विभावरी की समझ और संवेदनशीलता से बहुत पुराना परिचय रहा है उन्होंने समय-समय पर अपने लेखन से हिन्दी की दुनिया को सार्थक-समृद्ध किया है। उनकी एक किताब नॉटनल पर आई है जो कविता और चित्र का एक सुंदर कोलाज है और अपने कंटेंट और शिल्प से हिन्दी की दुनिया में बहुत कुछ नया जोड़ती है। इस किताब तक इस लिंक को चटकाकर पहुँचा जा सकता है – https://notnul.com/Pages/Book-Details.aspx?ShortCode=KCW1KnB4
अच्छी बात यह कि बहुत प्रिय कलाकार विभावरी का आज जन्मदिन है और हम उन्हें खूब-खूब बधाई देते हुए उक्त पुस्तक के एक अंश से रूबरू हो रहे हैं। आपकी अमूल्य राय की प्रतीक्षा तो रहेगी ही।
अपनी बात
अपनी सृजनात्मकता के विषय में कुछ भी लिखना शायद दुनिया के सबसे कठिन कामो में से एक है! ख़ासकर जब अपने लिखे के प्रति आप अपार हिचक से भरे हों तो यह कठिनाई और भी बढ़ जाती है.
किसी कला को साधने के लिहाज़ से कितनी ही बार पूरी उम्र नाकाफ़ी होती है और कितनी ही बार एक छोटे से टाइम फ़्रेम में भी वह पूरी लगती है. इस किताब में कुछ तस्वीरें हैं और उन पर उमड़े कुछ भाव/विचार हैं…इनमें से ज़्यादातर उस तक़लीफदेह बीते वक़्त में लिखे गए हैं जब हम सब अपने घरों में क़ैद थे… एक अनजाने वायरस के डर में…!
और देखिये ना आज जब ये भूमिका लिखने बैठी हूँ तो हम सब फिर से घरों में क़ैद हो चुके हैं.
Robert Bresson कहते हैं, यानी कोई ध्वनि हमेशा ही आपके ज़ेहन में एक तस्वीर उभारती है लेकिन कोई तस्वीर कभी भी आपके ज़ेहन में कोई ध्वनि बन कर नहीं गूंजती
लेकिन मुझे लगता कितनी ही बार कोई तस्वीर आपके भीतर कितने ही तरह के भाव जगा सकती है. कई बार तो बिल्कुल विरोधाभासी भाव भी! आज जब हम सब अपने घरों में क़ैद, अपने स्क्रीन की खिड़कियों से बाहर की दुनिया देख रहे हैं तो वाचाल तस्वीरों का ये हुनर और भी गहरा जाता है या कहें कि ख़ुद को और गहराई से पढ़ने की संभावनाएं जगाता है.
कभी पढ़ा था कि फ्रेंच उपन्यासकार Marcel Proust के आत्मकथात्मक उपन्यास Swann’s Way (1913) में ये वर्णन मिलता है कि कैसे चाय में डूबे हुए मैडलीन केक का फ़्लेवर उन्हें अपनी बचपन की दुनिया और उसकी यादों में लौटाता है जब उनकी आंट लियोनी हर रविवार सुबह उनके लिए यह केक बनाया करती थीं…और यहीं से Proust Phenomenon जैसी अवधारणा के लिए रास्ते खुलते हैं जहाँ गंध और अतीत की स्मृतियों के बीच के संबंध को नए आयाम मिलते हैं.
ये सब पढ़ने- जानने से बहुत पहले मैंने कितनी ही बार पारिजात, रजनीगंधा या फिर नारियल के लड्डू की ख़ुश्बू में अपने बचपन की यादें तलाशी हैं…और कितना रोचक है कि वे यादें ठीक वहीं मिलीं मुझे, ऐन उसी जगह पर जहाँ उन्हें बचपन की किसी गली में उसी ख़ुश्बू के साथ छोड़ आई थी…
पर ये सब यहाँ क्यों लिख रही हूँ!
शायद इसलिए क्योंकि कई बार सोचती हूँ, काश, मैं इन तस्वीरों को सूंघ पाती! …और उनके गंध की डोर पकड़ अपनी खोयी स्मृतियों की यात्रा कर पाती! सुना है कोविड 19 का यह वायरस हमारे सांस लेने की प्रक्रिया को प्रभावित करते हुए हमारी सूंघने और स्वाद की क्षमताओं को भी गहरे तक प्रभावित कर रहा है…और मैं निश्चय नहीं कर पाती कि अगर कभी मनुष्य हमेशा के लिए अपनी इन क्षमताओं को खो बैठे तो वह स्थिति किसी स्मृतिभंग से कैसे अलग होगी!
और अगले ही पल लगता है तब ऐसी ही कोई तस्वीर देखकर उसे अपनी स्मृतियाँ वापिस मिल जाएँ शायद!
खैर!
ठीक- ठीक तो नहीं याद लेकिन तकरीबन आठ-नौ साल पहले तस्वीरों पर लिखना शुरू किया था मैंने. पहले पहल कुछेक वाक्यों से इन्हें डीकोड करती थी, बाद में कुछ कुछ काव्यात्मक गद्य जैसा लिखने लगी…यह संकलन उन्हीं तस्वीरों और कहन का जुटान भर है.
हाँ, एक और बात जो कहने की है कि एक तस्वीर, जिसमें मैं ख़ुद हूँ, को छोड़ कर सारी तस्वीरें मेरी ही ली हुई हैं. और ये सभी तस्वीरें मोबाइल कैमरे से ली गयी हैं. तस्वीरों में जो परिवेश है, ज़्यादातर बार उन चीज़ों से जुड़ा है जो मुझे पसंद हैं या कई बार उनसे भी जिनसे उतना राग तो नहीं पर विराग भी नहीं…तो कह सकते हैं कि ज़्यादातर तस्वीरें भी उन जगहों और बातों का प्रतिनिधित्व करती हैं जिनमें भरोसा बन सकता है किसी भी व्यक्ति का
मसलन इन तस्वीरों में समंदर है…आसमान है…तो बादल भी है…ज़मीन भी है…बोगनबेलिया और कचनार है तो अमलतास भी है…गुलमोहर है, बेला है तो कुछ अनचीन्हें-अनजाने से फूल भी हैं…
इन तस्वीरों में कुछ रौशन से ख़्वाब हैं तो कुछ सियाह सी यादें भी हैं…कुछ ख़ुशनुमा से एहसास हैं तो कुछ तक़लीफदेह दु:स्वप्न भी हैं…कुछ चटकीले से रंग हैं तो एक बेरंग सा आसमान भी है
लेकिन इन तस्वीरों में इन सब का होना एकांगी नहीं है… इस ‘होने’ के अपने ही सन्दर्भ हैं…इस ‘होने’ की अपनी ही भंगिमाएं हैं जो इस होने को एकांगी होने से बचा लेती हैं.
1839 में जब फ़ोटोग्राफ़ी की शुरुआत हुई तो इसे यथार्थ को दर्ज़ करने की महज़ एक यांत्रिक प्रक्रिया के तौर पर देखा गया. इसके अलावा या इससे ज़्यादा अगर फ़ोटोग्राफ़ी को समझा गया तो पेंटिंग जैसे प्रतिष्ठित कला माध्यम को फेसिलिटेट करने के एक माध्यम के बतौर ही!
उन दिनों तमाम नए कला माध्यमों की शुरुआत जैसे ही इसे भी कलाविदों का विरोध झेलना पड़ा. इसके साथ ही इसने एक नए सिरे से ‘कला क्या है?’ की बहस को भी जन्म दिया. बेशक फ़ोटोग्राफ़ी को एक कला के बतौर अपनी जगह बनाने के लिए कितनी ही बहसों, कितने ही तर्कों के साथ एक लंबा इंतज़ार भी करना पड़ा.
और आज यह जानते समझते कि किसी भी अन्य कला माध्यम की तरह फ़ोटोग्राफ़ी की भी अपनी भाषा है जिसकी गढ़न में दृश्य तत्व शामिल हैं, यह उन संभावनाओं को भी जन्म देती है जिसमें इन दृश्य तत्वों की व्याख्याएं शामिल हो सकें.
यहाँ यह कहना भी ज़रूरी लगता है कि किसी अन्य द्वारा ली गयी तस्वीर पर लिखना एक अलग बात है और अपनी ली हुई तस्वीर पर लिखना बिलकुल अलग बात. कई बार होता ये है कि आप अपने दिलो-दिमाग़ में चल रहे भावों को कैमरे के दृश्य एलिमेंट में ढाल देते हैं और जब उस पर लिखते हैं तो अपने उन भावों को रीकलेक्ट कर रहे होते हैं.
तो कह सकते हैं कि इस किताब में ज़्यादातर तस्वीरों पर लिखा गया जो भी है वह कुछ बिखरे हुए से भावों और विचारों का दृश्य तत्वों में ढलना और इन दृश्य तत्वों से पुनः शब्दों/वाक्यों/बिम्बों आदि में रूपांतरण जैसा कुछ है. कह सकते हैं कि उन भावों और विचारों की दो माध्यमों में यात्रा जैसा कुछ!
इसके साथ ही इस किताब में कुछ फ़िल्मों के स्टिल्स भी हैं जिन पर ‘डीकॉन्सट्रक्शन’ या विखंडन के नुक्ते से लिखा गया क्रिएटिव पीस है. FTII के प्रोफ़ेसर नखाते कहते थे कि “Develop your own style of writing on Cinema; No one can teach you that” उनकी इस बात को मैंने गम्भीरता से लिया जिसका परिणाम है कि मैंने फ़िल्मों पर कई तरह से लिखना शुरू किया. उन कई में से एक तरीक़ा ‘Deconstructing_film_name’ वाले hashtag से कुछ फ़िल्मों पर लिखे राइट अप्स थे, जो मेरे हिसाब से इसी किताब का हिस्सा बनने चाहिए थे. लिहाज़ा उन्हें भी इस किताब में शामिल किया. कुछ फ़िल्मों के स्टिल्ज़ पर भी कुछ छोटे राइट अप्स हैं…
कुल मिलाकर कहूँ तो थोड़ी कविता, थोड़ा गद्य, थोड़ा सिनेमा और कुछ तस्वीरों का एक मिला जुला सा रूप है इस किताब में, क्या है ये ठीक ठीक आप ही तय कर सकते हैं.
तो बेहद इंतज़ार के बाद ये किताब आपके हवाले कर रही हूँ. चूंकि यह मेरी पहली किताब है इसलिए थोड़ी झिझक और बेइंतिहा मोहब्बत से भी भरी है. तय परिपाटी से कुछ अलग है इसलिए अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है कि पढ़ने वालों को पसंद आयेगी या नहीं लेकिन जो भी है अब आपके हाथ में है.
पूरी विनम्रता से इसमें रह गयी कमियों को स्वीकार कर रही हूँ..आगे शायद कुछ बेहतर कर पाऊँ!
-विभावरी
1.
उस रोज़ जब तुम ख़ुदा बन गए और मैंने चुना काफ़िर हो जाना…
2.
प्रेम कोई पौधा नहीं है
जिसे उगा लिया जाय बालकनी के गमले में
ना ही नफ़रत कोई बीज
जिसे बोया जाय हर साल, मुफ़ीद वक़्त पर
प्रेम, शिराओं में बहता लहू है
जिसके बग़ैर
नहीं चल सकती मनुष्यता की धड़कन
नफ़रतें,
आँख में पड़ा वो कंकड़ हैं
जिसके साथ
नहीं बढ़ सकते मनुष्यता के क़दम
कितनी असहज थी ये सहजता
कि नफ़रतें सस्ती रहीं मुहब्बतों के बरक्स
कितना अजीब है ये सच
कि मैंने जब-जब चाहा मनुष्य होना
मनुष्यता के क़दम लड़खड़ा गये
3.
किसी उद्दाम नृत्य की मोहक भंगिमा जैसे
तुम्हारा अंश है मुझमें
किसी राग के सबसे कठिन आलापों की गिरह भी
तुम ही हो
तुम में शामिल हैं मेरे लय-छंद सब
एक आवेगपूर्ण बोसे की
गहरी छुवन
जीवन का तुक
मृत्यु का क्रंदन
तुम
4.
जो सूख गया मन में
कभी हरा था
जो हरा है आज
सूख जाना नियति है उसकी
छलावे और भुलावे की इस दुनिया में
हरेपन का होना
एक प्रमेय है
और उसका चले जाना
इस प्रमेय की सिद्धि
5.
‘छोटी बहू’ के लिए
मेरे लिए एक किरदार से कहीं ज़्यादा हो तुम ‘छोटी बहू’!
क्योंकि तुम में थोड़ी सी मैं ही नहीं बसती,
क्योंकि तुम भी बसती हो इस दुनिया की हर औरत में थोड़ी-थोड़ी.
अपनी वर्जनाओं से लेकर अपनी आज़ादख़याली तक,
तुमने रचा है ख़ुद को हर्फ़ दर हर्फ़
अपने समर्पण से लेकर अपने विद्रोह तक
तुम बेबाक हो
अपनी गुरुताओं से लेकर अपनी लघुताओं तक
विस्तार हो तुम एक सरल रेखा का
अपनी कामनाओं के जंगल में नितांत अकेली तुम,
एक प्रश्नचिन्ह हो, समाज के पूर्ण विरामों पर
सुनो! ‘छोटी बहू’,
ये बंदिशें जो गुमराह करती हैं तुम्हें,
ये वर्जनाएं जो घुटन भरती हैं तुममें,
ये आवरण जो ढंकते हैं तुम्हारा स्व,
उतार फेंकों इन्हें ख़ुद के वजूद से एक दिन
खुल जाने दो वेणी में बंधे अपने केश
क्योंकि ‘मोहिनी सिन्दूर’ के भ्रामक छलावों के बीच
अगर कुछ सच है, तो वह है तुम्हारा जीवट
सुनो! ‘छोटी बहू’!
इस बार कोई तुम्हें ‘छोटी बहू’ पुकारे
तो उसे कहना तुम्हारा एक नाम भी है
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