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नीलोत्पल रमेश |
नीलोत्पल रमेशकी कविताएँ सहज तो हैं ही उनके अंदर अख्यानता के भी दर्शन होते हैं। हिन्दी कविता में इस तरह की कविताओं की अपनी परंपरा रही है – और महत्व भी। अच्छी बात है कि कवि को लोक और उसकी शब्दावली से जुड़ाव है। वर्षों से लोक कथा और आख्यानों में जीता रहा है, क्या यही कारण नहीं है कि नीलोत्पल की कविताओं में भी यह देखने को मिल रहा है। वर्तमान समय को कविता विरोधी समय कहा जा रहा है। ऐसे कविता विरोधी समय में भी सहज-सरल-और मुकम्मल कविता लिखना बुते की बात है। इस कवि की कविताएँ हम पहली बार अनहद पर पढ़ रहे हैं। हम उन्हें बधाई दे रहे हैं और हम चाहते हैं कि आप अपनी बेबाक राय से हमें अवगत कराएँ, साथ रहें, आपके साथ से ही हमें बल और हौसला मिलता है।
विमुद्रीकरण
राजा को
जब हो जाता है एहसास
मेरे द्वारा प्रचलित मुद्राएँ
काला-बाजारियों द्वारा
बेधडक
हो रही हैं इस्तेमाल
तब वह
बार-बार सोचने पर
हो जाता है विवश
राजा
बुलाता है अपने मंत्रियों को
इस गंभीर समस्या के समाधान हेतु
और दे देता है कार्य
कि इस पर आप सभी सोचें
फिर मुझे बतावें
उसे पता है –
आम जनता बेहाल है-
गरीबी से ,भूखमरी से
बेरोजगारी से , फटेहाली से
और यह भी
कि किसान कर रहे हैं आत्महत्याएं
इतनी आत्महत्याएं
किसानों ने कभी नहीं किये थे
किसी के शासन में
एकाएक एक रात
राजा ने कर दिया ऐलान
कि रात बारह बजे के बाद
पांच सौ और हज़ार के नोट
नहीं रहेंगे प्रचलन में
और हो गया
पांच सौ और हज़ार के मुद्रा का विमुद्रीकरण
फिर पूरा देश
हो गया बैंक और डाकघरों के आगे
पंक्तिबद्ध
पांच सौ और हज़ार के नोटों को
बदलवाने या जमा करने के लिए
बीच-बीच में राजा
अपने संबोधनों में
जनता को मरहम लगाने की
करता रहता है कोशिश
कि देश के लिए
आप थोड़ा कष्ट सह लें
फिर मजबूती के साथ
उभरेगा राष्ट्र
विश्व-पटल पर
और इस तरह हो गया
मुद्रा का विमुद्रीकरण |
बेचेहरे का आदमी
आजकल
मुझे एक ही आदमी के
दीखते हैं कई चेहरे
जो अक्सर परेशान करते हैं
ओर मैं हो जाता हूँ बेचैन
मैं निकला तलाश में
ताकि खोज सकूँ
एक चेहरा का आदमी
लेकिन नहीं खोज पाया
फिर अपने से ही पूछ बैठा-
भई ,बताओ
कोई ऐसा आदमी
जिसके सिर्फ
सिर्फ एक चेहरा हो
जिसे मैं
कहीं भी , कभी भी
पहचान सकूँ !
फिर मेरे अंदर से
आवाज आई-
पहले तुम तो देख लो
अपने-आप को
तुम्हारे भी तो कई चेहरे हैं
पहले उसे एक रूप में ढालो
फिर खोजना
एक चेहरा का आदमी
ये चेहरे
बदलते रहते हैं
आदमी-आदमी से बात करते वक्त
इनके कोई निश्चित
आकार-प्रकार नहीं
ताकि इन्हें
परिभाषित किया जा सके
सचमुच
मुझे लगता है
कि हो गया है आदमी बेचेहरे का
जिन्हें कोई नाम , पद , प्रतिष्ठा से
ही पहचाना जा सकता है
वह भी बेचेहरे का
सिर्फ अनुमान से
जिस पर
ठप्पा नहीं लगाया जा सकता
कि यही वह शख्स है
जिसे ढूंढ रहा था |
मेरे गाँव का पोखरा
मेरे गाँव का पोखरा
अपने पुराने दिनों में
कभी नहीं लौट पायेगा
तभी तो इसका स्वरूप
पोखरा से पोखरी हो गया है
इसके भी कभी दिन थे
जब इसके किनारे – किनारे
पीपल , महुआ और आम के पेड़ थे
जो इसके सौंदर्य में
किया करते थे वृद्धि
और बरसात के दिनों में
गाँव के लड़कों का
लगा रहता था हुजूम
वे इस पर चढ़ते
और पानी में कूद पड़ते
फिर डूबकी मार
चले जाते , बहुत दूर
वर्षों बाद
जब मैं गया अपने गाँव
तो पाया
कि अब पोखरा नहीं रहा
इसके चारों ओर से
अतिक्रमित करके
गाँव के लोगों ने ही
इसके सौंदर्य को
कर दिया है सीमित
जब मैं बहुत छोटा था
अपने भाइयों के साथ
गर्मी के दिनों में
जाल लेकर
कूद पड़ता था
मछली मारने
वे मछलियाँ जो
उछल – कूद मचाते रहतीं –
टेंगरा , फरहा , बांगुर , पोठिया
गरई , चलहवा या जो भी हो
जाल में फँस
मेरे घर के स्वाद में
कर देती थीं वृद्धि
इस पोखरे में
इतना पानी रहता
कि इसके आसपास के खेतों को
दो – तीन बार सींचा जा सके
लेकिन अब एक बार भी
नहीं सींचा जा सकता
अब यह उथला हो गया है
और संकुचित भी
इसमें पानी संचय करने की
अब शक्ति भी नहीं रही
जिस पोखरे में पानी
सालों भर रहा करता था
अब तो पानी रहता ही नहीं
जबकि पहले
गाँव – जवार के मवेशियों का
यह बना रहता था अखाड़ा
समय की मार
और लोगों की
संकुचित मानसिकता ने
इस पोखर को
पोखरी बना दिया है
भूत के पाँव पीछे
भूत के पाँव
होते हैं पीछे की तरफ
ऐसा हमने सुना है – कइयों से
पर , कभी इस पर
विश्वास नहीं किया
एक दिन
मेरे गाँव का शंकर
कहने लगा –
भैया , हम भूत से लड़े हैं
उससे लड़ते वक्त मुझे
उसके शरीर में
कहीं हड्डी नहीं लगी
उसकी आँखें सिर के पीछे थीं
जो दूर से चमकते हुए
दिखाई पड़ती थीं
एक रात मैं
लौट रहा था दूसरे गाँव से
नाच देखकर
तो पंचरुखिया पहुँचते ही
एक अंजान आवाज आई
तुम मुझे खैनी दो
पर , किसी ओर
कोई दिखायी नहीं पड़ा
और मैं चलता रहा
कि एकाएक
काला – कलूटा एक व्यक्ति
मुझसे भीड़ गया
फिर मुझे पता नहीं
कैसे गाँव तक पहुँचा
सूखी मिर्ची के धुँए से
मेरी चेतना लौटी
पाया कई लोग खड़े हैं
तमाशबीन बन
और एक ओझा
मुझे भूत से
मुक्ति दिला रहा है
यह भी सुना था
कि भूत पीपल के पेड़ पर
करते हैं निवास
जो कहीं – न – कहीं से
होते हैं हमारे पूर्वज ही
जो उनकी अंतरात्मा के रूप में
भटकती रहती हैं
किसी – न – किसी रूप में
शंकर की ये बातें –
कि भूत के पाँव
होते हैं पीछे ‘
अब मुझे लगने लगा है
कि आज का साहित्य
समाज , राजनीति , रहन – सहन
आदि – आदि कई चीजें
भूत के पांव की तरह
कहीं पीछे की ओर
लौट तो नहीं गई हैं !
हे वसंत
हे वसंत !
गुन – गुनी ठण्ड
फागुनी बयार
और अल्हड़
तेरी शोख अदा
कितने – कितने
कवियों – कथाकारों को
तूने दिया अपना सर्वस्व
फिर भी वे
रहते हैं लालायित
तेरा सान्निध्य पाने को
कि तुम
यदा – कदा ही सही
अपनी कृपादृष्टि
मुझ पर बरसाया करो
हे वसंत !
तुम कभी भी
नहीं होओगे कालकवलित
क्योंकि तुम्हें चिर – यैवन प्राप्त है
तुम तो सदियों से
शास्त्रों में समाहित हो
जो कभी भी , किसी में भी
जगकर
रच सकते हो
एक नया साहित्य – शास्त्र |
आप तो महान हैं श्रीमन
आप तो महान हैं श्रीमन
आपकी महानता
आपके गतर – गतर से
टपक रही है
जैसे छत का पानी
रिसकर
टपकने के इंतजार में हो
आपके आगमन के साथ ही
यहाँ के कार्यरत कर्मियों में
आशा की एक किरण
फूट पड़ी थी
कि अब दुःख के दिन गयो रे
सुख के दिन आयो
लेकिन जैसे – जैसे
बीतते गए दिन
कर्मियों की आशा – लता
मुरझा गई
और नोनी लगे दीवार की तरह
भुर – भुर होकर झड़ने लगी
श्रीमान , आपने ऐसे -ऐसे कार्य किये हैं
जिनकी संख्या असंख्य है –
वैसे आपने फर्जी डिग्रीधारियों को
ग्रेड प्रदान कर
वाहवाही तो लूटी ही है ,
आपने स्वजातीय को
ग्रेड उन्नत कर
दो वार्षिक – वृद्धि भी लगा दी
और यहीं तक नहीं
आपमें जातीय संस्कार
कूट – कूटकर भरे पड़े हैं
तभी तो शारीरिक शिक्षा में
जगह नहीं रहते हुए भी
स्वजातीय महिला शिक्षिका
आपकी कृपा पात्र बनी हुई है
तभी तो आप महान हैं श्रीमान
आपकी दृष्टि
एकदम साफ है श्रीमान
जो जातीय व वर्गीय चश्मा से होकर
हम अकिंचन लोगों पर
पड़ती ही नहीं है
हम तो आशा में हैं
कि आपकी दृष्टि
गलती से ही सही
मुझ पर भी पड़े तो एक बार
लेकिन पड़ेगी भी नहीं
मुझे पता है श्रीमान
क्योंकि आपके जातीय – व – वर्गीय खाने में
कहीं से भी फिट नहीं बैठता हूँ मैं
यही कारण है कि मुझमें
सिर्फ और सिर्फ
गलतियाँ ही दिखाई पड़ती हैं आपको
भले ही गलतियाँ आपमें
कूट -कूट कर क्यों न भरी पड़ी हो
आपकी महानता की चर्चा
आए दिनों सुनने को
मिल ही जाती हैं यदाकदा
कि आप एकदम
हो गये हैं विकलांग
चलते हैं तो लगता है
कोई रोबोट चल रहा हो
बैठते हैं तो लगता है
कोई वर्षों का मरीज
बैठ रहा हो
जिसे पथ्य की जरूरत है
आपकी वाणी में
झूठ के पुलिंदे भरे पड़े हैं
मुझे याद नहीं है
कि आपने कभी सच
गलती से भी कहा हो
आपमें आत्ममुग्धता
आत्मप्रवंचना ,आत्मश्लाघा ,
आत्मप्रशंसा जैसे कितने शब्द
आपके व्यक्तित्व को शोभित करते हैं
यही कारण है
कि आपके इर्दगिर्द
चाटुकारों की टोली
मंडराते रहती है
जो आपकी बातों में
पॉलिश लगती है
आपको बचपन से ही
कई ऐसे संस्कार मिले हैं
जो आपकी मानसिकता को
जातिगत ढाँचे से
बाहर निकलने ही नहीं देते
आपकी आँखों पर
धृतराष्ट्री पट्टी बंधी हुई है
जो सही और गलत का फैसला
लेने ही नहीं देती
आपके अदृश्य कोने में
कई ऐसी गांठें हैं
जो खुलने का नाम ही नहीं लेती
खोलिए श्रीमान
इन गांठों को खोलिए
और अपने – आप को
वर्गीय आवरण से
बाहर निकालिये
इस छवि की आशा में
कई लोग इंतजाररत हैं !
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परिचय :-
नीलोत्पल रमेश
जन्म :-1965 में भोजपुर जनपद के दुलारपुर गांव में
प्रकाशन:-जनपथ , गगनांचल , संबोधन , प्रसंग , हिंदुस्तान , प्रभात खबर ,
समकालीन परिभाषा , कला सहित अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ ,समीक्षाएँ एवं
कहानियाँ प्रकाशित
संपर्क :-पुराना शिव मंदिर , बुध बाज़ार , गिद्दी-ए ,
जिला-हजारीबाग , झारखण्ड-829108
Mobile number:-09931117537
Email address: -neelotpalramesh@gmail.com.
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
अच्छी कविताएँ…. I
कविताओं पर पाठकों की प्रतिक्रिया की अपेक्षा है |
बहुत आभार।