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Home कविता

शिप्रा मिश्रा की कविताएँ

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस से शुरू हुई एक विशेष श्रृंखला के तहत प्रस्तुत

by Anhadkolkata
March 26, 2025
in कविता
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शिप्रा मिश्रा

नदी अपना मार्ग
स्वयं बनाती है

कोई नहीं पुचकारता
उछालता उसे
कोई उसकी ठेस पर
मरहम नहीं लगाता

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नदी यदि स्त्री है तो उसे स्वयं मार्ग बनाना होता है और यह संघर्ष जो अपना मार्ग बनाने के लिए करना होता है वही आपको एक नई दृष्टि देती है – शिप्रा मिश्रा की कविताओं में स्त्री का संघर्ष और दर्द दोनों है। तारिफ यह कि स्त्रियाँ अब अपने दर्द और अधिक तेज आवाज में कह रही हैं।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस से शुरू हुई एक विशेष श्रृंखला के तहत प्रस्तुत है शिप्रा मिश्रा की कविताएँ।

आपकी राय का इंतजार तो रहेगा ही।

 

 

खोईंछा

बेटियों को
विदा करते समय
माएँ डालती हैं खोईंछा
चावल हल्दी पुष्प दूब मुद्राएँ

उझीलती हैं
ढेर सारा आशीष
उनकी समृद्धि और
सौभाग्य की मंगलकामना से

सर्वस्व न्योछावर
करने के बाद
उन्हें कुछ स्मृति होती है

और –
वे निकाल लेती हैं
उनके आंँचल से
थोड़ा- सा चावल

जब तक माएँ
बेटियों के खोईंछे से
निकालती रहेंगी
थोड़ा- चावल

तब तक
बनी रहेगी इस सृष्टि में
बेटियों के लौटने की आशा
उसके उम्मीद
और अस्तित्व की
अटूट आस्था और विश्वास

अर्थात –
पृथ्वी स्त्रीविहीन नहीं होगी
कभी भी
जन्म- जन्मांतर तक
माएँ बचा लेती हैं
अपनी ही नारी अस्मिता को
अपनी बेटी के
खोईंछा से –

तथागत

पुरुष –
प्रवासी नहीं होते
लेकिन स्त्रियाँ
होती हैं प्रवासी

छोड़ जाती हैं
अपनी मिट्टी
अपने लोग
अपना गाँव- जवार
लहलहाते खेत- खलिहान
पोखर अमराइयांँ झूले
बचपन की सखियाँ
आंँगन में दबाये
गिलट की कुछ अशर्फियांँ

तुलसी चौरे पर
छोड़ी हुई आस्था,
जनेऊ वाले पत्थर
मौन महादेव
भोर का सूर्योदय,
संध्या का सूर्यास्त

परिवार के लिए
मूक समर्पण
करुणा की मूर्ति

छोड़ जाती हैं –
अपने हिस्से की रोटी
हंँसी- खुशी नींद- चैन
सब कुछ त्यागना ही
उनकी नियति है

धीरे- धीरे हो जाती हैं
मोह- माया से परे
निर्विकार स्थितप्रज्ञ
विमुक्त आसक्तिविहीन –

लेकिन –
उन्हें तथागत की उपाधि
नहीं मिलती
क्यों नहीं हो पातीं
वे बुद्ध –
क्या इसमें भी है
कोई अनसुलझा रहस्य –

परिणति

नदी अपना मार्ग
स्वयं बनाती है

कोई नहीं पुचकारता
उछालता उसे
कोई उसकी ठेस पर
मरहम नहीं लगाता

दुलारना तो दूर
कोई आंँख भर
देखता भी नहीं

तो क्या –
नदी रुक जाती है
या हार मान लेती है?

कोई उसे मार्ग भी
नहीं बताता
चट्टानों से भिड़ना
उसकी नियति है

और उसे
अपनी नियति या
नियंता से
कोई उलाहना नहीं

उसे तो स्वीकार्य है
स्वयं का आत्मसात
यही परिणति है
जो सिंधु की विशालता से
उसका परिचय करवाती है

और वह –
सर्वस्व न्योछावर
करने के बावजूद
बिंदु से सिंधु के
अंक में समाहित
हो जाती है
सदा- सर्वदा के लिए
और हो जाती है
परिपूर्ण –

माटी- पानी

छोटी जगह की लड़कियॉं
बड़ी गॅंवारू होती हैं
समझती ही नहीं कुछ
या समझना नहीं चाहतीं
आज के तौर- तरीके

चली आती हैं गाहे- बगाहे
जब उनकी माटी पुकारती है
बताओ ना तनिक!
अब भी करती हैं परदा
अपने जेठ- सरदार से!

उतारती हैं थकान
अपने पाहुनों की
पानी भरे परात में

अब भला जरूरत क्या थी
मॅंगरुआ की घारी में
बेझिझक चले जाने की?

और तो और–
वहाँ से गोबर उठा लाने की
उसके बिना क्या चउका
अपवित्र रहता है भला?

व्यंजनों से परोसी थाल भी
इन्हें तृप्त नहीं कर पातीं
जब तक न खाएँ
घूरे में पकाया सोन्हाया
आलू का चोखा

फेरा लगा आती हैं
गाँव के खेत- खरिहान
गोहार आती हैं
सीतला माई बरह्म बाबा
बनदेवी बउधी भगउती
आंँचर पसार- पसार

ये लड़कियांँ देती हैं
उदित सुरुज को जल
गाछ- बिरिछ और
दुआरी पर
बॉंध जाती हैं
भखउती मनउती की डोर

जनेऊ वाले महादेव पर
माथा पटकती हैं बुदबुदाते हुए
गइयों को कौरा खिलाती
बढ़न्ती की असीस मांँगती हैं

लगाती हैं घर के
गोल- मटोल से छौने के
लिलार पर करिया टीका
अब देखो ना!
अकलुआ की मउसी से
सनेस मांँगने की
भला क्या जरूरत?

घर में मिठाइयों की
कोई कमी है क्या?
नइहर के खोंईछा के बिना
भला क्यों अधूरी रहती हैं!

ये छोटी जगह की
लड़कियांँ भी न
बड़ी बागड़
बकलोल होती हैं

सहेज जाती हैं
पुरखों की नसीहतें
और बचा लेती हैं
अपनी माटी- पानी को –

वानप्रस्थ

चले गए?
सब चले गए!
जाने दो चले गए
अच्छा हुआ चले गए
क्या करना जो चले गए!

अब मैं आराम से खाऊँगी
अपने हिस्से की रोटियांँ
पहले तो एक ही रोटी के
हुआ करते थे कई टुकड़े

जाने दो चले गए
बहुत अच्छा है चले गए

उनके पोतड़े धोते- धोते
घिस गई थीं मेरी ऊँगलियाँ
अब तो इन ऊँगलियों पर
जी भर के करूँगी नाज़

चले गए तो चले गए!

पूरे बिस्तर पर सोऊंँगी अकेली
अब गीले- सूखे का झंझट न होगा
आराम से पसर कर बदलूँगी
सारी रात सुकून चैन की करवटें

जाने दो जो चले गए!

बनाऊँगी ढेर सारी पकौड़ियाँ
और रोज़ एक नया पकवान
जो खा न पाए थे अब तक
बचते ही न थे थोड़े से भी

चले गए जाने दो!

सिला लूँगी एक सुन्दर-सी
मखमली जाकिट फूलों वाली
और पहनूँगी पैरों में पाजेब भी
छमकते रहेंगे घुंघरू मेरे पाँव में

चले गए जाने दो चले गए

कह देना! कभी लौट आएँ तो
इसी चौखट पर काटना है उन्हें भी
अपने हिस्से का वानप्रस्थ
जहाँ वे छोड़ गए हैं अपनी बूढ़ी माँ को

चले गए जाने दो चले गए

इसी चौखट पर नरकंकाल बन
अगोरती रहूँगी अपने पड़पोतों को
मेरी आँखों को तृप्त करने कभी तो आएँगे
उस दिन मेरी एक नहीं कई आँखें होंगी

चले गए तो चले गए

नहीं मिलेंगी तब उनके हिस्से की लकड़ियाँ
न उन्हें वन मिलेंगे जिसे छोड़ गए
सूखने मुरझाने जलने मरने के लिए
मिलेंगी केवल आच्छादित बरगद की शाखाएँ

चले गए! जाने दो चले गए!

नहीं रहना मुझे पिंजरबद्ध

नहीं रहना मुझे पिंजरबद्ध
हाँ-हाँ- सुनो!
नहीं रहना मुझे पिंजरबद्ध
कोरे दंश में लिप्त आबद्ध

न मेरे जनमने का कोई उत्सव
न मेरे मरण का कोई शोक
तुम सब के चेहरे यूँ उतरे थे
जैसे नग्न हो गए चौराहे पर

पीड़ा के घने कोहरे में
लिपटी मेरी
मायूस बेबस आँखें
कोई संबल कोई ठौर
जैसे ढूँढ रही हो निरर्थक

एक हतभागी जो
भ्रूण हत्या की नाकामी
के परिणाम स्वरूप
संजीवनी की तरह
सदेह खोलती आँखें

तमस से बाहर निकल
ज्योतित होकर भी
पुनः तिमिर में
लौटने को जैसे
हो अभिशप्त

फिर ऐसी अवांछित कन्या का
कन्यादान कर
तुम गंगा कैसे नहा लोगे?
क्या कोई वस्तु हूँ मैं
जो यहाँ दोगे वहांँ दोगे?

और सुनो!
धान का पौधा भी
नहीं मैं! जो मेरी ही
मिट्टी से उखाड़ कर
अन्यत्र लगा दोगे!

बड़ी मजबूती से
अपना पोषण मैं
स्वयं कर लूँगी
विसंगतियों से जूझते हुए

गर्भस्थ तिमिर से निकल पड़ी
तो अपने हिस्से का सूरज
और अपनी मुठ्ठी का चाँद
मैं स्वयं छीन लूँगी तुमसे

तुम्हारे खाद-पानी की
भीख नहीं चाहिए मुझे
छोड़ दो मुझे अबला
और निरीह समझना

और नहीं मानती मैं
स्वयं को खूंँटे की गाय
जिसे बला समझ तुम
बाँध आओ किसी
निरंकुश निर्दयी खूँसट
धन लोलुप स्वार्थी के पल्ले

और तो और –
उस पति को
कभी परमेश्वर नहीं मानूँगी
जो प्रताड़ना के अतिरिक्त
कोई भेंट दे ही नहीं सका

जो मेरा साथी न बन सका
वह भला सात जन्मों के
जीवन का साथ
भला क्या निभा पाएगा?

वह परमेश्वर तो
कभी बन ही नहीं सकता
क्योंकि इतनी उसकी
क़ूबत नहीं

वह तो स्वयं आश्रित
और निर्भर है
अपनी कुल वृद्धि के लिए
मुझ पर सदियों से

नहीं मानती तुम्हारे
तर्क – कुतर्क
आधारहीन दलीलें
नहीं दूँगी मैं कभी कोई
निरर्थक अग्नि परीक्षा

इस अग्नि में
अब तुम्हें लेने होंगे अपनी
गरिमा और विश्वसनीयता
के अटूट संकल्प

नहीं मानूँगी मैं
तुम्हारे ढपोरशंख वाले
कपोल-कल्पित
एकपक्षीय शास्त्र

मेरी डोली भले ही तुमने
मेरी मिट्टी से उठा ली हो
लेकिन अर्थी तो
मेरी मिट्टी से ही
पूरी धमक से उठेगी

चुनौती है मेरी
और ललकार भी
मेरे हिस्से की मिट्टी
रोक सको तो रोक लो!

बड़े दुस्साहस से
आज तोड़ती हूँ
अपने चरित्र पर उठती
उन अगणित ऊँगलियों को

अगर साहस हो तो दो
पहले स्वयं की अग्नि परीक्षा
सिद्ध करो विश्वसनीयता
फिर करना मेरा परित्याग

मैं फिर कहती हूँ-
सुनो! सुन लो!
नहीं रहना मुझे पिंजरबद्ध
कोरे दंश में लिप्त आबद्ध..

 

-0——0——-0——0-

कवि परिचय

* डॉ शिप्रा मिश्रा
बेतिया, प० चम्पारण, बिहार
शिक्षण एवं स्वतंत्र लेखन, हिन्दी कॉन्टेंट राइटर, प्रूफ रीडर
* माता- पिता
डॉ सुशीला ओझा एवं डॉ बलराम मिश्रा
* राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय लगभग 250 से अधिक पत्र- पत्रिकाओं में हिन्दी और भोजपुरी की लगभग 2500 से अधिक रचनाओं का निरंतर प्रकाशन
* लगभग 250 से अधिक गोष्ठियों में शामिल ,
* 4 पुस्तकें प्रकाशित एवं 4 प्रकाशन के क्रम में,
* साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा 100 से अधिक सम्मान प्राप्त
* विभिन्न साहित्यिक मंचों द्वारा साक्षात्कार एवं अनेक कविताओं एवं कहानियों का यूट्यूब और इन्स्टाग्राम से प्रसारण
* लघुकथाओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद
* अनेक सेमिनारों और वेबनारों में सक्रिय भागीदारी
* पचास से अधिक साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं की आजीवन सदस्य
* अनामिका साहित्यिक एवं सांस्कृतिक मंच की संचालिका
* अध्यक्ष – शैक्षणिक प्रकोष्ठ, विश्व हिन्दी परिषद (बिहार)
* मोबाइल नंबर – 9472509056
* वर्तमान निवास – कोलकाता

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