
डॉ. शोभा जैन इंदौर में रहती हैं एवं अग्निधर्मा पत्रिका का संपादन करती हैं। स्त्री विमर्श से जुड़े मद्दे पर लिखा हुआ यह सुचिंतित लेख यदि आपको कुछ कहने के लिए उकसाता है तो उनका यह प्रयास सार्थक कहा जाएगा। इस संदर्भ में यदि कोई बहस शुरू होती है तो हम उसका भी स्वागत करेंगे। बहरहाल आज प्रस्तुत है डॉ. शोभा जैन का यह आलेख।
मौन जड़ता में कल्याणमयी बनी रहे स्त्री !
डॉ. शोभा जैन
इधर स्त्री प्रश्नों को लेकर क्रांतिधर्मी तेवर पत्र -पत्रिकाओं में तो बहुत उतरते हैं किन्तु अंतर्विरोधों के जाले काटने की कोशिशें आज भी जरुरी लगती है।स्त्री की आत्मनिर्भरता को भी मूलत: आर्थिक आत्मनिर्भरता से जोड़ दिया गया। इस सोच ने न सिर्फ औरत के कामों का अवमूल्यन किया, बल्कि उसके अस्तित्व को ही दोयम बना दिया। अबोध बालकों, वृद्ध और कुछ खास व्याधियों तथा आलस्य से ग्रस्त लोगों के अलावा सामान्यतया सभी लोग, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, आत्मनिर्भर हैं।दिन के सोलह घंटे घरेलु काम करनेवाली महिलाएं सामाजिक रूप से आश्रित मानी जाती है या उनके उस काम की कोई गिनती नहीं होती। दुर्भाग्य से महिला दिवस भी कामकाजी या किसी विशेष क्षेत्र में विशेष योगदान देने वाली ज्यादातर महिलाओं की तरह लिया जाता है ।
भारत में ओपनिवेशिक मानसिकता को ढोने वाले गुलाम ढंग के बुद्धिजीवी स्त्री विमर्श को कभी भारतीय संदर्भों में व्यक्त ही नहीं करते। उनका स्त्री विमर्श देह से शुरू होकर अनैतिक संबंधों पर आकर सिमट गया। फिर साहित्य में भी कथा साहित्य और कविताएं इसी के इर्द गिर्द दिखाई देती रहीं। स्त्री ने भी विमर्शों के अतिरेक में स्वयं को पूर्ण शोषित स्वीकार कर लिया जबकि विगत के दशकों में स्त्री विमर्शों के विषय बदले हैं। पहले भी साहित्य में बिहारी का नख-शिख वर्णन हो, चाहे वात्सायन का नायिका भेद। पूरा का पूरा रीतिकाल भरा पड़ा है नायिकाओं के दैहिक वर्णन में । स्त्री विमर्श पर बात करते हुए कई बार हमारे योग्य विद्वान भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्री संघर्ष की उपेक्षा कर जाते हैं|पर बहुत खोजा पुरुषों का नख-शिख वर्णन कहीं नहीं मिला। नारी के नख-शिख वर्णन की परंपरा में निष्णात कवि पुरुष के प्रति इतने उदासीन क्यों रहे ? ये अलग बात है पिछले दिनों पुरुष दिवस की ध्वनियां गूंजती रही। यह इस दौर का एक सकारात्मक बदलाव है कि अब पुरुष भी स्त्री विमर्श की तरह वषों से अपने शोषित लिंग भेद , आर्थिक असमानता , शोषण , और उपेक्षा के लिए विमर्श के केंद्र में आने की जद्दोजहद करता है। वह कहता है –मैं मजदूर भी हूँ, किसान भी हूँ, दुकानदार भी और क्लर्क भी। मेरा एक पूरा कुनबा है,पुरुष होने की वजह से मुझे कुछ अलिखित स्वतंत्र अधिकार अतिरिक्त प्राप्त हैं समाज की कुछ ऐसी ही धारणा बनी हुई है |
कहने का अर्थ स्त्री विमर्श पर इकतरफा बात नहीं होनी चाहिए। आपको स्त्री स्वतंत्रता विमर्श की आड़ में स्वछंदता चाहिए जिसने केवल बर्बादी ही दी है। आपको आधुनिकता की आड़ में केवल पाश्चात्त्य संस्कृति का अनुगमन चाहिए जिसने एक नया विमर्श खड़ा कर दिया आधुनिकता बनाम परम्परा का। संविधान में समानता का अधिकार है फिर ये द्वन्द पैदा करने वाले विमर्श के विषय क्यों ?भारत में रहते हैं भारतीय ज्ञान परम्परा ,भारत बोध , उसका इतिहास ,भारतीय शास्त्र और संस्कारों को आज के परिप्रेक्ष्य देखने समझने और आत्मसात करने की बात होनी चाहिए। आपको सुविधाएं और अधिकार भारतीय चाहिए सोच किसी और की तो आपके भारतीय होने पर संशय पैदा होता है।
अगर मोटे तौर पर देखें तो अब विमर्श की बाढ़ आ गई स्त्री बनाम पुरुष , शस्त्र बनाम शास्त्र , पश्चिम बनाम पूरब, यूरोप बनाम भारत, अंग्रेज़ी बनाम हिंदी, राजनीति बनाम संस्कृति, वर्ग बनाम अस्मिता को अगर विमर्श कहते हैं तो इनके निष्कर्ष क्या निकलकर आये अब तक भारतीय संदर्भों में ?कभी इस विषय पर विचार किया है, आखिर इन विमर्शों से हम खिन्न हो गये हैं या भिन्न हो गये हैं ?
***
परिचय
समीक्षक ,संपादक अग्निधर्मा (साप्ताहिक) इंदौर
संपर्क :- 9424509155

डॉ. शोभा जैन इंदौर में रहती हैं एवं अग्निधर्मा पत्रिका का संपादन करती हैं। स्त्री विमर्श से जुड़े मद्दे पर लिखा हुआ यह सुचिंतित लेख यदि आपको कुछ कहने के लिए उकसाता है तो उनका यह प्रयास सार्थक कहा जाएगा। इस संदर्भ में यदि कोई बहस शुरू होती है तो हम उसका भी स्वागत करेंगे। बहरहाल आज प्रस्तुत है डॉ. शोभा जैन का यह आलेख।
मौन जड़ता में कल्याणमयी बनी रहे स्त्री !
डॉ. शोभा जैन
इधर स्त्री प्रश्नों को लेकर क्रांतिधर्मी तेवर पत्र -पत्रिकाओं में तो बहुत उतरते हैं किन्तु अंतर्विरोधों के जाले काटने की कोशिशें आज भी जरुरी लगती है।स्त्री की आत्मनिर्भरता को भी मूलत: आर्थिक आत्मनिर्भरता से जोड़ दिया गया। इस सोच ने न सिर्फ औरत के कामों का अवमूल्यन किया, बल्कि उसके अस्तित्व को ही दोयम बना दिया। अबोध बालकों, वृद्ध और कुछ खास व्याधियों तथा आलस्य से ग्रस्त लोगों के अलावा सामान्यतया सभी लोग, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, आत्मनिर्भर हैं।दिन के सोलह घंटे घरेलु काम करनेवाली महिलाएं सामाजिक रूप से आश्रित मानी जाती है या उनके उस काम की कोई गिनती नहीं होती। दुर्भाग्य से महिला दिवस भी कामकाजी या किसी विशेष क्षेत्र में विशेष योगदान देने वाली ज्यादातर महिलाओं की तरह लिया जाता है ।
भारत में ओपनिवेशिक मानसिकता को ढोने वाले गुलाम ढंग के बुद्धिजीवी स्त्री विमर्श को कभी भारतीय संदर्भों में व्यक्त ही नहीं करते। उनका स्त्री विमर्श देह से शुरू होकर अनैतिक संबंधों पर आकर सिमट गया। फिर साहित्य में भी कथा साहित्य और कविताएं इसी के इर्द गिर्द दिखाई देती रहीं। स्त्री ने भी विमर्शों के अतिरेक में स्वयं को पूर्ण शोषित स्वीकार कर लिया जबकि विगत के दशकों में स्त्री विमर्शों के विषय बदले हैं। पहले भी साहित्य में बिहारी का नख-शिख वर्णन हो, चाहे वात्सायन का नायिका भेद। पूरा का पूरा रीतिकाल भरा पड़ा है नायिकाओं के दैहिक वर्णन में । स्त्री विमर्श पर बात करते हुए कई बार हमारे योग्य विद्वान भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्री संघर्ष की उपेक्षा कर जाते हैं|पर बहुत खोजा पुरुषों का नख-शिख वर्णन कहीं नहीं मिला। नारी के नख-शिख वर्णन की परंपरा में निष्णात कवि पुरुष के प्रति इतने उदासीन क्यों रहे ? ये अलग बात है पिछले दिनों पुरुष दिवस की ध्वनियां गूंजती रही। यह इस दौर का एक सकारात्मक बदलाव है कि अब पुरुष भी स्त्री विमर्श की तरह वषों से अपने शोषित लिंग भेद , आर्थिक असमानता , शोषण , और उपेक्षा के लिए विमर्श के केंद्र में आने की जद्दोजहद करता है। वह कहता है –मैं मजदूर भी हूँ, किसान भी हूँ, दुकानदार भी और क्लर्क भी। मेरा एक पूरा कुनबा है,पुरुष होने की वजह से मुझे कुछ अलिखित स्वतंत्र अधिकार अतिरिक्त प्राप्त हैं समाज की कुछ ऐसी ही धारणा बनी हुई है |
कहने का अर्थ स्त्री विमर्श पर इकतरफा बात नहीं होनी चाहिए। आपको स्त्री स्वतंत्रता विमर्श की आड़ में स्वछंदता चाहिए जिसने केवल बर्बादी ही दी है। आपको आधुनिकता की आड़ में केवल पाश्चात्त्य संस्कृति का अनुगमन चाहिए जिसने एक नया विमर्श खड़ा कर दिया आधुनिकता बनाम परम्परा का। संविधान में समानता का अधिकार है फिर ये द्वन्द पैदा करने वाले विमर्श के विषय क्यों ?भारत में रहते हैं भारतीय ज्ञान परम्परा ,भारत बोध , उसका इतिहास ,भारतीय शास्त्र और संस्कारों को आज के परिप्रेक्ष्य देखने समझने और आत्मसात करने की बात होनी चाहिए। आपको सुविधाएं और अधिकार भारतीय चाहिए सोच किसी और की तो आपके भारतीय होने पर संशय पैदा होता है।
अगर मोटे तौर पर देखें तो अब विमर्श की बाढ़ आ गई स्त्री बनाम पुरुष , शस्त्र बनाम शास्त्र , पश्चिम बनाम पूरब, यूरोप बनाम भारत, अंग्रेज़ी बनाम हिंदी, राजनीति बनाम संस्कृति, वर्ग बनाम अस्मिता को अगर विमर्श कहते हैं तो इनके निष्कर्ष क्या निकलकर आये अब तक भारतीय संदर्भों में ?कभी इस विषय पर विचार किया है, आखिर इन विमर्शों से हम खिन्न हो गये हैं या भिन्न हो गये हैं ?
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परिचय
समीक्षक ,संपादक अग्निधर्मा (साप्ताहिक) इंदौर
संपर्क :- 9424509155