उमा शंकर चौधरी |
——————————————————-
जिसमें मेरे पिता की मौत हुई
इसे आप मौत कहें या एक दर्दनाक हत्या।
मेरी आंखों में जस-का-तस बसा है
वही पथरायी आंखें
वही सफेद चेहरा
चेहरे पर खून का कोई धब्बा नहीं है
किसी अंग की विकृति के कोई निशान नहीं
मेरी आंखों में मक्खियां भिनभिनाता
पिता का चेहरा आज भी ठीक उसी तरह दर्ज है।
सड़क नहीं, कोई अस्पताल नहीं, कोई सरकारी दफ्तर नहीं
वहां एक क्रांति हुई
सोचना बहुत अजीब लगता है
लेकिन वह भीड़, वह हुजूम, वह जनसैलाब
आज सोचता हूं तो लगता है कितना सुकून मिला होगा
पिता को आखिरी सांस लेने में
पूरे गांव में एक धनीराम ही था
जो सुई देता था
चाहे वह गाय-भैंस-बकरी हों या आदमी
लेकिन उस गांव में बच्चे पैदा होते थे
और किलकारियां भी भरते थे
उसी तरह मेरे पिता भी अजीब थे
मैंने बचपन से ही उनकी खानों में
उनकी जवानी के दिनों की
इतिहास की मोटी-मोटी किताबों को देखा था
पिता सुबह-सुबह हनुमान चालीसा पढ़ते
और मैं गोद में ऊंघता रहता था
रात में पिता इतिहास के गोते लगाते और
हम सब भाई-बहन पिता के साथ
1857 की क्रांति की तफ्तीश करने निकल जाते
और फिर उस क्रांति की असफलता का अवसाद
इन वर्षों को लांघ कर
पिता के चेहरे पर उतर आता
पिता गमगीन हो जाते
और पिता की आंखों से आंसू झरने लगते थे
लेकिन जिन्दगी बहुत ठहरी हुई थी
गांव में बिजली नहीं थी और मैं
पिता को अपने कान में फिलिप्स का रेडियो लगाये
हर रोज देखा करता था
उस रेडियो पर पिता ने चमड़े का एक कवर चढ़ा रखा था
जिसे वे बंडी कहते थे
इंदिरा गांधी की हत्या की खबर सुनी थी
उसी रेडियो पर पिता ने
राजीव गांधी की हत्या की भी खबर सुनी थी
आज पिता जीवित होते तो देश से जुड़ने का सहारा
आज भी उनके पास रेडियो ही होता
वह रेडियो आज भी हमारे पास है
और आज भी घुप्प अंधेरे में बैठकर हम
उसी रेडियो के सहारे
इस दुनिया को भेदने की कोशिश करते हैं
और वहां मेरा कई देशी उपचारों से साबका पड़ता
पिता का पैर कटता और मिट्टी से उसे ठीक होते मैंने देखा था
गहरे से गहरे घाव को मैंने वहां
घास की कुछ खास प्रजाति के रस की चंद बूंदों से ठीक होते देखा था
दूब का हरा रस टह-टह लाल घाव को कुछ ही दिनों में
ऐसे गायब कर देता जैसे कुछ हुआ ही नहीं था
बच्चों के जन्म के बाद उसकी नली
हसुए को गर्म कर उससे काटी जाती थी
मां ने ग्यारह बच्चे पैदा किए थे
जिनमें हम तीन जीवित थे
आठ बच्चों को पिता ने अपने हाथों से दफनाया था
और पिता क्या उस गांव का कौन ऐसा आदमी था
जिसने अपने हाथों से
अपने बच्चों को दफनाया नहीं था।
और पिता के दुख का सबसे बड़ा कारण भी यही था
पिता 1857 की जिस क्रांति के असफल होने पर
जार-जार आंसू बहाते थे
उन्हीं आंसुओं से उस गांव में हर साल बाढ़ आती थी
कोसी नदी का प्रलय हमने करीब से देखा था
उस नदी के सहारे आये विषैले सांप
पानी के लौटते-लौटते दो-तीन लोगों को तो
अपने साथ ले ही जाते थे हर साल।
अपनी खेत पर मेहनत करने से रोकती थी
एक फसल कटने के बाद मेरे पिता
बस उस खेत पर कोसी नदी के मटमैले पानी का इंतजार करते थे
पिता अपनी खेत की आड़ पर बैठे रहते थे
और कोसी नदी का पानी
धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ता था
पहले एक पतली धार से पानी धीरे-धीरे घुसता था
और फिर एक दहाड़ के साथ।
और जहां बहुत दिनों तक सूखा रहता था
मेरे पिता ने अपने आठों बच्चों को वहीं दफनाया था
और पिता ही क्या गांव के हर आदमी ने अपने बच्चों को
वहीं दफनाया था
कहते थे अंधेरी रात में वहां एक औरत दिखती थी
एकदम ममतामयी
एक-एक कब्र से बच्चों को निकालकर दूध पिलानेवाली
अपनी पायलों की रुनझुन रुनझुन की आवाज़ के साथ
उस कब्र में सोते रहते थे और उस ममतामयी मां के
आंचल से दूध पीते रहते थे
जब तक कोसी नदी अपने साथ उन बच्चों को
वापस नहीं ले जाती थी
कोसी नदी की बाढ़
उस जगह को खाली करती
और फिर कुदाल चलाने पर वहां कभी भी
बच्चे की खच्च से कटने की आवाज़ नहीं आती।
और जिनकी आंखों से 1857 की असफल क्रांति को याद कर
झरते थे झर-झर आंसू
इस ठेठ गांव में चाहते थे एक क्रांति
ठाकुर रणविजय सिंह के खिलाफ
जिनके नाम से इस कोसी नदी के विनाश को रोकने के लिए
बहुत पहले निकला था टेंडर
जिनके नाम से सरकारी खजाने से निकला था
सरकारी अस्पताल बनने का पैसा।
जहां मेरे पिता हर बृहस्पतिवार को तरकारी के नाम पर
खरीदा करते थे झींगा और रमतोरई
लेकिन पिता ने तब कभी सोचा नहीं था कि
ठीक उसी जगह पर एक दिन गिरेगी उनकी लाश
उनकी वह पथरायी लाश जो मुझे आज भी याद है
जस की तस।
और अन्य दिनों लोगों को करते थे इकट्ठा
वे कहते थे हमारी हल्की आवाज़
एक दिन गूंज में तब्दील हो जायेगी
पिता कहते थे, उस विषैले सांप के डसने से पहले
हमें ही खूंखार बनना होगा
उसी हटिया वाले मैदान के बगल वाले कुंए की जगत पर बैठकर
पिता हुंकार भरते थे
पिता का चेहरा लाल हो जाता था
और उनकी लाली से उस कुंए का पानी भी लाल हो जाता था
पिता कहते थे हमें कम से कम जिंदा रहने का हक तो है ही
तब कुंए का पानी भी उनके साथ होता था
और वह भी उनकी आवाज़ में अपनी आवाज़ मिलाकर
बाहर फेंकता था
पहली बार जब पिता नहीं जानते थे
तब इस दूसरी आवाज़ पर अन्य लोगों के साथ
पिता भी चौंके थे।
उनके साथ कुछ आवाजें थीं
कुछ इच्छाएं और कुंए के पानी का साथ
तब पिता बहादुर शाह ज़फ़़़र बन गए थे
एक क्रांति का अगुवा
लेकिन पिता बहादुर शाह जफ़र जितने बूढ़े नहीं थे
न ही बहादुर शाह ज़फर के जैसी उनकी दाढ़ी ही थी।
ठाकुर रणविजय सिंह की हवेली पर
अपने सवाल का उत्तर मांगने जाने वाले थे उसी दिन
पुलिस आयी थी
हमने पहली बार उसी दिन अपनी आंखों के सामने
नंगी पिस्तौल उस दारोगा के हाथ में देखी थी
वह पिस्तौल एक खाकी रस्सी से
उसकी वर्दी से गुंथी थी
और फिर पिता को गोली दाग दी गयी थी
पिता के फेफड़े की हड्डी को तोड़कर घुसी होगी
और पिता एक गोली में ही मर गये
उसी हटिया में जहां वे तरकारी खरीदते थे
दारोगा की उस एक गोली ने पिता की ही नहीं
उस गांव की उम्मीदों की भी मार दिया था
लेकिन उस पर बहुत देर तक मक्खियां भिनभिनाती रही थीं
और फिर उस लाश को कहीं गायब कर दिया गया था
सदा याद रखा जायेगा
को यह मालूम नहीं है कि उसने उस दिन मेरे पिता को नहीं
बहादुर शाह ज़फ़र को मार दिया था।
कुछ पता नहीं चला
उन्हें जलाया गया, दफनाया गया
कोसी नदी में फंेक दिया गया
या फिर चील कौओं ने उनकी बोटी-बोटी नोच ली
हम घरवालों के साथ-साथ हमारे गांव वालों को भी कुछ मालूम नहीं है
मेरे पिता मर नहीं पाये
मेरे पिता मर नहीं पाये लेकिन इसलिए नहीं कि
उन्होंने गांव की क्रांति के लिए
इस अनुपजाऊ भूमि पर क्रांति का बिगुल फूंका था
बल्कि इसलिए कि मेरे पिता की मौत ने
सभी के दिलों में एक भयावह डर भर दिया था
सबके कानों में पिता के फेफड़े की हड्डियों की
कर्र से टूटने की छोटी सी आवाज आज भी जस की तस बजती है
लेकिन आज भी सब वैसा ही है
हवाएं तेज हैं लेकिन गांव ठंडा है
उस हटिया में जब भी तरकारी लेने जाता हूं तब हर बार
पिता की लाश से टकराता हूं
हर बार पिता मुझसे कहते हैं
कम से कम तुम अपनी आवाज़ को ऊंचा करो।
और न ही कोसी नदी की विनाशकारी बाढ़ को रोकने का उपाय है
अब मेरे सहित मेरी उम्र के सभी लोगों के बच्चे
पट-पट कर मरना शुरू हो गये हैं
और फिर वही सब
कोसी नदी के किनारे दफनाने की प्रक्रिया
रात में दूध पिलाने वाली मां का आना
और बच्चों का उस ममतामयी मां का इंतजार करना
और फिर वही कोसी नदी का अपने लौटते पानी के साथ
बच्चों को अपने साथ ले जाना
और सोचता हूं इस बाढ़ के मंजर को सुनना और देखना
कितना आनन्द देता होगा उनको
इस गांव के बारे में सोचना भी बहुत कठिन है
मैं अभी जिन्दा हूं
लेकिन मुझे अपने पिता का मृत चेहरा याद है
इसलिए इस गांव में कोई क्रांति नहीं होगी।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
उमा शंकर चौधरी |
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जिसमें मेरे पिता की मौत हुई
इसे आप मौत कहें या एक दर्दनाक हत्या।
मेरी आंखों में जस-का-तस बसा है
वही पथरायी आंखें
वही सफेद चेहरा
चेहरे पर खून का कोई धब्बा नहीं है
किसी अंग की विकृति के कोई निशान नहीं
मेरी आंखों में मक्खियां भिनभिनाता
पिता का चेहरा आज भी ठीक उसी तरह दर्ज है।
सड़क नहीं, कोई अस्पताल नहीं, कोई सरकारी दफ्तर नहीं
वहां एक क्रांति हुई
सोचना बहुत अजीब लगता है
लेकिन वह भीड़, वह हुजूम, वह जनसैलाब
आज सोचता हूं तो लगता है कितना सुकून मिला होगा
पिता को आखिरी सांस लेने में
पूरे गांव में एक धनीराम ही था
जो सुई देता था
चाहे वह गाय-भैंस-बकरी हों या आदमी
लेकिन उस गांव में बच्चे पैदा होते थे
और किलकारियां भी भरते थे
उसी तरह मेरे पिता भी अजीब थे
मैंने बचपन से ही उनकी खानों में
उनकी जवानी के दिनों की
इतिहास की मोटी-मोटी किताबों को देखा था
पिता सुबह-सुबह हनुमान चालीसा पढ़ते
और मैं गोद में ऊंघता रहता था
रात में पिता इतिहास के गोते लगाते और
हम सब भाई-बहन पिता के साथ
1857 की क्रांति की तफ्तीश करने निकल जाते
और फिर उस क्रांति की असफलता का अवसाद
इन वर्षों को लांघ कर
पिता के चेहरे पर उतर आता
पिता गमगीन हो जाते
और पिता की आंखों से आंसू झरने लगते थे
लेकिन जिन्दगी बहुत ठहरी हुई थी
गांव में बिजली नहीं थी और मैं
पिता को अपने कान में फिलिप्स का रेडियो लगाये
हर रोज देखा करता था
उस रेडियो पर पिता ने चमड़े का एक कवर चढ़ा रखा था
जिसे वे बंडी कहते थे
इंदिरा गांधी की हत्या की खबर सुनी थी
उसी रेडियो पर पिता ने
राजीव गांधी की हत्या की भी खबर सुनी थी
आज पिता जीवित होते तो देश से जुड़ने का सहारा
आज भी उनके पास रेडियो ही होता
वह रेडियो आज भी हमारे पास है
और आज भी घुप्प अंधेरे में बैठकर हम
उसी रेडियो के सहारे
इस दुनिया को भेदने की कोशिश करते हैं
और वहां मेरा कई देशी उपचारों से साबका पड़ता
पिता का पैर कटता और मिट्टी से उसे ठीक होते मैंने देखा था
गहरे से गहरे घाव को मैंने वहां
घास की कुछ खास प्रजाति के रस की चंद बूंदों से ठीक होते देखा था
दूब का हरा रस टह-टह लाल घाव को कुछ ही दिनों में
ऐसे गायब कर देता जैसे कुछ हुआ ही नहीं था
बच्चों के जन्म के बाद उसकी नली
हसुए को गर्म कर उससे काटी जाती थी
मां ने ग्यारह बच्चे पैदा किए थे
जिनमें हम तीन जीवित थे
आठ बच्चों को पिता ने अपने हाथों से दफनाया था
और पिता क्या उस गांव का कौन ऐसा आदमी था
जिसने अपने हाथों से
अपने बच्चों को दफनाया नहीं था।
और पिता के दुख का सबसे बड़ा कारण भी यही था
पिता 1857 की जिस क्रांति के असफल होने पर
जार-जार आंसू बहाते थे
उन्हीं आंसुओं से उस गांव में हर साल बाढ़ आती थी
कोसी नदी का प्रलय हमने करीब से देखा था
उस नदी के सहारे आये विषैले सांप
पानी के लौटते-लौटते दो-तीन लोगों को तो
अपने साथ ले ही जाते थे हर साल।
अपनी खेत पर मेहनत करने से रोकती थी
एक फसल कटने के बाद मेरे पिता
बस उस खेत पर कोसी नदी के मटमैले पानी का इंतजार करते थे
पिता अपनी खेत की आड़ पर बैठे रहते थे
और कोसी नदी का पानी
धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ता था
पहले एक पतली धार से पानी धीरे-धीरे घुसता था
और फिर एक दहाड़ के साथ।
और जहां बहुत दिनों तक सूखा रहता था
मेरे पिता ने अपने आठों बच्चों को वहीं दफनाया था
और पिता ही क्या गांव के हर आदमी ने अपने बच्चों को
वहीं दफनाया था
कहते थे अंधेरी रात में वहां एक औरत दिखती थी
एकदम ममतामयी
एक-एक कब्र से बच्चों को निकालकर दूध पिलानेवाली
अपनी पायलों की रुनझुन रुनझुन की आवाज़ के साथ
उस कब्र में सोते रहते थे और उस ममतामयी मां के
आंचल से दूध पीते रहते थे
जब तक कोसी नदी अपने साथ उन बच्चों को
वापस नहीं ले जाती थी
कोसी नदी की बाढ़
उस जगह को खाली करती
और फिर कुदाल चलाने पर वहां कभी भी
बच्चे की खच्च से कटने की आवाज़ नहीं आती।
और जिनकी आंखों से 1857 की असफल क्रांति को याद कर
झरते थे झर-झर आंसू
इस ठेठ गांव में चाहते थे एक क्रांति
ठाकुर रणविजय सिंह के खिलाफ
जिनके नाम से इस कोसी नदी के विनाश को रोकने के लिए
बहुत पहले निकला था टेंडर
जिनके नाम से सरकारी खजाने से निकला था
सरकारी अस्पताल बनने का पैसा।
जहां मेरे पिता हर बृहस्पतिवार को तरकारी के नाम पर
खरीदा करते थे झींगा और रमतोरई
लेकिन पिता ने तब कभी सोचा नहीं था कि
ठीक उसी जगह पर एक दिन गिरेगी उनकी लाश
उनकी वह पथरायी लाश जो मुझे आज भी याद है
जस की तस।
और अन्य दिनों लोगों को करते थे इकट्ठा
वे कहते थे हमारी हल्की आवाज़
एक दिन गूंज में तब्दील हो जायेगी
पिता कहते थे, उस विषैले सांप के डसने से पहले
हमें ही खूंखार बनना होगा
उसी हटिया वाले मैदान के बगल वाले कुंए की जगत पर बैठकर
पिता हुंकार भरते थे
पिता का चेहरा लाल हो जाता था
और उनकी लाली से उस कुंए का पानी भी लाल हो जाता था
पिता कहते थे हमें कम से कम जिंदा रहने का हक तो है ही
तब कुंए का पानी भी उनके साथ होता था
और वह भी उनकी आवाज़ में अपनी आवाज़ मिलाकर
बाहर फेंकता था
पहली बार जब पिता नहीं जानते थे
तब इस दूसरी आवाज़ पर अन्य लोगों के साथ
पिता भी चौंके थे।
उनके साथ कुछ आवाजें थीं
कुछ इच्छाएं और कुंए के पानी का साथ
तब पिता बहादुर शाह ज़फ़़़र बन गए थे
एक क्रांति का अगुवा
लेकिन पिता बहादुर शाह जफ़र जितने बूढ़े नहीं थे
न ही बहादुर शाह ज़फर के जैसी उनकी दाढ़ी ही थी।
ठाकुर रणविजय सिंह की हवेली पर
अपने सवाल का उत्तर मांगने जाने वाले थे उसी दिन
पुलिस आयी थी
हमने पहली बार उसी दिन अपनी आंखों के सामने
नंगी पिस्तौल उस दारोगा के हाथ में देखी थी
वह पिस्तौल एक खाकी रस्सी से
उसकी वर्दी से गुंथी थी
और फिर पिता को गोली दाग दी गयी थी
पिता के फेफड़े की हड्डी को तोड़कर घुसी होगी
और पिता एक गोली में ही मर गये
उसी हटिया में जहां वे तरकारी खरीदते थे
दारोगा की उस एक गोली ने पिता की ही नहीं
उस गांव की उम्मीदों की भी मार दिया था
लेकिन उस पर बहुत देर तक मक्खियां भिनभिनाती रही थीं
और फिर उस लाश को कहीं गायब कर दिया गया था
सदा याद रखा जायेगा
को यह मालूम नहीं है कि उसने उस दिन मेरे पिता को नहीं
बहादुर शाह ज़फ़र को मार दिया था।
कुछ पता नहीं चला
उन्हें जलाया गया, दफनाया गया
कोसी नदी में फंेक दिया गया
या फिर चील कौओं ने उनकी बोटी-बोटी नोच ली
हम घरवालों के साथ-साथ हमारे गांव वालों को भी कुछ मालूम नहीं है
मेरे पिता मर नहीं पाये
मेरे पिता मर नहीं पाये लेकिन इसलिए नहीं कि
उन्होंने गांव की क्रांति के लिए
इस अनुपजाऊ भूमि पर क्रांति का बिगुल फूंका था
बल्कि इसलिए कि मेरे पिता की मौत ने
सभी के दिलों में एक भयावह डर भर दिया था
सबके कानों में पिता के फेफड़े की हड्डियों की
कर्र से टूटने की छोटी सी आवाज आज भी जस की तस बजती है
लेकिन आज भी सब वैसा ही है
हवाएं तेज हैं लेकिन गांव ठंडा है
उस हटिया में जब भी तरकारी लेने जाता हूं तब हर बार
पिता की लाश से टकराता हूं
हर बार पिता मुझसे कहते हैं
कम से कम तुम अपनी आवाज़ को ऊंचा करो।
और न ही कोसी नदी की विनाशकारी बाढ़ को रोकने का उपाय है
अब मेरे सहित मेरी उम्र के सभी लोगों के बच्चे
पट-पट कर मरना शुरू हो गये हैं
और फिर वही सब
कोसी नदी के किनारे दफनाने की प्रक्रिया
रात में दूध पिलाने वाली मां का आना
और बच्चों का उस ममतामयी मां का इंतजार करना
और फिर वही कोसी नदी का अपने लौटते पानी के साथ
बच्चों को अपने साथ ले जाना
और सोचता हूं इस बाढ़ के मंजर को सुनना और देखना
कितना आनन्द देता होगा उनको
इस गांव के बारे में सोचना भी बहुत कठिन है
मैं अभी जिन्दा हूं
लेकिन मुझे अपने पिता का मृत चेहरा याद है
इसलिए इस गांव में कोई क्रांति नहीं होगी।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
Ye Sirf kavita nahi… Kuch shabdon ki rakh me dabi aag hai… Uma Shankar jee or Bimlesh jee ka bahut bahut aabhar Ek achchhi Rachna hum tak pahuchane ke liye…
अभिव्यक्ति में भी क्राँति की महक होती है, यह एहसास और गहरा हो जाता है इस कविता को पढ़ने के बाद। मुझे लगता है कि कवि अपने उद्देश्य में कामयाब हो गए हैं।
Awesome….