प्रेमचंद गांधी की लंबी कविता पढ़कर मन प्रसन्न हुआ कि आपने हिन्दी के चाटुकारों पर बड़े सलिके से थप्पड़ चलाई है ।बहुत- बहुत बधाई ।
प्रेमचंद जी प्रतिभाशाली कवि तो हैं ही, अपनी बात को निडरता और सलीके के साथ कहने का साहस भी उनके पास है। इस लंबी कविता में हिंदी के परिसर का भूमिगत यथार्थ, जिसमें हिदी की कविता और आलोचना और पत्रकारिता शामिल है, पूरी कविताई के साथ मौजूद है। बधाई।
समूची संवेदना के साथ
कुछ लोग और आ गए बचाव में
उन्होंने कहा, ‘यह हमारी जाति का है
यह कविता, यह संगीत
किसी को नहीं दिया जा सकता’
कविता के नाम पर
एक तरफ था कारोबार
सैंकडों करोड का मंच पर
जहां कविता पनाह मांगती थी
बहुत ही कड़वा यथार्थ है वर्तमान समय की विभीषिका का