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Home कविता

विजय कुमार सिंह की पहिलौंठी कविताएं

by Anhadkolkata
June 25, 2022
in कविता, साहित्य
A A
11
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विजय कुमार सिंह की कविताएं उनके अन्दर मौजूद इनोसेंसी से बनती हैं। यह काबिले गौर है कि इस बिल्कुल नए कवि में शब्द और कथ्य की मासूमियत बची हुई है। मेरा आज भी मानना है कि कविता के लिए उस मासूमियत का होना लाजमि है जिसे हालिया दिनों में हम खोते-भूलते जा रहे हैं। अनहद पर हम इस बार विजय की कविताओं से आपका परिचय करा रहे हैं। आशा है आपकी बेबाक राय से हम जरूर अवगत हो सकेंगे। – अनहद

विजय कुमार सिंह
पैदाइश  २३ अक्टूबर १९८५ को…और रहन-सहन कुदरा में ,जो बिहार के कैमूर जिला में पड़ता है | पढने के लिये बरास्ते पटना से दिल्ली आया…एवं दिल्ली विश्वविद्यालय से  हिंदी में एम.ए किया… अभी केवल और केवल पढता हूँ और हर मामले में नौशिखियाँ हूँ |
पहली बार कविता-लेखन को अपने घेरे से बाहर करने में एक अनजाना डर भी लग रहा है ..जैसे परीक्षा देने से पहले लगता  है| – विजय कुमार सिंह
माँ
.
माँ एक बसंत है
जो हर पतझर में बचा लेती है
ममता भरी हरी पतियाँ
खिरनी की तरह
कभी पूरे नही झरते उसके पत्ते
और नही ख़त्म होती छांह
उसकी कभी भी
आसमान में एक पेड़ होता 
आसमान में
कोई पेड़ नहीं उगता

वरना
वहां भी होती एक चिड़िया
दिनों बाद गिरी पत्तियों से
गढ़ती घोसला

दूर से आता कोई नागरिक
बना लेता फैली जड़ों को
अपना बिछावन
वहां भी होता एक बसंत 
और कोयल की कूक
भले ही न होता
कोई फूल या फल कभी
अदद एक पेड़ होता

लेकिन नहीं होता
कुछ भी
उलट इस पृथ्वी की उर्वरता के

कि
आसमान में एक पेड़ होता |
बूंदें
टप-टप
बारिश की बूंदों ने 
भिंगो दिया 
और सज गयी महफ़िल 
आँखों के आगे 
जब उतर आई थी बूंदें 
एक अनजान शहर से 
गाते हुए राग मल्हार 
गिरती रही बूंदें 
और तुम्हारी याद का सितार 
बजता रहा अपनी ही धुन में 
फकत इतना की तुम न आई 
और बूंदें बारिश की 
टप-टप 
आती रही तुम्हारे ही दरिया से
चीटियाँ
चलते-चलते एक रात
जब चली जाएँगी चीटियाँ पृथ्वी से
तब ख़त्म होने लगेगी मिठास चीनी से
धीरे-धीरे
बढ़ता जायेगा बोझ छोटे-छोटे कणों का
पृथ्वी पर
लोग भूलने लगेंगे शऊर मिलने का
आपस में
सुनसान पड़े घर में छाती जाएगी वीरानी
और वह कहानीकार ढूंढेगा कोई पात्र
जो नाको चने चबवा सके हाथी को
फिर
वर्तमान सभ्यता की बहसों में गूंजेगा यह सवाल
कि अब कौन करेगा पृथ्वी की पहरेदारी
दिन-रत चीटियों की तरह
कलकत्ते वाली गाड़ी
कलकत्ते वाली गाड़ी 
बैठा लाती सूरज को
डेली
टांग जाती आसमान में
सुबह-सुबह

सरपट
पहली किरण की भांति
चली जाती बनारस
वही होता हाल-चाल
उलझते-सुलझते-सुलगते
दुनिया भर की बातों पर
फिर

चमकीली रेत को लगा माथे
कलकत्ते वाली गाड़ी

चल देती धीरे-धीरे
पैठ लेता सूरज भी
बगैर आवाज किये पानी की तरह
साथ-साथ
और जाते-जाते
ले जाती
एक हुगली
एक गंगा
एक भरा-पूरा दिन
कलकत्ते वाली गाड़ी …   
 

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 11

  1. leena malhotra rao says:
    14 years ago

    kavi ka vistaar vyaapak hai. sabhi kavitaaye mujhe bahut achhi lagi . man ki geeli mitti par apne nishan chhodti hui. cheentiyo ki pahredaari vastav me adbhut kavita hai. kavi ko bahut badhai aur bimlesh ji abhaar umda kavitaye padhvaane ke liye

    Reply
  2. संगीता स्वरुप ( गीत ) says:
    14 years ago

    आपकी सारी कविताएँ बहुत अच्छी लगीं … जहाँ माँ हकीकत है तो कलकत्ते वाली गाड़ी एक खूबसूरत सोच ..

    Reply
  3. विजय गौड़ says:
    14 years ago

    कवि विजय कुमार सिंह की कविताओं से परिचित कराने के लिए बहुत बहुत आभार विमलेश। कविताएं ताजगी लिए हैं। कवि को शुभकामनाएं।

    Reply
  4. Rangnath Singh says:
    14 years ago

    सारी कवितायेँ पसंद आईं…

    Reply
  5. Anonymous says:
    14 years ago

    sunder

    Reply
  6. akshay kr rastogi says:
    14 years ago

    ma wali kavita to bahut sunder hai vijay,sab badi pyari hai, GOD BLESS YOU—-khuda tumara kalam mubarak kare

    Reply
  7. shephali says:
    14 years ago

    maa ne dil hu liya

    sabhi kavitayen bahut achi hain
    sabdon ka acha tana bana

    Reply
  8. स्व: बानी says:
    14 years ago

    बहुत मनभावन हैं सारी कवितायेँ!

    Reply
  9. Niraj says:
    14 years ago

    और बूंदें बारिश की
    टप-टप
    आती रही तुम्हारे ही दरिया से…

    बिमलेश जी की पहली पंक्ति से मैं पूरी तरह से सहमत हूँ कि विजय जी की ये कविताएं उनके अन्दर की निर्मलता की उपज हैं । विजय जी, कोई कारण नहीं है कि आपकी कविताओं की जी भर कर तारीफ़ न की जाय ! बहुत सुन्दर रचनायें !

    Reply
  10. Vandana Ramasingh says:
    14 years ago

    माँ एक बसंत है
    जो हर पतझर में बचा लेती है
    ममता भरी हरी पतियाँ
    खिरनी की तरह
    कभी पूरे नही झरते उसके पत्ते
    और नही ख़त्म होती छांह
    उसकी कभी भी…बहुत सुन्दर

    Reply
  11. खामोश पानी says:
    14 years ago

    vakai me vijay ki sari kavitayen ek nayi taazagi bhari jo hamamen ek adad inshan hone ka ehsas karati hain……

    Reply

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अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

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