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Home आलोचना

 मौन जड़ता में कल्याणमयी बनी रहे स्त्री ! – डॉ. शोभा जैन

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस से शुरू हुई एक विशेष श्रृंखला के तहत प्रस्तुत

by Anhadkolkata
April 1, 2025
in आलोचना
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डॉ. शोभा जैन

डॉ. शोभा जैन इंदौर में रहती हैं एवं अग्निधर्मा पत्रिका का संपादन करती हैं। स्त्री विमर्श से जुड़े मद्दे पर लिखा हुआ यह सुचिंतित लेख यदि आपको कुछ कहने के लिए उकसाता है तो उनका यह प्रयास सार्थक कहा जाएगा। इस संदर्भ में यदि कोई बहस शुरू होती है तो हम उसका भी स्वागत करेंगे। बहरहाल  आज प्रस्तुत है डॉ. शोभा जैन का यह आलेख।

आपकी प्रतिक्रियाओं का हमेशा की तरह स्वागत है।
 –  संपादक 

 मौन जड़ता में कल्याणमयी बनी रहे स्त्री !
डॉ. शोभा जैन

केदारनाथ सिंह ने कहा है –”हमारे समय में सही का पता, सिर्फ गलत से चलता है।”
हम उस समाज में है जहाँ पहले यह तय होता था कि स्त्रियों को कैसा होना चाहिए | अब उस समाज में हैं जब स्त्रियां तय करना चाहती हैं कि पुरुषों को कैसा  होना चाहिए |लेकिन डर यह होता है कि इसके लिए किये जा रहे तमाम आंदोलनों में किसी एक बात पर जोर देने से दूसरी महत्वपूर्ण बात अक्सर छूट जाया करती है | हमें पता ही नहीं चला   नारी विमर्श करते -करते हम कब पुरुष विमर्श को सवालों के कटघरे में खड़ा करते चले गए | बल्कि हमने इस बात का जरा भी बोध नहीं रहा कि नारीवादी होने का अर्थ पुरुष विरोधी नहीं है | जो साहित्य हमेशा वंचितों और पीड़ितों के पक्ष की बात करता है वह अक्सर प्रचलित विषयों से इतर जाने में चूक जाता है |
इन दिनों युवतियाँ अल्प संख्या में ही स्वच्छन्दता से बाहर आती जाती हैं, यह उन्हें और भी धृष्टता सिखाता है। अस्वाभाविक वातावरण के अतिरिक्त नैतिकता का अभाव भी इस दुरवस्था का कारण कहा जा सकता है। सम्पन्न और विकसित आधुनिक भारत का सपना देखने वाला भारत और पूंजी मुक्त बाजार को अपना आदर्श मानने वाली पीढ़ी इस मुगालते में पल रही है की स्त्री आज आजाद है शायद स्त्री की स्वतंत्रता की परिभाषा महज उसके पाश्चात्य तरीकों से कपडे पहनने, बाहर जाकर नोकरी करने,पढने -लिखने और सजने संवरने के अर्थ में ही ली जाती है। यह स्पष्ट होना जरुरी है स्त्री के शिक्षित होने का अर्थ केवल केवल अर्थ प्राप्त नहीं। नोकरी हासिल करने का अर्थ सशक्त  होना नहीं है।  क्या हमने कभी सोचा है अपनी एक अलग दुनिया के निर्माण को तत्पर भारतीय महिलाओं के जीवन मूल्य और उनके भविष्य की रूप रेखा क्या होगी ?

इधर स्त्री प्रश्नों को लेकर क्रांतिधर्मी तेवर पत्र -पत्रिकाओं में तो बहुत उतरते हैं किन्तु अंतर्विरोधों के जाले काटने की कोशिशें  आज भी जरुरी लगती है।स्त्री की आत्मनिर्भरता को भी मूलत: आर्थिक आत्मनिर्भरता से जोड़ दिया गया। इस सोच ने न सिर्फ औरत के कामों का अवमूल्यन किया, बल्कि उसके अस्तित्व को ही दोयम बना दिया। अबोध बालकों, वृद्ध और कुछ खास व्याधियों तथा आलस्य से ग्रस्त लोगों के अलावा सामान्यतया सभी लोग, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, आत्मनिर्भर हैं।दिन के सोलह घंटे घरेलु काम करनेवाली महिलाएं  सामाजिक  रूप से आश्रित मानी  जाती है या उनके उस काम की कोई गिनती नहीं होती। दुर्भाग्य से महिला दिवस भी कामकाजी या किसी विशेष क्षेत्र  में विशेष योगदान देने वाली ज्यादातर महिलाओं की तरह लिया जाता है ।

भारत में ओपनिवेशिक मानसिकता को ढोने  वाले गुलाम ढंग  के बुद्धिजीवी स्त्री विमर्श को कभी भारतीय संदर्भों में व्यक्त ही नहीं करते। उनका स्त्री विमर्श देह से शुरू होकर अनैतिक संबंधों पर आकर सिमट गया। फिर साहित्य में भी कथा साहित्य और कविताएं इसी के इर्द गिर्द  दिखाई देती  रहीं। स्त्री ने भी विमर्शों के अतिरेक में स्वयं को पूर्ण शोषित स्वीकार कर लिया जबकि विगत के दशकों में स्त्री विमर्शों के विषय बदले हैं। पहले भी साहित्य में बिहारी  का नख-शिख वर्णन हो, चाहे वात्सायन का नायिका भेद। पूरा का पूरा रीतिकाल भरा पड़ा है नायिकाओं के दैहिक वर्णन में । स्त्री विमर्श पर बात करते हुए कई बार हमारे योग्य विद्वान भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्री संघर्ष की उपेक्षा कर जाते हैं|पर बहुत खोजा पुरुषों का नख-शिख वर्णन कहीं नहीं मिला। नारी के नख-शिख वर्णन की परंपरा में निष्णात कवि पुरुष के प्रति  इतने उदासीन क्यों रहे ?  ये अलग बात है पिछले दिनों पुरुष दिवस की ध्वनियां गूंजती रही। यह इस दौर का एक सकारात्मक बदलाव है कि अब पुरुष भी स्त्री विमर्श की तरह  वषों से अपने शोषित लिंग भेद , आर्थिक असमानता , शोषण , और उपेक्षा के लिए विमर्श के केंद्र में आने की जद्दोजहद करता है।  वह कहता है –मैं मजदूर भी हूँ, किसान भी हूँ, दुकानदार भी और क्लर्क भी। मेरा एक पूरा कुनबा है,पुरुष होने की वजह से मुझे कुछ अलिखित स्वतंत्र अधिकार अतिरिक्त प्राप्त  हैं समाज की कुछ ऐसी ही धारणा बनी हुई है |

किन्तु प्रश्न ये है आज के समय में भोगवाद में डूबे  इस तूफान में अकेले पुरुष को क्यों लपेटा जाता है जबकि बराबर की हिस्सेदारी स्त्रियों की भी | जिसमें सारी चीजें उडी जा रहीं है | कमर के लहँगे  से लेकर आँखों की शर्म तक | शायद यही वजह है कि स्त्री के बारे में पुरुष का दृष्टिकोण बदल रहा है | बात गलत कि नहीं वह एक गहन शोध का विषय है कुछ भी साबित करना जल्दबाजी होगी लेकिन प्रथम दृष्टया तो यही है स्त्रियों ने ही ऐसे कुछ  मानक  तय कर दिये कि उन्हें  व्यक्ति के रूप में नहीं मॉडल के रूप में देखा जाने लगा है और दोष महज़ पुरुष दृष्टि पर आकर ठहर जाता है  | यह भी सच है कि प्रत्येक युग ने आदर्श स्त्री -पुरुष का एक मॉडल बनाया है | दुर्भाग्य से अब जिस तरह के मॉडल बन रहे  उनके मॉडल होने का नकारात्मक श्रेय प्रुरुषों को दिया जाता रहा|

कहने का अर्थ स्त्री विमर्श  पर इकतरफा बात नहीं होनी चाहिए। आपको स्त्री स्वतंत्रता  विमर्श की आड़ में स्वछंदता चाहिए जिसने केवल बर्बादी ही दी है। आपको आधुनिकता की आड़ में केवल पाश्चात्त्य संस्कृति का अनुगमन चाहिए जिसने एक नया विमर्श खड़ा कर दिया आधुनिकता बनाम परम्परा का। संविधान में समानता का अधिकार है फिर ये द्वन्द पैदा करने वाले विमर्श के विषय क्यों ?भारत में रहते  हैं भारतीय  ज्ञान परम्परा ,भारत बोध , उसका इतिहास ,भारतीय शास्त्र और संस्कारों को आज के परिप्रेक्ष्य देखने समझने और आत्मसात करने की बात होनी चाहिए। आपको सुविधाएं और अधिकार भारतीय चाहिए सोच किसी और की तो आपके भारतीय होने पर संशय पैदा होता है।

अगर मोटे  तौर  पर देखें तो अब विमर्श की बाढ़  आ गई स्त्री  बनाम पुरुष , शस्त्र बनाम  शास्त्र , पश्चिम बनाम पूरब, यूरोप बनाम भारत, अंग्रेज़ी बनाम हिंदी, राजनीति बनाम संस्कृति, वर्ग बनाम अस्मिता को अगर  विमर्श कहते हैं तो इनके निष्कर्ष क्या निकलकर आये अब तक भारतीय संदर्भों में ?कभी इस विषय पर विचार किया है, आखिर इन विमर्शों से हम खिन्न हो गये हैं या भिन्न हो गये हैं ?

अश्लीलता भरे बोल्ड सीन्स और आपत्तिजनक सामग्री से समाज सेवा का धन जुटाने वाले युवा छोटे -छोटे गांव से आकर संघर्ष से जन्मे थे लेकिन शहरों /महानगरों की पिछड़ी मानसिकता ने उनको संस्कार शून्य कर दिया। वे युवा ये जान गए हैं आज के संदर्भों में स्त्री को  सफलता के लिए  कुछ अलग ही कीमत चुकानी पड़ती है फिर वो क्षेत्र कोई भी हो। लेकिन जरुरी बात ये है कि  उसे उसके परिश्रम की कीमत मिले न की अयाचित समझौतों की। स्त्री को  मातृ स्वरूप, बेटी स्वरूप, कन्या स्वरूप पूजने वाले देश में एक छद्म  भाव भी विमर्श का विषय है कि उसे  हमारी पूजा-अर्चना की सफलता के लिए यह परम आवश्यक है कि हमारा देवता हमारी वस्तुओं पर हमारा ही अधिकार रहने दे और केवल वही स्वीकार करे जो हम देना चाहते हैं। इसके विपरीत होने पर तो हमारी स्थिति भी विपरीत हो जायेगी। भारतीय स्त्री के सम्बन्ध में भी यही सत्य हो रहा है। उसको बहुत आदर-मान मिला, उसके बहुत गुणानुवाद गाये गये, उसकी ख्याति दूर-दूर देशों तक पहुँचाई गई, यह ठीक है, परन्तु मन्दिर के देवता के समान ही सब उसकी मौन जड़ता में ही अपना कल्याण समझते रहे! यह कड़वा किन्तु आधुनिक विकसित स्त्री का सत्य है वह बहुत आगे है किन्तु अनजाने ही सही अपने मापदंडों पर नहीं।

***

परिचय

डॉ शोभा जैन ,इंदौर
समीक्षक ,संपादक अग्निधर्मा (साप्ताहिक)  इंदौर
संपर्क :- 9424509155

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डॉ. शोभा जैन

डॉ. शोभा जैन इंदौर में रहती हैं एवं अग्निधर्मा पत्रिका का संपादन करती हैं। स्त्री विमर्श से जुड़े मद्दे पर लिखा हुआ यह सुचिंतित लेख यदि आपको कुछ कहने के लिए उकसाता है तो उनका यह प्रयास सार्थक कहा जाएगा। इस संदर्भ में यदि कोई बहस शुरू होती है तो हम उसका भी स्वागत करेंगे। बहरहाल  आज प्रस्तुत है डॉ. शोभा जैन का यह आलेख।

आपकी प्रतिक्रियाओं का हमेशा की तरह स्वागत है।
 –  संपादक 

 मौन जड़ता में कल्याणमयी बनी रहे स्त्री !
डॉ. शोभा जैन

केदारनाथ सिंह ने कहा है –”हमारे समय में सही का पता, सिर्फ गलत से चलता है।”
हम उस समाज में है जहाँ पहले यह तय होता था कि स्त्रियों को कैसा होना चाहिए | अब उस समाज में हैं जब स्त्रियां तय करना चाहती हैं कि पुरुषों को कैसा  होना चाहिए |लेकिन डर यह होता है कि इसके लिए किये जा रहे तमाम आंदोलनों में किसी एक बात पर जोर देने से दूसरी महत्वपूर्ण बात अक्सर छूट जाया करती है | हमें पता ही नहीं चला   नारी विमर्श करते -करते हम कब पुरुष विमर्श को सवालों के कटघरे में खड़ा करते चले गए | बल्कि हमने इस बात का जरा भी बोध नहीं रहा कि नारीवादी होने का अर्थ पुरुष विरोधी नहीं है | जो साहित्य हमेशा वंचितों और पीड़ितों के पक्ष की बात करता है वह अक्सर प्रचलित विषयों से इतर जाने में चूक जाता है |
इन दिनों युवतियाँ अल्प संख्या में ही स्वच्छन्दता से बाहर आती जाती हैं, यह उन्हें और भी धृष्टता सिखाता है। अस्वाभाविक वातावरण के अतिरिक्त नैतिकता का अभाव भी इस दुरवस्था का कारण कहा जा सकता है। सम्पन्न और विकसित आधुनिक भारत का सपना देखने वाला भारत और पूंजी मुक्त बाजार को अपना आदर्श मानने वाली पीढ़ी इस मुगालते में पल रही है की स्त्री आज आजाद है शायद स्त्री की स्वतंत्रता की परिभाषा महज उसके पाश्चात्य तरीकों से कपडे पहनने, बाहर जाकर नोकरी करने,पढने -लिखने और सजने संवरने के अर्थ में ही ली जाती है। यह स्पष्ट होना जरुरी है स्त्री के शिक्षित होने का अर्थ केवल केवल अर्थ प्राप्त नहीं। नोकरी हासिल करने का अर्थ सशक्त  होना नहीं है।  क्या हमने कभी सोचा है अपनी एक अलग दुनिया के निर्माण को तत्पर भारतीय महिलाओं के जीवन मूल्य और उनके भविष्य की रूप रेखा क्या होगी ?

इधर स्त्री प्रश्नों को लेकर क्रांतिधर्मी तेवर पत्र -पत्रिकाओं में तो बहुत उतरते हैं किन्तु अंतर्विरोधों के जाले काटने की कोशिशें  आज भी जरुरी लगती है।स्त्री की आत्मनिर्भरता को भी मूलत: आर्थिक आत्मनिर्भरता से जोड़ दिया गया। इस सोच ने न सिर्फ औरत के कामों का अवमूल्यन किया, बल्कि उसके अस्तित्व को ही दोयम बना दिया। अबोध बालकों, वृद्ध और कुछ खास व्याधियों तथा आलस्य से ग्रस्त लोगों के अलावा सामान्यतया सभी लोग, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, आत्मनिर्भर हैं।दिन के सोलह घंटे घरेलु काम करनेवाली महिलाएं  सामाजिक  रूप से आश्रित मानी  जाती है या उनके उस काम की कोई गिनती नहीं होती। दुर्भाग्य से महिला दिवस भी कामकाजी या किसी विशेष क्षेत्र  में विशेष योगदान देने वाली ज्यादातर महिलाओं की तरह लिया जाता है ।

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अगर मोटे  तौर  पर देखें तो अब विमर्श की बाढ़  आ गई स्त्री  बनाम पुरुष , शस्त्र बनाम  शास्त्र , पश्चिम बनाम पूरब, यूरोप बनाम भारत, अंग्रेज़ी बनाम हिंदी, राजनीति बनाम संस्कृति, वर्ग बनाम अस्मिता को अगर  विमर्श कहते हैं तो इनके निष्कर्ष क्या निकलकर आये अब तक भारतीय संदर्भों में ?कभी इस विषय पर विचार किया है, आखिर इन विमर्शों से हम खिन्न हो गये हैं या भिन्न हो गये हैं ?

अश्लीलता भरे बोल्ड सीन्स और आपत्तिजनक सामग्री से समाज सेवा का धन जुटाने वाले युवा छोटे -छोटे गांव से आकर संघर्ष से जन्मे थे लेकिन शहरों /महानगरों की पिछड़ी मानसिकता ने उनको संस्कार शून्य कर दिया। वे युवा ये जान गए हैं आज के संदर्भों में स्त्री को  सफलता के लिए  कुछ अलग ही कीमत चुकानी पड़ती है फिर वो क्षेत्र कोई भी हो। लेकिन जरुरी बात ये है कि  उसे उसके परिश्रम की कीमत मिले न की अयाचित समझौतों की। स्त्री को  मातृ स्वरूप, बेटी स्वरूप, कन्या स्वरूप पूजने वाले देश में एक छद्म  भाव भी विमर्श का विषय है कि उसे  हमारी पूजा-अर्चना की सफलता के लिए यह परम आवश्यक है कि हमारा देवता हमारी वस्तुओं पर हमारा ही अधिकार रहने दे और केवल वही स्वीकार करे जो हम देना चाहते हैं। इसके विपरीत होने पर तो हमारी स्थिति भी विपरीत हो जायेगी। भारतीय स्त्री के सम्बन्ध में भी यही सत्य हो रहा है। उसको बहुत आदर-मान मिला, उसके बहुत गुणानुवाद गाये गये, उसकी ख्याति दूर-दूर देशों तक पहुँचाई गई, यह ठीक है, परन्तु मन्दिर के देवता के समान ही सब उसकी मौन जड़ता में ही अपना कल्याण समझते रहे! यह कड़वा किन्तु आधुनिक विकसित स्त्री का सत्य है वह बहुत आगे है किन्तु अनजाने ही सही अपने मापदंडों पर नहीं।

***

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