केदारनाथ सिंह के काव्य में लोक संस्कृति और लोकतंत्र
“पिछले 20-21 साल से दिल्ली में हूं, इससे पहले गांव से ज्यादा निकटता थी। अब भी गांव में जाता हूं, तो सिंपल कारण यह है कि मेरी जड़ें गांव में हैं। मेरा यह मानना है कि रचना जिन तत्वों से बनती है उसमें रचनाकार के उन अनुभवों और स्मृतियों का बड़ा हाथ होता है जो उसने वयस्क होने से पूर्व अपने आसन्न परिवेश से प्राप्त की थीं, खास तौर से बचपन की स्मृतियां। मेरे लिए इम स्मृतियों का कोश गांव है..।” 1
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यह दुहराने की जरूरत नहीं कि केदारनाथ सिंह का लोक से गहरा रिश्ता है। अपने गांव से जुड़ाव की बात वे खुद भी कई जगहों पर स्वीकार करते हैं और शुरू दौर से लेकर आज भी गांव के प्रति उनका प्रेम कम नहीं हुआ है। यह वह गांव है जो लोक संस्कृति को सदियों से अपने पेट में छुपाए हुए है और आज भी उसकी सत्ता मिटते-मिटते भी मिटी नहीं है।
लोक की एक खास विशेषता यह है कि उसकी अपनी विरासत लिखित न होकर मैखिक होती है जो पीढी-दरपीढ़ी लागातार समय को चिरती हुई अविरल गति से चलती रहती है। यह लोक संस्कृति जब किसी कविता या कहानी में प्रकट होती है तो उसका स्वरूप वही नहीं रह जाता जो वास्तव में होता है। कई बार सर्जक कलाकार जाने या अनजाने लोकसंसकृति के तत्वों का इस्तेमाल अपनी रचनाओं में करते हैं। डॉ. श्यामसुंदर दुबे ने लिखा है – “लोक संस्कृति में निरंतर प्रयोग की जीवंत प्रक्रिया सन्निहित रही है – अतः वह अपने सांस्कृतिक आयामों में परमपरा-विछिन्नता के अंतरालों से खंडित नहीं हुई है। यह एक अलग बात है कि लोक संस्कृति के आदिम प्रवाह के प्रतीक तीर्थ हमारी दृष्टि से ओझल होते गए हैं।”2
केदारनाथ सिंह कि एक अद्वितीय विशेषता यह रही है कि वे अपनी लेखन की समग्री को लोक से ग्रहण करते हैं। लोक में प्रचलित समृतियां, लोक कथाएं, लोक गीत एवं वहां के रहने वाले लोगों पर उनकी गहरी नजर है। भले ही वे शुरूआती दौर से ही पढ़ाई के लिए बनारस चले आए, लेकिन अपने गांव से उनका संबंध निरंतर बना रहा, और इस संपर्क ने उनकी कविता को न केवल शब्दों और भाषा से समृद्ध किया वरन् लोक को देखने की एक अलग दृष्टि भी प्रदान की। उनकी कविताओं में लोक किसी हाहाकार की तरह नहीं आया है, उस तरह नहीं कि वहां के लोग बहुत पिछड़े हुए हैं या रोआइन-पराइन चेहरे लिए हुए हसरत भरी निगाह से शहर या लोक की तरफ देख रहे हैं। उनके लोक की एक खास विशेषता यह है कि वहां के लोग समूह में विश्वास करते हैं, गरीबी और अभाव के बावजूद उनकी आंखों में एक तरह की चमक है और किसी भी संकट से भीड़ने-लड़ने का अदम्य उत्साह भी। पानी में घिरे हुए लोग, टमाटर बेचती बुढ़िया या माझी का पुल जैसी कविताएं इसका ज्वलंत उदाहरण है। माझी का पुल कविता जो उनके गांव की नदी के पास बने हुए पुल को आधार बनाकर लिखी गई है, उस कविता को इस संदर्भ में याद करना समीचीन होगा। पूरी कविता में माझी का पुल एक जीवंत व्यक्तित्व की तरह उपस्थित है, और उस पुल के साथ गांव के लोगों का जो संबंध है वह भी कविता में अबिव्यक्त है। जब लालमोहर हल चलाते हुए थक जाता है और उसे खैनी की तलब लगती है तो वह बैलों की सिंहों के बीच से माझी का पुल देखता है –
“लालमोहर हल चलाता है
और ऐन उसी वक्त
जब उसे खैनी की जरूरत महसूस होती है
बैलों की सींगों के बीच से दिख जाता है
मांझी का पुल” 3
या इसी सदर्भ में झपसी जो भेड़ चराता है, उसकी भेड़े जब चरती हुई थक जाती हैं, तब –
“झपसी की भेंड़ें –
उसने बारहा देखा है –
जब चरते-चरते थक जाती हैं
तो मुंह उठाकर
उस तरफ देखने लगती हैं
जिधर मांझी का पुल है” 4
कुमार कृष्ण लिखते हैं – केदारनाथ सिंह की “… कविता में कहीं भुनते हुए आलू की खुशबू है तो कहीं एक अद्भुद ताप और गरिमा के साथ चूल्हे पर पकने वाली दुनिया की सबसे आश्चर्यजनक चीज रोटी की गंध है। नमक और पानी है। भूखा आदमी है। घने के कोहरे में पिता की चाय के लिए नुक्कड़ की दुकान तक दूध खरीदने के लिए जाने वाला बच्चा है। तम्बाकु के खेत हैं। टमाटर बेचनेवाली बुढ़िया है। बैल हैं। घास के गट्ठर हैं। भूसे की खुशबू है। लकड़हारे की कुल्हाड़ी का स्वर है और पत्थरों की रगड़ और आटे की गंध से धीरे-धीरे छनकर आने वाली मां की आवाज है।” 5
1.1 केदारनाथ सिंह का गांव कैसा है, यह प्रश्न बार-बार पूछने का मन करता है। क्या यह गांव ‘अहा ग्राम जीवन भी क्या है’ या ‘प्रकृति की गोद में खेल रहा शिशु मौन’ की तरह कोई अजूबा चीज है, जिसे कोई शहर का आदमी पढ़कर गाव जाने के लिए तरसने लगे। केदारनाथ सिंह के पहले साहित्य विशेषकर कविता में जो गांव आया है, वह कुछ इसी तरह का गांव है। पहली बार केदार जी के यहां एक ऐसा गांव अभिव्यक्त होता हुआ दिखायी पड़ता है जो अपनी सत्ता और अस्तित्व में परिपूर्ण है, वह गांव किसी नॉस्टेल्जिया की तरह नहीं आता, बल्कि वह अपनी पूरी संसकृति, गरिमा विश्वास और दैन्यदिन संघर्ष के अद्भुद सौन्दर्य की तरह आता है। इसके कारण भी हैं। केदार जी स्वयं स्वीकार करते हुए एक साक्षात्कार में कहते हैं- “मेरा आरंभिक जीवन गांव में बीता। मेरा परिवार कृषि व्यवसाय से जुड़ा था, इसलिए घर में जो माहौल था, वह बिलकुल वैसा ही था जैसा कि एक किसान परिवार में होता है। साहित्यिक माहौल गांव में कोई नहीं था, पर लोक-जीवन की जो अपनी स्वतःस्फूर्त रचनाशीलता होती है, वह मेरे गांव में थी। और यदि मैं कहूं कि वहीं से पहले-पहल अपनी काव्य-दीक्षा आरंभ की तो अनुचित न होगा..।”6 जाहिर है कि वह जो बचपन में जो संस्कार कवि मानस पर पड़े उसकी गूंज उनकी संपूर्ण कविता –यात्रा में दिखाई पड़ता है। केदार जब विदेस में होते हैं तब भी उनके जेहन में कहीं न कहीं एक गांव होता है, जो उन्हें अनुप्राणित करता- उर्जा देता हुआ प्रतीत होता है। केदार स्वीकार भी करते हैं – “बचपन गांव में बीतने से, मेरे अंदर एक स्मृतिलोक है जो गांव के दृश्यों, लोगों और घटनाओं से मिलकर बना है।.. गांव में बहुत सारी चीजें ऐसी हैं जिनसे मेरा अटूट लगाव है। वहां की प्रकृति, गांव के लोगों का संघर्ष,, उनकी समस्याएं मुझे टोकती हैं। गांव में अब भी एक चीज है जो जो मुझे बार-बार प्रभावित करती है, वह है – सामूहिकता। यह संभावना गांव में अब भी बची हुई है। फिर हिन्दी कविता की अपनी परंपरा शुरू से ही गांव से जुड़ी रही है। मुझे लगता है कि मेरे अंदर एक किसान के लगाव हैं और उससे जुड़े संकेत मेरी रचना में भी हैं।”7
आशय यह है कि केदार के लिए गांव एक समूह है, एक सामुदायिकबोध, जिसे सभ्यता के विकास की अंधी दौड़ में हम विस्मृत करते चले गए हैं। यह सामूहिकबोध गांव में अब भी मौजूद है और यह सामूहिकता लोक संस्कृति का भी एक खास लक्षण है जो केदार की कविताओं में सर्वत्र दृष्टिगत होती है। इस संदर्भ में पानी में घिरे हुए लोग कविता की याद आती है, जो गांव के लोगों के सामूहिक बोध और संघर्ष को बहुत ही कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करती है –
“यह कितना अद्भुत है
कि बाढ़ चाहे जितनी भयानक हो
उन्हें पानी में थोड़ी-सी जगह ज़रूर मिल जाती है
थोड़ी-सी धूप
थोड़ा-सा आसमान
फिर वे गाड़ देते हैं खम्भे
तान देते हैं बोरे
उलझा देते हैं मूंज की रस्सियां और टाट
पानी में घिरे हुए लोग
अपने साथ ले आते हैं पुआल की गंध
वे ले आते हैं आम की गुठलियां
खाली टिन
भुने हुए चने
वे ले आते हैं चिलम और आग”8
……
“वे जला देते हैं
एक टुटही लालटेन
टांग देते हैं किसी ऊंचे बांस पर
ताकि उनके होने की खबर
पानी के पार तक पहुंचती रहे
फिर उस मद्धिम रोशनी में
पानी की आंखों में
आंखें डाले हुए
वे रात-भर खड़े रहते हैं
पानी के सामने
पानी की तरफ
पानी के खिलाफ..”9
गांव में आयी बाढ़ किस तरह गांव के लोगों के एकजुट कर उससे लड़ने की ऊर्जा और शक्ति देती है, यह कविता इसका जीवंत प्रमाण है। साथ ही इस कविता में आए लोग, उनकी गतिविधियां और देशज शब्द गंवई संसकृति का एक जीवंत दस्तावेज प्रस्तुत करते हैं।
केदार के यहां गांव जाने को लेकर एक कश्मकश भी दिखायी पड़ता है। बहुत दिनों तक शहर में रहने के बाद कवि जब अपने गांव पहुंचता है तो गांव और गांव के लोगों को लेकर कविता में उभरी प्रतिक्रिया हमें एक दूसरे कोण से गांव को समझने को उकसाती है। गांव से कवि का टूट गया नाता फसे विचलित ही नहीं करता उसे ठहकर सोचने के लिए भी बाध्य करता है। गांव आने पर कविता में वह एक अजीब तरह के संशय से भरा हुआ दिखता है –
“एक बूढ़े पक्षी की तरह लौट-लौटकर
मैं क्यों चला आता हूं बार-बार?
..
यह हवा
मुझे घेरती क्यों है?
क्यों यहां चलते हुए लगता है
अपनी सांस के अंदर के
किसी गहरे भरे मैदान में चल रहा हूं।”10
लेकिन जो तथ्य उभर कर सामने आता है कि गांव में आकर कवि अपनी सांस के किसी गहरे भरे मैदान में चलते हुए महसूस करता है और गांव के लोग वहीं हैं जो उसके अपने हैं और हर बार जब वह अपने गांव आता है उसे ‘अपनी घड़ी की सुई ठीक करनी पड़ती है’11, अर्थात् खुद को फिर से टटोलना और अपडेट करना होता है। साथ ही कवि की कविताओं में उनके गांव के कई लोग आनायास ही आते रहते हैं जैसे, झपसी, लालमोहर, कैलाशपति निषाद इत्यादि। तात्पर्य यह कि केदार की कविता की एक बहुत बडी जमीन उनका गांव या उनका लोक है, जो उनकी कविता में बार-बार अवतरित होता है, अपने पूरे समूह अपनी पूरी लयबद्धता, संघर्ष और जिजिविषा के साथ और यह गांव तब सिर्फ गांव नहीं रहता एक पूरे लोक या पूरे विश्व का प्रतिनिधि बन जाता है। केदार की कविता के गांव की यह एक अद्वितीय विशेषता है जो उनके समकालीन कविता और कवियों में दुर्लभ है।
1.2 केदारनाथ सिंह अपनी कविताओं में लोक को लेकर अत्यन्त सजग हैं। उनके लिए उनका लोक सिर्फ गांव या गांव की संस्कृति नहीं है, उन्होने अपनी कविता में इस संसकृति को एक गरिमा और ऊंचाई प्रदान की है। लोक संस्कृति के बारे में यह एक प्रचलित धारणा है कि वह एक पिछड़ी हुई संस्कृति है, जो शिष्ट नागर सभ्यता की ओर हसरत भरी निगाह से देखती है या अगर देखती नहीं तब भी अपने विश्वास और परंपराओं को अपने साथ ढोती हुई रहती है। एक उसी तरह की परंपरा अंधविश्वास भी है जो लोक में प्रचलित एक आम धारणा है। लोक संस्कृति अपने पेट में कई अच्छी चीजों के साथ कई ऐसी चीजों को भी धारण किए हुए चलती है, जिसकी जरूरत समय के साथ शेष हो गई है। केदार की दृष्टि जब इन लोक विश्वासों की ओर जाती है, तब भी वे वहां उसे एक साकात्मक शेड देने में कामयाब होते हैं। जाहिर है कि यह केदार की भाषा की ही ताकत है कि वे ऐसा करने में कामयाब होते हैं, लेकिन इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि लोक विश्वासों या अंधविश्वसों के मध्य भी एक तरह की जो मूल्य चेतना या साकारत्मक संचेतना है, वह भी केदार की कविता में मुखर है। भूतों के बारे में लोक में एक तरह का अंधविश्वास सर्वविदित है। लोक संस्कृति का एक अभिन्न अंग रहा यह लोक विश्वास जब केदार की कविता में प्रकृ होता है तो किस तरह इसका बढ़िया उल्लेख डॉ. विजयमोहन सिंह ताल्सताय और सायकिल पर लिखते हुए करते हैं। लिखते हैं – “भूतहा बाग के भूत भी भाग गए हैं कहीं और रहने की खोज में।.. गांव के ये भूत इतने निरीह और गरीब होते थे कि रास्ते में किसी राही से महज़ कभी-कभी मांग लेते थे ‘चुटकी भर सुर्ती या महज एक बीड़ी’।”12 इसी तरह पीपल के पेड़ के बारे में केदार की कविता जो संकेत करती है, उसका उल्लेख करते हुए वे आगे लिखते हैं – “..वीरान पीपल भी कट चुका है। जब वे होते थे तो बचाकर रखते थे कोई बावड़ी, कोई झुरमुट, एकांत में कोई छतनार पेड़ जो अक्सर गांव के पागल युवा प्रेमियों के लिए सबकी आंख बचाकर मिलने के लिए ‘सेहत स्थल’ का काम करते थे।”13यहां एक और कविता की याद आती है जो अकाल और सारस में संकलित है। मरने के बाद शव को जब फूंककर गांव के लोग आते हैं तो एक परंपरा के अनुसार कई तरह की रश्में करनी होती हैं। यह लोक में प्रचलित एक ऐसी परंपरा है जो अब भी बदस्तुर जारी है। कविता का नाम है न होने की गंध। कविता देखें –
..
“और अब हम लौट रहे थे
क्योंकि अब हम खाली थे
सबसे अधिक खाली थे हमारे कन्धे
क्योंकि अब हमने नदी का
कर्ज़ उतार दिया था
न जाने किसके हाथ में एक लालटेन थी
धुंधली-सी
जो चल रही थी आगे-आगे
यों हमें दिख गई बस्ती
यों हम दाखिल हुए फिर से बस्ती में
उस घर के किवाड़
अब भी खुले थे
कुछ नहीं था सिर्फ़ रस्म के मुताबिक
चौखट के पास धीमे-धीमे जल रही थी
थोड़ी-सी आग
और उससे कुछ हटकर
रखा था लोहा
हम बारी-बारी
आग के पास गए और लोहे के पास गए
हमने बारी-बारी झुककर
दोनों को छुआ
यों हम हो गए शुद्ध
यों हम लौट आए
जीवितों की लम्बी उदास बिरादरी में” 14
इस तरह के लोक विश्वास केदार जी की कविताओं में यत्र-तत्र देखने को मिल जाते हैं। कई बार ये विश्वास शंश्लिष्ट बिंबों की शक्ल में आते हैं। जैसे एक कविता में ‘एक हल्दी- रंगे ताजे दूरदर्शी पत्र –सा’15 का जिक्र आता है, इस कविता में कवि ने कोई और बात कहने के लिए हल्दी-रंगे पत्र का व्यवहार किया है। लोक में यह विश्वास है कि कोई पत्र यदि हल्दी रंग में रंग कर आता है, तो वह कोई शुभ समाचार लेकर आता है। आज भी गांवों में जब कोई शुभ संदेश देना होता है, तो उसे लिखकर उसपर हल्दी के छींटे मार दिए जाते हैं। हल्दी सदियों से लोक में एक शुभ वस्तु के रूप में मौजूद रही है, बिना हल्दी के न तो वैवाहिक रश्म पूरे होते हैं, खोइंछा भराता है, और न ही चुमावन होता है। कई बार परदेश जाते समय लोग अपनी गांठ में एक हल्दी बांध लेते हैं, इस विश्वास के साथ कि इस तरह उनकी यात्रा शुभ हो जाएगी। ठीक इसी तरह के लोक विश्वास कविताओं में परदर्शी शंश्लिष्ट बिंब के रूप में कुछ सूत्र जो किसान बाप ने बेटे को दिए नामक कविता में उभर कर आते हैं। पंक्तियां द्रष्टव्य हैं –
“मेरे बेटे
कुँए में कभी मत झाँकना
जाना
पर उस ओर कभी मत जाना
जिधर उड़े जा रहे हों
काले-काले कौए
हरा पत्ता
कभी मत तोड़ना
और अगर तोड़ना तो ऐसे
कि पेड़ को ज़रा भी
न हो पीड़ा
रात को रोटी जब भी तोड़ना
तो पहले सिर झुकाकर
गेहूँ के पौधे को याद कर लेना
अगर कभी लाल चींटियाँ
दिखाई पड़ें
तो समझना
आँधी आने वाली है
अगर कई-कई रातों तक
कभी सुनाई न पड़े स्यारों की आवाज़
तो जान लेना
बुरे दिन आने वाले हैं
…………
कभी अँधेरे में
अगर भूल जाना रास्ता
तो ध्रुवतारे पर नहीं
सिर्फ़ दूर से आनेवाली
कुत्तों के भूँकने की आवाज़ पर
भरोसा करना
मेरे बेटे
बुध को उत्तर कभी मत जाना
न इतवार को पच्छिम ”16
इस कविता को पढ़कर कोई भी यह समझे बिना नहीं रह सकता कि केदार कि कविताओं में लोक में प्रचलित विश्वास किस तरह अपनी पूरी सच्चाई, सादगी और और सांस्कृतिक गरिमा के साथ आया है। असल में जितनी भी बोतें इस कविता में लिखी गई हैं वह लोक संसकृति की अंग हैं। लोक में इस तरह के लोकविश्वास आज भी प्रचलित हैं, जैसे कुंएं में नहीं झांकना, उधर नहीं जाना जिधर काले कौए उड़े जा रहे हों, हरी पत्ती को नहीं तोड़ना क्योंकि इससे पेड़ को पीड़ा होती है। लोक में यह विश्वास भी प्रचलित है कि पेड़ को काटने से पेड़ श्राप देते हैं और तुलसी के पत्ते तोड़ने के पहले तुलसी के पौधे को प्रणाम किया जाता है, यह भी कि तुलसी के पत्ते कुछ खास दिन को ही तोड़े जा सकते हैं। इसी तरह लोक की यह संसकृति है कि खाने से पहले अन्न को देवता मानकर उसे प्रणाम किया जाता है और जब लाल चिट्टियां आंधी और बारिश की सूचना देती हैं। इनमें से कई तथ्यों को आज वैज्ञानिक कसौटी पर भी कसकर देखा जा रहा है। आज वैज्ञानिक रूप से यह तथ्य साबित हो चुका है कि पेड़-पौधों में भी प्राण होते हैं।
कहने का तात्पर्य यह कि केदार जी कई बार कोई बड़ी बात कहने के लिए लोकविश्वास और लोक संस्कृति का सहारा लेते हैं, जो उनकी स्मृतियों में गहरे कहीं अनुस्युत हैं। कई बार यह लोक विश्वास इतने जीवंत होते हैं कि उनके बिना केदार की कविता की कल्पना करना लगभग असंभव-सा लगता है।
1.3 केदारनाथ सिंह की कविताएं बतकही की कविताएं हैं। जिसतरह जाड़े के दिनों में कई लोग बोरसी के आग के चारों ओर बैठकर बातें करते हैं, उसी तरह केदारजी भी कविता करते हैं। उनको पढ़ते हुए कभी भी ऐसा नहीं लगता कि हम किसी गंभीर या बोझिल बहस की ओर जा रहे हैं। बात वे गंभीर ही कह रहे होते हैं, लेकिन उनके कहने में एक गंवई सादगी है। जैसे कोई लोक कलाकार लय में गाते-गाते लोक की पीड़ा भी अभिव्यक्त कर जाए।
केदार बहुत ही हल्के फुल्के ढंग से बात करना शुरू करते हैं और कहते-कहते अपनी बात को एक ऐसी ऊंचाई पर ले जाकर छोड़ते हैं कि पाठक अवाक् और विस्मित रह जाता है। असल में यह शैली भी केदार जी ने लोक से ग्रहण की है। लोकसंस्कृति में लोक गाथाओं का बहुत महत्व है। ये गाथाएं कहीं लिपिबद्ध नहीं हैं, इनका आधार मानव स्मृतियां हैं। स्मृतियों की डोर थामें ये लोक में समय की कितनी नदियां पारकर चली आयी हैं और आज भी अविरल प्रवाहित हैं। केदार की कविताओं में यह कहन की शैली मौजूद है जो केदार को पठनीय तो बनाती ही है, साथ ही केदार की कविताओं की लोकपरकता को भी सिद्ध करती हैं।
यही कारण है कि कवि की कविताओं में ‘अब क्या किया जाए’, ‘कोई बताए’, ‘अब यह सवाल उठता है’, ‘कौन बतलाए’, ‘कहूं तो कैसे कहूं’, ‘सोचता हूं कि कह दूं’, ‘चला तो आया हूं’, ‘क्या करूं’, ‘कहां जाऊं’आदि जैसे पदबंधों का प्रयोग बहुतायत मात्रा में मिलते हैं। कवि-कथाकार एवं आलोचक श्रीप्रकाश शुक्ल लिखते हैं – “इस तरह से बतकही का अंदाज, केदार का अपना अंदाज है। जिसके माध्यम से गंभीर बात को भी सहजता से वे कहते हैं। शायद यही कारण है कि उनकी कविताओं में प्रायः ‘अब क्या करूं’शब्द आता है, जैसे कोई कथावाचक, कथा कहते-कहते अचानक ‘अब आगे क्या’कहकर कहानी में कौतुहल उत्पन्न कर डालता है।”17 इस शैली का एक उदाहरण यहां पर देखना दिलचश्प होगा –
तुम्हें नूर मियां की याद है केदारनाथ सिंह?
गेहुंए नूर मियां
ठिगने नूर मियां
रामगढ़ बाजार से सुर्मा बेचकर
सबसे अखीर में लौटने वाले नूर मियां
क्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंह?
तुम्हें याद है मदरसा
इमली का पेड़
इमामबाड़ा
क्या तुम्हें पता है
इस समय वे कहां हैं
ढाका
या मुल्तान में?
क्या तुम बता सकते हो
हर साल कितने पत्ते गिरते हैं
पाकिस्तान में?
तुम चुप क्यों हो केदारनाथ सिंह
क्या तुम्हारा गणित कमजोर है?18
इस कविता में कवि खुद से बात करता है। यह है बतकही जिसमें केदारनाथ सिंह खुद से सवाल पूछते हुए पूरे समय से सवाल पूछ रहे होते हैं। यह लोक की शैली है जिसमें कहावाचक कई बार खुद से ही सवाल पूछता है। कई बार नौटंकी में मसखरे इस तरह की शैली अपनाते थे – वे खुद से ही सवाल पूछते हुए दिखते थे- उनकी इस हरक्कत से लोग उसकी ओर आकर्षित होते थे और हंसते थे। लेकिन असल में वह कई बार चुटकुलों और मुकरियों के बीच समाज की बिडंबनाओं पर व्यंग्य कर रहा होता था। यहां परिदृश्य दूसरा है, केदार गंभीर होकर गंभीर बात कह रहे हैं लेकिन शैली वही लोक की है – एक कथा सुनाने वाले लोक कलाकार की है।
इस शैली से भिन्न लोक में प्रचलित कई कथाओं का भी जिक्र केदार जी करते हुए दिखते हैं। इस लिहाज से उनकी प्रसिद्ध कविता भिखारी ठाकुर19 को याद करना समीचीन होगा। भिखारी ठाकुर बिहार के छपरा जिले में जन्में एक लोक कलाकार थे। जिन्होंने विदेशिया नामक नाच की विधा को लोक में प्रचलित और स्थापित किया। उन्होने कई नाटक भी लिखे, जो पूरी तरह भोजपुरी में थे। ऐसा कहा जाता है कि शुरूआती दौर में वे साड़ी पहनकर लौंडों की तरह नाचते थे। केदार ने भिखारी ठाकुर पर यह अद्भुद कविता लिखी है जो उनके काव्य संग्रह उत्तर कबीर तथा अन्य कविताएं में संकलित है। इसके अलावा कैलाशपति निषाद पर कैलाशपति निषाद की समृति में20 नाम से केदार जी की एक कविता है, जो उनके गांव में रहते थे। इसके अलावा उन्होने लालमोहर, झपसी, आदि लोगों को अपनी कविताओं में याद किया है। अलावा इसके अकाल और सारस कविता में केदार जी ने लोककथा शीर्षक से एक कविता भी लिखी है, इस कविता में उस लोक कथा का जिक्र है जो सदियों से लोक में प्रचलित है, लेकिन केदार की यह एक खास विशेषता है कि वे लोककथा कविता में लोक की विडंबनाओं को उद्घाटित करने से नहीं चुकते। इस तरह लोक और लोक संस्कृति का उद्धाटन करना कवि का मुख्य उद्देश्य नहीं रह जाता, बल्कि लोक में विद्यमान विडंबनाओं की ओर भी संकेत करना उनका लक्ष्य होता है। हां, कहन की शैली वे जरूर लोक से ग्रहण करते हैं जिसका उल्लेख उपर किया जा चुका है। उदाहरण देखें –
“ फिर धीरे-धीरे
बढ़ई
धोबी
नाई
कुम्हार- सब आए
और सब खड़े हो गए
विशाल चमचमाती हुई अर्थी को घेरकर”21
और सबसे बड़ी बात कवि को “विश्वास है कि तलवार में लोहार की आत्मा निवास करती है, ‘दंतकथा’।”22
1.4 केदारनाथ सिंह की कविताओं से गुजरते हुए हमें सहज ही यह लगता है कि लोक से उनकी गहरी संपृक्ति है। उनकी कविताओं में लोकमानस, लोक जीवन और लोक शब्दावली और भाषा एक सहज जीवन प्रवाह की तरह अभिव्यक्त हैं। तारसप्तक की कविताओं में जो लयबद्ध कविताएं हैं उनकी शब्दावली और भाषा में लोक की महक है ही वहां उन्होंने लोक बिंबों का जिस तरह प्रयोग किया है उसे साफ महसूस किया जा सकता है। दुपहरिया, फागुन का गीत, धानों का गीतआदि इसके उदाहरण हैं। रात कविता में लोक संस्कृति की जीवंत झलक इन पंक्तियों में देखी जा सकती है –
रात पिया, पिछवारे पहरू ठनका किया!
कंप-कंप कर जला किया,
बुझ-बुझ कर यह जिया,
मेरा अंग-अंग जैसे,
पछुए मे छू दिया,23
लोक की भाषा और शब्दावलियों के प्रयोग का केदार की कविता में वैसे तो शुरू दौर से ही दिखता है लेकिन समय के साथ उनके प्रयोग में अभिवृद्धि को लक्षित किया जा सकता है। डॉ. स्वप्नील श्रीवास्तव के शब्दों में – “केदारनाथ सिंह के साथ कविता यात्रा करते हुए यह अनुभव होगा कि कवि ने लगातार लोक धरातल की ओर संक्रमण किया है। फलस्वरूप उनकी कविता में एक नई शक्ति आई है। यहां से देखो तथा प्रतिनिधि कविता संकलन में अनेक कविताएं लोक–जीवन और संस्कृति के करीब हैं, उन कविताओं में लोक कविता की ध्वनि सुनी जा सकती है। कवि की लोक चेतना मुखर हुई है जिसके उदाहरण ‘बोझे’, ‘दाने’, ‘रास्ता’, ‘नीम’, ‘गड़रिये का चेहरा’जैसी कविताओं में देखे जा सकते हैं।”24 उक्त कविताओं के कुछ अंश यहां देखे जा सकते हैं –
“बोझे बांधे जा रहे हैं
उपर आसमान में तप रहा है सूरज
और यह कितना अद्भुद है
कि जब तप रहा है सूरज
वे ताबड़तोड़ बांध रहे हैं बोझे
जैसे बोझे
चुराए गए हों
सूरज की ताल से”( बोझे)25
“अब दृश्य बिल्कुल साफ था
अब हमारे सामने
गाय थी
किसान था
रास्ता था
सिर्फ हमीं भूल गए थे
जाता किधर है”26
“नहीं
हम मंडी नहीं जाएंगे
खलिहान से उठते हुए
कहते हैं दाने
जाएंगे तो फिर लौटकर नहीं आएंगे
जाते-जाते
कहते जाते हैं दाने”27 ( दाने)
बस्तुतः केदार की कविताओं में लोक जीवन और लोक संस्कृति की अनेक साक्ष्य प्रमुखता के साथ मिलते हैं। स्वपनील श्रीवास्तव लिखते हैं – “ इधर केदारनाथ सिंह ने ठेठ ग्रामीण अनुभव की कविताएं लिखी हैं, इन कविताओं में उनके गांव का इलाका है, लोक है, संस्कृति है।”28 केदार की ऐसी कविताएं उनके हर संकलन में हैं। यहां तक की उनकी अबतक की अंतिम काव्यकृति ‘ताल्सताय और सायकिल’ में भी लोक जीवन और लोक संस्कृति की तस्वीर पेश करती हुई अनेक कविताएं हैं जो उनके लोक से जुड़ाव की साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं। इस संदर्भ में ‘पूस की रातः पुनश्च’, ‘आग पर चलने का करिश्मा’, ‘इब्राहिम मियां ऊंटवाले’, ‘झरबेरियां’, ‘चिट्टियों की रूलाई’, ‘नया गांव की बत्ती’, ‘खरहे’, ‘भुतहा बाग’, आदि कविताएं उल्लेखनीय हैं। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं –
“तो पाठकगण, इस तरह खत्म हुई
बीसवीं शताब्दी के
एक पूस महीने की रात
वह लंबी अथाह महाभारत जैसी रात
और जब सुबह हुई
तो गांववालों ने देखा
कोहरे से निकलकर एक पतली-सी पगडंडी पर
युधिष्ठिर और उनका कुत्ता
दोनों हिमालय से वापस आ रहे हैं कक” ( पूस की रातःपुनश्च)29
“उस छोटी सी बस्ती के उस ओसारे के सामने
जहां सबसे पहले एक मेमना मिला
जो इस कठिन समय में
भी उछल रहा था बाहर
फिर एक बकरी मिली
जो ठीक वहीं बंधी थी
जहां कभी खड़ा रहता था ऊंट” ( इब्राहिम मियां ऊंटवाले) 30
1.5 केदारनाथ सिंह की कविताओं में लोक संस्कृति की पहचान कविता में प्रयुक्त संश्लिष्ट बिंबों और लोक शब्दावलियों की मार्फत भी करना जरूरी है। केदार तारसप्तक की भूमिका में स्वीकार करते हैं कि वे सबसे अधिक ध्यान कविता के बिंब-विधान पर देते हैं। उन्ही के शब्दों में – “कविता में मैं सबसे अधिक ध्यान देता हूं बिंब-विधान पर। बिंब-विधान का संबंध जितना काव्य की विषय-वस्तु से होता है, उतना ही उसके रूप से भी। विषय को वह मूर्त और ग्राह्य बनाता है। प्रकृति शुरू से मेरे भावों का आलंबन रही है। मेरा घर गंगा और घाघरा के बीच में है। घर के ठीक सामने एक छोटा–सा नाला है जो दोनों को मिलाता है। मेरे भीतर भी कहीं गंगा और घाघरा की लहरें बराबर टकराती रहती हैं। खुले कछार, मक्का के खेत, और दूर-दूर तक फैली पगडंडियों की छाप आज भी मेरे मन पर उतनी ही स्पष्ट है..।”31
कहने की जरूरत नहीं कि केदार की कविता के बिंब निर्माण के मूल में भी उनका लोक और वह लोक संस्कृति है, जिससे बचपन से लेकर अब तक उनका लागातार जुड़ाव बना हुआ है। उसी वक्तव्य में केदार अन्य उपकरणों के साथ ही लोक साहित्य का बिंब निर्माण में भूमिका को महत्व देते हुए लिखते हैं – “मेरा दृढ़ विश्वास है कि आधुनिक जीवन की जटिलताओं और अंतर्विरोधों को व्यक्त करने के लिए लोक-साहित्य, धर्म, पुराण तथा इतिहास के खंडहरों में बहुत से ऐसे अज्ञात प्रतीक और अदृष्ट बिंब पड़े हुए हैं, जिनकी खोज के द्वारा नयी कविता की संभावना का पथ और भी प्रशस्त किया जा सकता है।”32 यह वक्तव्य केदार जी ने अपने पहले संग्रह के प्रकाशन के पूर्व तारसप्तक में दिया था, लेकिन यह गौर करने लायक बात है कि उन्होंने अपने इस वक्तव्य का आद्यन्त निर्वहन किया है। विशेषकर बिंबों के गठन और अपनी भाषा को प्रखर, संप्रेषणीय और जीवंत बनाने के लिए वे बार-बार अपने लोक में लौटते हैं। शुरूआती दौर में उन्होंने ने जो गीत लिखे हैं उनकी उल्स भूमि लोकगीत है। “गीत की जन्मभूमि लोकगीत है, आदर्श भी लोकगीत हैं। गीत को हमेशा अपनी ताकत अर्जित करने के लिए वहीं जाना पड़ेगा।”33 बाद में यह लोक दूसरे ढंग से उनकी कविताओं में काम करता है।
“उनकी काव्य रचनाएं गांव-चौपाल, कस्बे-देहात के भूले-बिसरे चित्रों को संकेतधर्मी अर्थों में उकेरती हैं..।”34 वे लोक संवेदना, लोकानुभूति और लोक चेतना के विलक्षण शब्द शिल्पी हैं। केदार के लोकधर्मी, लोकसंवेदन और लोक चेतना के काव्यलोक में कृषक-जीवन, ऋतु परिवर्तन, बसंत, कवि उदास है तो गीष्म, बादल आए तो धान, पछुआ की शाखें और पुरवा के हाथों के फूल भी हैं। केदार के ही शब्दों में – “आज भारतीय लेखक के सामने सबसे बड़् चुनौता यह है कि वह शब्दों की दुनिया में अपने ठेठ भारतीय शब्द की विलक्षणताऔर पहचान को कैसे बचा कर रखें?”35 और इसमें कोई संदेह नहीं कि केदार जी ने अपनी रचना में उन ठेठ शब्दों को बचाकर रखा है। केदार की रचना में लोक संस्कृति से संश्लिष्ट अनेक बिंबों का प्रयोग लक्षित किया जा सकता है –
“फेन-सा इस तीर पर
हमको लहर बिखरा गई है!
हवाओं में गूंजता है मंत्र-सा कुछ
सांझ हल्दी की तरह
तन-बदन पर छितरा गई है!
पर रूको तो –
पील पल्ले में तुम्हारे
फसल पकती बांध दूं!
यह उठा फागुन बांध दूं!”36
“पर मेरे लिए बता पाना
बहुत मुश्किल है कि इतने दिनों बाद भी
मुझे क्यों याद है
एक बूढ़े उदास गड़रिए का चेहरा
जिसे मैंने एक दिन में
पड़ा हुआ देखा था
जहां उसकी भेड़े पानी पी रही थीं
मैंने देखा
उस चेहरे की झुर्रियों में
अब भी एक जगह थी
जहां एक चिडिया गोसला बना सकती थी..।”37
“निकलता हूं मैं
दूब की तलाश में
खोजता हूं परती-पराठ
झांकता हूं कुंओं में
छान डालता हूं गली- चौराहे
मिलती नहीं दूब
मुझे मिलते हैं मुंह बाए घड़े
बाल्टियां लोटे परात
झांकता हूं घड़ों में
लोगों की आंखों की कटोरियों में
झांकता हूं मैं
मिलती नहीं
मिलती नहीं दूब”38
फिर क्या करें कुंओं का?
क्या उन्हें क्रेन से उठाएं
और रख आएं संग्रहालय में
मैंने धीरे से पूछा। 39
“एक सूई खो गई है
पृथ्वी के दिल में
और दर्जी सुई की नोक में
खो गया है
एक मिट्टी के ढेले में
गुम गया है कुम्हार
और बढ़ई लोप हो गया है
चिरती हुई लकड़ी की गंध में
पथेरा अपने सांचे में
गायब हो गया है
साधक चले गए हैं
शवों की तलाश में”40
इसी तरह यहां से देखो संग्रह में भी केदार जी ने कई शंश्लिष्ट लोक बिंबों का प्रयोग किया है –
“मैं जानता हूं क्योंकि यह धूल
इस कस्बे की
और मेरे पूरे देस की
सबसे जिंदा और खूबसूरत चीज है
सबसे बेचैन
सबसे सक्रिय
पृथ्वी की सबसे ताजा
और प्राचीनतम धूल
जो यहां दिन-भर
आदमी के साथ-साथ
झुनती है रूई
बनाती है गारा
गूंथती है आटा
चराती है बकरियां…”41
“प्रचंड धूप में
इतने दिनों बाद
(कितने दिनों बाद?)
मैंने ट्रेन की खिड़की से देखे
कंटीली झाड़ियों पर
पीले-पीले फल
झरबेर हैं – मैंने अपनी स्मृति को कुरेदा
और कहीं गहरे
एक बहुत पुराने कांटे ने
फिर मुझे छेदा”42
“मेह बरसकर खुल चुका था
खेत जुतने को तैयार थे
एक टूटा हुआ हल मेड़ पर पडा था
और एक चिड़िया बारबार-बारबार
उसे अपनी चोंच से
उठाने की कोशिश कर रही थी”43
“पिछले साठ बरसों से
एक सूई और तागे के बीच
दबी हुई है मां
हालांकि वह खुद एक करघा है
जिस पर साठ बरस बुने गए हैं
धीरे-धीरे तह पर तह
खूब मोटे और गझिन और खुरदरे
साठ बरस”44
इसी तरह के लोक संस्कृति से संवलित बिंब केदार जी की अन्य कविता पुस्तकों में भी देखे जा सकते हैं। इन बिंबों में कई बार एक ऐसा ठेठपन देखने को मिलता है, जो अम्य समकालीन कवियों में खोज पाना लगभग दुर्लभ है। हां, बाद के कवियों में बद्रीनारायण, बोधिसत्व, एकांत श्रीवास्तव, प्रम रंजन अनिमेष, नील कमल और केशव तिवारी ऐसे हैं जिनकी कविताओं में लोक बिंब, लोक की भाषा और लोक संस्कृति के प्रति उनके लगाव दृष्टिगत होते हैं। बहरहाल केदार जी की कुछ अन्य कविताएं इस संदर्भ में यहां उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत की जा सकती हैं –
“गहरे सूर्ख टमाटर
उसकी टोकरी में भरे हैं
धूप टमाटर को
चाकू की तरह चीर रही है
टमाटरों के अंदर बहुत-सी नदियां हैं
और अनेक शहर
जिसे बुढ़िया के अलावा
और कोई नहीं जानता”45
“कथाओं से भरे इस देश में
मैं भी एक कथा हूं
एक कथा है बाघ भी
इसलिए कई बार
जब उसे छिपने को नहीं मिलती
कोई ठीक-ठाक जगह
तो वह धीरे से उठता है
और जाकर बैठ जाता है
किसी कथा की ओट में”46
इसी तरह उनके कविता संग्रह ताल्स्ताय और सायकिल में भी लोक और लोक संसकृति से संपृक्त बिंब लक्षित किए जा सकते हैं जो प्रकारांतर से केदार की कविताओं के लोक से रिश्ते का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं । कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं –
“चुचुहिया की आवाज से भी पहले
उठ जाती थी वह
…
कभी-कभी सूरज उसे खिड़की से इस तरह दिखता था
जैसे सुबह-सुबह अपनी नीली सायकिल पर बैठा
काम पर जा रहा हो
काम पर जाते हुए लोग
दुनिया के सबसे सुंदर लोग होते हैं –
उसे लगता था कि तभी कोई पक्षी
आकर बैठ जाता था सामने के पेड़ पर
देखो न इन पक्षियों को – दुनिया में कितनी कम जगह
घेरते हैं वे – शायद उससे भी कम
जितना उनके नाम घेरते हैं शब्दकोष में..।”47
“सच्चाई यह है
कि अपनी त्वचा के भीतर
मैं आज भी इतना वानस्पतिक हूं
कि जब भी मेरे माथे पर
गिरती है ओस
मेरे भीतर कुछ हो जाता है बेचैन”48
1.6 केदार नाथ सिंह की कवितों में शुरू से लेकर अंत तक लोक का शब्दावलियों का बहुतायत प्रयोग है। कहना चाहिए कि उनकी एक भी कविता बिना लोक की शब्दावली के पूरी नहीं होती। यह कहने में अतिव्याप्ति दोष हो सकता है, लेकिन यहां यह कहने का हमारा आशय इस बात पर जोर देना है कि केदार ने लोक भाषा और लोक की शब्दावली का प्रयोग कर न केवल हिन्दी भाषा और कविता को भाषिक स्तर पर समृद्ध किया है, वरन् इसकी मार्फत अपनी कविता में एक नई और अलहदेपन की चमक भी पैदा की है। सीधे-सीधे लोक और लोक संस्कृति से आए कुछ शब्दों का उल्लेख यहां अप्रासंगिक नहीं होगा – तार सप्तक और अभी बिल्कुल अभी संग्रह में आए उल्लेखनीय लोक शब्द हैं – बिछल, बौर, छुअन, निहाई, टूक-टूक, दुधिया, छिन-छिन, छूंछा-छूंछा, दुपहरिया, झुर-झुर, गमक, फागुल, पाहुन, छलिया, सिरजन, पात, बाट, ढरे, पछुवा, पुरवा, ठनकी, पण्डूक, सिराए, भिनसारे, ठार, गड़ेर, कड़कन, कसकन इत्यादि।
जमीन पक रही है संग्रह में आए लोक के शब्द हैं – ताखे, पतीली, कुल्हाड़ी, बढ़ई, खरहा, सिवार, बंसी, चारा, सिवान, खोंता, लहक, खैनी इत्यादि।
इसके असवा अन्य संग्रहों जैसे, अकाल में सारस, उत्तर कबीर तथा अन्य कविताएं, यहां से देखो, ताल्स्ताय और सायकिल तथा बाघ कविता में ऐसे बहुत सारे शब्द हैं जो सीधे-सीधे लोक से ग्रहण किए गए हैं, जो अपनी पूरी लोक गरिमा के साथ प्रयुक्त हुए हैं। कुछ शब्दों को यहां देखना दिलचश्प होगा – डोलचियां, अड़ियल, फेंकरना, कटोरियां, दूर-देसावर, टिटिहरी, क्नार, तंबियाई, खुर, दसबजिया, दौरी-दुकानें, कछार, बिदेसिया, कुंडी, ललछौंहा, ददरी, पत्तल, बकाइन, साकिन, तोड़ा, खली-भूसी, भुतहा, झुरमुट, चुचुहिया इत्यादि।
{ 2 }
लोकतंत्र और केदारनाथ सिंह की कविता
केदारनाथ सिंह एक साक्षात्कार में स्वीकार करते हैं – “प्रतिबद्धता एक रचनाकार की होती है तो वह उस मनुष्य के प्रति होती है, जिसको सामने रखकर वह रचना करता है।”49 अगर केदार की प्रतिबद्धता की तलाश करें तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि उनकी प्रतिबद्धता उन लोगों के प्रति है जिसे लोकतंत्र की शब्दावली में आम आदमी कहा जाता है, वह आम आदमी जिसे लोकतंत्र की नींव के रूप में जाना-पहचाना जाता है, क्योंकि लोकतंत्र को लोक का तंत्र या आम आदमी का तंत्र कहा जाता है, जिसे लोकतंत्रीय शब्दावली में हम जनता कहते हैं, और वह जनता वह होती है, जो एक देश में निवास करती है, और उस देश को अपना कहती है, और कानूनी तौर पर उस देश का नागरिक होती है।
कहना चाहिए कि केदार जब ‘आदमी’ की बात कहते हैं तो उनकी दृष्टि उस जनता पर ही होती है, जो 60 साल की आजादी के बाद भी भूखी-नंगी है, लेकिन फिर भी वह संघर्षरत है, और बेहतर होने या घटने का आज भी शिद्दत से इंतजार कर रही है, कई बार मुखर होकर और कई बार निराशा में चुप रहते हुए। केदार इस आम जनता के संघर्ष से उत्साहित होते हैं, पर उसकी खामोशी उन्हें परेशान भी करती है। इसलिए “हर बड़े कवि और प्रतिनिधि कवि की तरह केदारनाथ सिंह भी सबकी ओर से और साथ-साथ अपनी ओर से बोलते हैं। यह द्विगुभाव ही, यह दुरूखापन ही कविता की शक्ति है।”50 केदार जी एक कविता में लिखते हैं –
“मैं उनकी तरफ से बोल रहा हूं
जो चले गए हैं काम पर
और यद्दपि इस छोटे से घर का
एक छोटा-सा गवाह हूं
पर जब भी बोलता हूं
लगता है बोल रहा हूं उस चिउंटी की तरफ से
जो बच गई थी अकेली
नागासाकी में
और देखिए न मेरी मुस्तैदी
कि मैं सबकी ओर से बोलता हूं
और बोलता हूं अपनी पूरी सच्चाई के साथ”51
जाहिर है कि केदार जी उन सबकी ओर से बोलते-लिखते हैं जो इस देश के लोग हैं। इस देश के नागरिक हैं। लोकतंत्र के सबसे बड़े स्तंभ हैं, आम लोग हैं, जिनकी बदौलत लोकतंत्र का अस्तित्व स्वीकार किया जाता रहा है। लोकतंत्र की एक खास विशेषता यह होती है कि वहां लोगों को बोलने की आजादी होती है। संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है, जो नागरिक का मौलिक अधिकार है, लेकिन इस लोकतंत्र में जब कवि हर जगह चुप्पी और सन्नाटा देखता है, तो आहत होता है। वह लिखता है –
“सब चेहरों पर सन्नाटा
हर दिल में गड़ता कांटा
हर घर में गिला आंटा
यह क्यों होता है?” 52
यह चुप्पी या इस तरह का सन्नाटा कवि को अंदर तक बेचैन करता है, उसके मन में बार-बार यह पश्न जन्म लेता है कि वे लोग चुप क्यों हैं, जो बोल सकते हैं, जिनके पास अपनी एक भाषा है और कि जिन्हें बोलना चाहिए – ‘वे चुप क्यों हैं, जिनको आती है भाषा।’ यह बोलना लोकतंत्र के लिए कितना जरूरी है, यह यहां दुहराने की जरूरत नहीं। एक समय था जब लोग अपने अदिकारों के लिए मुखर थे, देश और समाज के लिए आवाज उठाते थे, लेकिन धीरे-धीरे परिदृश्य में एक तरह का सन्नाटा पसरता गया। आजादी के बाद जिस लोकतंत्र की संकल्पना हमारे सामने आई, उसने हमें बहुत सारे सपने दिखाए, देश का हर आजाद नागरिक स्वप्न देख रहा था, कि इस तरह हमारे अपने शासन में, हमारे अपने लोकतंत्र में विकास और मानवीय गरिमा का एक नया रास्ता खुलेगा। लेकिन आज पीछे मुड़कर जब हम देखते हैं तो हमारे सामने एक मुर्दगी सन्नाटे और टूटे-बिखरे सपने के अलावा और कुछ भी साफ-साफ नहीं दिखता। इस परिदृश्य को युवा आलोचक प्रफुल्ल कोलख्यान की बातों से और अदिक स्पष्ट ढंग से समझा जा सकता है। वे लिखते हैं – “निरक्षरता तो अपनी जगह है ही, पढ़े-लिखे लोगों द्वारा किए जानेवाले निरक्षाचार की समस्या उससे कम बड़ी नहीं है। आर्थिक विपन्नता तो अपनी जगह है ही सामाजिक-सांस्कृतिक विपन्नता भी कम त्रासद नहीं है। राजनीतिक प्रक्रिया मूल रूप से अभी भी सामंती ढांचे में ही पूरी हो रही है। स्थानीय स्वशासन और पंचायतों की स्थिति के क्या कहने। विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थामों को देखिए तो हताशा और बढ़ जाती है। कहां है उम्मीद की किरण? 53 वे एक और निबंध में लिखते हुए कहते हैं – “जनतंत्र समाज व्यवस्था की सबसे अच्छी तरकीब है, लेकिन इसका ढांचागत विकास राजनैतिक ही हुआ सामाजिक नहीं। जनतंत्र शासन की एक प्रणाली मात्र बन कर ही रह गई। … जनतांत्रिकता का अमृत-तत्व मनुष्य आज भी हासिल नहीं कर पाया है।”54
केदार बहुत महसूस करते हैं कि लोकतंत्र की स्थापना करने से पहले हमें अपने अंदर के संस्कारों से लड़ना होगा, हमारे समाज में मौजूद जो सामंती अवशेष हैं, उन्हें मार भगाना होगा। उसके अभाव में आधुनिकता की एक संकल्पना यह लोकतंत्र भी बेमानी और अर्थहीन हो जाएगा। वे आहत मन से स्वीकार करते हैं – “एक भारतीय नागरिक के रूप में मैं जानता हूं कि मेरा समाज, सांतवाद के विरूद्ध लंबे संघर्ष के बाद भी, अपने मूल्यों और अपने आचरण में सामंती अवशेषों से अभी पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है।” 55
इस पीड़ा को केदार की कविताओं में देखा जा सकता है, उनकी कविता के लालमोहर, घुरहुआ, झपसी, आदि लोग इस तथ्य की पुष्टि करते हैं।
संदर्भ ग्रन्थः
1. मेरे साक्षात्कार, संपादक-केदार नाथ सिंह, किताबघर प्रकाशन, पृष्ठ- 68,
संस्करण-2008
2. लोकः परम्परा, पहचान एवं प्रवाह, डॉ. श्यामसुंदर दुबे, राधाकृष्ण प्रकाशन, प्रथम
संस्करण, पृष्ठ – 45-46
3. जमीन पक रही है, प्रकाशन संस्थान, पंचम संस्करण, पृष्ठ – 95
4. वही, पृष्ठ – 95
5. कुमार कृष्ण का लेख, कवि केदारनाथ सिंह, संपादक भारत यायावर, राजा
खुसगाल, पृष्ठ 114
6. मेरे साक्षात्कार, संपादक-केदार नाथ सिंह, किताबघर प्रकाशन, ( देवेन्द्र चौबे से
बातचीत) पृष्ठ- 109, संस्करण-2008
7. मेरे साक्षात्कार, संपादक-केदार नाथ सिंह, किताबघर प्रकाशन, ( कृपाशंकर चौबे से
बातचीत) पृष्ठ- 105, संस्करण-2008
8. पानी में घिरे हुए लोग, यहां से देखो – केदारनाथ सिंह
9. पानी में घिरे हुए लोग, यहां से देखो – केदारनाथ सिंह
10. उत्तर कबीर तथा अन्य कविताएं, केदारनाथ सिंह पृ. 11
11. वही, पृ. 11
12. मिट्टी की रोशनी, सं. अनिल त्रिपाठी ( डॉ. विजयमोहन सिंह का लेख- थोड़ी सी
रोशनी में बचाकर, पृ. 19
13. मिट्टी की रोशनी, सं. अनिल त्रिपाठी ( डॉ. विजयमोहन सिंह का लेख- थोड़ी सी
रोशनी में बचाकर, पृ. 19
14. न होने की गंध, अकाल में सारस, केदारनाथ सिंह, पृ. 45
15. प्रतिनिधि कविताएं, केदारनाथ सिंह, पृ. 104
16. अकाल में सारस, केदारनाथ सिंह, पृ. 18-19
17. साठोतरी हिन्दी कविता में लोक जीवन, श्रीप्रकाश शुक्ल
18. सन 47 को याद करते हुए
19. भिखारी ठाकुर, उत्तर कबीर तथा अन्य कविताएं, केदारनाथ सिंह पृ. 28
20. ताल्सताय और सायकिल, केदारनाथ सिंह, पृ. 129
21. लोककथा, अकाल में सारस, केदारनाथ सिंह, पृ.45
22. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का लेख, कवि केदारनाथ सिंह, संपादक भारत यायावर,
राजा खुसगाल, पृष्ठ 104
23. तीसरा सप्तक, संपादक एवं संकलनकर्ता, अज्ञेय, भारतीय ज्ञानपीठ,10वां
संस्करण, 2005, पृष्ठ 135
24. स्वप्नील श्रीवास्तव का लेख, कवि केदारनाथ सिंह, संपादक भारत यायावर, राजा
खुसगाल, पृष्ठ 57
25. बोझे, अकाल में सारस, केदारनाथ सिंह, पृ.77
26. रास्ता, अकाल में सारस, केदारनाथ सिंह, पृ.27
27. दाने, अकाल में सारस, केदारनाथ सिंह, पृ.79
28. स्वप्नील श्रीवास्तव का लेख, कवि केदारनाथ सिंह, संपादक भारत यायावर, राजा
खुसगाल, पृष्ठ 59
29. ताल्सताय और सायकिल, केदारनाथ सिंह, पृ. 30-31
30. ताल्सताय और सायकिल, केदारनाथ सिंह, पृ. 64-65
31. तीसरा सप्तक, सं. अज्ञेय, केदारनाथ सिंह का वक्तव्य, पृ. 122
32. वही, पृ.123
33. मेरे साक्षात्कार, संपादक-केदार नाथ सिंह, किताबघर प्रकाशन, ( धर्मेन्द्र त्रिपाठी से
बातचीत) पृष्ठ- 29, संस्करण-2008
34. डॉ. रोहिताश्व का लेख, कवि केदारनाथ सिंह, संपादक भारत यायावर, राजा
खुसगाल, पृष्ठ -*/*///
35. वही, पृ.
36. तीसरा सप्तक, सं. अज्ञेय, विदा-गीत – केदारनाथ सिंह, पृ. 141
37. चेहरा, अकाल में सारस, केदारनाथ सिंह, पृ.100
38. दूब, अकाल में सारस, केदारनाथ सिंह, पृ.21
39. कुंएं, उत्तर कबीर तथा अन्य कविताएं, केदारनाथ सिंह पृ. 59
40. उत्तर कबीर, उत्तर कबीर तथा अन्य कविताएं, केदारनाथ सिंह पृ. 132
41. कस्बे की धूल, यहां से देखो- केदारनाथ सिंह, पृ.28
42. वही, पृ. 42
43. वही, पृ. 47
44. वही, पृ. 62
45. जमीन पक रही है, केदारनाथ सिंह, पृ. 33
46. बाघ, सं.-3, पृ. 15
47. एक अधूरी कविता, ताल्स्ताय और सायकिल, केदारनाथ सिंह, पृ. 135
48. अपनी खबर, ताल्स्ताय और सायकिल, केदारनाथ सिंह, पृ. 41
49. मेरे साक्षात्कार, संपादक-केदार नाथ सिंह, किताबघर प्रकाशन, ( हेमलता से
बातचीत) पृष्ठ- 70, संस्करण-2008
50. मिट्टी की रोशनी, सं. अनिल त्रिपाठी ( अरूण कमल का लेख- मकई का दाना,
पृ. 28
51. आईना, ताल्सताय और सायकिल, केदारनाथ सिंह, पृ. 8
52. यह अग्निकिरीटी मस्तक, यहां से देखो-केदारनाथ सिंह, पृ. 54
53. साहित्य, समाज और जनतंत्र – प्रफुल्ल कोलख्यान, पृ. 40
54. वही, पृ. 26-27
55. मेरे समय के शब्द – केदारनाथ सिंह, पृ. 14
विमलेश त्रिपाठी
· बक्सर, बिहार के एक गांव हरनाथपुर में 7 अप्रैल 1979 को जन्म । प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही।
· प्रेसिडेंसी कॉलेज, कोलकाता से स्नातकोत्तर, कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधरत।
· देश की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, समीक्षा, लेख आदि का प्रकाशन।
· “हम बचे रहेंगे” कविता संग्रह नयी किताब, दिल्ली से प्रकाशित।
· कहानी संग्रह ‘अधूरे अंत की शुरूआत’ पर युवा ज्ञानपीठ नवलेखन, 2010 पुरस्कार
· सांस्कृतिक पुनर्निर्माण मिशन की ओर से काव्य लेखन के लिए युवा शिखर सम्मान।
· कविता के लिए सूत्र सम्मान, 2011
· कविता –कहानी का भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी में अनुवाद।
· कोलकाता में रहनवारी।
· परमाणु ऊर्जा विभाग के एक यूनिट में कार्यरत।
· संपर्क: साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्युक्लियर फिजिक्स,
1/ए.एफ., विधान नगर, कोलकाता-64.
· Mobile: 09748800649
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad