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Home समीक्षा

मदन पाल सिंह के उपन्यास पर यतीश कुमार की टिप्पणी

by Anhadkolkata
June 24, 2022
in समीक्षा, साहित्य
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फड़फड़ाती जुगुप्सा, निराशा और भय के
बीच कहानीः उपन्यास ‘हरामी’

यतीश कुमार


कुछ किताबें शुरुआती पन्नों से ही पाठकों को अपनी गिरफ्त में लेना शुरू कर
देती हैं। अपने अलग मिज़ाज़ और कथ्य को लेकर लिखे उपन्यास
‘हरामी‘ को पढ़ना शुरू करते
ही कुछ सवाल मन में उपजते हैं और उनका जवाब भी वरक दर वरक खुलता चला जाता है। इसके
पहले पृष्ठ में ही लेखक ने प्रसव की पीड़ा का मर्म इस तरह से उकेरा है कि मन में
सवाल उठता है कि कोई पुरुष लेखक इस मर्म को इतनी गहराई से समझ सकता है क्या
?  हालांकि, इस प्रश्न का उत्तर भी जल्द ही मिल जाएगा आपको!

संयुक्त परिवार में बिताए दिन एकबारगी आंखों के सामने चलचित्र के माफिक
घूम गया। घनत्व से ज्यादा कुछ भी हो तो विदीर्ण होने लगता है। जब किरदार आपके
विपरीत का हो लेकिन उसे पढ़ते हुए लगे हम ही तो हैं जिसे लिखा जा रहा है। किरदारों
से ऐसी रिश्तेदारी यूँ ही नहीं होती हालांकि किरदार खलनायक फ़िल्म का संजय दत्त-सा
हो जिसे आप पसंद करने लगें और प्यार से 
कहने लगें –
‘भोगा‘ । 

इस उपन्यास को पढ़ते हुए लगा व्यंग्यात्मक शैली में लिखना कितना मुश्किल
होता है और मदन पाल सिंह ने काशी नाथ सिंह और परसाई का रास्ता चुना और उसे बखूबी
निभाया भी। किताब में सधी हुई भाषा के साथ देशज शब्दों का भरपूर और उचित उपयोग और
पैनापन भी मिलेगा।

हर पन्ने पर लेखक की सूक्ष्म दृष्टि का प्रभाव दिखता है। मसलन घड़ीसाज और
कुप्पियों में किस्म-किस्म के तेलों का विवरण। भोगा ने क्या-क्या भोगा इसका सटीक
विवरण लेखक की जमीनी पकड़ को दर्शाता है। एक एक कारगुजारियां रोचक हैं और हर बार
अपनी ही सीमाओं को तोड़ती हुई दिखती हैं।

मदन पाल सिंह
कुछ किताबें ऐसी होती हैं जिसे पढ़ते वक्त आप ऐसे ढ़लान से गुजरते हैं जो
हर मोड़ पर खत्म होने का एहसास देता है पर एक नए मोड़ के साथ वाबस्ता होता है। तिरिछ
और मोहन दास की तरह इस उपन्यास के मोड़ भी ऐसे ही सर्पीले हैं। भाषायी कलाबाजी में
देशज शब्दों का भरपूर प्रयोग इसे और रसीला बनाता है। घटनाओं या संदर्भों का विवरण
चकित करता है। एक जगह भोगा को गीता के बारे में उनींदे सोचते हुए दुःस्वप्न आता
है। उसकी सुंदर व्याख्या पढ़ते हुए लगा कि स्वप्न से यथार्थ की यात्रा में लेखक कितनी
गहराई तक गोता लगाता है। विशेषकर गीता का किरदार गढ़ना मुझे व्यक्तिगत रूप से
विस्मित कर गया। लेखक जब किरदार गढ़ते हैं तो उसे लगभग जीते हैं और यूँ गढ़ते हुए
जीना काबिलेतारीफ है। इसी तरह
, कल्लो के किरदार को विस्तार देते हुए जो बातें लिखी गयी हैं
वो लेखक के मनोविज्ञान विषय पर अच्छी पकड़ का परिचायक है। यह लिखना कि भ्रूण पिंड
मुस्कुराने या रोने से पहले ही कुत्तों या बिल्लीयों के ग्रास बन जाते थे
, क्या यह लिखते समय
भी इतना ही सामान्य रहा होगा। लेखक की वेदना की उत्कंठा टीस के छींटे बनकर पूरी
किताब में बिखरी पड़ी है। मैंने एक ताल कटोरे में उसे समेटने की कोशिश की पर सफल
हुआ या नहीं पता नहीं। दुःख और मजबूरी के दहकते रस्से पर चलने का जिक्र कोई ऐसे ही
नहीं कर सकता है।

इस वर्ष मैंने दलित साहित्य से जुड़ी कुछ किताबें पढ़ी हैं, चाहे मुर्दहिया हो, मणिकर्णिका या फिर
अक्करमाशी या जूठन
, बलूत, उचल्या या उपरा
मुझे सब की हल्की-हल्की झलक इस किताब में दिख रही है पर ट्रीटमेंट बिल्कुल अलग। यह
मुझे और भी आश्चर्यजनक लगता है कि एक जैसे दर्द का अंदाजे बयां हर बार कितना भिन्न
हो सकता है।

एक वर्णन है जिसमें गीता सिकंदर का दिया गुलाब रोटी में छुपा लेती है।
पढ़ते-पढ़ते एक बिम्ब उभर आया
, उससे थोड़ी देर नज़र हटी नहीं,  रोटी
में छुपाना गुलाब को एक बहुत बड़े परिपेक्ष्य के संवाद की ओर खींचता है और मैं
उन्हीं संवादों में खो गया। अभी आगे बढ़ा ही था कि दूसरे दृश्य ने जकड़ लिया जहां
मंदिर में आदिकवि की मूर्ति का बहुत सुंदर विवरण है जैसे पाषाण काल का कोई ध्वस्त
शिल्प के बीच ढिबरियों की टिमटिमाहट से ज्यादा रौशनी जुगनू फैला रहे थे।

फड़फड़ाती जुगुप्सा,
निराशा
और भय के बीच कहानी अपनी राह चलती है। इस किताब में कुछ मौलिक व्यंजना का अलहदा
मज़ा मिलेगा। ठेठ देहाती-देशज बातों के साथ शुद्ध साहित्यिक और समृद्ध तत्सम इस
किताब को विशिष्ट बनाते हैं। एक जगह वियोग में तड़पते नायक की तुलना
‘गूलर में कैद भुनगे‘ से की गई है।
इज़्तिरार की तड़पन और रोमांच की फुरेरी के बीच परेशानी में आदमी घड़े में भी ऊँट
ढूंढ़ते हैं।

यतीश कुमार
बीच-बीच में पंक्तियाँ एक तमाचे की तरह लगती हैं जैसे एक जगह जिक्र है-
लगातार बिलखने से उसके गालों पर आँसू ढ़लकने की लकीरें बन गयी!  किताब कभी मुर्दहिया की झलक दे जाती है तो कभी
आधा गाँव की। शब्दों का गठन इतना सुंदर है कि पढ़ते-पढ़ते अचानक सीखने का आवरण ओढ़ना
पड़ता है। किसी भी नए लेखक के लिए शब्द संयोजन को समझने और शब्दकोष में इज़ाफ़ा करने
के दृष्टिकोण से भी यह किताब पठनीय है। यहाँ उर्दू
, देशज, ब्रज और अवधि सभी का उचित और संतुलित समागम है, जैसे ‘कराब‘ का सुंदर प्रयोग
दिखा।
 

व्यंगात्मक शैली पढ़ते-पढ़ते फैंटेसी में बदल जाती है और स्वर्ग की व्यवस्था
का बखान होने लगता है। महान भोगा का विक्रम संवाद भी अतुलनीय है। भोगा के मृत्यु
के बाद का संदर्भ इस उपन्यास को बिल्कुल ही अलग स्तर पर ले जाता है। विचरण और
अवलोकन इस भाग के विशेष  पहलू हैं। कहानी में
सिकन्दर और गीता की कहानी रस्से की ऐंठन की तरह मुड़ती मिलती चलती है। सब ठीक होते
ही एक ऐंठन।

यह एक अलग मिजाज का उपन्यास है जिसके तेवर भी हटकर हैं और लेखक ने भर-भर
कर गालियों का छौंक भी लगाया है। इस अनुशासित उपन्यास को पढ़ते हुए थोड़ा अटपटा भी
लगेगा..।

 ***

किताब- हरामी (उपन्यास)

लेखक- मदन पाल सिंह

प्रकाशक- सम्भावना प्रकाशन

पृष्ठ- 158 

( लेखक चर्चित कवि, कथाकार और समीक्षक हैं।)

हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad

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Comments 2

  1. शहंशाह आलम says:
    4 years ago

    पुस्तक के पन्नों को परत दर परत खोलती समीक्षा।

    Reply
  2. MADAN PAL SINGH says:
    4 years ago

    धन्यवाद यतीश जी, अपने पाठकीय उद्द्गार प्रकट करने के लिए। आपकी पंक्तियाँ इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि क्योंकि आप साहित्य के सच्चे प्रेमी हैं और सजग लेखक भी।

    Reply

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