मैं फिर जंगली होना चाहती हूँ
मैं फिर जंगली होना चाहती हूँ
मैं पीपल की छाँव को फिर महसूसना चाहती हूँ
चाहती हूँ बरगद की लंबी जड़ें
मुझे अपने में लपेट ले
वह झोपड़ी
और उसके तुलसी का चौड़ा
दीपक ,सिल्वट ,जाँत लेकर
अपने आपको जंगली बनाना चाहती हूँ
मैं लौटना चाहती हूँ आदिम समय में
हरी दूब पे लोटना चाहती हूँ
मैं फिर असभ्य होना चाहती हूँ ।
ग्लोबल वार्मिंग
मेरे फेफड़े पर
जम गई है समय की काई,
फिसल रहा है खून
जब सांस लेती हूं तब
सांसो में आ जाती हैं
कटे पेड़ों की आत्माएँ,
जब छोड़ती हूं सांस
तो जलने लगती है धरती
पिघलता है बर्फ
पहले सूर्य की किरणें
धरा को छू के लौट जाती थीं
वैश्वीकरण की कुल्हाड़ी पर
अब किरणें सोख लेती हैं धरती
सूर्य और धरती के
रिश्तों की गर्माहट
अब रीत रही है आहिस्ता-आहिस्ता ।
गाँव की सैर
अंकल अबकी गांव जाना तो
बेटे को भी साथ ले जाना ,
उसे ले जाना गेहूं या धान के खेत में
उसे बताना इसकी ही तलाश
मुझे यहाँ से दूर ले गई ।
उसे दिखाना
इन खेतों में छुपा है खजाना,
हल , फावड़ा और बैल जरुर दिखाना
समझ सके तो समझाना
हल की कशिश और किसान की कोशिश ।
उसे बताना सीसीई से तुम व्यर्थ ही डरते हो
सीखो इन किसानों से
जिनकी जिन्दगी रोज़ ही परीक्षा है
रचनात्मक मूल्यांकन में
फ़सलों को लहलहाते देखता है
जब आता है कटने का समय
कब बाढ़, सूखा या ओला
आ जाये इसका उसे पता ही नहीं
समेकित मूल्यांकन में
कभी-कभी ही अच्छे नंबर पाता
फिर लग जाता
नई परीक्षा की तैयारी में ।
पाई हुई हार को कैसे झेले
वो भी इन किसानों से सीख ले,
उसे जुताई, निकाई, गुराई जरुर दिखाना,
उसे बताना मेहनत से उगाई फ़सल
कितनी प्यारी होती है ।
उसे ले जाना सरसों ,मटर , चना , धनिया के
हरे भरे पौधों के पास
उसे करवाना इन फसलों से संवाद
कितना सुखद और मधुर अहसास ।
उसे ले जाना गरीब से गरीब किसान के पास
जो भूखे पेट रह कर भी
हृदय और आत्मा की बोली नहीं लगवाता
उसे दिखाना कि वेदना से आहत होकर भी
वो किसान ही है जो खुशी के गीत गा लेता है
बस उस किसान के मार्फत उसे मानव जाति का भरोसा बनना सिखाना,
कहना कि किसान एक ऐसा पिता है
जो अपने को कभी आदमी नहीं समझता
दिन-रात की मिहनतसे अपने बेटे को
अच्छा आदमी बनाने में लगा रहता है ।
मेरी ट्रेन
रेल की पटरियों पर
सरपट दौड़ती ट्रेन
पीछे छोड़ती जा रही
बड़े –बड़े पीपल,बरगद ,नीम को
छुक – छुक की आवाज़
सांय – सांय के साथ
छोड़ती जा रही खलिहान और दालान को
दातुन करते बाबा और चाचा को
वोका बोका खेलते राम और श्याम को
वो बतीसी खेलती राधा और शलमा को
गुम हो गई कित कित की आवाज
सीटी के साथ
पटरियां अगर पीछे की ओर भागतीं
तो मै चलाती एक ऐसी ट्रेन
कि जिसमें छूटता नहीं कुछ भी
घडी बायें से दायें नहीं
दायें से बायें घूमती !
सूखे पत्ते
डाल से गिरे सूखे पत्ते
हवा के झोंके से ऐसे उड़ गये
जैसे इनकी क्या बिसात
स्फुरण से उगे नन्हे पौधे ने
सूखी पत्तियों को बुलाया
कर लो मेरा आलिंगन
मेरी जड़ो को कर दो उर्वरा
बनू मैं भी एक वृक्ष
करूँ मैं सर्वत्र हरा भरा
सूखती शाख को देखकर
लकड़हारे ने कहा
तू तो अब जल जायेगी
वो बोली छोड़ दे मुझे
मैं भी हूँ प्रकृति की सौगात
बन जाऊँगी किसी गिलहरी का घर
जिसका फले फूलेगा परिवार
देख रही हूँ हर रूप में है संचार
आत्मा का हो रहा ऐसा संवाद
जिसमें कोई घबराहट नहीं
कोई बेचैनी नहीं
नाभिक
लहरें उठती हैं
गिरती हैं
छूती हैं किनारे को
कैसी यह लहरों की
अनवरत तपस्या
और केंद्र की चुप्पी
हताश ,पागल,बहका मन
भाग रहा किनारे – किनारे
नाभि से अलग – थलग हो
ढूँढता फिरता पतवार को
‘इलेक्ट्रान‘ भी कहता है
प्रतिक्रिया तो बाहर का खेल है
नाभिक तो सिर्फ तमाशा देखता है
और केन्द्रक
जब टूटता है
तब या तो विध्वंस होता है
या निर्माण ।