• मुखपृष्ठ
  • अनहद के बारे में
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक नियम
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
अनहद
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • समीक्षा
    • संस्मरण
    • विविध
  • कला
    • सिनेमा
    • पेंटिंग
    • नाटक
    • नृत्य और संगीत
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विविध
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • समीक्षा
    • संस्मरण
    • विविध
  • कला
    • सिनेमा
    • पेंटिंग
    • नाटक
    • नृत्य और संगीत
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विविध
No Result
View All Result
अनहद
No Result
View All Result
Home समीक्षा

मदारीपुर जंक्शन पर ओम निश्चल

by Anhadkolkata
June 20, 2022
in समीक्षा, साहित्य
A A
0
Share on FacebookShare on TwitterShare on Telegram

मदारीपुर जंक्शन : बालेन्दु  द्विवेदी

व्यंग्यात्मक उपन्यासों की कड़ी में एक और सशक्त किस्सागोई
ओम निश्चल
कभी ‘राग दरबारी’ आया था तो लगा कि यह एक अलग सी दुनिया है। श्रीलाल शुक्लन ने ब्यू-रोक्रेसी का हिस्सा- होते हुए उसे लिखा और उसके लिए निंदित भी हुए पर जो यथार्थ उनके व्यं-ग्य्विदग्धा विट से निकला, वह आज भी अटूट है; गांव-देहात के तमाम किरदार आज भी उसी गतानुगतिकता में सांस लेते हुए मिल जाएंगे। तब से कोई सतयुग तो आया नही है बल्किै घोर कलियुग का दौर है । इसलिए न भ्रष्टाएचार पर लगाम लगी, न भाई भतीजावाद, न कदाचार पर , न कुर्सी के लिए दूसरों की जान लेने की जिद कम हुई। इसलिए आज भी देखिए तो हर जगह ‘राग दरबारी’ का राग चल रहा है। कहीं द्रुत-कहीं विलंबित । लगभग इसी नक्शे कदम पर चलने का साहस युवा कथाकार बालेन्दुक द्विवेदी का उपन्याुस ” मदारीपुर जंक्श्न” करता है। मदारीपुर जंक्शहन जो न गांव रहा न कस्बाद बन पाया। जहां हर तरह के लोग हैं जुआरी, भंगेडी, गंजेड़ी, लंतरानीबाज, मुतफन्नीस, ऐसे-ऐसे नरकट जीव कि सुबह भेंट हो जाए तो भोजन नसीब न हो।
मदारीपुर पट्टियों में बँटा है। अठन्नीु, चवन्नीह और भुरकुस आदि पट्टियों में। यहां लोगों की आदत है हर अच्छेो काम में एक दूसरे की टांग अड़ाना। लतखोर मिजाज और दैहिक शास्त्रा र्थ में यहां के लोग पारंगत हैं। गांव है तो पास में ताल भी है जो जुआरियों का अड्डा है। पास ही मंदिर है जहां गांजा क्रांति के उदभावक पाए जाते हैं। एक बार इस मंदिर के पुजारी भालू बाबा की ढीली लंगोट व नंगई देख कर औरतों ने पनही-औषधि से ऐसा उपचार किया कि फिर वे जीवन की मुख्य  धारा में लौट नहीं पाए। याद आए काशीनाथ सिंह रचित ‘रेहन पर रग्घू ’ के ठाकुर साहब जिनका हश्र कुछ ऐसा ही हुआ। हर उपन्याहस की एक केंद्रीय समस्या  होती है। जैसे हर काव्यन का कोई न कोई प्रयोजन । हम सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ की ज़मीन पर ‘मैला आंचल’ पढ चुके हैं, राजकृष्ण मिश्र का ‘दारुलसफा’ व ‘सचिवालय’ पढ़ चुके हैं, विभाजन की ज़मीन पर ‘आधा गांव’ पढ चुके हैं। गांव और कस्बे  जहां जहां सियासत के पांव पड़े हैं, ग्राम प्रधानी,ब्लाआक प्रमुखी और विधायकी के चुनावों के बिगुल बजते ही हिंसा व जोड तोड शुरु हो जाती है। हर चुनाव में गांव रक्तरंजित पृष्ठभूमि में बदल जाते हैं। इसलिए कि परधानी में लाखों का बजट है, पैसा है, लूट है। सो मदारीपुर जंक्शंन के भी केंद्र में परधानी का चुनाव है।
परधानी का चुनाव मुद्दा है तो अवधी कवि विजय बहादुर सिंह अक्ख ड़ याद हो आए –’कब तक बुद्धू बनके रहबै अब हमहूँ चतुर सयान होब। हमहूं अबकी परधान होब।‘
एक कवि ने लिखा है, ‘नहर गांव भर की पानी परधान का।‘ सो इस गांव में भी भूतपूर्व प्रधान छेदी बाबू, वर्तमान प्रधान रमई, परधानी का ख्वाबब लिये बैरागी बाबू, उनकी सहायता में लगे वैद जी, दलित वोट काटने में छेदी बाबू के खड़े किये चइता, केवटोले कें भगेलूराम, छेदी बाबू के भतीजे बिजई —सब अपनी अपनी जोड तोड में होते हैं। ऐसे वक्त। गांव में जो रात रात भर जगहर होती है, दुरभिसंधियां चलती हैं, तरह तरह के मसल और कहावतें बांची जाती हैं वे पूरे गांव की सामाजिकी के छिन्नु-भिन्नम होते ताने बाने के रेशे-रेशे उधेडती चलती हैं। श्रीलाल शुक्ली ने ‘रागदरबारी’ में कहा था—‘यहां से भारतीय देहात का महासागर शुरु होता है ।‘ यह उसी देहात की बटलोई का एक चावल है।
कभी समाजशास्त्री  पी सी जोशी ने कहा था कि ‘रागदरबारी’ या ‘मैला आंचल’ जैसे उपन्यासों को समाजशास्त्री य अध्योयन के लिहाज से क्योंब नही पढा जाना चाहिए। आजादी के मोहभंग से बहुत सारा लेखन उपजा है। ‘राग दरबारी’ भी, मैला आंचल भी, विभाजन के हालात पर केंद्रित ‘आधा गांव’ में भी गंगोली गांव कोई मदारीपुर, शिवपालगंज या मेरीगंज से बहुत अलग नहीं है ।
विमर्शों के लिहाज से देखें तो दलित विमर्श, स्त्रीे विमर्श दोनों मदारीपुर में नजर आते हैं। एक सबाल्टोर्न विमर्श भी है कि आज भी सवर्ण समाज की दुरभिसंधियां आसानी से दलितों को सत्ताट नही सौंपना चाहतीं, लिहाजा वह उनके वोट किधर जाएं, कैसे कटें, इसके कुलाबे भिड़ाता रहता है। यहां परधानी के चुनाव में बुनियादी तौर से दो दल हैं एक छेदी बाबू का दूसरा बैरागी बाबू का। पर चुनाव के वोटों के समीकरण से दलित वर्ग का चइता भी परधानी का ख्वाबब देखता है और भगेलू भी। पर दोनों छेदी और बैरागी के दांव के आगे चित हो जाते हैं। चइता को छेदी के भतीजे ने मार डाला तो बेटे पर बदलू शुकुल की लडकी को भगाने के आरोप में भगेलू को नीचा देखना पड़ा ।पर राह के रोड़े चइता व भगेलू के हट जाने पर भी परधानी की राह आसान नहीं। हरिजन टोले के लोग चइता की औरत मेघिया को चुनाव में खड़ा कर देते हैं । दलित चेतना की आंच सुलगने नहीं बल्कि  दहकने लगती है जिसे सवर्ण जातियां बुझाने की जुगत में रहती हैं।— और संयोग देखिए कि वह दो वोट से चुनाव जीत जाती है। पर चइता की मौत की ही तरह उसका अंत भी बहुत ही दारुण होता है। लिहाजा जब जीत की घोषणा सुन कर पिछवाड़े पति की समाधि पर पहुंचती है पर जीत कर भी हरिजन टोले के सौभाग्या और स्वापभिमानी पीढ़ी को देखने के लिए जिन्दाै नही रहती। शायद आज का कठोर यथार्थ यही है।
कहना यह कि सत्ताम की लड़ाई में दलितों की राह आज भी आसान नहीं। वे आज भी सवर्णों की लड़ाई में यज्ञ का हविष्यक ही बन रहे हैं। आज गांव किस हालात से गुजर रहे हैं, यह उपन्यास इसका जबर्दस्त जायज़ा लेता है। बालेन्दुे द्विवेदी गंवई और कस्बाकई बोली में पारंगत हैं। गांव के मुहावरे लोकोक्तिलयों सबमें उनकी जबर्दस्तद पैठ है। चरित्र चित्रण का तो कहना ही क्या । पढ़ते हुए कहीं श्रीलाल शुक्लम याद आते हैं, कहीं ज्ञान चतुर्वेदी तो कहीं परसाई भी । कहावतें तो क्या  ही उम्दाश हैं :‘घर मा भूंजी भांग नहीं ससुरारी देइहैं न्योवता।‘
ओम निश्चल
कुल मिला कर दुरभिसंधियों में डूबे गांवों के रूपक के रुप में मदारीपुर जंक्शन इस अर्थ में याद किया जाने वाला उपन्यास है कि दलित चेतना को आज भी सवर्णवादी प्रवृत्तियों से ही आँका जा रहा है। सबाल्टर्न और वर्गीय चेतना भी आजादी के तीन थके हुए रंगों की तरह विवर्ण हो रही है। गाँवों को सियासत ने बदला जरूर है पर गरीब दलित के आँसुओं की कोई कीमत नहीं। बालेन्दु द्विवेदी ने यहाँ लाचार आँसुओं को अपने भाल पर सहेजने की कोशिश बड़ी ही पटु भाषा में की है, इसमें संदेह नहीं।
                                —–
                                                       आउटलुक से साभार

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

Related articles

समीक्षा : इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं

‘एक जीवन अलग से’ पर पल्लवी विनोद की समीक्षा

ShareTweetShare
Anhadkolkata

Anhadkolkata

अनहद कोलकाता में प्रकाशित रचनाओं में प्रस्तुत विचारों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है. किसी लेख या तस्वीर से आपत्ति हो तो कृपया सूचित करें। प्रूफ़ आदि में त्रुटियाँ संभव हैं। अगर आप मेल से सूचित करते हैं तो हम आपके आभारी रहेंगे।

Related Posts

समीक्षा : इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं

समीक्षा : इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं

by Anhadkolkata
May 4, 2024
0

    आधुनिक हिंदी कविता को समृद्ध करती कविताएँ  राम पांडेय  इक्कीसवीं सदी के बीते दो दशकों में अपनी अलग पहचान बनाने वाले युवा कवियों में...

‘एक जीवन अलग से’  पर पल्लवी विनोद की समीक्षा

‘एक जीवन अलग से’ पर पल्लवी विनोद की समीक्षा

by Anhadkolkata
July 19, 2023
0

पल्लवी विनोद  एक लंबे समय से विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं के माध्यम से अपने सुचिन्तन के द्वारा अलग -अलग रचनाकारों के लेखन पर अपनी कलम चलाती  रहीं...

ज्ञान प्रकाश पाण्डे की ग़ज़लें

ज्ञानप्रकाश पाण्डेय का लेख

by Anhadkolkata
April 22, 2023
0

ज्ञान प्रकाश पाण्डे की ग़ज़लें एक ओर स्मृतियों की मिट्टी में धँसी हुई  हैं तो दूसरी ओर  वर्तमान समय की नब्ज पर उंगली भी रखतीं है।...

अर्चना लार्क की सात कविताएँ

अर्चना लार्क की सात कविताएँ

by Anhadkolkata
June 24, 2022
4

अर्चना लार्क की कविताएँ यत्र-तत्र देखता आया हूँ और उनके अंदर कवित्व की संभावनाओं को भी महसूस किया है लेकिन इधर की उनकी कुछ कविताओं को पढ़कर लगा...

नेहा नरूका की पाँच कविताएँ

नेहा नरूका की पाँच कविताएँ

by Anhadkolkata
June 24, 2022
4

नेहा नरूका समकालीन हिन्दी कविता को लेकर मेरे मन में कभी निराशा का भाव नहीं आय़ा। यह इसलिए है कि तमाम जुमलेबाज और पहेलीबाज कविताओं के...

Next Post

यतीश कुमार की कविताएँ

कविता संवाद - 3

स्मृति शेष कवि नीरज पर डॉ विमलेश शर्मा

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

अनहद कोलकाता साहित्य और कलाओं की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है। डिजिटल माध्यम में हिंदी में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ‘अनहद कोलकाता’ का प्रकाशन 2009 से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है। यह पत्रिका लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रगतिशील चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। यह पूर्णतः अव्यवसायिक है। इसे व्यक्तिगत संसाधनों से पिछले 12 वर्षों से लागातार प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक इसके 500 से भी अधिक एकल अंक प्रकाशित हो चुके हैं।

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2009-2022 अनहद कोलकाता by मेराज.

No Result
View All Result
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • समीक्षा
    • संस्मरण
    • विविध
  • कला
    • सिनेमा
    • पेंटिंग
    • नाटक
    • नृत्य और संगीत
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विविध

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2009-2022 अनहद कोलकाता by मेराज.